Friday, August 3, 2012

तितलियों की बग़ावत : पावेल फ्रीडमैन - अनुवाद एवं प्रस्‍तुति : यादवेन्‍द्र


आमतौर पर रोजमर्रा के व्यवहार में तितलियों  को आसानी से पहुँच बना सकने वाली मनमौजी स्त्रियों के तौर पर लिया जाता है इसीलिए भारत और दुनिया की अनेक फ़िल्में तितलियों के अगंभीर और चुलबुले व्यक्तित्व को लेकर बनायी गयी हैं पर इसी सन्दर्भ में अपने समय की श्रेष्ठ फिल्म सम्पदा में थोड़ी पैठ रखने वाले इस टिप्पणीकार को पिछले सालों में देखी दो फ़िल्में अभी याद आ रही हैं...प्रख्यात लैटिन अमेरिकी लेखिका और कवियित्री जूलिया अल्वारेज की बेहद चर्चित पुस्तक "इन द टाइम ऑफ द बटरफ्लाईज" पर आधारित इसी नाम की फिल्म जिसमें डोमिनिकन रिपब्लिक के खूँखार तानाशाह राफेल त्रुजिलो  के सरकारी अत्याचार और आतंक का विरोध करने वाली  मिराबाल बहनों की सच्ची दास्तान बयान की गयी है.सरकार विरोधी क्रान्तिकारी इनको प्यार से "तितलियाँ"  कहा करते थे...खास तौर पर फिल्म में सलमा हायेक की निभाई मिनर्वा मिराबाल की भूमिका दिमाग पर अमिट छाप छोडती है,सिर्फ इसलिए नहीं कि वे बला की  खूबसूरत  नायिका हैं बल्कि इसलिए कि जो किरदार वे निभाती हैं  वह दुनिया भर में आज़ादी के लिए लड़ रहे युवाओं के लिए साहस और बलिदान का  दुर्दमनीय प्रतीक बन जाता  है.   

ऐसी ही दूसरी फिल्म ब्लैक बटरफ्लाईज है जो पिछले साल ही बनायी गयी है.यह भी दक्षिण अफ्रीका की गोरी नस्ल की प्रख्यात कवियित्री इनग्रिड जोनकर के वास्तविक जीवन पर आधारित है और रंगभेदी सरकार में सेंसर महकमे के तत्कालीन मंत्री की साहसी ,बहादुर और धुन की पक्की ऐसी बेटी  की दास्तान दिखाती है जो अपने भाषणों और कविताओं में खुले तौर पर रंगभेदी नीतियों की धज्जियाँ उड़ाती  फिरती है.बार बार योजना बनाने के बावजूद देश भर में बवाल हो जाने की आशंका से पिता बेटी की रचनाओं पर पाबन्दी लगाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते.इस कवियित्री की लोकप्रियता का आलम ये था कि सत्ता संभालते समय नेल्सन मंडेला ने जो भाषण दिया उसमें इनकी एक बेहद प्रसिद्ध कविता भी उद्धृत की.इन दोनों फिल्मों का हवाला यहाँ देने का मकसद यह है कि हमें पिद्दी सी सुकुमार तितलियों को शक्तिहीन समझने की भूल नहीं करनी चाहिए...चुनौती सामने खड़ी हो तो ये ही नन्हीं दिखने वाली तितलियाँ तानाशाही को भी पटखनी देने में सक्षम हैं.

प्रतिकूल स्थितियों को सिरे से नकारने का दम रखने वाली तितलियों का प्रतिरोध आज दुनिया भर में विरल होते जा रहे वनों और उनके स्थान पर खाज  की तरह उग आने वाली गन्दी संदी बस्तियों को त्याग देने के रूप में सामने आ रहा है...भारत सहित दुनिया भर में तितलियों के इस अनोखे प्रतिरोध को देखा समझा जा रहा है और विनाश के वर्तमान कुचक्र को उलटी दिशा में मोड़ने के स्वप्न भी देखे जा रहे हैं.इसी मंजर को बयान करने वाली एक  छोटी सी कविता यहाँ प्रस्तुत है:      
***  
पावेल फ्रीडमेन(1921-1944
तितली
    
अंतिम...हाँ एकदम अंतिम...
इतने भरेपूरे, सुर्ख और चमकदार पीतवर्णी
लगता है जैसे सूरज के आँसू गा रहे हों
किसी झक सफ़ेद चट्टान पर बैठ कर गीत....
ऐसे चकित करने वाले पीतवर्णी
उठते हैं ऊपर हवा में हौले हौले...
ये ऊपर ही ऊपर उठते गये
और समा गये आसमान में
मुझे पक्का यकीन है
उन्होंने हमें कह दिया अलविदा...
सात हफ्ते से यहाँ रह रहा हूँ मैं
लिख रहा हूँ इस गन्दी संदी बस्ती की दास्तान
मुझे यहाँ मिलीं...पसंद आयीं
रंगबिरंगे फूल और फल लगी हुई झाड़ियाँ
वे मुझसे खूब बतियाती हैं
सफ़ेद फूलों वाली डालियाँ मुझे सहलाती हैं
पर नहीं मिलीं यहाँ तो तितलियाँ
एक मिली फिर उसके बाद नहीं मिली
दूसरी अदद तितली...
जो मिली थी वो अंतिम तितली थी...
तितलियाँ नहीं रहतीं अब वहाँ
ऐसी गन्दी संदी बस्तियों में.
*** 
1921 में चेक गणराज्य में जन्मे पावेल फ्रीडमैन की यह विश्वप्रसिद्ध कविता हिटलर के अत्याचार के दौरान मारे गये हजारों बच्चों की स्मृति में स्थापित एक यहूदी संग्रहालय में संरक्षित रखी गयी है. 23 वर्ष की उम्र में एक नाज़ी कैम्प में उनकी मृत्यु हो गयी.  

3 comments:

  1. achhi kavita.. lekin kuch aur kavitayen honi chahiye thi..

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  2. मुद्दत कुछ बढ़िया पढ़ा.

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