Sunday, November 20, 2022

रोने से शरीर का अशुद्ध जल बाहर निकल जाता है - अनुष्‍का पाण्‍डेय की कविताएं

अनुष्का पाण्डेय की कविताएँ सीधे-सरल संसार के उतने ही सरल प्रश्‍नों से निकलती-उलझती कविताएं लगती हैं, किन्‍तु यह भी याद दिलाती चलती हैं कि हर सरलता का एक जटिल सिरा होता है। कवि के जीवनानुभवों का संसार अभी बहुत नया और बनता हुआ संसार है। इस संसार से आ रही इन आहटों का अनुनाद पर स्‍वागत और अनुष्‍का को उनकी कविता-यात्रा के लिए शुभकामनाऍं।

 -      शिरीष मौर्य

विष्‍णु चिंचालकर

 

   भेड़िए        

 

तंग, सुनसान हो या भीड़-भाड़ वाली गली हो

मैं हर गली में चलने से डरती हूँ

क्योंकि मैं जानती हूं कि कोई ना कोई

 

भेड़िया मुझे अपने शिकारी नज़रों से देख रहा है

'नज़र झुका कर चलती जाती हूँ

इन गलियों से मुझे मालूम है कि अगर मैने नज़रें मिलाई

भेड़िए मुझे दबोच खायेंगें

 

मैं चलती जाती हूँ,

इन गलियों में

और निरन्तर चलती रहूंगी,

भेड़ियों से बिना नज़रें मिलाए

और पहुँच जाऊंगी

एक न एक दिन

अपने मंज़िल के रास्ते पर…..

 

   मैं जी भर रोती हूं      

 

मैं जी भर रोती  हूँ

सुना है रोने से शरीर का

अशुद्ध जल बाहर निकल जाता है

 

मैं जी भर रोती हूँ

रोने को एक जीवन प्रक्रिया समझकर

 

मैं जी भर रोती हूँ

रोने के बाद सोचती हूँ

रोना भले ही अच्छा हो कभी - कभी

परन्तु ये मेरे आंखों को तो दुख देता है

 

मैं जी भर रोती हूँ

फिर रोने के बाद,

सोचती हूँ

रोना भले ही अच्छा हो

ये मेरे मन को दुख ही तो देता है

 

पता नही कब तक

मैं रोती रहूंगी

पता नहीं…

 

शायद एक दिन ऐसा आए

जब मेरे आंसू बाहर तो निकलें

मगर वो खुशी के आँसू हों

और सुख दें मन को…

 

ये आँसू भी कैसे हैं

सुख और दुख में

समान ही बहते हैं आँखों से

हम ही असामान्य हो जाते हैं

दुख और सुख में…..

 

   प्रेम में हूं       

 

प्रेम में हूँ

सोचती हूँ

जानना चाहती हूँ

उनके दिल की बात

 

एक ना एक दिन

कभी ना कभी

जान ही लूंगी उनके दिल की बात

काश! उनको भी उतना ही प्रेम हो हमसे

जितना हमको है उनसे

 

   डर     

 

ना जाने क्यो अब डर लगता है लोगों से,

डर लगता है लोगो से कुछ बोलने में

 

माँ मुझे समझती है

या नहीं

पता नहीं…

 

वो मेरे आँसू देख भी पायें या नहीं

वो मेरे प्रेम की कदर कर पाये या नहीं

डर लगता है लोगों से कुछ बोलने में

इतना डर है कि अब शायद ही मैं

किसी से कुछ बोल सकूँ

ना जाने क्यों अब डर लगता है लोगो से …

****

अनुष्का पाण्‍डेय

छात्रा

काशी हिंदू विश्वविद्यालय

वाराणसी

2 comments:

  1. पढ़कर कुछ छंट जाता है, थोड़ा बोझ उतर जाता है
    अच्छी कविताएं, अनुष्का जी को बधाई

    ReplyDelete
  2. वाह, उम्दा सृजन

    ReplyDelete

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