अनुनाद

अनुनाद

वीरेन्‍द्र दुबे की कविताऍं

वीरेन्‍द्र दुबे देश के जाने माने बालशिक्षा विशेषज्ञों में हैं। इस क्षेत्र में उनकी उम्र गुज़री है। मध्‍य प्रदेश से उत्‍तराखंड तक विस्‍तृत उनके कार्यक्षेत्र में लोग उन्‍हें प्‍यार और सम्‍मान से याद करते हैं। उनकी कविताऍं जैसे उतनी ही सहज भावभूमि पर ठहर जाती हैं, जितना सहज एक बालमन होता है। बेहद सरल भाषा और बिम्‍बों की इस बतकही का अनुनाद पर स्‍वागत है।

                                                                                                                                                               

                                                                                                                                                                       – अनुनाद

 

    एक    

 

रजाई में दुबके वार वार

मुंह निकालकर सोचते ,

कबसे ना नींद थी ना सपने 

ना कोई लोरी 

अब सपनों से 

खचाखच भरी नींद में 

तुम मौजूद हो ,

जब आंख खोलो 

तो सामने तुम होती हो 

और 

खिड़की खोलो तो हिमालय ।।

 

    दो    

 

बात बात में 

उचट जाने वाला चित्त ना जाने तुमसे इतना हिल गया है 

क्या पता 

उसे ऐसा क्या मिल गया है  ?

हंसती हो हंसकर रह जाती हो

तुम्हारे हंसने बोलने में जादू भरा है  ।।

 

    तीन    

 

तुम्हारी आंखें

बारीक घास से बुने घौंसले हैं

जिनमें चिड़यें तो चिड़ियें ,

आसमान तक सिर छिपाने की फिराक में रहता है ,

बतखोरू आंखों के आगे 

किसकी कब कहां चली

आंखें ही बोल बतिया रही हैं ,

शब्द चुपचाप हाथ बांधे खड़े हैं ।।

 

    चार    

 

मेरे लिए तुम्हारा साथ

खाली स्थानों का भराव नहीं है

इसमें जलशाली नदियें 

हिचकोले लेती हैं ,

तुममें सुनहरी रेशों वाली 

धूप छांव में पली बढ़ी

कल्पवृक्ष की गहरी जड़ें हैं ,

काली गर्भवती हरिणी

उसके तने से पीठ खुजला रही है ,

माहुरी लगे नाखूनों से 

धरती खुरच रही है ।।

 

    पांच    

 

चटख हरे रहे तिनके

उन दिनों के लिए

घौंसले बुन रहे हैं ,

जब चिलचिलाते घाम तपेंगे

जब झमाझम बरसात होगी 

बर्फ पड़ रही होगी ,

अबकी कोई नई डिजाइन डालेंगे ,

शहतूत की पत्तियां चलते कीड़े

अपनी कोख में मन ही मन

तुम्हारे दुपट्टे का रेशम पोस रहे हैं ।।

 

    छह    

 

अभी तो

जहां तक हाथ पहुंचे

वहां के बादलों की बात करलें ,

फिर कल चलेंगे

चुनौती देती चोटियों की तरफ ,

आसमान जितनी लंबी चौड़ी

रातों की गहरी नींद में 

बुदबुद करती उबासियां जहां

ठिठुरती आग से खेलती हैं ,

पहाड़ पर बर्फ‌‌‌ पड़ती है

और मैदान को कपकपी लगती है ।।

 

    सात    

 

घोड़े हिनहिना रहे हैं

हाथी चिंघाड़ रहे हैं

शेर दहाड़ रहे हैं

ऊंट बलबला रहे हैं

कुत्ते भौंक रहे हैं

मेंढ़क टर्रा रहे हैं

कोयल कूक रही है

तुम नाहक मुंह फुलाए बैठी हो ?

 

    आठ    

 

सुबह सुबह

मंडवा कुट्टू कौणी झिंगोरा

सबके स्वाद सबकी महक

एकाएक समा गयी नथुनों में

तब दिन भर पड़े ही नहीं

धरती पर पांव 

बादलों में ही रहा मन ,

फ्योंली बुरांश हिलांश

भागीरथी टिहरी 

इसके उसके नाम चेहरे

गूंजते झूलते रहे सस्वर

उत्सव हो गया तुम्हारा स्मरण ।।

 

    नौ    

 

तुम्हारे साथ जाना

तुम का ताप आप से

कितना कितना अधिक है ,

तुम भी कितना

आदरणीय शब्द है शब्दकोश में ,

छू सकते हैं , लिपट सकते हैं

चूम सकते हैं ,

तुम्हारे दिए कितने अधिकार हैं

दुःख में सुख में सहने सराहने के

कहने कराहने के निभने निभाने के ,

कामयाब नुस्खों से देखते देखते

फूलों की घाटी बना डाला

ऊसर सन्नाटों को ,

यह सब तुम्हारे लोकतंत्र में ही संभव था ।।

 

    दस    

 

तुम तो सब मंजरियों की सिरमौर हो ,

अब तुम छोटी मोटी किस्सा कहानी थोड़े ही रह गयी हो

इतनी बात तो

हर पेड़ जानता है ,

वैसे भी आजकल

जिस पेड़ की बगल से गुजरो

वही एक दरख्वास्त थमा देता है ।।

 

0 thoughts on “वीरेन्‍द्र दुबे की कविताऍं”

  1. भाई वीरेन्द्र दुबे अद्भुत शिल्पी हैं आप 🙏 कविताएँ बहुत अच्छी हैं।🌷

  2. मदन भार्गव

    वीरेन्द्र जी की कविताऍं प्रेम रस में पगी हुई हैं। इनमें मानव की ऋतुऍं और मौसम की ऋतुओं का अद्भुत सम्मिश्रण है। एक ऋतु अंदर से उपजती है जिसे बाहर की ऋतु से प्रेरणा और सामंजस्य प्राप्त होता है। देशज शब्दों के प्रयोग ने इसे सबकी अपनी अनुभूति बना दिया है। अद्भुत! बधाई और बारंबार साधुवाद!! यह रचनाऍं आगे आने वाली रचनात्मक पीढ़ी की अनमोल धरोहर रहेंगी!!!

  3. कविताएं तो अच्छी हैं, पर कहीं कहीं भाषा की मानकता खंडित होती है; जैसे नदी और चिड़िया का बहुवचन रूप 'चिड़ियें' 'नदियें' न होकर चिड़ियाँ, नदियाँ होना चाहिए।

  4. अनुनाद में छपना मेरी बहुप्रतीक्षित आकांक्षा का फलीभूत होने जैसा है ।

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