- अनुनाद
यह और बात है
हल्के दिखने वाले कुछ अपराध बोध
इतने भारी हो जाते हैं
कि उम्र भर नही हिलते
जैसे एक बिल्ली थी काली
जो लचक कर पार कर रही थी सड़क
अपनी धीमी कराह के साथ
मै उसे देख कर मुड़ा
और दूसरे रास्ते से गुज़र गया
पता नही वह दूसरे किनारे
किसी कोने मे छुपाये
अपने दुधमुहों तक पंहुची भी या नही
कैसी है हमारी मति
एक भ्रान्ति पा जाती है तरजीह
एक जायज़ कराह के बनिस्पत
इस घटना की स्मृति से उपजी
अपनी बेचैनी से निजात पाने के लिए
मैं कोसता हूँ उस व्यक्ति को
जिसने करार दिया था
बिल्ली के रास्ता काटने को अपशकुन
यह और बात है
कि मै आज भी बदल लेता हूँ अपना रास्ता
बिल्ली को देखकर ....।
***
सूक्तियां पूर्ण सत्य नही होती
सूक्तियां पूर्ण सत्य नही होती
वे रहती हैं
देश- काल- समाज-परिस्थिति जैसी
किसी न किसी शर्त की आड़ मे
आड़ को पूरी तरह से नही हटाया जा सकता
ईश्वर को प्राप्त है हर चीज़ की आड़
यदि तुम उसे इस लोक से विस्थापित भी मान लो
तो कोई कह देगा
वह है आकाश के उस पार
तुम आकाश को कैसे हटाओगे
सत्य के सबसे करीब होती है वह बात
जिसे खुद के समर्थन के लिए
सबसे कम आड़ की ज़रूरत हो
भूख सबसे करीब है सत्य के
खुद को स्थापित करने के लिए
उसे सिर्फ इतना कहना है
"यदि जीवन है तो मैं भी हूंगी।"
***
ऐसा क्या है उसमें
ऐसा क्या है उसमें जो उसे औरों से अलग करता है ?
उसके दो कान हैं
जो किसी गमछे या टोपी से ढके नही रहते
वह कभी बालों को इतना बड़ा नही होने देता
कि उसके कान दिखना बंद हो जाएं
उसको कभी किसी ने हेड फोन लगाये हुए नही देखा
वो मोबाइल पर स्पीकर ऑन करके करता है बात
उसका एक मुख है
जो बहुत कम खुलता है
चेहरा बात-बेबात हिलता ही रहता है
कुछ भी कहे जाने के तुरन्त बाद,
हिलने की कोई स्पष्ट दिशा नही है
कुछ- कुछ ऊपर-नीचे और कुछ दांए-बांए भी
उससे कुछ कह रहा आदमी
उसके हिलते सिर को देखकर यकीन से नही कह सकता
कि वह हामी मे हिला या नकार मे
यदि मै उससे चाय मांगता तो चाय मांगने के बाद
उसका हिलता हुआ सिर देखकर समझ नही पाता
कि उसने सुना या नही
चाय हाथ मे आने के बाद समझता
कि उसका सिर हां मे हिला था
लोग आते चाय मांगते
और चाय से थोड़ा पहले और थोड़ा बाद तक
अपनी बात कहते रहते
बातों को हिलता हुआ एक सिर देखकर
बढ़ते जाने का मन होता और वो बढ़ती जातीं
इधर चाय खौलती और कपों मे गिरकर बिकती जाती
जो अपना समर्थन चाहते थे
उन्हे उसका मुह हां मे हिलता दिखता
जो इस आदत से परेशान थे कि कुछ कह लेने के बाद पूछते
"तुम्ही कहो ग़लत कह रहा हूँ क्या?"
उन्हे उसका सिर न मे हिलता दिखता
उसके पास कोई खुफिया बूटी नही थी
जिससे चाय मे आ जाता था नशा
उसके पास उसकी काबिलियत के नाम पर
सिर्फ उसका सुनना था
मोहल्ले भर के सन्तोषी-असन्तोषी संपन्न और लाचार लोग
उसके बारे मे इतना भर कहते थे
हमारी बात सुन लेता है
ये क्या कम है .......।
***
ऐसे ही लिखा है अन्त
ऐसे ही लिखा है अन्त
घिरते अन्धकार मे
किसी चातक की नुकीली चोंच से
अन्तिम शब्द न उचार पाने की खीझ के बीच
उनका आभार न प्रकट कर पाने के रोष के साथ
जो मृत्यु के बाद प्रकट करेंगे शोक
रखेंगे मौन
जबकि मैं यह बोलने के लिए फड़फड़ा रहा हूंगा
कि मैं उनसे सहानुभूति रखता हूँ
चाय की प्यालियां जो बांटी जा रही होंगी
शोक सभा मे आगन्तुकों के बीच
उठाने के प्रयास मे मेरे हाथ से फिसल जाएंगी
और मैं चाय की तलब मे भटक रहा हूंगा
रेल जहाँ रुक जाती है अन्ततः
पटरी के बीचों बीच बड़े से क्रॉस को देखकर
मैं उतरकर उस क्रॉस के पार चला जाउंगा
दैवीय हो जाऊंगा
लेकिन मेरे दुख
चाय की तलब लगने पर चाय न मिलने
पसन्द की पुस्तक न पढ़ पाने
और तुमसे मन की बात न कह पाने जितने आम होंगे
मुझे दैवीय नही होना
मृत्यु के बाद भी मैं याद किया जाना चाहूंगा ऐसे ही
कि एक आदमी था जो कलम रखता था जेब मे
कुर्ते पहनता था देखा-देखी
कतराता था बोलने से
अपने लिखे को कविता जैसा समझता था कुछ
पर बेचारा कवि नही हो सका ताउम्र.....।
***
वह स्वप्न के साकार होने का बिन्दु है
तुम्हें यदि जरा भी भ्रम है
कि आस-पास है वह
तो पुकारो उसे
लगातार
तुम्हारी हज़ार पुकारों मे से
किसी एक पुकार के हजारवें अंश की गूंज
उस तक पंहुचेगी
उसके लिए उस गूंज के हजार अर्थ होंगे
एक-एक कर सारे अर्थों को खारिज करते हुए
वह उस अर्थ पर पंहुचेगा
जिसमे उस गूंज के पीछे तुम्हारे होने का भ्रम हो
यह दुनिया भ्रमों का अम्बार है
सबसे सुन्दर है वह जगह
जहां दो लोगों के बिल्कुल अपरिचित भ्रमों के चेहरे
एक दूसरे से मिलने लगते हैं
वह स्वप्न के साकार होने का बिन्दु है
हम सब जीवन के इस विराट वृत्त में
उसी एक छोटे से बिन्दु को ढूंढ रहे हैं।
***
कहो खजांची
कहो खजांची खातों मे हुआ कितने का लेन देन
कितने आये नोट कितने गये
सब ठीक ठाक तो रहा,
दूसरों के नोटो के बीच तुम पी सके
तीन बजे की अपनी चाय ?
कितने नही चुका सके लोन की किश्त,
जिनकी पेंशन नही पंहुची
उनके घर हो सका क्या रोटी का बन्दोबस्त
खैर जाने दो, यह कहो
तीन बजे की चाय मे ठीक थी न शक्कर
कितनों ने निकाला बचायी हुई रकम से हिस्सा
कितने सेठों ने जमा करवाई रोज़ से ज्यादा गड्डियां
क्या कहना है तुम्हारा
ठीक से तो चल रही है देश की अर्थव्यवस्था
कैसे लगते हैं तुम्हे क़तार मे खड़े हुए लोग
क़तार जब बिखरती है और तुम शीशे के पीछे से चिल्लाते हो “लाइन मे रहो”
तो कैसा लगता है
लाइन के न भी बिखरने पर थोड़ा चिल्ला लेने मे कुछ ग़लत नही है खजांची
जीने के लिए थोड़ा गर्व चुराने मे कैसा हर्ज
तुम्हारे हाथ की उंगलियों ने आज तक गिने हैं कितने नोट
तुम कुछ अन्दाज़ बता सकते हो
यह जो तुम्हारी उंगलियों की पोरों से मिट गये हैं वलय के चिह्न
कितने नोटों पर छपे होंगे कह सकते हो
कितनी तिजोरियों मे होंगे तुम्हारे अंगूठे के निशान
सबका तबादला हुआ तुम जमे रहे
तुम जिस कुर्सी पर बैठते हो उसकी गद्दी दब गयी है
तुम्हारे पृष्ठ भाग के आकार मे
तुम्हारे अगल बगल के लोग बदलते रहे
कुछ तबादले , कुछ तरक्की के लिए
तुम्हारे सामने भी तो आये होंगे कितने धन्नासेठ, सुनार और जमींदार
तुमने कैसे बचाया अपना सन्तोष, अपना ईमान
तुम्हे देख कभी पूछा किसी ने
रकम से इतर कोई दूसरा सवाल
इतने जमा, इतने की निकासी
क्या कभी लिया मैनेजर ने घर का हाल
कभी देखा तुमने जब तुम गिन रहे थे उनके नोट
तो पंजों पर उचके लोगों ने अपनी आंख भी नही झपकी
विश्वास और अविश्वास की दहलीज था तुम्हारे काउन्टर का शीशा
अच्छा यह कहो
ज़मीन के बड़े बड़े सौदों के बीच तुम्हे कितनी बार दिखा
अपने मकान का झड़ता हुआ पलस्तर
खैर जाने दो
यह जो तुम्हारे काउन्टर की जगह पर लग गयी है मशीन
इससे कितनी ईर्ष्या करते हो तुम
कहो खजांची
दिन बीत गया , क्या पाया
क्या छूट गया क्या हाथ आया
***
घास की दो पत्तियां
उस समय जब
वैमनस्य से टूट की कगार पर पंहुच जायेगी दुनिया
बंजर भूमि पर कुछ नही बचेगा
बचे हुए अन्तिम कुछ लोग
बांट रहे होंगे बची हुई चीज़ें
जब दुनिया के आखिरी सौदों की आखिरी बोली लग रही होगी
जब अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र अपनी बड़ी बड़ी परिभाषाओं को ढहा रहे होंगे
यह स्वीकारते हुए कि दुनिया को सबसे ज्यादा हानि
भीमकाय परिभाषाओं ने पंहुचाई
ठीक उस समय धूसर ज़मीन पर उगेंगी
घास की पहली दो पत्तियां
जो पत्थर हो चुके मनुष्य मे
रोपेंगी मनुष्यता .........।
***
भाषा
1.
भाषा को नही पता थी अपनी ताक़त
लोग जानते थे उसे बरतना
भाषा नही जानती थी
कि उसके नाम पर है कोई दिवस
उसी की बदौलत हैं अनेक पुरस्कार
भाषा बस इतना जानकर सन्तोष मे थी
कि एक मरीज़ डाक्टर से कह पा रहा है
अपना दर्द
2.
भाषा नही जानती थी
कि उसके भीतर एक दूसरी भाषा रहती थी
जो कागजों मे नही होती थी दर्ज
जिसमे किसी सच को न्याय की कार्रवाई से बेदखल कर सकने के लिए
अफसरों को था यह कह देने का अधिकार
कि इसे न शामिल किया जाए रिकार्ड मे
3 .
जिसके पास बहुत कुछ था कहने के लिए
भाषा उसी से रूठ गयी थी
जिसको बार-बार बुलाया जाता था
जन को संबोधित करने के लिए
उसके लिए भाषा का कोई महत्व नही था
उसके सहयोगी उसके पुराने भाषणों मे
शब्दों का हेर फेर कर उसे बोलने के लिए दे देते थे
4.
भाषा मे पारंगत एक व्यक्ति जानता है
कि किस बात को देने हैं कान
और किसे कर देना है अनसुना
5.
भाषा को शब्दकोश से नही है मोह
भाषा चाहती है
कि मूक-बधिरों की सांकेतिक भाषा मे
ज्यादा से ज्यादा हों संकेत
और दुनिया को चलाया जाए इस तरह
कि दुनियाभर की सारी बातें समा सकती हों
सिर्फ उतने संकेतों मे
6.
भाषा जानती है
अनसुना रह जाने की टीस
भाषा यह भी जानती है
कि सुने जाने के लिए
एक व्यक्ति को
केवल भाषा का आना काफी नही है।
7.
भाषा की भवें तन जाती
जब कोई किसी से कहता
'चुप रहो'
भाषा खूब खुश होती सुनकर
जब कोई कहता
'मैं अपनी खुशी शब्दों मे बयान नही कर सकता'
8.
भाषा नही चाहती
कि किसी की पीड़ा भाषा की सामर्थ्य से बाहर चली जाये
भाषा अपना मन
इतना कड़ा कभी नही कर सकी
कि सुन सके शब्दों का चीख मे बदलना।
***
घर
दादा चाहते थे
गांव मे हो बड़ा सा घर
सारे कुनबे के लिए एक
बड़े से आंगन मे एक साथ गिरे
सारे बेटे बहुओं की धूप
दादा के लिए धूप का अर्थ
सबको एक साथ बैठे देखना था
दादा पीछे थे समय से
नही समझते थे कि क्यों पक्की हो रही हैं
शहर को जाती हुई सड़कें
पिता ने शहर मे ली ज़मीन
हैसियत के हिसाब से उठवाई कमरों की दीवारें
पिता ने सोचा
वो चल रहे हैं समय के साथ
शहर के भीतर भी बड़ा-छोटा था
ऊंच-नीच थी
पॉश इलाके़ और चलताऊ कालोनियां थीं
मैंने एक प्रतिष्ठित इलाके में
आलीशान बिल्डिंग बनवाई
उसकी बालकनी से दिखता था
आधा नगर, दूर तक समुद्र
और समुद्र से लगे पहाड़
मैने सोचा मै चल पड़ा हूं
समय मे आदमी की औसत चाल से कहीं तेज़
मैने सोचा कि आने वाली
दो तीन पीढियों को भायेगा ये घर
एक दिन मैने अपने बेटे के मुंह से सुना
वो बता रहा था उस नयी ख़बर के बारे मे
जिसमे लिखा था कि भविष्य में बंटेंगी
ज़मीनें चांद पर
बताते हुए वह उतना ही आश्चर्य मे था
जितना सुनते हुए मैं
किन्तु इस सत्य को स्वीकार करने में वह
मुझसे कहीं ज्यादा तैयार था।
***
परिचय
उम्र 38 वर्ष
निवास - कानपुर
मर्चेंट नेवी मे अभियन्ता
कादम्बिनि, बहुमत , प्रेरणा अंशु आदि पत्रिकाओं तथा पोषम पा , मंथन, इन्द्रधनुष, कथान्तर अवान्तर,
हमारा मोर्चा, साहित्यिकी आदि वेब पोर्टल पर कुछ कविताएं प्रकाशित हुई हैं।
योगेश जी की कविताएं बहुत प्रभावशाली लगी।खजांची, घास की दो पत्तियां,भाषा आदि ध्यातव्य मेरे लिए शायद इसलिए ज्यादा अर्थपूर्ण रही की बोधगम्यता उनकी ज्यादा संप्रेषणीय रही।अन्य भी निसंदेह अच्छी होंगी।योगेश ध्यानी जी को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं पहुंचे।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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