Friday, January 28, 2022

आत्मकथा - 30 (वाँग कार-वाई की फ़िल्म इन मूड फॉर लव में भटकते हुए)

आत्मकथा 30

(वाँग कार-वाई की फ़िल्म इन मूड फॉर लव में भटकते हुए) 


समूचे समाज को कहने का जिम्मा दो लोगों ने लिया था 

पर्दे पर एक ख़ामोश हाहाकार था 

जिसे ख़ूबसूरत और बदसूरत कहते थे लोग वह 

जीवन था हमारा 

हमारी ही दहलीज़ पर धरा हुआ 

उसे या तो ठोकर मारते या उलाँघते थे हम लोग 


सब बीच की स्थितियाँ थीं

न ज़्यादा आबाद न ज़्यादा बरबाद 

न ज़्यादा ख़ुश न ज़्यादा उदास 


अकेले बैठ कर खाते हुए निगला गया कौर 

अकेलापन था 

गली में अकेले चलकर जाना किसी ठेले तक 

और फिर कुछ ले आना अकेलेपन को 

खिलाने के वास्ते 


पेड़ों के खोखल में गाढ़ी गीली मिट्टी से 

अपनी गर्भवती मादा को बंद करते हैं पहाड़ी धनेश

बड़ी चोंच 

बड़े डैनों 

और बड़े भार वाले 

औरतों को बंद करता है समाज अपने किसी 

खोखल में 


मैं भी अपनी गर्भवती इच्छाओं को 

पहाड़ के किसी ऐसे ही खोखल में बंद कर आया था

जिसे खोलने कभी लौट नहीं पाया 


बिना यह जाने 

कि मेरा पड़ोस ख़रीद लिया था ठीक उन्हीं इच्छाओं 

और उनकी संतानों ने 

मैं देस-परदेस के मैदानों में भटकता रहा 

हर जगह मेरा मन मेरे तलुवों में चुभता था 


पत्थर की एक इमारत 

और उसमें रखी कुछ पथरीली मूर्तियों के बीच 

भटकते हुए जाना 

कि ज़माने से उड़ चुके किसी धनेश के 

झरे हुए पंख जैसी 

मेरी निर्भार सी कुछ इच्छाएँ हैं अब 

जिन्हें किसी पेड़ के खोखल में धर आना नामुमकिन है 


लगता है अभी अभी 

बहुत पुराने पेड़ के मिट्टी से बंद किए हुए एक खोखल में 

किसी और की 

इच्छा के गर्भ से जन्मा हूँ मैं

और पेड़ की जड़ें कुछ चरमराई हैं 


वहाँ मुझे 

या तो ठोकर मारते या उलाँघते हैं लोग


समाज के खोखल की वासी एक स्त्री का 

ख़ामोश धिक्कार ही 

शायद मुझे मुक्त कर सके 

शायद हमें मुक्त कर सके


और उस पुराने चरमराते पेड़ को भी 

किसी भी 

गर्भवती इच्छा के भार से 

***

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