अनुनाद

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एक बस्ती हम जैसों के लिये – वीरेन्‍द्र गोस्‍वामी की कविताऍं

मैं देखता हूँ कि लोग बहुत अलग-अलग तरह का जीवन जीते हुए कविताऍं लिखते हैं या लिखने की कोशिश करते हैं। ये कोशिशें और ये संघर्ष सहज हों तो सुन्‍दर भी लगते हैं। लिखने की शुरूआत किसी भी उम्र से हो सकती है। तीस, चालीस या पचास की उम्र में भी अचानक एक व्‍यक्ति अपने भीतर कविता को पुकारते हुए सुनता है। वीरेन्‍द्र की कविता ऐसी ही एक पुकार है, जिसकी दिशा स्‍वयं कवि के कथनानुसार दूसरे की आवाज़बनने की कोशिश भी है। वे इस विचार के हामी हैं कि कविता राजनीति और समाज के दुश्‍चक्रों में फंसे उस व्‍यक्ति की आवाज़ बनती है, जिसकी आवाज़ या तो दबा दी गई है या इतनी धीमी है कि सुनाई ही नहीं देती। 
वीरेन्‍द्र गोस्‍वामी की कविताओं के कहीं भी प्रकाशन का यह शायद पहला प्रसंग है, उनका स्‍वागत है।
 
 
                                                                                                कवि ने कहा
कभी कभी कोई विचार मेरा दरवाज़ा खटखटाता है। जैसे ही मैं वो दरवाज़ा खोलता हूँ, एक कविता भीतर आ जाती है। कई बार कुछ शब्द मेरे दरवाजे को ज़ोर से पीटते हैं और न चाह कर भी मैं उठ जाता हूँ। सोच कर कविता लिखना मेरे लिये सम्भव नहीं, आत्मसंवाद ही मेरी कविताएँ हैं। सब ऐसे ही होता है’ के प्रति झुँझलाहट और साथ ही ‘दूसरे की आवाज़’ बनने की कोशिश आपको कई बार मेरे लेखन में दिखेगी।
 
दाज्यू 1
दाज्यू तुम आये थे उस बार
पैदल
चार लोगों के साथ
मेरे घर तक
सड़क से छः मील
गधेरो के किनारे चलते चलते और
इजा से कहा था –
काकी अब नही सड़ेंगें तुम्हारे संतरें माल्टे यहीं पेड़ों पर
अब आने वाली हैं सड़क प्राईमरी स्कूल के सामने तक
हमारी सरकार बनते ही
दाज्यू
शायद याद हो तुम्हें
लछमा को एक टाफी देते हुए तुमने बताया
कि मंदिर के पास
इंटर कॉलेज बनेगा बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिये
और
अस्पताल भीपानीं की टंकियाँ भी
और दाज्यू
सुना है
इस बार भी तुम आये थे उसी सड़क से
जो जाती हैं मेरे घर से छः मील दूर से आज भी
चार लोगों नहीं
चार कारों के साथ
सरकारी बंगले में ठहरने एक शहर में
वहाँ
जहाँ आज भी हैं इलाके़ का अकेला अस्पताल
जहाँ मिलता हैं आज भी अच्छा पानी
हमारे घर से दूर पढ़ने गये
डेरों में रहते होनहारों को
दाज्यू
दो साल बाद तुम फिर से आओगे पैदल
सड़क से छः मील दूर
गधेरो के किनारे चलते चलते मेरे घर
बातें करने
पेड़ों पर सड़ते सन्तरे माल्टों की
दूर से कनस्तर पर पानी लाते घर के बच्चों को देख
पानी की टंकियों और कॉलेज की
और बिना इलाज मर चुकी इजा की याद में अस्पताल बनाने की।
ताकि तुम दोबारा आ सको
मेरे घर के छः मील से गुजरती सड़क से
चार कारों पर
उसी डाक बंगले तक
किसी उद्घाटन में।
***
दाज्यू 2
क्यों लगवाते हो नारे हमसे
देते क्यों नहीं दो वक्त की रोटी और पीने का साफ़ पानी
क्यों देते हो हमारे हाथों में काले झण्डे
क्यों नहीं देते बेलचे फावड़े
कि हम ख़द ही बना सकें दो वक्‍़त का सुकून
जोड़ सकें अपने झोपड़े की टूटती छत्त
क्यों खेलते हो हमारे कल से अपना ‘कल’ चमकाने को
क्यों देते हो आश्वासन,
कब तक करोगे अपना घर रोशन हमारे घरों की आंच से
कब पिघलोगे हमारे जलने के ताप से
दाज्यू
आज बतला दो सब सच सच या दे दो कुछ ऐसे तर्क
कि लगा सकें नारे फिर से
भूल कर दो वक्त की रोटी और पीने का साफ़ पानी
कि पकड़ सकें काले झण्ड़े फिर से किनारे रख कर बेलचे और फावड़े
दाज्‍यू
क्‍यों, आखिर क्‍यों हम खोदते रहें अपनी ही क़ब्र
पूरी उम्र
***
याद होगा तुम्‍हें
याद होगा तुम्हें
जब तुम्हारे हाथों को थाम
बताया था मैंने
कि दूर उस पहाड़ के पीछे
जहाँ से सूरज आता है रोज बिना नागा
है एक बस्ती हम जैसों के लिये
बहुत सुन्दर
याद होगा तुम्हें यह भी
कि मैं कहा करता था वहाँ जायेंगें हम भी एक दिन
छोड़ कर पहाड़ के इस ओर की सारी बुराईयां यहीं पर
और बसायेंगे एक घर वहाँ
अपने सपनों का घर
और
यह भी कि
हमारे विछोह के पल तक भी मैं दोहराता रहा यहीं सब
और एक बार भी यह सच नहीं बताया
कि अगर बस सका उस पार हमारा घर
उस सुंदर बस्ती में
तो वह होगा पहला घर उस बस्ती का
जहाँ
जाने की बातें करते रहते हैं
पहाड़ के इस बार गंदी बस्ती के कई लोग
यूँ ही बाँहें थामे
एक दूसरे की
(अशोक पांडे से प्रेरित)

0 thoughts on “एक बस्ती हम जैसों के लिये – वीरेन्‍द्र गोस्‍वामी की कविताऍं”

  1. Amazing and heartfelt poem, straight from the soul. Your poem describe true face of our politicians and society. You have fought hard, and I hope you will continue fighting and educate people through your poem.

  2. दाज्यू ऐसा लग रहा है कि जाने कब से मैं भी ऐसा ही कुछ लिखना चाह रहा था। आपका आपसे संवाद सीधा ह्रदय तक दस्तक दे गया।

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