अनुनाद

अनुनाद

भूख के पैर उग आए – गिरीश चंद्र पांडे की कविताऍं

कविता मेरे लिए जीवन को बेहतर बनाने का जरिया है। मुझे कविता ने बदला है। इस हद तक बदला है कि पिछले कुछ वर्षों में दुनिया और दुनियादारी को देखने के अपने नज़रिये में आमूलचूल परिवर्तन महसूस कर पाता हूँ 
– गिरीश चंद्र पांडे
इत्ता सा तो फर्क है
उसने मन्त्रों को 
भूत बनाया 
ईश्वर बनाया
दुख की बात 
उन्हें इंसान न बना पाया
दूसरे ने पुस्तकालय बनाये
उसे प्रश्न मिले
रोज सूरज की रोशनी के साथ
उत्तर ढूंढने निकला  
लौटा वह चांदनी की ठंडक के साथ
वह आग को ढूंढने लगा
उसे जलाने लगा 
उसे तापने लगा
उसे संरक्षित करने को सोचने लगा
अपने अंदर की आग को
बुझाने लगा
सभ्यता के साथ
उसने नदी को सुना
समंदर के अट्टहास को महसूस किया
बादल को शक की नजरों से देखा
चाँद को ढूढने निकला
सूरज को समझ कर नमस्कार किया
मंगल के पास गया
सच कहूँ वो आज भी 
ढूँढ रहा है
मिट्टी के वंशज को
पानी के उद्गम को
समंदर के खारेपन को
नदी की मिठास को
रेत के रूखे पन को
क्योंकि उसने इनमें से  किसी को पूजने की कोशिश नहीं  की।
ना ही इन्हें खुद से अलग समझा
उनको ,
उनके उद्गम को जानना चाहा
उसने कभी नहीं कहा
प्रश्न मत करो
तर्क मत करो
पहला पत्थर की लकीर को नापता रहा
उसकी गहराई से प्रफ़ुल्लित होता रहा
दूसरा
लकीर को बनाता और मिटाता रहा
जरूरत सब की
किसी ने पूजा मिट्टी,पानी,हवा और धूप को
किसी ने छुआ 
महसूस किया
और उपयोग किया
और बताया और क्या क्या सम्भावनाएं हैं।
कितना बदल सकते हो
इनके सहारे खुद को
***
हेर फेर
अंकों का हेर फेर किया 
यह कहकर 
यह मेरा अधिकार है
सस्ते रसायनों को
मनमाफ़िक घोल कर
बाज़ार के हवाले किया
यह कहकर
ज़िंदा रहना है तो
ख़रीदो
तेल को पानी के भाव लिया
उसे बाज़ार के हवाले किया
यह कहकर
चलना है तो ख़रीदो
दूसरों के घरों को तोड़ने निकले हो
कुछ तोड़ भी दिए
उन घरों पर कब्ज़ा कर लिए हो
यह कहकर
यह घर अब घर न रहा है
यह तो अब मेरा घर होगा
मुखिया मैँ हूँगा
सदस्य पुराने वाले ही सही
ठगी कब तक आखिर
याद रखना एक दिन ठगे जाओगे
अपने ही ठगों से
***
शून्य-सा
अब नहीं लिखा जा रहा है दर्द 
क़लम से बहुत दूर
जा चुका है दर्द
कोई तलवार अब इतनी बुरी नहीं लगती
जितनी जु़बान
दिल नहीं पसीजता
लँगड़े कुत्ते को देखकर
पिजड़े का शेर दहाड़े या न दहाड़े
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
तोता चोर चोर बोले या राम राम
कानों को कोई लेना देना नहीं है
बंदरिया हो या बन्दर
डमरू की किड किड से पांवों के घुंघरू नही खिलखिलाते
ग़ज़ल अब सजल नहीं दिखती
लय ताल और सुर 
नहीं गुंथते एक दूजे से
कितना मुश्किल होता है
ऐसा होना
होते हुए देखना पर
चुप्पी साध लेना
***
बैल-सा
लछुआ
अब लड़ने नहीं जाता
गाँव के अन्य बैलों से
वो अब सींगों से भीड़ों को भी नहीं खोदता
और दूसरे बैल को देखकर
गर्दन टेढ़ी कर
ज़मीन को पाँव से नहीं कुरेदता
नहीं ललकारता 
सुबह सुबह गोठ से निकलते हुए
जुड़े को उचका उचका कर
अब तो आनाकानी भी नहीं करता
उसे कोई लेना देना नहीं होता
उसे किस तरफ जोता जा रहा है
बैल ही क्यों
हलिया भी तो अनमना सा ही रहता है
न न्या पाते
न बैल के सींगों से आसमान की थाह लेता है
न देखता है
कितने हाथ की हलढ़ाणी
फिट्ट बैठेगी बैलों पर।
हलानी की फाल बुच्ची है
या नुकीली
बस बैठा है खेत के कोने पर
बगल के बंजर खेत की दूभ के कुछ तिनके
मुँह में डालकर
बड़बड़ाकर जोत दिए हैं
बैल 
घाड़ों की आवाज़ और हलिया के उठते बैठते स्वरों
से बेफिक्र बैल 
बस खेत को पलट देना चाहते हैं
मिट्टी के बीच छिपा पत्थर
धँसा है हाथ दो हाथ नीचे तक
अपनी हनक के साथ
हलानी जा फंसी 
और चटक गई 
फाल जा गिरा सी के बीच
बैल चले जा रहे हैं
हलिये की लाचारी से बेफिक्र
***
.
लौटना आसान नहीं
भूख के पैर उग आए
अभी हाथ उगने बाकी हैं
जिस दिन उग आए हाथ
उनमें अंगुलियां
और नाखून 
तब भूख पूरी तरह
अंधी और बहरी हो जाएगी
सड़कें चीखेंगी
मण्डियां सन्नाटा होंगी
इससे पहले कि भूख वायरस बन फैल जाए 
उसे दे दो
बिन कहे दो जून की रोटी
सूखी ही सही
पहुँचा दो उनके घरों तक
थोड़े ही दिन सही
टँगी सांकल का हठ योग टूटे
बन्द ताले का मौन छूटे
आँगन की चहचहाहट लौटे
कुछ ही दिन सही
क्या पता 
चूल्हा बोल उठे
अंतर्मन डोल उठे
भूख 
हाथों को जगा दे
रुला दे
और बंजर हो चुके खेत
हरे हो जाएं
तब …….
***
शर्तें तेरी और मेरी
उसे मैं 
उसकी अपनी शर्तों पर मंजूर था
वह अपनी शर्तों को गिनाती रही
और मैं उन्हें ताउम्र दर्ज़ करता रहा
आज उसने बडे प्यार से कहा
एक पुरुष होना कितना मजे़दार है ना
इस वाक्य में दर्ज़ करने लायक कुछ था नहीं
सो उसे हवा में रहने दिया गया
और मैंने शर्तों को याद किया
जो अब घर बन चुकीं थी
सारे वादे उसकी शर्तो के आसपास थे
वो जो बाहर मेरे सामने 
खुद को मेरे आंखों में देख रही थी
अपनी शर्तो की थाह लेती हुई
घुल गई थी
मुझ में
और मेरे अंदर
वहॉं एक घोंसला था
जो उसने बनाया था
अपनी शर्तों पर 
हमारे लिए
*** 
डॉ गिरीश चंद्र पांडेय प्रतीक
स्थाई निवास*ग्राम बगोटी
पो.बगोटी,चंपावत
सम्प्रति* हिंदी अध्यापक शिक्षा विभाग पिथौरागढ़ उत्तराखण्ड
9760235569,8474909359 gcpandey76@gmail.com

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