Saturday, August 29, 2020

आशंकाओं के बीच आशा - विवेक निराला की कविताऍं


   आशंकाओं के बीच आशा   
 
कल्पना और सपनों से परे ये कविताएं निखालिस आज की हैं।  ये कविताएं अपने समय के प्रति सजग नागरिक की कविताएं हैं। एक ऐसा शहरी जो इंसान से इंसानों जैसे व्यवहार किए जाने की उम्‍मीद रखता है। इन कविताओं को कहने वाला कवि दरअसल हमारा ऐसा पड़ोसी है, जो महामारी काल में यह सोचते हुए जी रहा है कि हमने आज रात कुछ खाया है कि नहीं....



विवेक निराला की ये कविताएं हाल ही में  अमेरिका में सार्वजनिक स्थल पर हुई अश्वेत अमेरिकन की हत्या और वैश्विकरण महामारी के समय दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों से पलायन करते प्रवासी की ओर से सत्ताओं को लिखी गयी शिकायती चिट्ठी हैं। जब हुकूमत मदारी के किरदार में आवाम को जमूरा बनाती है तो अपना आखिरी बयान दर्ज कराने से पहले कवि को अपना धर्म निभाना ही है। 'यह दृश्य महान नहीं था' के खाली हाथ और भूखे पेट का दर्द वही है, जो विवेक निराला की एक अन्य कविता "मरण" में आजीविका के लिए गांव से शहर आते व्यक्ति का था। स्वगत कविता में रहनुमा होने से पहले का सफ़र है, वह सफ़र जिसमें हर एक के दुख दर्द को आगे बढ़कर संभालना है, हर अभाव में सान्त्वना देना है, सत्य और असत्य के हर द्वंद्व में सत्य के साथ खड़ा होना है, हर एक को समझना है। 'संधि' दो मन की बिना कहे होती हुई बात है। चुप रहने से बड़ी कोई और अभिव्यक्ति नहीं होती और मुक्त कर देने से अधिक प्रबल कोई इच्छा नहीं हो सकती। किसी संबंध के भीतर दोनों उच्चतम मानवीय गुण हैं। ये सभी कविताऍं सवालों के पिरामिड खड़े करती हैं। राष्ट्रगान और संविधान पर यक़ीन करता हुआ एक आम आदमी 'शायद' की ड्योढ़ी पर खड़ा नए रास्ते के इंतज़ार में है, क्योंकि 'शायद' के सहारे रहना कितनी भी आशंकाओं के बीच आशा को जिलाए रखना है।

-पूनम ठाकुर



   यह दृश्य महान नहीं था   


यह दृश्य महान तो नहीं था
यहाँ हर कोई उदासी से लिपटा और परेशान था।

महानगरों से मज़दूर अपने घर लौट रहे थे।
उनकी आत्मा में खलबली मची थी
और जेब में सिर्फ़ भूख बची थी।

जबकि थम गया था काल-चक्र
स्थगित हो चुके थे सारे के सारे पहिये
राजाज्ञा थी कि 'जहाँ हैं,
वहीं बने रहिये।'
मगर, अपनी सारी मुश्किलों के बावजूद
चींटियों की कतार की तरह
वे बस चले जा रहे थे और
छले जा रहे थे।

उनका जाना शहर का विरोध नहीं था
न किसी उच्च सदन से बहिर्गमन
कल्याणकारी राज्य के पतन से ऊब कर
वे अब अपनी इच्छाओं का दमन करना सीख चुके थे।
वे इसे भी राष्ट्र के लिए बलिदान मानते थे
अपने हाथ पर भरोसे को और पुख़्ता करते हुए
वे अपनी क़ीमत जानते थे।

अपने पहचान-पत्रों में वे बेहद अकेले मनुष्य भर थे
जिनकी नागरिकता अभी प्रमाणित होनी थी
जिनकी झुलसी हुई त्वचा और छिली हुई आत्मा में
कितनी ही तरह के डर थे
वे जब अपने घर के भीतर भी थे
तो सुखी लोगों की गणना से बाहर थे।
***
          
   मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ   


तुम्हारे सफेद धुएँ ने ढक दिया है
हमारे साँवले आसमान को
आदिम काले पहाड़
सफेद बर्फ की चादर ओढ़े खड़े हैं।

हमारे बहुत पुराने घावों पर
तुमने सफेद पट्टियाँ बाँधीं भी तो
चुटकी भर नमक छिड़कते हुए
काला पड़ चुका खून
जिनसे अब भी रिसता है।
सफेदी की इस चमकती दुनिया में
मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ।

हमारी नदियों के श्यामल जल पर
सफेदी के बाँध बने हैं
हमारी काली मिट्टी पर खड़ी हैं
ऊँची सफेद इमारतें।

तुम तो अपने घर को भी 'व्हाइट हाउस' कहते हो न!

जिन पाँवों के नीचे दबी हुई हो गर्दन
उसे सहलाए जाने की
कूटनीतिक कहावत जानते हुए भी
मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ।

कोलतार की काली और चिकनी सड़क की
ज़ेब्रा क्रासिंग पर
इससे पहले कि मैं मार दिया जाऊँ
मेरा आखिरी बयान दर्ज़ किया जाय
कि-'श्वेत नफरतों की इस दुनिया में
मैं अपनी काली काया के साथ
अब साँस भी नहीं ले पा रहा हूँ।'
***                     

   शायद   

रामदास को पता था
कि उसकी हत्या होगी।

शायद उसे न पता रहा हो
शायद हत्यारे को पता रहा हो
शायद रघुवीर सहाय को पता रहा हो
या प्रधानमंत्री को।

शायद तुम्हें पता हो
कि अभी यहाँ से जाने के बाद
तुम्हारे साथ क्या होगा
हमारे साथ क्या होगा
शायद सभाध्यक्ष को पता हो
या संचालक को।

शायद आप में से किसी को पता हो
शायद रक्षामंत्री को
शायद गृहमंत्री को

अब मुख्यमंत्री को तो ज़रूर पता होगा
उनके सूबे की बात जो ठहरी!

यह जो शायद है
इसमें थोड़ा सा यक़ीन है
सन्देह है, अनुमान है

एक राष्ट्रगान और एक संविधान है
मगर,
कवि की अब भी ख़तरे में जान है।
***
 

   तथ्य   

एक आदमी अपने चार बीघा
खेतों में हाड़ तोड़ मेहनत
के बाद हासिल कर्ज़ अपने झोले में
सहेजे आत्मघात की तरफ
चला जा रहा है।

एक औरत अपने लम्बे
विश्वास से बाहर
लुटती-पिटती लौट रही है
भीतर के दुःखों को सम्हालती।

एक बच्चा जो
कूड़े में खेल रहा था
बम फटने से मारा जाता है
जेब में तीन चिकने पत्थर लिए।

एक लड़की जो
दुनिया में आने की सज़ा
पाती है और नीले निशान
अपनी फिरोजी फ्रॉक से छिपाती फिरती है।

क्या फर्क पड़ता है--
हमारे समय का बीज वाक्य है
यह हमारे समय का
अन्तिम सत्य।

मगर, सोचो तमाम गाजे-बाजे, विज्ञापन और
इक्कीस तोपों की सलामी से
कब तक बचेगा
तुम्हारा चौड़ा सीना
तुम्हारा बेशर्म आधिपत्य।
***


   हमारे समय के हत्यारों ने   

हमारे समय के हत्यारों ने
एकल को सामूहिक किया
और हत्यारों के समूह का विकास हुआ।

उन्होंने हत्या को
कला में बदल दिया
और कला को हत्या में
बदल देने के तरीके बताए।

हथियारों को मशीन में
और मशीनों को बन्दूकों में
बदलते हुए उन्होंने हत्या को
और भी ज़्यादा वैज्ञानिक बनाया।

फिर, वे शास्त्र लेकर आये
उन्होंने हत्या की पूरी परम्परा की
आधुनिक व्याख्या की
हिंसा की दार्शनिक दलीलें दीं
बर्बरता को सांस्कृतिक कर्म बताया।

इस तरह,
हमारे समय के हत्यारों ने
अपने लिए हत्या को वैधता दी।
***

   सन्धि   

मेरे मन की एक पतली डोर
जो तुम तक पहुँचती है
उसी से मकड़ी
अपना जाल बुनती है।
तेरी देह-गंध भी तो चुरा ले गईं मंजरियाँ
तुझे पता भी न चला!
मुझसे हवाओं ने मुखबिरी की।

तेरे हास से
चिटक उठीं कलियाँ,
चरणों को देख
चमक उठा चन्द्रमा।

मेरी आँख के तिनके
तुम्हारे स्वप्न-पंछी का बसा आवास
और आँसुओं में
मेरी भुजाओं की मछलियाँ तैरती हैं।

तुम्हारी कल्पना में
मेरी मूकता है और
मेरी इच्छाओं में
तुम्हारी मुक्ति।

यह तो
तुम्हारे निरपराध जीवन से
मेरी निर्दोष मृत्यु की सन्धि है।
***

   इंतज़ार   

कितना भटकता रहा
अकेला मन
कोई मिले
परिचय की गाँठ लगाये।

नींद ने मुझसे
बरसों कोई बात तक न की
सपनों के चेहरों पर
काले धब्बे उभर आये।

बेहोशी में बार-बार
बड़बड़ाता रहा
कितना कुछ
कि कोई आये, मुझे बताये।

मृत्यु की कोई शक़्ल
अब तक नहीं बना पाया
उसे जब-जब देखा
अपने चेहरे को छिपाये।

इस सब के लिए
मैंने कितना इंतज़ार किया
कितने ही जीवन गंवाये।
***

   स्वगत   

नींद में भी समाधि की यह
गन्ध कितनी मादक है
और मृत्यु का स्पर्श इतना उत्तेजक।

अपने ही भीतर के
कक्षों में सुरक्षित बसने से पहले
दूसरों की कन्दराओं में प्रवेश करो।

आत्मा का भी अपना लावण्य होता है
तुम किसी की आत्मा तक
पहुँचो तो सही।
किसी की आत्मा के नमक को
अपनी पलकों से उठाओ
उसकी चमक के बूते
अपने अँधेरों से जूझो और
अपने आधे-अधूरे सत्य की धमक के आगे
सम्पूर्ण सत्य की मद्धिम धुनों को सुनो।
चुनो! अपना एक पक्ष तो चुनो।

अपनी आँखों में पड़ी
दूसरे के दुख की झांइयों को पढ़ो
अपनी ही आदिम परछाइयों से लड़ो।

अपने भीतर झाँकना ही काफी नहीं
उसकी कायदे से तलाशी होनी चाहिए
चोर जेबों को उलटकर
टटोल लेने चाहिए सारे अँधेरे कोने।

वरना,अपने ही गड्ढों में गिरोगे
कोई नहीं आएगा तुम पर रोने।

विवेक प्यारे!
तब, रहनुमाई का दम भरो
और पूरे इत्मीनान से मरो।
***

   आत्महत्या के बारे में सोचते हुए   

आत्महत्या के बारे में सोचते हुए
मैंने खनकते कलदार
सिक्कों के बारे में सोचा जो छुपे थे
जिन्हें खोटेपन ने चलन से
बाहर कर दिया था।

मैंने तारों सहित उलट गए
आकाश के बारे में सोचा
मैंने सोचा चमगादड़ों की तरह लटके
सूर्य और चन्द्रमा के बारे में।

आत्महत्या के बारे में सोचते हुए
मैंने फूलों और तितलियों के बारे में सोचा
मैंने सोचा सूखे से दरकते खेतों के बारे में।

मैंने जलते हुए जंगलों और विस्थापित लोगों
पूँजी और मशीनों और उद्योगों के बारे में सोचा
मैंने अपनी दो कौड़ी की नौकरी
और चार पैसे की मध्यवर्गीय
चतुर चुप्पी के बारे में सोचा।

मैंने अपने हृदय की आग जलाये रखने के लिए
महँगे किरोसीन और
सस्ती-सी कुप्पी के बारे में सोचा।

अपने घर-परिवार से लेकर
सारे संसार के बारे में सोचते हुए
मैंने एक चिड़िया के बारे में सोचा।

आत्महत्या के बारे में सोचते हुए
मैंने खूब सोचा चिड़िया की उड़ान के बारे में
मगर अन्त में पाया-
उम्मीद एक मरी हुई चिड़िया का नाम है।
***

एक बस्ती हम जैसों के लिये - वीरेन्‍द्र गोस्‍वामी की कविताऍं


मैं देखता हूँ कि लोग बहुत अलग-अलग तरह का जीवन जीते हुए कविताऍं लिखते हैं या लिखने की कोशिश करते हैं। ये कोशिशें और ये संघर्ष सहज हों तो सुन्‍दर भी लगते हैं। लिखने की शुरूआत किसी भी उम्र से हो सकती है। तीस, चालीस या पचास की उम्र में भी अचानक एक व्‍यक्ति अपने भीतर कविता को पुकारते हुए सुनता है। वीरेन्‍द्र की कविता ऐसी ही एक पुकार है, जिसकी दिशा स्‍वयं कवि के कथनानुसार दूसरे की आवाज़बनने की कोशिश भी है। वे इस विचार के हामी हैं कि कविता राजनीति और समाज के दुश्‍चक्रों में फंसे उस व्‍यक्ति की आवाज़ बनती है, जिसकी आवाज़ या तो दबा दी गई है या इतनी धीमी है कि सुनाई ही नहीं देती। 

वीरेन्‍द्र गोस्‍वामी की कविताओं के कहीं भी प्रकाशन का यह शायद पहला प्रसंग है, उनका स्‍वागत है।
 
 
                                               
                                                कवि ने कहा

कभी कभी कोई विचार मेरा दरवाज़ा खटखटाता है। जैसे ही मैं वो दरवाज़ा खोलता हूँ, एक कविता भीतर आ जाती है। कई बार कुछ शब्द मेरे दरवाजे को ज़ोर से पीटते हैं और न चाह कर भी मैं उठ जाता हूँ। सोच कर कविता लिखना मेरे लिये सम्भव नहीं, आत्मसंवाद ही मेरी कविताएँ हैं।
सब ऐसे ही होता है’ के प्रति झुँझलाहट और साथ ही ‘दूसरे की आवाज़’ बनने की कोशिश आपको कई बार मेरे लेखन में दिखेगी।
 

दाज्यू 1


दाज्यू तुम आये थे उस बार

पैदल

चार लोगों के साथ

मेरे घर तक

सड़क से छः मील

गधेरो के किनारे चलते चलते और

इजा से कहा था –



काकी अब नही सड़ेंगें तुम्हारे संतरें माल्टे यहीं पेड़ों पर

अब आने वाली हैं सड़क प्राईमरी स्कूल के सामने तक

हमारी सरकार बनते ही



दाज्यू

शायद याद हो तुम्हें

लछमा को एक टाफी देते हुए तुमने बताया

कि मंदिर के पास

इंटर कॉलेज बनेगा बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिये

और

अस्पताल भीपानीं की टंकियाँ भी



और दाज्यू

सुना है

इस बार भी तुम आये थे उसी सड़क से

जो जाती हैं मेरे घर से छः मील दूर से आज भी

चार लोगों नहीं

चार कारों के साथ

सरकारी बंगले में ठहरने एक शहर में



वहाँ

जहाँ आज भी हैं इलाके़ का अकेला अस्पताल

जहाँ मिलता हैं आज भी अच्छा पानी

हमारे घर से दूर पढ़ने गये

डेरों में रहते होनहारों को



दाज्यू

दो साल बाद तुम फिर से आओगे पैदल

सड़क से छः मील दूर

गधेरो के किनारे चलते चलते मेरे घर

बातें करने

पेड़ों पर सड़ते सन्तरे माल्टों की

दूर से कनस्तर पर पानी लाते घर के बच्चों को देख

पानी की टंकियों और कॉलेज की

और बिना इलाज मर चुकी इजा की याद में अस्पताल बनाने की।



ताकि तुम दोबारा आ सको

मेरे घर के छः मील से गुजरती सड़क से

चार कारों पर

उसी डाक बंगले तक

किसी उद्घाटन में।

***


दाज्यू 2


क्यों लगवाते हो नारे हमसे

देते क्यों नहीं दो वक्त की रोटी और पीने का साफ़ पानी



क्यों देते हो हमारे हाथों में काले झण्डे

क्यों नहीं देते बेलचे फावड़े

कि हम ख़द ही बना सकें दो वक्‍़त का सुकून

जोड़ सकें अपने झोपड़े की टूटती छत्त



क्यों खेलते हो हमारे कल से अपना ‘कल’ चमकाने को

क्यों देते हो आश्वासन,



कब तक करोगे अपना घर रोशन हमारे घरों की आंच से

कब पिघलोगे हमारे जलने के ताप से



दाज्यू

आज बतला दो सब सच सच या दे दो कुछ ऐसे तर्क

कि लगा सकें नारे फिर से

भूल कर दो वक्त की रोटी और पीने का साफ़ पानी

कि पकड़ सकें काले झण्ड़े फिर से किनारे रख कर बेलचे और फावड़े



दाज्‍यू

क्‍यों, आखिर क्‍यों हम खोदते रहें अपनी ही क़ब्र

पूरी उम्र

***


याद होगा तुम्‍हें


याद होगा तुम्हें

जब तुम्हारे हाथों को थाम

बताया था मैंने

कि दूर उस पहाड़ के पीछे

जहाँ से सूरज आता है रोज बिना नागा

है एक बस्ती हम जैसों के लिये

बहुत सुन्दर



याद होगा तुम्हें यह भी

कि मैं कहा करता था वहाँ जायेंगें हम भी एक दिन

छोड़ कर पहाड़ के इस ओर की सारी बुराईयां यहीं पर

और बसायेंगे एक घर वहाँ

अपने सपनों का घर



और

यह भी कि

हमारे विछोह के पल तक भी मैं दोहराता रहा यहीं सब

और एक बार भी यह सच नहीं बताया

कि अगर बस सका उस पार हमारा घर

उस सुंदर बस्ती में

तो वह होगा पहला घर उस बस्ती का



जहाँ

जाने की बातें करते रहते हैं

पहाड़ के इस बार गंदी बस्ती के कई लोग

यूँ ही बाँहें थामे

एक दूसरे की


(अशोक पांडे से प्रेरित)


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