अनुनाद

अनुनाद

शून्‍यकाल में बनी सहमतियों के विरुद्ध – गणेश गनी की कविताऍं

गणेश गनी सुपरिचित कवि हैं। वे पारखी सम्‍पादक और संवादी समीक्षक भी हैं।  उनकी आठ कविताऍं अनुनाद को मिली हैं। कविता और समीक्षा में उनकी सक्रियता को उन्‍हीं के शब्‍दों में कहें तो शून्‍यकाल में बनी सहमतियों के विरुद्ध एक आपत्ति की तरह देखा जा सकता है। कवि का अनुनाद पर स्‍वागत है।  

आख़िरी बात के स्वर और व्यंजन

जिन लोगों को लगता है कि
जब किसी रोज़ अगर भाषा ही मर जाए
तो कितना कुछ अनकहा छूट जाएगा
वो पीड़ादायक होगा
जब अपनों से सम्वाद टूट जाएगा।

ऐसे समय में भी रहेगी जीवित
चिड़ियों की बोली
तितलियों का व्याकरण
बत्तखों की वाणी
बाघों के संकेत
आदिवासियों की भाषा
उनके विलुप्त होने तक।

भाषा तो तब भी मार दी जाती है
जब प्रश्न पूछने पर 
ज़ुबान खींच दी जाती है 
जब असहमति के शब्दों का
या तो गला घोंट दिया जाता है
या फिर कारावास की सज़ा सुनाने के बाद
कान फोड़ दिए जाते हैं।

शून्यकाल में इस बात पर सहमति बनती है
कि कील दिया जाए एक एक कर
शक पैदा करने वाले शब्दों को
अब इन्हें कौन समझाए कि आवारा हवा है भाषा 
जिसे खूंटी से नहीं बाँधा जा सकता
फिर भी हमारी भाषा में
सारे शब्द स्त्रियों के कहाँ हुए
कुछ हिंसक शब्दों पर
अधिकार केवल पुरुषों का है।

सभ्य भाषा की मृत्यु के बाद
एक शंका तुम्हें 
यह भी हो सकती है कि
मनुष्य अंतिम सांस लेने से पहले
किस भाषा में आखिरी बात कहेगा
अंतिम दर्शन और शोकसभा की तैयारी में 
आसपास बैठे लोग
जब विलाप करेंगे तो 
गले में जो कम्पन होगी, वो किस भाषा में होगी!

कुछ खुरदरे बोलों का मिटना ही बेहतर 
जितनी ज़रूरत होगी बोलने की
उतनी भाषा का बनना तय है
भाषा का भूगोल पृथ्वी जैसा है
आख़िरी बात के शब्दों के अक्षर
वास्तव में वर्णमाला के व्यंजन होंगे
और विलाप के वक़्त की ध्वनियां ही
असल में स्वर होंगे
वर्णमाला का तिलिस्म बना रहेगा
यही एक असली भाषा होगी
इससे अधिक न बोला जाएगा
और न ही सुना जाएगा
भाषा ज़ुबान की गुलाम कब हुई
जिस समय यह कविता लिखी जा रही थी
ठीक उस भोर पृथ्वी के किसी कोने में
तुम्हारी उँगलियाँ भी कोई राग बजा रही थीं।


अबूझ पहेली सुलझाने के करीब
 
बहुत दिन बीत चुके
उसे नहीं देखा, जहां वह अमूमन दिख जाया करता था
अक्सर तेज़ तेज़ कदमों से चलते हुए 
वह झलक भर दिखता और गायब हो जाता 
दरअसल उसे बैठे हुए पाया ही नहीं गया कभी

उसकी आंखों ने कई सितारों की चमक 
अपने भीतर अवशोषित की है
यह सपनों से आगे, बहुत आगे की रोशनाई है
उसकी दृष्टि से लगता 
कि नज़र सामने क्षितिज पर सीधी टिकी है
मगर वह अंतरिक्ष में 
एक दूसरी पृथ्वी को निहार रहा होता

कहाँ गया होगा 
जबकि यह चौराहा तो उसका अपना ही था
उसकी आपसदारी नदी से थी
पुल के नीचे बहती हवा से थी
नदी के पत्थरों की फिसलन के विपरीत
उसके तलवों में तो खुरदरापन था

उसे अक्सर इसी पुल को 
पार करते हुए देखा जाता
उसका दाहिना हाथ 
कमर से थोड़ा नीचे खिसका पायजामा थामे रहता
बायां हाथ अदब से सीधा तनकर झूलता
उसकी एड़ियों में पहाड़ी नदी जैसा उछाल रहता

वह सुख-दुःख और रिश्तों के बंधनों से
बहुत ऊपर उठ चुका हुआ लगता
वह उल्लास और शोक एक ही भाव से मनाता 
एक और ज़रूरी बात
उसने दुनिया में दो कठिन काम साध लिए थे
अब वह भूख और नींद को जब चाहे
उड़ा देता और
जब चाहे स्वयं बुला लेता

उसके नङ्गे पैरों की बिजली भरी चाल बताती कि
कोई ज़रूरी काम उसे याद आया है
और बरसों से अधोए बालों की
लम्बी लड़ियों के बीच से झाँकते
छितराई दाढ़ी वाले चेहरे की चमक कहती कि
वो कोई अबूझ पहेली सुलझाने के बहुत करीब है
                       

कविता लिखने की प्रक्रिया के बीच में

दरअसल हम दो ध्रुव थे
कब कविता 
फैलती गई भूमध्यरेखा के आरपार
पता ही नहीं चला
शब्दों की साँसों की गर्माहट से
सारे ग्लेशियर पिघलने लगे
और एक विराट फैलाव
ध्रुवों को छूकर 
मध्य की रेखा को मिटाकर 
छाया रहा पृथ्वी पर
यह कविता की रोशनी ही तो है
कि सारे रंग एक साथ खिल उठते हैं।

वो आदमी एक पूरी डायरी है

किसी पृष्ठ पर दुःख
किसी पन्ने पर बेचैनी
किसी वर्क पर उदासी
आवरण पर अवसाद रहता है
कभी किसी डायरी में 
बसन्त नहीं खिलता।
उसे मत खोलना

वो आदमी एक पूरी डायरी है।

उसके विद्रोही स्वर शासन को रास नहीं आए
तो उसे भीड़ में बदलने के प्रयास हुए
कि झुण्ड के पास बदलने के लिए
कुछ नहीं बचता
केवल आदेश सुनते हैं उसके कान।

ऐसे समय विचारों को ही
बन्दीगृह में डाल 
जड़ दिया जाता है ताला
दोस्त हमारा मस्तिष्क 
तब बन जाता है हमारा किराएदार।

जब जब लगता है कि
देश में सरकार नहीं है 
दरअसल तब तब विपक्ष बीमार होता है
और ऐसे वक़्त सड़क किनारे
काले घोड़े के खुर से गिरी नाल से
छल्ले बनाने वाला भी
क़िस्मत बदलने की ज़ुबान दे सकता है।


इस बीच पता ही नहीं चला

अंतरिक्ष में 
तारों और नक्षत्रों के जन्म और मृत्यु के बीच
एक दिन पृथ्वी पैदा हुई
पृथ्वी पर
धीरे धीरे सृजन होता रहा
हवा, पानी, आग के बाद
जंगल उगे
जीव पैदा हुए
इसी क्रमिक विकास में एक घटना घटी
और मानव अस्तित्व में आया
सबसे ख़राब घटना तब घटी
जब डर ने जन्म लिया
और देवता बनाए जाने लगे
और डर बढ़ता गया और देवता भी
इस बीच पता ही नहीं चला
कब देवता  डराने लग पड़े!


मिट जाने का हुनर

बादलों का यही गुण है कि
वो बारिश की बूँदों को बड़ी सफ़ाई से
छुपाए रख ऊंचाई पर उड़ते रहते हैं

एक और अदभुत हुनर भी है बादलों में
भर जाते हैं और भी
जब उड़ नहीं पाते तो
बरस कर मिट जाते हैं
बादल फिर जन्म लेते हैं

मुझे भरा हुआ 
बादल होना है।


पानी और अक्षर

काली तख़्ती पर सफ़ेद सफ़ेद हर्फ़ 
जब बहते पानी में धुलकर आगे का सफ़र तय करते 
तो दरिया रुककर इन्तज़ार करता
उसे उम्मीद रहती कि 
पाठशाला के करीब से बहता झरने का पानी 
कभी न कभी तो 
नन्हें हाथों की कलम से चीन्हे जीते जागते शब्दों को 
उस तक बहा लाएगा। 

और फिर एक दिन 
सफेद मिट्टी से चीन्हे चमकदार अक्षर 
बहते हुए दरिया तक पहुंचे
अक्षर आगे बढ़ते गए
दरिया अब और तेज़ बहता गया
पानी इन्हें अपनी हथेली पर रखकर 
सागर तक पहुंचाना चाहता था। 
इसलिए दरिया ने पानी से कहा, और तेज़ चलो। 

इस बीच पाठशाला के पीछे 
बर्फ़ से लकदक पहाड़ से फूटे झरने का पानी 
उदास रहने लगा
उसे एहसास हो गया कि 
जिन अक्षरों को वह बहा आया नीचे दरिया तक
वे तो कविताएं निकलीं!

झरना अपनी कविताएं वापस चाहता है कि 
उसे हवा को यह कविताएं लौटानी हैं
ऐसे में कविताओं का क्या दोष! 

रात के अंतिम पहर ज़रहियूं की चोटी पर 
बर्फ़ में बैठा चाँद देख रहा है कि 
बहुत दूर मैदान में चनाब के इस पार तट पर 
हीर पानी की सतह से चुन चुनकर कविताएँ 
रेत पर लेटे अपने रांझा को सुना रही है 
और दरिया के उस पर 
महिवाल अपनी गोद में सर रखे सोहनी को 
मीठे पानी से भीगे आखरों को पढ़कर सुना रहा है। 

इधर झरना सोच रहा है कि 
कब सूरज निकले 
और पाठशाला पहुंचे उस नन्हें बालक के 
पाँव भिगोकर आभार जताया जाए।
 
ताकि डरावने प्रश्न टाले जा सकें

बाहर लगभग अंधेरा जैसा ही है
परंतु यह अंधेरा कुछ ऐसा है 
जिसका वर्णन करना  बड़ा ही असम्भव है
इसे केवल देख कर ही महसूस किया जा सकता है
जैसे कोई पूछे कि 
रात के समय जो ढिबरी जल रही थी
उसकी रोशनी कितनी थी!

फिर भी एक आदमी 
अपनी दृष्टि बादलों के पार डालता है 
और कहता है
दोपहर से अधिक का समय हो चुका है 
और छत पर एक हाथ बर्फ़ बैठ चुकी है
रात ढलने से पहले पहले इसे हटाना होगा।

छत के एक किनारे से 
बर्फ़ हटाने का काम शुरू होता है
जब तक दूसरे किनारे तक पहुंचते हैं
तब तक छत का साफ किया हुआ भाग 
फिर से बर्फ़ ढक देती है। 

रात ढलने लगी है 
मगर हिमपात रुक नहीं रहा
सिर, कंधों और पीठ पर जमी बर्फ़ को झाड़ने के बाद 
बर्फ़ हटाने के लकड़ी के किराणु 
घर के एक कोने में पंक्तिबद्ध खड़े रखकर 
अब सभी आग के आसपास बैठ गए हैं 
एक घेरा बनाकर। 

घर के बीचों बीच लोहे की तिपाई पर भी 
रोशनी के लिए आग जलाए रखी है
कठिन समय है
तो नींद भी कठिन है आना
न जाने सुबह तक क्या होगा
ऐसे कई प्रश्न मन में उठ रहे हैं तो 
अखरोट तोड़ने वाले गिरियां जमा कर रहे हैं 
ऊन कातने वाले तकलियाँ घुमा रहे हैं
मुश्किल समय ज़रा धीरे चलता है
इसलिए घर के कुछ सदस्य समय काटने के लिए 
पहेलियां भी पूछ और बूझ रहे हैं 
ताकि डरावने प्रश्न 
कम से कम कुछ समय के लिए टाले जा सकें। 
             
गणेश गनी, कुल्लू
  9736500069

0 thoughts on “शून्‍यकाल में बनी सहमतियों के विरुद्ध – गणेश गनी की कविताऍं”

  1. बहुत अच्छी और सारगर्भित कविताएँ। यह कविता की रोशनी ही तो है कि सारे रंग एक साथ खिलने लगते हैं।

  2. कविताएँ पढ़ीं। अनुनाद से परिचय कराने के लिए जमावड़ा का आभार । गणेश गनी के कवि का विस्तार पिछले कुछ वर्षों ने देखा है। सम्भवतः लंबी टिप्पणी लिख पाऊं ।

  3. शिरीष भाई का आभार और अनुनाद ब्लॉग पर प्रकाशित होने से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। क्या कहूँ!

  4. आभार आपका निरजंन जी। आप लोगों के साथ और स्नेह के कारण यह हो पाया।

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