हिन्दी कविता में इधर चली बहसों पर युवा कवि रश्मि भारद्वाज की यह प्रतिक्रिया एक लेख के रूप में मिली है। युवा कवियों की ओर से ऐसे हस्तक्षेप भले ही बहुत न हों, पर इनका होना आश्वस्त करता है। रश्मि का अनुनाद पर स्वागत है। शीघ्र ही हम उनकी नई कविताऍं भी यहॉं साझा करेंगे।
उम्मीद नहीं छोड़ती कविताएँ
वे किसी अदृश्य खिड़की से
चुपचाप देखती रहतीं हैं हर आते जाते की ओर
बुदबुदाती हैं
धन्यवाद धन्यवाद!
-केदारनाथ सिंह
इन दिनों सोशल मीडिया पर रमने वाले हिन्दी साहित्य समूह में कविताएँ फिर से
विवादों के केंद्र में है। यूं तो आए दिन आभासी संसार में बसते हिन्दी लेखक-पाठक
समूहों में तुमुल कोलाहल कलह की स्थिति बनी ही रहती है लेकिन अक्सर इस वाद-विवाद
-संवाद के केंद्र में हिन्दी कविता हुआ करती है। यह भी विचित्र विसंगति है कि
आभासी जगत में लिखने का सुलभ मंच प्राप्त होने पर फेसबुक, ब्लॉग, वेबसाइट आदि डिजिटल मंचों पर सबसे अधिक कविताएँ लिखीं जा रहीं हैं। दूरस्थ
प्रदेशों में रहने वाले युवा, बुजुर्ग, घरेलू स्त्रियाँ, जिनके लिए हिन्दी साहित्य के सात तालों में जकड़े दरवाज़े को खोलना आसान
नहीं था, सहजता से उपलब्ध इस
मंच पर अपनी लेखनी से पहचान बना चुके हैं। लेकिन जितनी अधिक कविताएँ लिखीं और पढ़ी
जा रहीं हैं, उतना ही उनके लिए
लिए वितृष्णा और संशय का वातावरण भी तैयार हो गया है। आए दिन कविता और कवियों को
लेकर हिंसक मज़ाक और व्यंग्य आम बात हो गए हैं। कई लोगों को दिक़्क़त है कि इतनी
कविताएँ लिखीं क्यों जा रहीं हैं, हर तीसरा व्यक्ति कवि क्यों हैं! इस बात का साधारण सा उत्तर है कि इतनी
सारी घृणा, द्वेष, हिंसा के युग में भी
अगर इतनी कविताएँ लिखीं जा रहीं हैं तो यह एक सकारात्मक बात है। दिवंगत कवि
केदारनाथ सिंह जी की ही पंक्तियों में कहा जाए तो कविताएँ इस नाउम्मीद समय में
मनुष्यता की उम्मीद हैं। जब तक कविताएँ रचीं जा रहीं हैं, प्रेम, विश्वास और मानवता शेष होने की उम्मीद पाली जा सकती है।
छन्दोहीनो न शब्दोSस्ति
कोरोना के हाहाकार के बीच इन दिनों जब साहित्यिक गोष्ठियों की मनाही
है, हिन्दी कविता पर फिर
ज़ोरशोर की बहस जारी है। कारण है हिन्दी कविता की राजनीति के बहाने ‘लाइवासीन’ कवियों , आलोचकों का अपनी
राजनीति का सार्वजनिक मंच से प्रदर्शन जो कविता की तरह ‘सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय’ का उद्देश्य लिए चलती तो कतई नहीं मालूम पड़ती है। एक तरह से देखें तो
कविता की राजनीति के बहाने साहित्य की सत्ता के शीर्ष पर जा पहुँचने, अपने शिष्यों, समूहों के हितों की
सुरक्षा और नयी पीढ़ी को आकर्षित करना ही इसका उद्देश्य दिखा। ऐसे ही एक लाइव मंच
से घोषणा की गयी कि वर्तमान कविता अप्रासंगिक हो गयी है और एक दशक तक कवियों को
कविताएँ लिखना छोड़ देना चाहिए ताकि नयी पीढ़ी बिना किसी पूर्वाग्रह के, नए विचारों के साथ
आए और कविता फिर से समाज में अपनी ठोस जगह बना सके। यह मुनादी किए जाने के पीछे
कारण दिया गया कि कविता छ्ंद विहीन होकर अपना प्रभाव और अपनी लयात्मकता पूरी तरह
से नष्ट कर शुष्क और बेअसर हो उठी है। जब कविता में कविता ही नहीं बची, तो फिर उसे लिखते
रहने का उद्देश्य क्या है!
इन अतिरंजित वाक्यों ने जहां कविता, उसकी उपादेयता, उसके स्वरूप को लेकर आभासी संसार में विवाद उत्पन्न
किया, वहीं कवियों, पाठकों को ठहर कर
सोचने पर भी बाध्य किया है कि वास्तव में आज हमारे जीवन में कविता की कितनी जगह
बची है! बाज़ार के बढ़ते प्रभाव, सत्ता, धर्म और पूंजी के
प्रभुत्व के बीच सीमित हो रही मनुष्यता के दौर में आज की कविता कितनी जगह घेरती है, यह प्रश्न प्रासंगिक
हो उठा है। क्या छ्ंद से मुक्ति के साथ कविता ने आम जन के हृदय से भी खुद को धीरे
-धीरे मुक्त कर दिया है?
कविता में छ्ंद की अपरिहार्यता का मुद्दा उठाए जाने पर यह स्वाभाविक प्रश्न
उठता है कि क्या बिना छ्ंद के कविता संभव है! यदि कविता किसी छ्ंद के अनुशासन में
नहीं बंधी तब भी उसके अंदर एक आंतरिक लयात्मकता समाहित होती है। प्रश्न यह होना
चाहिए कि लिखी गयी पंक्तियाँ कविता है या नहीं, यह नहीं कि छ्ंद के बिना कविता संभव ही नहीं है। इसी
संदर्भ में निरुक्तवृत्ति में आचार्य दुर्ग का कथन बहुत प्रासंगिक हो उठता है- ‘नाच्छनदसि वागुच्चरति
इति’- छ्ंद के बिना कोई
वाक्य उच्चरित ही नहीं होता है।
वहीं नाट्य शास्त्र में भरत मुनि का कथन है – ‘छंदोंहीनो न शब्दोSस्ति, न छंद: शब्दवर्जितम’- अर्थात छंद से रहित कोई शब्द नहीं, और शब्द से रहित कोई छंद नहीं।
इन आदि मनीषियों के कथन को ही आधार मान कर यह कहा जा सकता है कि गद्य में
भी अपना एक आंतरिक लय होता ही है। साहित्य की कोई भी विधा सपाट बयानबाज़ी नहीं हो
सकती। कविता हो या कहानी, रचनाकर सोउद्देश्य एक आंतरिक प्रवाह बनाए रखता है जो उस रचना को विशिष्टता
प्रदान करती है।
मनुष्यों की तरह कविता की भी मुक्ति होती है
हिन्दी में आधुनिक कविता के जनक माने जाने वाले सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
ने कहा था –‘मनुष्यों की तरह
कविता की भी मुक्ति होती है, मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति
छंदों के शासन से अलग हो जाना’।
निराला के लिए कविता में मुक्ति का अर्थ बहुत व्यापक है। किसी भी छंद के
अनुशासन से मुक्ति की बात करते हुए दरअसल वह कवि की उस स्वाधीन चेतना की मुक्ति और
विस्तार की बात करते हैं जो उसे किसी भी पूर्वाग्रह, सामाजिक, धार्मिक निर्मिति और अंधभक्ति से मुक्त कर उसकी लेखनी को एक व्यापक वितान
देती है।
इसी संदर्भ में आधुनिक रूसी साहित्य के जनक अलेक्ज़ेंडर पुश्किन की ये
पंक्तियाँ भी इस विमर्श को नए आयाम देती हैं। निराला की भांति ‘इस निष्ठुर शताब्दी
में मुक्ति का गीत’ गाने के लिए प्रयासरत पुश्किन कहते हैं : ‘खोजता हूँ संगम मैं, जादूई ध्वनियों, भावों और विचारों का....’
कुछ इसी तरह के भाव के साथ विनोद कुमार शुक्ल की ये पंक्तियाँ हैं :’चारों तरफ़ प्रकृति और
प्रकृति की ध्वनियाँ हैं/ यदि मैंने कुछ कहा तो अपनी भाषा नहीं कहूँगा/ मनुष्य ध्वनि कहूँगा’।
कविता रचते हुए कवि अपने विचार, अपनी भावभूमि को अभिव्यक्त करने के लिए हमेशा ही कुछ विशेष ध्वनियों, बिंबों, शब्दों की तलाश में
रहता है। यही उसकी कविता को आम गद्य से विशिष्ट बनाते हैं और कविता का रूपाकार
देते हैं। बाह्य छंद और लय से मुक्त कविता भी अपने कहन के लिए कुछ जादुई ध्वनियों
के संधान में रहती है जो उसके कला बोध और सौंदर्य को परिष्कृत करता है। इसे पढ़ता
हुआ पाठक भी उस परिष्कृत संसार में अपनी रुचि, अपने विचारों और भावभूमि को परिमार्जित कर पाता है।
कला के लिए कला बनाम शुष्के काष्ठे तिष्ठति अग्रे
प्राचीन कथा है कि अपनी विख्यात कृति कादंबरी को वृद्धावस्था के कारण पूरा
कर पाने में असमर्थ वाणभट्ट ने अपने दोनों पुत्रों को सामने खड़ा एक सूखा पेड़ दिखाकर, उसका वर्णन करने को
कहा। एक ने कहा: ‘शुष्के काष्ठे
तिष्ठति अग्रे’ और दूसरे बेटे ने
कहा: ‘नीरव तरुरिह विलसति पूरत:’। कहना नहीं होगा कि
सूख रहे पेड़ के इतने लालित्य भरे वर्णन के कारण वाणभट्ट दूसरे बेटे के उत्तर से
प्रसन्न हुए और उन्हें ज़िम्मेदारी सौंपी।
लेकिन यहाँ कविता लिखे जाने के औचित्य और उसकी उपादेयता पर एक सार्वकालिक प्रश्न
उठता है। पश्चिम में भी आर्ट फॉर आर्ट सेक और आर्ट फॉर कॉज़ सेक का मुद्दा हमेशा से
ही प्रासंगिक रहा है। निश्चित तौर पर कविता का उद्देश्य कुछ शृंगारिक, चमत्कारिक वाक्यों
के माध्यम से पाठकों का मनोरंजन करना भर नहीं है। जिस विषम समय और समाज में हम जी
रहे हैं जहां एक बड़ी आबादी को मनुष्यों को मनुष्य की तरह जीने की आज़ादी भी प्राप्त
नहीं है। वंचित वर्गों पर अत्याचार अपनी सभी सीमाएं पार कर चुका है। रंग भेद, वर्ण भेद, लिंग भेद अपने चरम
पर है। ऐसे में कवियों का दायित्व बनता है कि उनकी रचनाएँ इस समय का मुखपत्र बने, वंचितों की आवाज़ बन
उनके हक़ की लड़ाई को शब्दबद्ध करे। और यह काम निश्चित ही शुष्क काष्ठ को नीरव
तरुरिह कहकर पूरा नहीं किया जा सकता। ऐसे विकट समय में जब प्रकृति भी अपने दोहन की
चरम सीमा पर खड़ी विलाप कर रही है, हर सूखता और कटता हुआ पेड़ पृथ्वी पर आये खतरों को और बढ़ा रहा है। ऐसे में
उसका लालित्यपूर्ण वर्णन समस्या से आँखें मूँद, परिस्थितियों से पलायन करना ही है।
बाकी कविता शब्दों में नहीं लिखी जाती
हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब धर्म, सत्ता, पूंजीवाद, बाज़ार की अश्लील साजिशें हमारे मनुष्य होने की पहचान और समझ को ही लीलती
जा रहीं हैं। प्रकृति का कोप अपने सबसे भीषण रूप में हैं। ऐसे में अकेली कविता
क्या कुछ कर लेगी, यह प्रश्न स्वाभाविक है। कविता शायद अधिक कुछ नहीं कर सकती लेकिन हमारे
अंदर के मनुष्य से हमारी पहचान ज़रूर करवाती रह सकती है। मानवता को बचाए रखने के
लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी भी यही है कि हम अपने अंदर के इंसान से मिलते रहें, उससे संवाद करते
रहें। एक ज़िम्मेदार कविता यह काम बख़ूबी करती रही है। वह हमें समाधान नहीं देती, प्रश्न देती है।
हमारी बुद्धि, हमारे स्वविवेक को
नष्ट करने की सुनियोजित प्रयासों के बीच हमारे ज़ेहन में आया हर प्रश्न, हर बेचैनी हमारी
चेतना के जागृत होने का प्रमाण है।
कविता सिर्फ़ मनोरंजन या पाठकों की कलात्मक अभिरुचि को सिंचित करने के लिए
नहीं लिखी जाती है, लेकिन यह भी मानना होगा कि कालांतर में कविता आम जन से दूर होती जा रही
है। आज भी एक आम आदमी कविता के लिए सूर, तुलसी या प्रसाद, दिनकर, निराला की शरण में
ही जाता है। इसका एक बड़ा कारण कवियों में आम जनता की समस्याओं की समझ और आंतरिक
तैयारी की कमी है। जिस हाशिये पर छूट गए वर्ग के लिए कविताएं लिखीं जा रहीं हैं, यदि वही उसका अर्थ
ग्रहण नहीं कर पाये तो ऐसी कविताओं के लिखे जाने के औचित्य पर सवाल उठना स्वाभाविक
है। अपने शब्द और बिम्ब चयन में अति गरिष्ठ और चमत्कारिक हो रही हिन्दी कविता बस
विद्वानों और आलोचकों के ही काम की वस्तु बनती जा रही है जिसके अर्थ में उतरने के
बाद वे उसका आस्वाद लेते चमत्कृत हो सकते हैं। वह कविता खेत में काम कर रहे किसान, ईंट ढोते मज़दूर, मीलों पैदल चल अपने
घर जाती गर्भवती स्त्री, शोषण के शिकार बच्चों, स्त्रियों और अन्य वंचित वर्गों के किसी काम की नहीं है।
यह ज़रूरी है कि हिन्दी कविता आम जन के बीच अपनी पहुँच बनाए। वह फिर से उनकी
जीवनशैली, उनके संवाद का अंग बने।
अपनी समस्याओं, चुनौतियों और
जिज्ञासाओं के साथ खड़ा गणतन्त्र का वह अंतिम व्यक्ति भी उसे उतनी ही मज़बूती से
दुहरा सके और उसमें अपना चेहरा देख सके। कविता छंदसहित हो या छंदरहित यह प्रश्न ज़रूरी
नहीं, ज़रूरी है कि वह इंसानियत
और जीवन पर उम्मीद बनाए रखने का अपना उद्देश्य अवश्य पूरा करती चले और आम जनता की चेतना
को जागृत करती रहे।
कविता बाज़ार का कोई फिनिश्ड प्रोडक्ट नहीं है। उसका निर्माण कभी खत्म नहीं
होता, लिखे जाने के बाद वह
अपने अर्थ के माध्यम से हर पाठक द्वारा पुनर्जीवित की जाती है। एक सार्थक कविता की
यात्रा कभी खत्म नहीं होती क्योंकि उसे सिर्फ़ शब्दों में नहीं लिखा जाता है। वह
मानव हृदय और उसकी चेतना का विस्तार होती है जिसका एकमात्र उद्देश्य हर पूर्वाग्रह
और ग्रंथियों से मुक्ति है। कविता मानवता की मुक्ति का उद्घोष है।
कुँवर नारायण के शब्दों में: बाकी कविता शब्दों में नहीं लिखी जाती/ पूरे
अस्तित्व को खींचकर एक विराम की तरह कहीं भी छोड़ दी जाती है’।
(यह लेख इससे पूर्व संक्षिप्त रूप में एक दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित है)
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