अनुनाद

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साहित्‍य ज़माने भर से किया जानेवाला इश्‍क़ है – कुमार अम्‍बुज

साहित्‍य में संगठनों की प्रासंगिकता पर बहस लगातार बढ़ी है। वैचारिक प्रतिरोध और विमर्श के लिए व्‍यक्तिकेंद्रित गैरवैचारिक समूहों के बरअक्‍स संगठनों की भूमिका को अब समाप्‍त मान लेने के उदाहरण हमारे सामने हैं। संगठनों ने भी अवश्‍य ही कुछ चूकें की हैं। सोशल मीडिया के हाइपररियल दौर में चूकने के ये प्रसंग भी साहित्‍य के पाठकों के सामने अब मौजूद रहते हैं। 

इस पूरी उथलपुथल में अपेक्षाकृत स्थिर और साफ़ दृश्‍य की तरह कुमार अम्‍बुज का यह लेख अनुनाद को मिला है। कुमार अम्‍बुज उन कवियों में हैं, जिन्‍होंने केवल कविता तक अपने को सीमित नहीं रखा। वे अकसर ही वैचारिक हस्‍तक्षेप के लिए, संवाद के लिए और रचनात्‍मक बहसों के लिए गद्य के कुछ शिल्‍प सिरजते रहे हैं। हमारा मानना है कि उनका यह लेख एक स्‍वस्‍थ बहस के सिलसिले की शुरूआत हो सकता है। अनुनाद इसके लिए कवि का आभारी है।
 

    साहित्‍य अंतर्गत वैचारिक संगठन और गैर-वैचारिक समूहों में अंतर होता है।   

यह ज़मीन आसमान का अंतर होता है।

वैचारिक संगठनों का अपना एक सुस्‍पष्‍ट घोषित दर्शन, दर्शनाधारित विचार, विचाराधारित उद्देश्‍य और उद्देश्‍याधरित समझ होती है। इन्‍हीं शामिल बिंदुओं को लक्ष्‍य करके उनका अपना एक घोषणा पत्र, संविधान, नियमावली आदि सार्वजनिक होती है। वह समझ कितनी प्राप्‍य होती है या यूटोपिया ही बनी रहती है, इसके बावजूद वह होती है।
  
पहले वर्ग में, किसी विचारधारा विशेष, जैसे वामोन्‍मुखी या दक्षिणाभिमुख विचार अंतर्गत कुछ अभीष्ट या उद्देश्य रहते हैं। उनके इरादे, घोषणाएँ, प्रवृत्ति और पक्षधरता को पहचाना जा सकता है। वहाँ साहित्य संबंधी एक दृष्टि, विचार-सरणी और कुछ साहित्यिक मापदण्ड, समझ के औजार भी दृष्टि और सरणी से निसृत होकर सामने रहते हैं। तत्संबंधी नयी चुनौतियाँ भी। विचारधाराओं से प्रेरित तमाम लेखक संगठन इसी वर्ग में आते हैं। इनका अजैण्डा असंदिग्ध रूप से जाहिर होता है। सार्वजनिक। उनके उद्देश्य स्पष्ट होते हैं। प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, पूर्व में ‘परिमल’ और इधर अस्तित्व में आईं अनेक सांस्कृतिक दक्षिणपंथी संस्थाएँ, जिनकी अपनी नीति स्पष्ट है, इस तरह के संगठनों के उदाहरण हैं। प्रायः इस तरह की संस्थाओं में औपचारिक/अनौपचारिक सदस्यता होती है और वे अपनी प्रतिबद्धताओं के लिए जवाबदेह होते हैं, माने जाते हैं।

दूसरे वर्ग में मुख्यतः निजी महत्वाकांक्षाओं, व्यक्तिगत यशकामना और/या व्यावसायिक समझ के साथ बनाए जानेवाले समूह आते हैं। या इनसे चालित होनेवाले मित्रमंडल। जाहिर है, ये किसी सामूहिक जनचेतना, व्यापक विचार या विचारधारा से प्रेरित नहीं होते। इसलिए कभी-कभार उनमें विभिन्न विचारों के लेखक भी, निजी कारणों से, एक साथ सक्रिय दिख सकते हैं। इनकी एक, दो, या दस घोषणाओं या सोशल मीडिया पर लिखित पोस्‍ट को विश्लेषित कर लें तब भी कुछ हाथ नहीं आएगा। सिवाय इसके कि ये व्यक्तिगत स्‍वीकृति, एक सीमित क्षेत्र में वर्चस्व या परस्‍परता की स्‍थानीय कामना, प्रकाशकीय लोभ-लाभ, पत्रिका की लांचिंग या प्रचार अथवा निजी धाक जमाने हेतु, पब्लिक रिलेशनशिप के लिए सक्रिय बने रहते हैं।

जब तक उनकी यह यशलिप्‍सा, निजता से लथपथ आकांक्षा सिर उठाये रहती है या कोई उठंगकामनाचालित व्‍यक्ति इसके पीछे काम करता रहता है, ये दृश्‍यमान रहते हैं और अचानक सिरे से गायब हो जाते हैं। फिर उनकी उतनी गूँज भी बाकी नहीं रहती जितनी एक उथले, अंधे कुएँ में आवाज लगाने से होती है। उनका ऐतिहासिक महत्व तो दूर, उसकी किंचित उपलब्धि भी अल्प समय के बाद ही, कोई नहीं बता सकता। संक्षेप में कहें तो इनकी नियति एक ‘स्‍थानीय क्लब’ में बदल जाती है जहाँ साहित्य, रचनाधर्मिता के संदर्भ में कोई ऐसी बात संभव नहीं जिसे गहन सर्जनात्मकता एवं बड़े विमर्श तक ले जाया जा सके। उसे विचार की किसी परंपरा से जोड़ा जा सके। किसी आंदोलन के हिस्से की तरह उसे देखा जा सके या उस संदर्भ में नयी पीढ़ी को उत्‍सुक अथवा उत्प्रेरित किया जा सके।

ऐसे लोग और समूह, एक तरह के अवकाश को भरने या उम्र विशेष में बोरियत दूर करने, साथ मिलजुलकर बैठने की इच्छा या समकालीनता में किसी तरह अपना नाम शामिल करने-कराने की सतही सहज-सरल आकांक्षा, ध्यानाकर्षण की योजना से प्रेरित होते हैं और कई बार इस प्रतिवाद से भी कि उन्हें अपेक्षित स्वीकार नहीं मिला है। या उन्हें कमतर समझा गया है। या यह कि उन्हें और, और, और, और, और जगह चाहिए। अपनी तमाम अपर्याप्‍त रचनाशीलता अथवा अयोग्‍यता के बावजूद। यह रचनाशीलता के माध्‍यम से नहीं, किसी अन्‍य माध्‍यम से लड़कर अपने लिए कोई जगह चाहते हैं। दूसरे की प्रसिद्ध रचनाओं को कमतर अथवा किसी स्‍वीकृत लेखक को संदिग्‍ध बना देने का अजीबो-गरीब उपक्रम भी इसमें विन्‍यस्‍त रहता है। मानो ये अपनी किताबें नहीं लिखना चाहते, दूसरों की लायब्रेरी में आग लगा देना चाहते हैं।

एक बात यहाँ सबसे महत्वपूर्ण होती हैः इनका कोई घोषित सामूहिक, वैचारिक अजैण्डा नहीं होता। न कोई कार्यसूची होती है। जो उनकी बाकी हरकतें हैं उनसे साहित्य या जीवन के प्रति उनके किसी भी विचारधारात्‍मक नजरिये, लेखक की रचनाधर्मिताजन्‍य बेचैनी या दृष्किोण से कोई संबंध नहीं बैठाया जा सकता। उनकी सामूहिक या सामाजिक चेतना को लक्ष्‍य नहीं किया जा सकता। पिछले एक दशक से ये समूह सोशल मीडिया की पोस्‍टों में अधिक सक्रिय रहते हैं। मोहल्‍लों-कस्‍बों-शहरों में ये किसी मिलन समारोह, मनाोरंजन, पर्यटन, सामूहिक दस्तरखान के सुख, आनंददायी तस्वीरों और अन्य मधुर स्मृतियों में न्यून हो जाते हैं। इन्हें ‘साहित्यिक किटी पार्टियों’ की तरह भी देखा जा सकता है। ये विचार स्‍खलित समूह हैं।

अधिक साधन-संपन्‍न लोग इनका संस्‍थानीकरण भी करते हैं। हर तरफ, हर जगह इन्‍हें देखा जा सकता है। वहाँ कोई भा आ-जा सकता है उसमें भागीदारी से किसी को कोई उज्र या ऐतराज नहीं, जब तक कुछ विचारधारात्मक सवालों से मुठभेड़ न हो। फिर से याद कर लें कि इनके पास साहित्य को लेकर कोई विशिष्ट औचित्य या दृष्टि नहीं होती, सिवाय इस महान वाक्य के कि ‘वे साहित्य की सेवा कर रहे हैं और उनका जन्म बस यही करने के लिए हुआ है। रसधार बहती रहे, इतनी ही इच्‍छा है प्रभु।’ उनके अफसोस-ग़ज़ल का मतला यह कि वे कितना अच्‍छा लिख रहे हैं मगर कोई ध्‍यान नहीं दे रहा है। मक़ता यह कि अब हम इकट्ठे हो गए हैं।
 
बहरहाल। यदि पहले वर्ग के संगठनों में कोई शामिल होता है तो वह खास तरह के वैचारिक अजैण्डा की जानकारी के साथ, उसके प्रति सहमति, प्रतिबद्धता या उत्सुकता से शरीक होगा। और दूसरे तरह के समूहों में वह मूलतः अपनी स्‍वीकृति, मौज मस्ती, मेल-मिलाप, निजी मान्‍यता, अपेक्षित सम्‍मान और संबंधवाद के लिए।

लेकिन हर उस संगठन या समूह को दिलचस्‍पी से देखा जाना चाहिए जिसका सार्वजनिक वैचारिक धरातल और उद्देश्‍य स्‍पष्‍ट होकर घोषित हो। भले ही, उनका प्रयास या संगठन का काम व्‍यावहारिक रूप से असफल सिद्ध हो जाये। तत्संबंधी उद्देश्यों और आकांक्षाओं को पहले समझना जरूरी है। यानी वही अमर सवालःपार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ 

बाकी के समूह निजी पुकार का पर्यायवाची हैं। यह उनका अधिकार है लेकिन उसका सार्वजनिक महत्‍व नहीं। वे पवित्रता और नैतिकता से आकुल हो सकते हैं लेकिन उनका शून्‍यवाद स्‍पष्‍ट है। उन्‍हें प्रणाम किया जा सकता है।

ध्‍यातव्‍य है कि पिछले कुछ वर्षों से विचारधारा संपन्न संगठन अपने पराभव काल में हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनका विचार असफल है या उनकी आवश्‍यकता नहीं रह गई है। व्‍यावहारिक सफलता या विफलता आती-जाती रहती है। वह कई अन्‍य कारकों पर भी निर्भर करती है। यह याद कर लेना यहाँ अप्रासंगिक न होगा कि दीर्घकालीन दृष्टि और किसी प्रतिबद्धात्‍मक अजैण्डे के साथ काम करने से ही संगठन और संस्थाएँ बनती हैं।
विमर्श आग्रगामी होता है।

अन्‍यथा समूह या गुट बनते हैं। भावुक, आभारी बनानेवाली, सी-सा, अहो-अहो मित्रताएँ बनती हैं। इन्हीं सबके बीच आत्मतोषी रचनापाठ और रिवर्स रचनापाठ, कुछ आत्मीय विवाद, गैरवैचारिक-उत्तेजनाविहीन कलह, ठिठोली विमर्श और आमोद-प्रमोद होता है। फिर अनाम लोगों को संबोधित याचना पत्र और क्रोधित प्रतिवेदन पेश किए जाते रहते हैं। लेकिन कोई भी समझ सकता है कि यह साहित्य का उद्देश्‍य नहीं हो सकता। उनका आयुष्‍य औसतन तीन महीनों से लेकर इकाई में गणनीय वर्षों तक हो सकता है। वैचारिक संगठनों का आयुष्‍य एक लंबे कालखंड में फैलता है। उसका ग्राफ ईसीजी जैसा हो सकता है क्‍योंकि वह एक जीवंत और सामाजिक धड़कन है। वह किसी एक व्‍यक्ति के जीवन या मृत्‍यु, उसकी कामयाबी अथवा नाकामी के साथ समाप्‍त नहीं होता। धीमा हो सकता है। लेकिन फिर गति पाता है। क्‍योंकि वह कोई पारिवारिक न्‍यास या परिजन की स्‍मृति में बनाया गया उपक्रम नहीं है।  

बाकी कुछ लेखक हर काल में अपनी तरह से अकेले रहकर, अपना काम करते ही आए हैं। बिना किसी दूसरे पर लांछन लगाए। अच्‍छी कविता, कहानी या रचना के लिए हमेशा जगह है, हर कोई उसे स्‍वीकृति देने के लिए सहज रूप से तैयार रहता है। पर कृपाकांक्षी हुए बगैर लिखो तो सही। यदि कोई मान्‍यता नहीं दे रहा है तो फिर लिखो। दूसरों पर संदेह करने से पहले खुद की कमियों पर ध्‍यान दो। लेखन एक लंबा आत्‍मसंघर्ष भी है। एक गीत की पंक्ति है: इश्‍क में जल्‍दी, बड़ा जुर्माना। साहित्‍य जमाने भर से किया जानेवाला इश्‍क है।

बाकी जो आप अपने लिए समझ लें।
लेकिन खुद के लिए मातम मत मनाइए।
महज किसी की मान्‍यता के लिए लिख रहे हो तो मत लिखिए।
तब एक और मशहूर पंक्ति को याद कर लें:
और भी ग़म है, ज़माने में मोहब्बत के सिवा।
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0 thoughts on “साहित्‍य ज़माने भर से किया जानेवाला इश्‍क़ है – कुमार अम्‍बुज”

  1. बहुत सही और सटीक विश्लेषण ।विचार स्खलित समूह (साहित्यिक पार्टी या आयोजन)के लिए ही उन्मुख रहते हैं।दीर्घकालीन दृष्टि और प्रतिबंधात्मक एजेंडे के साथ काम करने से संगठन और संस्थाएं बनती हैं।

  2. बहुत बढ़िया विश्लेषण। समूहों और वैचारिक संगठनों का अंतर और उनकी महत्ता को बहुत अच्छे से परिभाषित किया गया है। काश वर्तमान समय में इस 'ईसीजी ग्राफ' को ठीक से समझा जाए। साधुवाद।

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