Friday, July 31, 2020

बापू की लाठी पर टिकी है पृथ्वी - रोहित कौशिक की कविताऍं

   कवि का कथन   
कविता मेरे लिए जीवन को समझने का माध्यम है। हर व्यक्ति जीवन को किसी न किसी तरह से समझने का प्रयास करता ही है। कवि या कथाकार के लिए जीवन वृहद रूप में सामने होता है। इसलिए उसके लिए जीवन को समझने का नजरिया भी भिन्न और बड़ा फलक लिए हुए होता है। युगों से कवि यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि कविता आखिर है क्या ? इस प्रश्न का कोई बँधा-बँधाया उत्तर मिलना भी कठिन है। मैं और मेरे समय के अन्य कवि भी इसी प्रश्न का उत्तर खोज रहे हैं। मेरे लिए अपने समय की सच्चाई को पकड़ने का प्रयास ही कविता है। जरूरी नहीं कि मैं इस प्रयास में सफल होऊँ। इस दौर में कविता कला भर नहीं है, बल्कि एक कदम आगे बढ़कर अपने समय का यथार्थ है। निश्चित रूप से कविता में बिम्बों और प्रतीकों का अपना महत्व है लेकिन न जाने क्यों मुझे बिम्बों और प्रतीकों से आक्रान्त कविता सच्चाई से मुँह मोड़ती हुई नजर आती है। सुखद यह है कि इस दौर की कविता आँखों में आँखें डालकर बात कर रही है।

इस समय कविता में छन्द को लेकर बहस चल रही है। विडम्बना यह है कि इस अँधेरे समय में हमारे जीवन से लय गायब होती जा रही है। अगर हमने इस दौर की सच्चाई को पकड़ लिया तो शायद हम जीवन की लय को भी पकड़ पाएँगे। कविता के माध्यम से इस लय को पकड़ने की कोशिश ही में कोई रास्ता दिखा पाएगी।
- रोहित कौशिक

बापू-एक

बापू!
वे तुम्हारे पुतले को
गोली मार रहे हैं

पुतले की रगों में
खून नहीं दौड़ता
इसलिए दोबारा नहीं बहाई जा सकती
खून की नदी।

और पुतले भी
कहॉं गोली चला सकते हैं  
पुतले पर?

बापू-दो


बापू !
वे तुम्हारी लाठी को
हिंसा का प्रतीक बताते हैं

लाठी कहाँ हिंसक होती है
हिंसक होते हैं
लाठी चलाने वाले हाथ।

उन्हें नहीं दिखाई देती
निर्बल शरीर को
सहारा देती लाठी।
या बुढ़ापे की लाठी

उन्होंने ढूँढ़ ली है
बुढ़ापे की लाठी में भी हिंसा
ये वहीं लोग हैं
जो अपने माता-पिता की लाठी
में भी ढूँढ़ लेते हैं हिंसा।

एक आँख से देखो
तुम्हारे दादा लाठी पकड़कर
घूम आए हैं खेत।

देखो दूसरी आँख से
तुम्हारी दादी
पड़ोस वाली चाची से बतियाकर
लाठी पकड़ चली आ रही हैं।

तीसरी आँख से देख पाते
तो देखते
बापू ने पकड़ ली है लाठी
अहिंसा समा गई है
लाठी के पोर-पोर में
अहिंसक लाठी के सामने
फीकी है अंग्रेजों की हिंसक लाठी।

शेषनाग के फण
कच्‍छप की पीठ
और गाय के सींगों पर नहीं
देखो
बापू की लाठी पर
टिकी है पृथ्वी।

बापू-तीन


बापू ! तुम्हारे चश्मे से
आपत्ति है उन्हें
तुम दुनिया देखते हो
अपने चश्मे से
जबकि वे तुम्हें देखते हैं
अपने चश्मे से
हालाँकि उन्हें नहीं मालूम
अपने चश्मे का नम्बर।

जब उनसे पूछा जाता है
उनके चश्मे का नम्बर
तो वे चश्मे का नम्बर न बताकर
एक रंग का नाम बताने लगते हैं

बापू ! तम्हारे उस चश्मे से
आपत्ति है उन्हें
जिससे दिखाई देता है इन्द्रधनुष

बापू ! आपत्ति है उन्हें
तुम्हारे उस चश्मे से
जो हमें धर्मान्धता की
गहरी खाई में नहीं धकेलता
न ये दाढ़ी वाले के काम का है
चोटी वाले के

बापू ! तुम्हारे समय में
और तुम्हारे बाद भी
तुम्हारे चश्मे से
देखने की कोशिश होती
तो हमेशा उड़ते रहते सफेद कबूतर।

उन्हें पता नहीं चल रहा
बापू के चश्मे के कारण
उजली है बापू की दृष्टि
या बापू की दृष्टि के कारण
उजला है बापू का चश्मा।
***
परिचय
रोहित कौशिक
जन्म: 12 जून, 1973, मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: एम.एससी.,एम.फिल. (वनस्पति विज्ञान), पी.जी.डी. (पत्रकारिता)
प्रकाशित कृतियाँ: 1. 21वीं सदी: धर्म, शिक्षा, समाज और गाँधी (लेख संग्रह)
                2. इस खण्डित समय में (कविता संग्रह)
                3. संवाद के दायरे में साहित्य (साक्षात्कार)
अन्य प्रकाशन: देश के प्रतिष्ठित अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों पर निरन्तर आलेखों का प्रकाशन। लगभग सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में साहित्यिक रचनाओं का प्रकाशन।
साहित्यिक-सामाजिक सरोकार: 1. प्रतिवर्ष मुजफ्फरनगर में पर्यावरण, कला, साहित्य और संस्कृति पर केन्द्रित ‘सरोकार’ नामक व्याख्यान का आयोजन।
2. हर रविवार फेसबुक पर प्रकाशित होने वाले स्तम्भ ‘रविवार की कविता’ को देशभर के कवियों एवं लेखकों का स्नेह प्राप्त
सम्पर्क: 172, आर्यपुरी, मुजफ्फरनगर-251001, उत्तर प्रदेश
मोबाइल: 9917901212
ई मेल: rohitkaushikmzm@gmail.com


Tuesday, July 28, 2020

विदग्ध देहों का जल-स्पर्श - अमिताभ चौधरी की कविताऍं / चयन : प्रशांत विप्‍लवी


अमिताभ चौधरी की कविताऍं कवि प्रशांत विप्‍लवी ने अपनी एक टिप्‍पणी के साथ उपलब्‍ध करायी हैं। इस सहयोग के लिए अनुनाद प्रशांत जी का आभारी है। इधर के प्रचलनों से अलग ये कविताऍं एक अलग कहन की कविताऍं हैं और बरते गए शब्‍दों और वाक्‍यों के अलावा उनके बीच की दूरियों और रिक्तियों में भी मौजूद हैं। अमिताभ चौधरी का अनुनाद पर स्‍वागत है। 


   विदग्ध देहों का जल-स्पर्श   

कविता उसके सर्वांग में है। उसने स्वभावगत निश्चिंतता के लिए एकाकीपन वाले जीवन को चुना। साहित्य की शाब्दिक तपस्या को उसने यथार्थपूर्ण ढ़ंग से जीना सीख लिया है। उन्हें (अमिताभ चौधरी) मैं  एक विशुद्ध कवि मानता हूँ । उनकी कविताओं का अपना एक अलग संसार है। समकालीन कविता के द्रुत लय-ताल वाले बहुधा पाए जाने वाले फॉर्मैट से दूर उनकी अपनी शैली , अपनी भाषा और अपना कथानक है, जो विलम्बित शास्त्रीयता के नियमों पर अग्रसर है। विषयों की विविधता और उन पर बहुआयामी दृष्टिकोण भी उनकी कविता की विशिष्टता है। उनकी कविता संगीत वाली शिष्टता भी कायम रखती है और जबकि अर्थ स्पंदन अपनी संवेदना और चेतना वहन में उतने ही सफल भी हैं।
-      प्रशांत विप्‍लवी

[एक]

पीड़ा का अंत नहीं है, प्रिये!

                                 वह देखो : 
               एक नवजात की किलक सुनकर
               बाँझ स्त्री के स्तनों में दूध उतर आया है।

देखो प्रिये : दूध के दाब से फटते स्तनों को
वह अपने हाथों से
चुआ रही है।

अपनी रिक्त गोद में वह कितने बच्चे खिला रही है?

                                                 - देखो!

[दो]

किसी अकिंचन की भावना से
रोटी का मूल्य आँकते हुए
मैं क्या कह सकता हूँ?      जबकि,
                          खेत-के-खेत
मेरे समक्ष उपस्थित हैं,

                     —और अभी-अभी राम बरसा है।

उपस्थितियों के सामने
पृष्ठ टिकाकर कविता लिखने की कल्पना दूभर है,
मित्र!

रोटी को उदर पर रखकर
भूख कै करने के लिए उबकियाँ लेना
असाध्य है।

[तीन]

,
विदग्ध देहों का जल-स्पर्श!
गूढ़,
अकाल,
अंतःस्रावी;

और कितनी मिट्टी तुम्हारे ऊपर है?—

                                               कि मैं,

                                 पृथ्वी की आत्मा से आकंठ मिलूँ
                                 तो कविता का रस बरसे!

[चार]

तैरते-तैरते
नावें सूख गई हैं।

सारा काठ उतर गया है।
[देखो!]

किंतुतुमने केवल नदी की शांति/
उन्माद    और
आंदोलन देखे हैं :

           नदी के प्रतिबिंब में मुख देखकर
           तुमने केवल
           जल की आर्द्र ध्वनियाँ कंठ की हैं।

[ऐसे, एक वृक्ष की काया काटना अच्छा बात नहीं हैव्यक्ति!]

[पाँच]

मरूस्थल के एक आकाशीय
विस्तार में
जल के लिए मछली की तड़प है—

       समुद्रों/
                      नदियों/
                                     झीलों/
                                                    तालों से कहीं दूर
मछली की तड़प।

           : ग्रीष्म की एक दोपहर
             मैं बाएँ डग से चप्पल उतारकर
             बालू को स्पर्श करता हूँ,  "मेरे राम!"

यदि मैं कहना चाहता हूँ : मेरे पैरों में
चप्पलें हैंइसलिए
मैं मछली की तड़प को नहीं पहुँचा हूँ;
तो तुम कहना, " हाँ!"

तुम कहना मेरे प्यार! ...

[छह]

दूर तक—
बहुत दूर तक
एक नीलगाय है;
[केवल एक नीलगाय।]
कुछ होने के भय से चौंकी हुई :
                   जन्मने को योनियाँ टोहती मेरी आत्मा
                   उसकी आँखों में होनी चाहिए!०००
                                                 [यद्यपि,

                  मैं उसे सूझ जाऊँगा तो वह 'धक्' से रह जायगी।]

[सात]

ओ मेरी प्रभुता!
तुम कहाँ जगलों में रह गई।

मैं कहाँ नगरों में खो गया।

धरती के ऊपर आकाश इतना क्या हो गया     कि
एक कविता में भटकता हुआ आहत मैं     कि
मैं दुःख के लिए रो सकता हूँ :

                              घास-फूस तक जाकर
                              मैं तुम्हारे लिए पृष्ठ हो सकता हूँ
                                                              यदि  निरक्षर
                 तुम मुझे पढ़ती हुई मिलो :

मैं नग्न हो सकता हूँ
कि मैंने वस्त्र पहने हैं, इसलिए
तुम मुझे अश्लील कहो ...

[आठ]

मैं तुम्हें देखता हूँ
और तुम्हें सुंदर कहता हूँ।

तुम्हें देखते हुए
मैं तुम्हारी आत्मा से भर जाता हूँ :
                                    तुम्हारा वक्ष।—
                                           तुम्हारा दर्प।—
                                                   तुम्हारी आन।—

तुम्हारी नाभि के वृत्त में मैं पृथ्वी को घूमते हुए देखता हूँ
और शून्य साध लेता हूँ।

                   तुम्हारी स्पृहा की कल्पना में
                   मैं अपने रोयों से निकलता हूँ     और
                   ऐसे स्थिर होता हूँ
                   जैसे कहीं चला गया।

[नौ]

रात भर मैं ने अँधेरा देखा :
                 निष्प्रभ उजाले को कोख देता
                 केवल अँधेरा।

पलकें उठाने व गिराने को एकसार करता यह समय
प्रतिबिंब झाँकने के लिए कितना उपयुक्त है?     कि
                       मैं केवल स्पर्श करके अपना मुख
                       देख सकता हूँ।

मैं समझता हूँ [जैसे मैं समझता हूँ] : 
                       पानी प्रतिबिंब की काया से
मुझे मेरा मुख दिखाकर झील की तहें लोका लेता है    कि
मेरे समक्ष गहराई का अभिप्राय प्रकट हो,—
                                          अँधेरे-सा   स्पष्ट     '
                                           निष्कलुष।

[पानी : समय जैसा पारदर्शी पानी। ...]

[दस]

बाँझ के बेटे-सा
            एक विचार     सुमुखी
जन्म ले रहा है।

यदि,
           तुम योनियाँ लहुलुहान होने को आवश्यक नहीं समझते हो
           तो मेरी कोख को टटोलो।
          [टटोलना जैसे स्पर्श करना है।]

तुम यह समझने का यत्न करो कि मेरी पीड़ा प्रसवदर्श नहीं है
        ,,और      —और     मेरी रिक्त गोद में एक शिशु का भार है :
                                                       पृथ्वी जैसे गोल      और
                                                                                       हरा।

[ग्यारह]

शुष्क जल की कल्पना में
आर्द्र काठ की इच्छा से
मैं तहों-की-तहों डूबा हूँ।

मुझे तैरती नावों से प्रयोजन है : नहीं है।

मेरी साँस के बुलबुले
तुम्हारे हाथ आते हैं तो अच्छी बात है।—

मेरी देह तुम्हारी नाव को छूती है तो छूने दो : मत छूने दो!

मिट्टी पर ढेर हुई मछली की दो आँखों के एक बिंदु पर
मेरी भौंहों का बीच है,
इसी को यथार्थ समझकर तुम मेरी टोह लेना : नहीं लेना!!
***
   परिचय   
अमिताभ चौधरी
जन्म : राजस्थान में चुरू जिले के ग्राम थिरपाली छोटी में।
शिक्षा : एम ए [हिंदी साहित्य]
पूर्वग्रह, अहा ज़िंदगी, सदानीरा, समालोचन आदि साहित्यिक ब्लॉग्स और पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।



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