अनुनाद

अनुनाद

हेमंत देवलकर की दो कविताऍं

जीवन के रंगमंच में बहुत बड़ा एक नेपथ्‍य होता है। जैसे हर चीज़ जीवन से कविता में आती है, यह नेपथ्‍य भी वहॉं से कविता संसार में आता है। बहुत अच्‍छे कवि अकसर कविता के नेपथ्‍य में देखे गए हैं। हेमंत देवलकर उनमें से एक हैं। वे लम्‍बे समय से रंगमंच पर सक्रिय हैं और कविताऍं भी लिख रहे हैं। 
    
अभिशप्‍त कविता में एकलव्‍य के पुराप्रसंग को वे जीवन, समाज, देश और दुनिया में बार-बार नया पाते हैं। एक महाकाव्‍यीय टीस, मिथकीय पछतावा और अन्‍याय की इतिहासपूर्व यह स्‍मृति, तीनों ही बिलकुल नए समय में और भी सघन हो मनुष्‍य के सामने खड़े हो जाते हैं। हमारा यह समाज संकटों को अकादमिक रूप से पहचानने,उनकी परिभाषा और उन पर विमर्श में करने में व्‍यस्‍त रहा है और इस बीच ये संकट अपने मूल स्रोत से कहीं अधिक विशाल, निर्मम और भयावह होते चले गए हैं। सिद्धान्‍त से व्‍यवहार में आते और जूझते जन नहीं देखे कब से और इस तरह बेहद ज़रूरी एक तफ़सील जो बनती नहीं देखी, एक हद तक उसी तफ़सील में ले जाने की कोशिश यह कविता करती है।  दूसरी कविता जूता अपने अंत तक आते मानवजाति के एक महाख्‍यान तक पहॅुंच जाती है, जहॉं  फूल हाथ से छूटकर उड़ने लगे थे/मैं पसीने का एक बादल था / धूल का एक रथ / मेरे वेग को देखते दिशाएं परे हट गयीं / और मुझे रास्ता दिया / मेरे स्तन दूध से भरने लगे थे / और मुझे लगातार ये ख़याल आ रहा था / कि मेरे ईश्वर को भूख लगी होगी । ईश्‍वर की परिभाषाओं से भरे इस संसार में इस कविता का ईश्‍वर बहुत अव्‍यक्‍त-सा एक ईश्‍वर है और इस तरह वह कितना ईश्‍वर है, इस पर भी विचार करना होगा।  अनुनाद ने कुछ समय निष्क्रिय रहने के बाद वापसी की है और हमें हेमंत की कविताऍं इस वापसी के प्रथम काव्‍यदृश्‍य की तरह मिल सकीं, इसके लिए अनुनाद कवि का आभारी है।   

*** 

 

अभिशप्त

द्रोणाचार्य लौट चुके थे, अंगूठा लेकर
एकलव्य वहीं पड़ा था निश्चेष्ट
रक्त फैला था पास ही
उसके कबीले के लोग सारे जमा थे आसपास
इतना भीषण था आक्रोश उनमें कि
नि:श्वासों से काँप काँप जाता था जंगल ।

शाप बनकर फूटा क्रोध उनका
गुरु द्रोण जा चुके थे दूर, सुनाई उन्हें
दिया नही

एकलव्य के कान भी थे निस्पंद
सुनाई उसे भी दिया नही
सुन कोई नही पाया, शाप वह क्या था ?

गुरु द्रोण ने एक बहती नदी में
उछाल दिया कटे अंगूठे को
और धूल उड़ाता रथ उनका लौट गया ।
*

कहते हैं वह शाप उस युग मे फला नहीं
उल्का बनकर अंतरिक्ष मे भटकता रहा
**

बहुत बुरे सपने से आज नींद खुली
एक विशालकाय उल्का पृथ्वी से टकरायी थी
और सब कुछ उथल पुथल था

हज़ारों सदियां गर्त से निकलकर सामने आ गयी हैं
मैंने देखा
पृथ्वी पर सिर्फ़ अंगूठों का अस्तित्व है
सुबह-शाम दफ्तरों को जानेवाली सड़कों पर,
रेलों में सिर्फ़ अंगूठे भाग रहे हैं
शरीर का सारा बल, पराक्रम अंगूठों में सिमट
चुका

कितनी कलाएँ, उनका कौशल,भाषा यहां तक कि आवाज़ भी अंगूठों के अलावा बाहर कहीं न थी
एकदम वास्तविक से लगते बड़े बड़े आभासी पहाड़ों को
धकेल रहे हैं अंगूठे
और पसीने की एक बूंद तक नहीं ।

निश्चेष्ट पड़ी हैं मनुष्य की भुजाएं
जैसे एक दिन संज्ञाशून्य पड़ा था एकलव्य
लौट आया है उसका अंगूठा
और फैल गया है गाजर घास की तरह पृथ्वी पर
अचानक मुझे सुनाई दिया वह शाप ।
***

जूता

मंदिर के बाहर उसे उतार आया था मैं
जैसे कोई तांगा उतार देता है सवारियाँ
लेकिन उतारने और छोड़ने में फ़र्क़ है बहुत
मैं उसे छोड़ नही पाया ।

जूता स्टैंड वाले ने उसकी पावती के बरअक्स
पतरे का एक टुकड़ा मेरी ओर उछाल दिया
मैंने देखा- एक संख्या थी उस पर
पतरे का वह मामूली टुकड़ा
एक बेशक़ीमती धातु में बदल गया था
और संख्या एक अलौकिक पासवर्ड में

मैंने मुड़कर जूते को देखा
फिर हाथ के उस टुकड़े को आश्चर्य से
कितना जादुई है ये रूपांतरण
किसी निषिद्ध चीज़ को इतनी आसानी से स्वीकृति
में बदला जा सकता है (?)

उसे जेब मे डालते हुए लगा कि मैंने कुछ बो दिया है
यकायक होश आया कि कितने दिन बीत गए यहीं जूता स्टैंड पर खड़े-खड़े
मैं भूल ही गया कि ये जगह मंदिर नहीं
और ईश्वर जूता नहीं ।

बहुत लम्बी क़तार मंदिर के भीतर
घंटियां हिल रही थीं
भीड़ लगातार कुछ बुदबुदा रही
मगर मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया
कुछ भी नहीं ।

मेरे कानों में गूंज रही थी जूते की संख्या
मैंने भीड़ के हिलते हुए होंठ देखे
क्या सब अपने-अपने जूते की संख्या जप रहे हैं ?
मैंने अपनी जेब को देखा जहाँ वो प्रतीक रूप में मौजूद था
मैंने गहरी साँस ली
पहली बार मुझे अंतरात्मा शब्द पर भरोसा हुआ
मैंने उसे हथेली में भर लिया और मेरी आत्मा से एक ही आवाज़ निकली –
जूता

यह कोई पवित्र मंत्र था , जो मेरे मुँह
से निकला था ।

मेरे एक हाथ मे फूल थे दूसरे हाथ मे जूता
कभी कभी मैं भूल जाता कि किस हाथ मे क्या था
फूल और जूते का फ़र्क़ मिट जाना-
ज्ञानकी शुरुआत यहीं से होती होगी
यही सोचते कतार में आगे बढ़ते रहा
जूता सिर्फ़ ज़मीन पर नही चलता
उसके बारे में सोचो तो विचारों में भी चलता है
कल्पनाओं में भी
इस वक़्त मेरी हर धमनी में चल रहा है
मेरी सारी प्रार्थनाओं में चल रहा है जूता
और अब कोई मेरी कामना बाकी नहीं ।

जैसे-जैसे गर्भगृह नज़दीक आ रहा था
वो संख्या और मंत्र ज़ोर शोर से पूरे शरीर मे बजने लगे
और वह क्षण – !!
मैं ठीक पिंडी के सामने था
भीतर बवंडर मचा हुआ
लगा पृथ्वी लट्टू की तरह घूम रही है
इसके पहले कि मैं फूल वाले हाथ को चुनता
मैंने पतरे का वो टुकड़ा पिंडी की ओर उछाल दिया
और भागा
भागा बाहर की ओर
किधर होता है – बाहर ?
भागना बाहर की ओर ही क्यों होता है ??
ये सब सोचते हुए भागा
भागा जैसे कोई अंधड़ हो
छोटी-बड़ी कितनी ही घंटियों का शोर मेरे पीछे
फूल हाथ से छूटकर उड़ने लगे थे
मैं पसीने का एक बादल था
धूल का एक रथ
मेरे वेग को देखते दिशाएं परे हट गयीं
और मुझे रास्ता दिया
मेरे स्तन दूध से भरने लगे थे
और मुझे लगातार ये ख़याल आ रहा था
कि मेरे ईश्वर को भूख लगी होगी ।
***

 




0 thoughts on “हेमंत देवलकर की दो कविताऍं”

  1. वास्तविकता का एहसास कराती ये दोनों कविताएँ
    रचनाकार की प्रतिबध्दता की परिचायक…

    रवीन्द्र देवलेकर

  2. मन की स्थिति का अहसास,कल्पनाओं की सैर,स्वयं से नि:शब्द संवाद
    वाह…. क्या बात है हेमंत
    कुमार किशन

  3. शंपा शाह

    वाह कवि!! ईर्ष्या होती है, कितने जीवन, कितनी सघन ता से एक साथ जीता है कवि!! पसीने का बादल, धूल का रथ🌱🌱🌱

  4. शंपा शाह

    कवि से ईर्ष्या होती है!!! कितने, और कितने सघन जीवन जीता है वो एक साथ!! पसीने का बादल,धूल का रथ, फूल… और न जाने क्या क्या!! वाह कवि🌳🌻🌳

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