अनुनाद

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जीवन की भाषा या तो कविता की भाषा – 1 : अमित श्रीवास्‍तव

अनुनाद के फिर सक्रिय होने में जिन लोगों का सहयोग और प्रेरणा प्रमुख रूप से है, उनमें अमित श्रीवास्‍तव, गिरिराज किराड़ू, सुबोध शुक्‍ल, मृत्‍युंजय, व्‍योमेश शुक्‍ल, कमल जीत चौधरी, सोनी पांडेय जैसे मित्र शामिल हैं। इन मित्रों व अनुनाद के सभी पाठकों के प्‍यार और विश्‍वास को ध्‍यान में रखते हुए अनुनाद रचना और विचार के इलाक़े में सक्रिय हस्‍तक्षेप कर पाए, यही कामना है। 

त्रिलोचन ने कभी कहा था –

लड़ता हुआ समाज, नई आशा-अभिलाषा / नए चित्र के साथ नई देता हूँ भाषा

समय है कि अब इस नई भाषा पर बात की जाए और इस क्रम में  अनुनाद के अनुरोध पर जीवन की भाषा या तो कविता की भाषा को लेकर कवि-कथाकार अमित श्रीवास्‍तव ने अपने अहसासआत्‍मीय और अनौपचारिक कहन के साथ भेजे हैं। हम उम्‍मीद करते हैं कि कविता की भाषा को लेकर अनुनाद पर सिलसिलेवार कुछ बातें हो सकें। हम संवाद में फिर उसी सार्थक और संयत बहस की खोज में हैं, जो कभी अनुनाद की पहचान होती थी।
अमित को इस पहल के लिए शुक्रिया।      


1.
इस भुस्कैट* हो चले विवाद से बेहतर है हम भाषा के मुद्दे को एक अलहदा तरीके से समझने की कोशिश करें. मुझे लगता है सबसे सशक्त भाषा वही है जिसमें किसी मुसीबत में फंसा आदमी अपनी जान बचाने के लिए किसी को पुकार लगाता है और वो दूसरा उसे सुनकर, समझकर बचाने के लिए आ जाता है. एसओएस वाली भाषा. अब वो पुकार हिंदी, मंदारिन, फ़ारसी, अंग्रेज़ी जैसी खालिस भाषा में हो, भाषाओं-बोलियों की खिचड़ी में हो, या उसमें इशारे भरे हों उससे बेहतर और सच्ची भाषा हो नहीं सकती. उसे क्यों न शुद्धतम भी माना जाए, सुंदरतम भी कहा जाए? क्या आप उस भाषा में लिख सकते हैं? अगर हाँ तो आपसे बेहतर साहित्य कोई नहीं रच सकता.

भाषाओं को पायदान पर रखना अदब के लिहाज़ से ठीक नहीं है लेकिन समझने के लिए हम कह सकते हैं कि एसओएस के बाद दूसरे दर्जे की भाषा वो होती है जिसमें कोई भूखा इंसान रोटी मांगता है. इसे आप थोड़ा विस्तार देकर रोजी-रोटी तक ला सकते हैं. रोजगार की भाषा. बहुत ताकतवर और जीवनानुकूल. एकदम परफेक्ट शेप, साइज़ और एटीट्यूड में.

तीसरा दर्जा मेरे लिए लोक की भाषा का है. जन की भाषा. जिसे हम बोली कहकर फुसलाना चाहते हैं.  संस्कृति व्यवहार की भाषा. बहुत कम डेविएशन दूसरे और तीसरे नम्बर की भाषाओं में होना चाहिए. मुझे लगता है एक स्वस्थ, इंडिपेंडेंट, वाइब्रेंट समाज में ये दोनों भाषाएं एक सी दिखती हैं. दोनों में अलगाव इतिहास की कुछ तारीखों में बड़े धचकों की वजह से हुआ होता है. इस उठापटक का खामियाजा पीढियां बर्दाश्त करती हैं. सजग समाज धीरे-धीरे इन झटकों से बाहर आ जाता है और व्यहवारिक समाधान निकालता है. व्यावहारिकता दूसरे दर्जे के प्रति ज़्यादा समर्पित होती है क्योंकि जीवन सरलता की ओर चलना चाहता है और यही बात भाषा के ऊपर भी लागू होती है.

इन सबके बाद आती है साहित्य की भाषा. भाषा, साहित्य से नहीं चलती. साहित्य, भाषा से ही चल सकता है. दिक्कत ये है कि अक्सर साहित्यकार ही इस बात को भूल जाता है. लेकिन फिर भी अगर साहित्यकार भाषा का रोना रो रहा है तो उसे दरकिनार नहीं किया जा सकता क्योंकि वो समाज के आगे मशाल लेकर चलने वालों में से है. बहुत ज़रूरी है उस रोना-रोहट को सजगता से परखने की. वो अपने लिए रो रहा है या दूसरे, तीसरे दर्जे की भाषाओं के लिए या उस खाई के लिए जिसने ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दीं कि समाज में कई भाषाओं-बोलियों की सहजीविता की जगह भाषाओं-बोलियों के दर्जे पनप गए. आदर्श स्थिति वो होती है जिसमें समाज में बहुत सी भाषाएं हों, उनके बीच व्याकरणिक अंतर तो हो, इस तरह के दजे नहीं. साहित्य की, संस्कृतियों की, रोजगार की भाषाओं में कोई बड़ा अंतर या विवाद न हो. इस तरह से दर्जों में बांटकर देखने की ज़रूरत ही न रहे.

साहित्य उसी भाषा में सुंदर हो सकता जिसमें ये लोगों की बात करे, उनसे बात करे और जिनकी बात करे उनतक पहुंचे. भाषा की शुद्धता से ज़्यादा आवश्यक है संवाद की परिपक्वता और भागीदारी. जिस भाषा में एक बड़ा जन समूह छूट जाए या संवाद में इंगित अर्थ टूट जाएं  तो ऐसी भाषा का क्या फायदा?

अनुवाद के लिए भी यही बात लागू होती है. अपनी भाषा में तर्जुमा मूल बात से समझौते जैसा नहीं होना चाहिए. अगर हमारी भाषा में उस भाव को शक्ल देने के लिए कोई मुफीद शब्द नहीं है बनाया भी नहीं जा सकता तो दूसरी भाषा से शब्द ले लेने में ही समझदारी है. किसी अन्य  भाषा या बोली के शब्द जुड़ने से भाषा समृद्ध और सहज होती है. किसी शब्द का तर्जुमा अगर सहज और सुंदर तरीके से नहीं हो सकता तो उसे दूसरी भाषा से ही क्यों नहीं लिया जा सकता? जीवन ऐसे ही नहीं चलता क्या? कैप्सूल से काम नहीं चलता तो इंजेक्शन लेते हैं या लिक्विड दवा को आसवित कर चूर्ण बना उसे जमाकर टैबलेट में परिवर्तित कर तब खाते हैं?

ध्यान रहे ये सारी बात भाषा की को रही है इसे कथ्य से रिप्लेस न कर लिया जाए. बात को कहने के तरीके की बात है ये, बात की बात नहीं. बहुत कम्युनिकेबल भाषा में अगर खराब विचार उलीचे जाएं तो इसे किसी भी दशा में अच्छा नहीं कहा जा सकता. बहुत सरल-सामान्य-रोजमर्रा की भाषा में भी सुंदर बात कही जा सकती है, बहुत सुसज्जित भाषा में गालियाँ.

काज़ी हसन रज़ा साहब का एक शे’र है-

रोके है तल्ख़ बात से मीठी ज़बाँ मिरी  
इक बूँद ज़हर सिद्क़ मुझे घोलने न दे

मुझे अपनी भाषा में अभिव्यक्त नफरत के बरक्स दुनिया की किसी भी भाषा में जताया गया प्रेम चाहिए. प्रेम की भाषा ही मेरे लिए सबसे प्रभावशाली सम्पर्क भाषा है, सजग राष्ट्रभाषा है, सरल राजभाषा है सबसे सुंदर मातृभाषा है!

2.
‘भाखा तोहार महरी नाय  हौ…’ राम जियावन सिंह, हमारे हिंदी के मास्साब से जाने किस सन्दर्भ में ये पूरी बातचीत हुई थी. उस दिन उनकी पूरी बात ख़ालिस जौनपुरी ज़ुबान में थी, जिसमें से अवधी और भोजपुरी को अलग-अलग लगाना पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के किसी पैसेज ब्रिज पर खड़े होकर आने वाले यात्री और जाने वाले यात्रियों को अलगाने जितना कठिन था, पूरा मतलब समझना उन जाने वालों में मुंगेर जाने वालों की संख्या जानने के बराबर यानि और भी कठिन था. 

आज सालों बाद कह सकते हैं कि काम भर की बात निकाल ली है, मतलब इतना भर निश्चित तौर पर जान लिया है कि जो ट्रेन पर चढ़ेंगे वो जाने वाले होंगे.  

उस बातचीत में उनके कहे का तब्सिरा हमारी समझ में, हमारी भाषा में कुछ इस तरह से है-

साहित्य से जुड़े हुए लोगों का, मुख्यतः बात लेखक को लेकर कही गई थी, भाषा से सम्बन्ध प्रेमी-प्रेयसी वाले मामले से शुरू होता है. ज़ाहिर है लेखक प्रेमी है और भाषा प्रेमिका. (इसमें अन्य कई उपबन्धों के साथ सबसे मजबूत बन्ध वही है,  मध्यमवर्गीय पुरुष मानसिकता.) फिर एक दिन मन ही मन वो उससे विवाह कर लेता है. अब भाषा के साथ वो पति के जैसा व्यवहार करने लगता है. जिस प्रेमिका के साथ वो घण्टों दश्तो सेहरा में घूमा किया था, उसे घर की चारदीवारी में महदूद करने लगता है. होते-होते वो एक ऐसी कंडीशन्ड अवस्था में पहुंच जाता है जब उसे लगता है कि भाषा को उसकी इजाज़त के बिना छींकना, खाँसना और साँस लेना भी वर्जित है. 

उसे पता ही नहीं चलता कि जिस भाषा को लेकर वो इतना पज़ेसिव हो रहा है,  वो तो कब की घर से निकल कर आवारा हो चुकी है. उसके कितने ही यार बन गए हैं.

बाबू, जिस समय आप भाषा के कपड़े-लत्ते, बोलने-बतियाने और घूमने-फिरने को मालिक की नज़र से देखने लगते हैं वो आपके हाथ से निकल जाती है. और अगर आपकी तानाशाही की वजह से आपके साथ रह भी जाती है तो रूढ़ हो जाती है, रुग्ण हो जाती है, ठूंठ हो जाती है. फिर एक दिन आँगन में सूख चुके दरख़्त की जड़ों में पानी डालने की कवायद की तरह आप उसमें कितना भी मेकअप, क्रीम, तेल फुलेल  लगाएं चेहरे की झुर्रियाँ उभर ही आती हैं.  

यही हाल विधा का भी होता है. किसी भी विधा का अंतिम लक्ष्य संवाद है. कम्युनिकेशन. वो तब ही पूरा होता है जब कहने-बताने  वाला और सुनने-पढ़ने-देखने वाला एक प्लेटफॉर्म पर आ जाएं. ये अलग बात है कि यहाँ से उनके रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं लेकिन प्लेटफॉर्म तक पहुंचने के लिए विधा सशक्त होनी चाहिए. विधाओं की जकड़बन्दी से भी मुक्त होना एक विकल्प हो सकता है. कविता से छूटने वाली बात किसी पेंटिंग में आ सकती है और कोई अधूरी पेंटिंग किसी कहानी के ज़रिए पूरी हो सकती है.

तब्सिरा समाप्त.  

3.
पिछले दिनों हिंदी भाषा के हमारे एक प्रिय लेखक ने अपनी पसंद की सात किताबों के नाम फेसबुक पर  साझा किये. इसमें एक भी किताब हिंदी की नहीं है. एक किताब इस लिस्ट में ज़रूर ‘दीवान-ए-मीर’ है लेकिन उसमें उस प्रेमी-पति-मालिक को प्रेयसी-पत्नी-बांदी वाला रूप नहीं झलकता जिसके लक्षण ऊपर बताए गए हैं. इस लिस्ट में नॉवेल है, आत्मकथा है, पोएट्री है और कथेतर किताबें हैं.

क्यों नहीं है हिन्दी की कोई किताब? अव्वल तो ये व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का मसला है और कंटेंट की बात है. दूसरा, इस पहली बात तक पहुंचने का ज़रिया यानि भाषा को लेखक ने न तो अपनी बांदी बना रक्खा है न ही दूसरी भाषाओं से प्रेम करने से चूका है. 

सारे अच्छे गाने मो. रफी ने ही नहीं गाये हैं, सारी अच्छी शराब दोउरो घाटी में ही नहीं बनती और सेब के जैसे गालों वाली लड़कियां सिर्फ कश्मीर की घाटियों में ही टहलती नहीं मिलतीं.
बस. इतना ही समझ में आई बात हमारे.  

‘बात’ समाप्त.

4.
ऊपर लिखा गया तब्सिरा हिंदी भाषा के लिए नहीं है. उस प्रेमी-पति-मालिक के लिए है जो दूसरी भाषा-बोली के रूप रस पीने में गुरेज़ करता है. क्योंकि ‘दूसरी भाषा’ उसके लिए ‘दूसरे की भाषा’ है.  

ऊपर लिखा गया तब्सिरा हिंदी भाषा में लिखी किताबों की विधा या कंटेंट के लिए भी नहीं है. यह भी उस प्रेमी-पति-मालिक के लिए ही है जो विधाओं की जकड़बन्दी में साझे प्लेटफॉर्म का रास्ता भूल जाता है.

कुल मिलाकर ‘बात’ बस इतनी भर है कि अच्छा पढ़ने और लिखने के लिए भाषा-बोली-विधा का आग्रह छोड़ देना चाहिए. ये हमारी समझ है, हो सकता है कमतर हो क्योंकि कोई ज़रूरी नहीं है ट्रेन पर चढ़ने वाले सब जाने वाले ही हों, कुछ लोग विदा करने वाले भी तो हो सकते हैं. 

5.
जब कोई गांठ बहुत फंस जाए तो झुंझलाहट में धागे के दोनों सिरों को खींचना नहीं चाहिए, उन्हें ढील देनी चाहिए. जब प्रश्न-उत्तर-प्रति प्रश्नों में कोई मुद्दा उलझ जाए तो उसे बहुत मोटे और मौलिक स्तरों पर समझने की कोशिश करनी चाहिए. थोड़ी सी ढील देते हुए.

कविता की भाषा के सवाल से पहले ये सवाल की जीवन किस भाषा में होना चाहिए? मुझे हमेशा लगता है कि सबसे सशक्त भाषा वही है जिसमें किसी मुसीबत में फंसा आदमी अपनी जान बचाने के लिए किसी को पुकार लगाता है और वो दूसरा उसे सुनकर, समझकर बचाने के लिए आ जाता है. एसओएस वाली भाषा. अब वो पुकार हिंदी, मंदारिन, फ़ारसी, अंग्रेज़ी जैसी किसी खालिस भाषा में हो, भाषाओं-बोलियों की खिचड़ी में हो, या उसमें इशारे भरे हों, उससे बेहतर और सच्ची भाषा हो नहीं सकती. कविता की भाषा उतनी ही सशक्त और ज़रूरी क्यों नहीं होनी चाहिए? कविता भी मनुष्यता की पुकार ही तो है.  

क्या आप उस भाषा में लिख सकते हैं? आप कहेंगे ‘बचाओ-बचाओ-बचाओ’ कोई कविता हुई भला. मैं कहूंगा अगर आप उस पुकार को सुन नहीं पा रहे तो ये कोई जीवन हुआ भला.

जीवन, भाषा के बाहर भी बहुत कुछ है. भाषा, कविता के बाहर भी बहुत कुछ है. लेकिन कविता, बिना भाषा के सम्भव नहीं. भाषा, कविता के पास नहीं आएगी. कवि को ही अपनी कविता लेकर भाषा के पास जाना पड़ेगा.  

कविता उसी भाषा में सुंदर हो सकती है जिसमें ये लोगों की बात करे और जिनकी बात करे उनतक पहुंचे. भाषा की शुद्धता से ज़्यादा आवश्यक है संवाद की परिपक्वता और भागीदारी. जिस भाषा में एक बड़ा जन-समूह छूट जाए या संवाद में इंगित अर्थ टूट जाएं  तो ऐसी भाषा का क्या फायदा? ‘साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल’ का तर्क यानि समाज को संस्कारित करने की ज़िम्मेदारी, भागीदारी वाली बात के विपक्ष में नहीं बल्कि साथ-साथ या समानांतर ही है. जीवन के ज़रूरत की भाषा और कविता के ज़रूरत की भाषा का द्वैत समाप्त होना ही समाज की भाषा का संस्कृतिकरण है.

मुझे अपनी भाषा में अभिव्यक्त नफरत के बरक्स दुनिया की किसी भी भाषा में जताया गया प्रेम चाहिए. 
ध्यान रहे ये सारी बात भाषा की को रही है इसे कथ्य से रिप्लेस न कर लिया जाए. बात को कहने के तरीके की बात है ये, बात की बात नहीं. बहुत कम्युनिकेबल कविता भाषा में अगर ख़राब विचार उलीचे जाएं तो इसे, यानि कविता को किसी भी दशा में अच्छा नहीं कहा जा सकता. बिना साज-श्रृंगार के भी सुंदर बात कही जा सकती है, बहुत सुसज्जित भाषा में गालियाँ भी दी जा सकती हैं.

डेड पोएट्स सोसाइटी फ़िल्म का नायक कहता है- We don’t read and write poetry because it’s cute. We read and write poetry because we are members of the human race. And the human race is filled with passion. And medicine, law, business, engineering, these are noble pursuits and necessary to sustain life. But poetry, beauty, romance, love, these are what we stay alive for. That you are here – that life exists, and identity; that the powerful play goes on and you may contribute a verse. What will your verse be?

(हम कविता इसलिए नहीं लिखते-पढ़ते क्योंकि ये सुंदर है. हम कविता इसलिए लिखते-पढ़ते हैं क्योंकि हम इस मानव जाति के सदस्य हैं और मानव जाति जुनून से भरी हुई है. चिकित्सा, कानून, व्यापार, इंजीनियरिंग ये सब नेक काम हैं और हमें ज़िंदा रखने के लिए आवश्यक हैं. लेकिन कविता, सौंदर्य, इश्क़, प्रेम ये सब ऐसी चीज़ें हैं जिनके लिए हम ज़िंदा रहते हैं. अब जबकि (जीवन और पहचान का) एक शक्तिशाली खेल चल रहा है और तुम इसमें एक कविता का योगदान कर सकते हो तुम्हारी कविता कौन सी होगी?) 

6.
कविता की बात में फ़िल्म?

इसलिए, क्योंकि जो बात भाषा के लिए कही गई उसी तरह की बात कविता के फॉर्मेट के लिए भी कही जा सकती है. कविता एक अभिव्यक्ति ही तो है और अभिव्यक्ति का कोई निश्चित स्वरूप नहीं होता है, न ही होना चाहिए. भाव या विचार उस रूप में बाहर आने चाहिए जिसमें कवि के आशय से कम-से-कम विचलन हो. अभिव्यक्ति के बनाए गए ढांचे समझ की सुविधा के लिए ही हैं. ऐसा नहीं होना चाहिए कि उसी ढांचे में फंसकर ही रचना की मृत्यु हो जाए. रचनाकार के अभीष्ट से जितना ज्यादा दूर होगी रचना, उसकी प्राण वायु उतनी ही कम होगी. हाँ, रचनाकार और रचना के बीच एक दूरी ज़रूर रहनी चाहिए.

किसी भी विधा का अंतिम लक्ष्य संवाद है. कम्युनिकेशन. कम से कम दो लोगों के बीच. हो सकता है उसके दोनों सिरों पर आप ही हों. संवाद तब ही पूरा होता है जब कहने-बताने  वाला और सुनने-पढ़ने-देखने वाला एक प्लेटफॉर्म पर आ जाएं. ये अलग बात है कि यहाँ से उनके रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं. वो कविता कैसे मुकम्मल समझी जाए जो दो सिरों को मिलाने की कोई सूरत न बना सके.  

मुझे वो कविता नहीं पसंद जो अपने ढंग की कविता होने की ठसक में रहे और इस वजह से वो शब्द, भाव या विचार न ला सके जो किसी अन्य तरीके से आ सकते हैं.

वो कौन सा शिल्प हुआ जो मूरत गढ़ने में नायक को खलनायक सा दिखा दे?

इसे इस तरह से समझा जाए. जैसे कला की कोई भी विधा अपने आप में मुकम्मल नहीं हो सकती. कविता से छूटी हुई बात संगीत में उठाई जा सकती है. हो सकता है जो बात कहानी में कहना मुश्किल हो, उसे एक पेंटिंग के ज़रिये आसानी से कह दिया जाए. उसी तरह से कविता का भी कोई एक निश्चित ढांचा नहीं हो सकता. कोई साँचा नहीं बना आज तक जो सारी ज़रूरी रस, अलंकार, छंद, भाव आदि-आदि चीज़ों को घोंट-घाट के एक मुकम्मल कविता बना कर प्रस्तुत कर दे. ये अभिव्यक्ति, अनुभूति और आस्वादन का मामला है.  

– सो, ओ कैप्टन माई कैप्टन! माइ  वर्स विल डेफिनेटली डील विद लाइफ, नो मैटर वाट शेप, साइज़ एंड स्ट्रक्चर इट अडॉप्ट्स!
***
 anunadshirish@gmail.com

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  1. भाषा क्या है ?
    भाषा कैसी होनी चाहिए ?
    भाषा की विषयवस्तु कैसी होनी चाहिए ?
    आम ( जन की ) भाषा क्या है ?
    साहित्य की भाषा क्या है ?
    इस विषय से संबंधित अनेक विद्वानों के लेखों को पढ़ने के क्रम में आज " अनुनाद " पर प्रकाशित अमित सर का लेख पढ़ने को मिला ।
    भाषा की विवेचना के क्रम में अमित सर ने " सबसे सशक्त भाषा वही है जिसमें किसी मुसीबत में फंसा आदमी अपनी जान बचाने के लिए किसी को पुकार लगाता है । " माना है सर के उपरोक्त कथन से मैं थोड़ा भिन्न राय रखता हूं , मेरा विचार है की सबसे सशक्त भाषा वह है जिसमें व्यक्ति स्वयं को आवाज लगाता है यह भाषा का ऐसा रूप है जो भाषा के प्रचलित दोनों रूपों मौखिक तथा लिखित से भिन्न होता है । आप स्वयं विचार कीजिए की मुसीबत में फंसा आदमी पहले स्वयं ही मुसीबत से निकलने का प्रयास करता है या पहले आवाज लगाता है जब आप इस तथ्य पर विचार करेंगे तब आप पाएंगे कि व्यक्ति पहले स्वयं को आवाज देता है स्वयं को आवाज देने की इस भाषा को आप किस भाषा या लिपि में व्यक्त कर सकते हैं ?
    लिखने की भाषा को भी साहित्यिक भाषा के परे पहले संवेदना की भाषा के स्तर पर लाना होगा क्योंकि लिखना ( कर्म ) की उत्पत्ति का स्रोत संवेदना है जब तक आपके अंदर संवेदना का उदय नहीं होगा आप कुछ नहीं लिख सकते हैं और जब यह भाव उत्पन्न हो जाएगा तो भाषा की उत्पत्ति स्वयं हो जाएगी मिथुनरत कौंच की हत्या को देखकर आदि कवि वाल्मीकि के अंदर सर्वप्रथम संवेदना का भाव जागृत हुआ होगा संवेदना के जागृत होते ही भाषा का जन्म स्वयं ही हो गया और इस प्रकार प्रथम श्लोक की रचना मानी जाती है ।
    भाषा के संबंध में प्रेमी से पति होने की जो मौलिक अवधारणा आपने प्रस्तुत की है वाह अद्भुत बन गयी है यहां पर महोदय से मेरा प्रश्न यह है कि भाषा के पति होने की जो अवधारणा आपने प्रस्तुत की है उसे हम साहित्य के क्षेत्र में प्रचलित अधिनायकवाद से जोड़ सकते हैं अथवा नहीं ? जिसमें किसी कवि या लेखक की पहचान उसकी रचनाओं के फला पत्रिका में प्रकाशित होने अथवा फला आलोचक / समीक्षक द्वारा उल्लेखित होने से मान लिया जाता है ?
    सादर !
    आपके मार्गदर्शन का अभिलाषी
    अरविन्द कुमार
    हिंदी विभाग
    कुमाऊँ विश्वविद्यालय , नैनीताल

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