Tuesday, December 24, 2019

अमित श्रीवास्तव की कविता


अच्छे नागरिक
***
सुबह उठते हैं
अख़बार पढ़ते हैं
अफसोस जताते हैं
शुक्र मनाते हैं ख़बर में खुद के न होने का

एक रोटी कम खाते हैं नाश्ते में
महंगाई पर टेसुए बहाते हैं
शुक्र मनाते हैं बची हुई प्लेट की रोटी का

जाम से परेशान हो हॉर्न बजाते हैं
गाली पचकाते हैं व्यवस्था पर
फिर गड्ढों से उचक कर निकल जाते हैं
शुक्र मनाते हैं बस थोड़ा सा ही लेट हो जाने का

जश्न मनाते हैं सेना की जीत का
शुक्र मनाते हैं बेटे का सेना में न होने का

अच्छे नागरिक
झुकने को कहो तो लेट जाते हैं
बैठने को कहो तो पाए बन जाते हैं
खड़े होने को कहो तो छाया मांगते हैं
बोलने को कहो तो गाते हैं
चुप रहने को कहो तो चुप्प एकदम चुप्प
मर जाते हैं

चश्मा पहनते हैं अच्छे नागरिक
उतारते हैं, पर तब तक बादल आ जाते हैं

अच्छे नागरिक ये झट से मान लेते हैं कि उनके छिनते रोजगार का कारण शरणार्थी या घुसपैठिये हैं
भ्रस्टाचार गरीबी महंगाई जिनसे आई
अच्छे नागरिक उन घुसपैठियों के कपड़े पहचानते हैं

टीवी देखते हैं
खाना खाते हैं
सो जाते हैं
बड़बड़ाते नहीं
बच्चों के सहमे हुए चेहरे देख सिहरते नहीं
गला घोंटने को उठे हाथ देख सहम नहीं जाते
अच्छे नागरिकों को रात नींद अच्छी आती है

अच्छे नागरिक अपने सपनों में शरणार्थी की तरह आते हैं
बाज दफ़ा चीखते हैं घुसपैठिये... घुसपैठिये... मारो... पीटो... भगाओ...
चीखते-चीखते गिर जाते हैं
जिससे गिरते हैं उसे बिस्तर बताते हैं
अच्छे नागरिक चरित्र सिरहाने छुपाते हैं

रोज नहाते हैं
तेल फुलेल लगाते हैं
गम-गम महकते हैं
दूर से हाथ मिलाते हैं

खांसने-छीकने-सोने-रोने के तस्दीक हो सकते हैं सारे निशान
संजो रक्खे हैं
ज़िंदा बच-बच जाने के सब सबूत
अच्छे नागरिक 
प्रोसीजर इस्टेब्लिश्ड बाई लॉ से ड्यू प्रोसेस ऑफ लॉ के बीच एक मुहर पर बनवाते हैं
ठप्प ठप्प ठप्प
लगाते जाते हैं
साँस आने का शुक्र मनाते हैं

कोई जब मांगता है सबूत
दाहिने देखते हैं बाएं देखते हैं फिर पार कर लेते हैं
शर्म के दरिया में डूब कर नहीं जाते
खुर्ररैट बाप के आगे सहमे
रटी हुई कविता सुनाते हैं

अच्छे नागरिक गुस्सा नहीं करते नागरिकता के सवाल पर
उन्हें अपनी जेबें टटोलना आता है
कुछ नाखून टूटते हैं मगर
बस उसी पल वो मूंगफलियां खाते हैं
मुस्काते हैं
अच्छे नागरिक बुरे वक्त में चुप रहना जानते हैं!

Sunday, November 10, 2019

सबको अपना अपना भारत खोजना पड़ता है : हिन्‍दनामा पर अभिनव निरंजन



कविता-संग्रह: हिन्दनामा

लेखक: कृष्ण कल्पित

प्रकाशक: राजकमल, 2019

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कुफ़्रो-इमां का फ़र्क मिटाने आया हूँ

मैं जाम-बकफ़ तौबा करने आया हूँ



केवल दो पंक्तियों में अगर ‘हिन्दनामा’ के बारे में मुझे कुछ लिखना होता तो बस यही लिखता । मगर तीन सौ पृष्ठों की किताब पढ़ने के बाद कुछ लिखने बैठा हूँ तो थोड़ा और लिखूंगा । यह किताब क्या है और क्या नहीं है, इसके बारे में कल्पित जी ने भूमिका में स्वयं ही काफ़ी कुछ लिख रखा है जिसे दुहराने की ज़रुरत नहीं । फिर भी एक घोषित दीर्घ-कविता के बारे में यह कहने की ज़रूरत क्यूँ पड़ती है कि यह इतिहास ‘नहीं’ है ? क्यूंकि यह इतिहास ‘भी’ है ! 


हिन्दुस्तान जैसे एक अत्यंत विस्तृत महादेश का इतिहास फ़क़त राजाओं रजवाड़ों और बादशाहों का कच्चा पक्का चिठ्ठा नहीं हो सकता । इस देश का इतिहास कवियों को लिखना चाहिए था । लेकिन पहले पुरोहितों नें, फिर यात्रियों और व्यापारियों नें लिखा इसे...जिसपर आख़िर में इतिहासकारों नें ज़िल्दसाज़ी कर मोटा कवर चढ़ा दिया ताकी अन्दर का माल हिल-डुल कर भी इनकी बनाई सीमाओं में महदूद रहे । इस विशालकाय और निरंतर खौलते कड़ाहे में क्या कुछ नहीं गला-पिघला इतने हज़ार वर्षों में । पिघले हुए पानी को देखकर यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि बर्फ का आकार कैसा रहा होगा । इस दुविधा को रिवर्स इंजीनियरिंग की समस्या के नाम से भी जाना जाता है । गंगा की मौजों को देखकर हिमालय के चरित्र के बारे में क्या कहा जाए ! उसके लिए कम से कम गंगोत्री तक की यात्रा अनिवार्य है । वर्तमान भारत को जानना है तो पीछे मुड़-मुड़ कर झांकना होगा बार बार । 


ताकि सनद रहे’ केवल यही लिखकर हिंदी के एक अति-प्रिय कवि ने कवि-कर्म के एक बड़े हिस्से को पहले ही रेखांकित कर रखा है । मेरे हिसाब से हिन्दनामा को इस महादेश का एक संक्षिप्त काव्यात्मक पंचनामा भी कहा जा सकता है । यह राख में हाथ टटोलकर जले हुए और जलते हुए मलवे में से चीज़ों को पहचानने का प्रयास भी है । 


इस देश के विरोधाभाषों को समझने की आवश्यकता है । महिमामंडन और चरित्रखंडन के द्विध्रुवीय खांचे को त्यागना होगा । जैसे कि कल्पित हिन्दनामा में इस बात को दर्ज़ करते हैं – ‘अनलहक का उद्घोष करने वाले उच्चकोटि के सूफ़ी फ़कीर सरमद और गुरु तेग बहादुर का क़त्ल करवाने वाला औरंगज़ेब अपने ख़र्च के लिए क़ुरआन की नक्लें लिखता था टोपियाँ बनाता था और रात बिरात मजदूरी भी करता था’। 


सनद रहे कि रोटी और तवा तुर्कों नें लाया, नारियल और भौतिकवाद हमारी अपनी फसल है । भारतीय संस्कृति पर आध्यात्मिकता की मोटी पन्नी किसने चढ़ाई - विदेशियों ने, कुण्ठा और हीनता-ग्रस्त ब्राह्मणवादियों नें या किसी और ने...पन्नी के अन्दर दम घुटता है - व्यक्ति का भी, सभ्यता का भी । इसका उतरना आवश्यक है । भारतीय वैचारिक परंपरा एक ऐसा प्रकाशपुंज है जिसे अब टार्च जलाकर देखना पड़ता है । भारतीय संस्कृति वैदिक सभ्यता का अवशेष मात्र नहीं है । जिन्हें लगता हो कि भौतिकवाद और रासनैलिटी पश्चिम से आयातित कोई शै है वो इधर गौर करें-



इस देश के प्रथम लोकायतिक आचार्य बृहस्पति थे  

जिन्होंने ऋग्वेद-काल में ही कह दिया था कि पदार्थ ही प्राथमिक है ...



और फिर, सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल ऋषि के हवाले से चंद पंक्तियाँ-


जिसे प्रमाणित नहीं किया जा सके वह नहीं है जैसे ईश्वर / जर्मन दार्शनिक हाईनरिख जिम्मर का कहना है कि सांख्य दर्शन विश्व का प्रथम वैज्ञानिक दर्शन है ... राधाकृष्णन का कहना था कि सांख्य वेदों का प्रत्यक्ष विरोध नहीं करता बल्कि वेदों की जडें खोदने का खतरनाक तरीका अपनाता है ...इतिहास प्रसिद्ध बौद्ध-नगर कपिलवस्तु / सांख्य दार्शनिक कपिल को बौद्धों की श्रद्धांजलि थी !


एक कुम्हार-पुत्र मक्खलि ईश्वर का प्रथम हत्यारा था / नीत्शे तो अभी इधर का आविष्कार है  (त्रयो वेदस्य कर्तारो भण्डधूर्त निशाचरः)



हिन्दनामा में घुसपैठियों का फलक विस्तृत है, जैसा कि होना ही चाहिए । यहाँ कौन कौन आये, कौन कौन आकर लौट गए, कौन लोग यहीं के होकर यहीं सुपुर्दे ख़ाक हो गए और इस जमीं कुछ और ज़रखेज़ किया – उन सभी नें इस कृति में अपना स्थान पाया । यह देश केवल बुद्ध, मीर, कोहिनूर, कावेरी, आर्यों, मुगलों, योद्धाओं, कामगारों का ही नहीं है । यह देश उतनी ही भिखारियों, वेश्याओं, नर्तकियों, जुआरियों, निर्वासित चित्रकारों और उपेक्षित कवियों की भूमि भी है ।  हिन्दनामा में गधों तक की अर्जी भी मंज़ूर की गई है –



इस महादेश में गधों की कभी कोई कमी नहीं रही / लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन एक भी नहीं था



इस देश को इब्न बतूता और अल बरूनी नें अगर इस महादेश को अपनी नज़रों से देखा तो अमीर ख़ुसरो नें इस देश को देखने के लिए नई नज़र भी अता की –



अमीर ख़ुसरो सुल्तानों और औलिया के बीच बने हुए एक पुल का नाम था जिसके नीचे से जमुना नदी प्रवाहित होती रहती थी !



इस देश के मुताल्लिक कुछ ऐसी बातें रहीं हैं जो एक निर्णायक ढंग से हिन्दुस्तान को बाक़ी अन्य सभ्यताओं से पृथक करती हुई एक मख़सूस  पहचान देती है । हिन्द नामा में उन बातों पर मुकम्मल तरहीज़ दी गई है । मैं वैसे ही अलग अलग खण्डों से कुछ पंक्तियाँ ध्यानार्थ इंगित कर रहा हूँ ।


-            हिन्दू कोई धर्म नहीं है / यह एक स्थानवाचक संज्ञा है / जन्म-भूमि ही हमारा धर्म है

-            ...लेकिन यह देश हर-बार / अपनी राख से उठ खड़ा हुआ / यह महादेश मिट-मिट कर बना है

-            विपत्ति इस देश की सातवीं ऋतु थी

-            (नचिकेता के हवाले से) ... ब्राह्मण की नाभि में / एक अखण्ड धूणा सुलगता रहता है / यमराज तक ब्राह्मण से कांपता था !

-            इस महादेश में अन्न और शब्दों की कभी कमी नहीं रही

-            इस महादेश में मृत्यु / पाँवों में घुँघरू बाँध कर आती थी / और नाचती-गाती इकतारा बजाती हुई लौट जाती थी !



पिछले एक दो वर्षों में समय समय पर क़िताब के अंश खुद लेखक द्वारा साझा किए जा चुके हैं । कई लोग इसके कलेवर से वाकिफ़ हैं, ज़्यादा उद्धरण की आवश्यकता भी नहीं । किताब रोचक तरीके से लिखी गई है । शैली में कल्पित जी की ट्रेडमार्क बेफ़िक्री के साथ तंज और व्यंग सामानांतर धारा में प्रवाहित होते रहते हैं । कुछ कविताएँ हैं जो फ़कत सूचना-संकलन हैं, गद्य भी नहीं । अच्छी बात है कि ऐसी ‘कविताएँ’ कम हैं, बहुत कम । इस महादेश पर लिखी कोई भी किताब अधूरी ही रह जानी है । इस हवाले से ‘हिन्दनामा’ एक मुकम्मल-सी अधूरी दास्तान है । मैं अपनी पाठकीय टिपण्णी इसी किताब से ही ली गई इन पंक्तियों पर समाप्त करता हूं – भारत एक खोया हुआ देश है / सबको अपना अपना / भारत खोजना पड़ता है



***

अभिनव निरंजन

9650223928

Sunday, October 6, 2019

सुबोध शुक्‍ल का 'अहैतुक' गद्य


हमारे अनूठे गद्यकार ने अपनी फेसबुक वॉल पर कुछ टुकड़े लिखे हैं, जिनके बारे में निराला के सहारे से कहूँ तो ये फूल नहीं, जीवन अविकच हैं/ये सच हैं। यहॉं जीवन ही नहीं, प्रेम भी अविकच है। व्‍याख्‍याओं ने सदा ही हिन्‍दी का सौन्‍दर्य नष्‍ट किया है, यह पाप मैं नहीं करूँगा। अनुनाद को जगाने के लिए बहुत दिनों से जिस मौसम की तलाश में था, इस गद्य को पढ़कर लगा कि ठीक वही मौसम आन खड़ा है। 




अहैतुक

1.
एक अधबनी शाम के इर्द-गिर्द किसी प्रागैतिहासिक स्पर्श सा मैं...एक अनपढ़ बारिश से लिपटी हुई किसी उनींदी कहानी सी तुम...मेरे और तुम्हारे बीच एक चाय की प्याली सा जीवन...सूर्य ओस की तरह ठहर गया है हमारी स्मृतियों की दूब पर...अब तक न सीखी गई किसी भाषा का अनुवाद है यह रात....
2.
मेरे और तुम्हारे बीच भाषा, अतृप्ति का एक और नाम है...तुम मेरी निजता फूंक मारकर बुझा देती हो, मैं तुम्हारी पुकार को मिट्टी में बदल देता हूँ और उसमें अपना उपसंहार गूंथ देता हूँ....अब जबकि तुम मेरे मौन को अलाव कहती हो मैं भी तुम्हारी प्रतीक्षा को क्षितिज कहने लगा हूँ...
3.
नदियों ने अपने प्रतिबिम्ब तुम्हें उधार दे रखे हैं और तुम हो कि स्मृतियों की रेत में श्रम की सिलवटें गिन रही हो ...इन दिनों सांसें जैसे अपना उच्चारण भूल गई हैं और प्यास अपना व्याकरण...मौसम और कुछ नहीं मेरे और तुम्हारे बीच कुछ नामुमकिन सी लापरवाहियों का प्रवास भर है...
4.
तुम्हारे साथ होना किसी गुमनाम दिनचर्या में लगभग हरा दी गई शिकायतों के साथ होना है... मैं जब तुम तक कुछ दुधमुंही हैरानियों के साथ पहुंचता हूँ तो तुम ठीक उसी समय किसी नवजात रोमांच की सीवन उधेड़ रही होती हो.. फिर मैं भाषा से पिंजड़ा बनाने में लग जाता हूँ और तुम अपने असमंजस से आकाश...
5.
किसी अधखुली दराज़ की नमी और धूल सा तुम्हारा चेहरा जैसे बीच जंगल में भोर को देख सांझ का धोखा हो जाए...मैं तुम्हारी चुप्पियों के रास्ते से अपने रक्त तक पहुँचने का असफल यत्न हर बार करता हूँ...गलती मेरी ही है मैं तुममें मूर्च्छा खोज रहा हूँ जबकि तुम यात्रा हो... मैं प्रेम को भी सीढ़ियों में बदल देता हूँ तुम दस्तक को भी दरवाज़ा बना देती हो...
6.
तुम मेरे लिए निमित्त को व्यथा कहने लगी हो... मैं एक अबूझे छल को अभिसार का नाम दे देता हूँ और तुम करवट बदल लेती हो...वक़्त हमारे बीच ऊसर हो चुकी ज़मीन पर पहली दरार की तरह है..इसके पहले कि रोशनी अपनी छाया में वापस हो जाए, मौन अपनी प्रतिहिंसा में और मृत्यु मरीचिका में, हमें एक वृक्ष का स्फुरण हो जाना चाहिए, अपनी भाषा में झूठ हो जाना चाहिए...
7.
तुम्हारी आँखें दीवट होना चाहती हैं पर दहलीज़ होकर रह गई हैं...तुम्हारी कामना, कोहरे से घिरी हुई रेत की तरह है जो मेरी मुट्ठी में ठहरती भी नहीं और अपनी चिपचिपाहट मेरी हथेली पर छोड़ भी जाती है...तुम जब-जब अपना वाचाल संकोच मेरे अनाथ समर्पण पर रखती हो, मेरी देह की ऋतु बदल जाती है....
8.
प्रेम हमारे बीच आलस्य का अभ्यास है...तुम जब से प्रतीक्षा को गंध कहने लगी हो मैंने आदत को स्वाद कहना शुरु कर दिया है...तुम्हारे हिस्से की दूरी मेरे पास वसीयत की तरह मौजूद है, मेरे हिस्से की कहानी तुम्हारे पास जायदाद की तरह...हम एक-दूसरे का अर्थहीन विकल्प हैं, हम एक दूसरे का सर्वश्रेष्ठ अभिनय हैं...
9.
हम दोनों सुखान्त की प्रस्तावना पर चरित्रों का पटाक्षेप हैं...हमारे बीच अनुरक्ति, समय की एक ज्यामितिक चेष्टा है और सुख, असाध्य उपस्थितियों का सारांश...हम एक दूसरे के स्वप्न में अपनी उम्मीदों के अपव्यय हैं...तुम जीवन के किसी वाक्य में औचक आ गया प्रश्नचिन्ह हो और मैं ठीक इसी वक़्त किस्से को ख़त्म करने की जल्दबाज़ी ....
10.
तुम्हारी साँसों की आड़ से झांकता हुआ मेरा रुंधा हुआ वसंत इतना शर्मीला भी नहीं है कि क्रीड़ा में बदल जाये और इतना दुस्साहसी भी नहीं कि आश्चर्य की शक्ल ले ले... यहाँ सामने शरणार्थी हो चुकी इन दिशाओं के बीच तुम गोधूलि सी बिखर रही हो और मैं इशारों की गवाही पर कसौटियों का बयान दर्ज़ कर रहा हूँ...
11.
तुम्हारे साथ होना अपनी अप्रासंगिकताओं पर भरोसा करना है, अपनी असफलताओं के साथ न्याय करना है.. तुम्हारा साहचर्य मेरे हर भ्रम को तृप्ति और हर दुराव को जीवेषणा में बदल देता है... मेरी उदासी तुम्हारी ज़िद तक पहुँचने का एक नक्शा है, तुम्हारा स्वीकार मेरी विफलता को महसूसने का इंतज़ाम...मैं तुम्हारा कुतर्क हूँ और तुम मेरा अंधविश्वास....
12.
तुम अपने मौन को जूठा छोड़ देती हो और मैं भाषा की केंचुल उतारता रहता हूँ ...मेरे और तुम्हारे बीच स्मृति, एक ऐसी परिभाषा है जिसको सिद्ध करने के लिए कोई दृष्टान्त मौजूद नहीं ...हम मोह की झुंझलाहट में नादानियों का रोज़गार हैं- एक दूसरे में सेंध लगाते हुए, एक दूसरे को चुराते हुए....
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