कविता-संग्रह: हिन्दनामा
लेखक: कृष्ण कल्पित
प्रकाशक: राजकमल, 2019
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कुफ़्रो-इमां का फ़र्क
मिटाने आया हूँ
मैं जाम-बकफ़ तौबा करने आया
हूँ ।
केवल दो पंक्तियों में अगर ‘हिन्दनामा’
के बारे में मुझे कुछ लिखना होता तो बस यही लिखता । मगर तीन सौ पृष्ठों की किताब पढ़ने
के बाद कुछ लिखने बैठा हूँ तो थोड़ा और लिखूंगा । यह किताब क्या है और क्या नहीं है,
इसके बारे में कल्पित जी ने भूमिका में स्वयं ही काफ़ी कुछ लिख रखा है जिसे दुहराने
की ज़रुरत नहीं । फिर भी एक घोषित दीर्घ-कविता के बारे में यह कहने की ज़रूरत क्यूँ
पड़ती है कि यह इतिहास ‘नहीं’ है ? क्यूंकि यह इतिहास ‘भी’
है !
हिन्दुस्तान जैसे एक अत्यंत विस्तृत महादेश
का इतिहास फ़क़त राजाओं रजवाड़ों और बादशाहों का कच्चा पक्का चिठ्ठा नहीं हो सकता । इस
देश का इतिहास कवियों को लिखना चाहिए था । लेकिन पहले
पुरोहितों नें, फिर यात्रियों और व्यापारियों नें लिखा इसे...जिसपर आख़िर में
इतिहासकारों नें ज़िल्दसाज़ी कर मोटा कवर चढ़ा दिया ताकी अन्दर का माल हिल-डुल कर भी
इनकी बनाई सीमाओं में महदूद रहे । इस विशालकाय और निरंतर खौलते कड़ाहे में क्या कुछ
नहीं गला-पिघला इतने हज़ार वर्षों में । पिघले हुए पानी को देखकर यह अनुमान नहीं
लगाया जा सकता कि बर्फ का आकार कैसा रहा होगा । इस दुविधा को रिवर्स इंजीनियरिंग
की समस्या के नाम से भी जाना जाता है । गंगा की मौजों को देखकर हिमालय के चरित्र
के बारे में क्या कहा जाए ! उसके लिए कम से कम गंगोत्री तक की यात्रा अनिवार्य है
। वर्तमान भारत को जानना है तो पीछे मुड़-मुड़ कर झांकना होगा बार बार ।
‘ताकि सनद रहे’ केवल यही लिखकर
हिंदी के एक अति-प्रिय कवि ने कवि-कर्म के एक बड़े हिस्से को पहले ही रेखांकित कर
रखा है । मेरे हिसाब से हिन्दनामा को इस महादेश का एक संक्षिप्त काव्यात्मक पंचनामा
भी कहा जा सकता है । यह राख में हाथ टटोलकर जले हुए और जलते हुए मलवे में से चीज़ों
को पहचानने का प्रयास भी है ।
इस देश के विरोधाभाषों को समझने की
आवश्यकता है । महिमामंडन और चरित्रखंडन के द्विध्रुवीय खांचे को त्यागना होगा । जैसे
कि कल्पित हिन्दनामा में इस बात को दर्ज़ करते हैं – ‘अनलहक का उद्घोष करने वाले
उच्चकोटि के सूफ़ी फ़कीर सरमद और गुरु तेग बहादुर का क़त्ल करवाने वाला औरंगज़ेब अपने
ख़र्च के लिए क़ुरआन की नक्लें लिखता था टोपियाँ बनाता था और रात बिरात मजदूरी भी
करता था’।
सनद रहे कि रोटी और तवा तुर्कों नें
लाया, नारियल और भौतिकवाद हमारी अपनी फसल है । भारतीय संस्कृति पर आध्यात्मिकता की
मोटी पन्नी किसने चढ़ाई - विदेशियों ने, कुण्ठा और हीनता-ग्रस्त ब्राह्मणवादियों नें
या किसी और ने...पन्नी के अन्दर दम घुटता है - व्यक्ति का भी, सभ्यता का भी । इसका
उतरना आवश्यक है । भारतीय वैचारिक परंपरा एक ऐसा प्रकाशपुंज है जिसे अब टार्च
जलाकर देखना पड़ता है । भारतीय संस्कृति वैदिक सभ्यता का अवशेष मात्र नहीं है । जिन्हें
लगता हो कि भौतिकवाद और रासनैलिटी पश्चिम से आयातित कोई शै है वो इधर गौर करें-
इस देश के प्रथम लोकायतिक आचार्य बृहस्पति थे
जिन्होंने ऋग्वेद-काल में ही कह दिया था कि पदार्थ ही प्राथमिक
है ...
और फिर, सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल ऋषि के हवाले से चंद
पंक्तियाँ-
जिसे प्रमाणित नहीं किया जा सके वह नहीं है जैसे ईश्वर /
जर्मन दार्शनिक हाईनरिख जिम्मर का कहना है कि सांख्य दर्शन विश्व का प्रथम
वैज्ञानिक दर्शन है ... राधाकृष्णन का कहना था कि सांख्य वेदों का प्रत्यक्ष विरोध
नहीं करता बल्कि वेदों की जडें खोदने का खतरनाक तरीका अपनाता है ...इतिहास
प्रसिद्ध बौद्ध-नगर कपिलवस्तु / सांख्य दार्शनिक कपिल को बौद्धों की श्रद्धांजलि
थी !
एक कुम्हार-पुत्र मक्खलि ईश्वर का प्रथम हत्यारा था /
नीत्शे तो अभी इधर का आविष्कार है (त्रयो
वेदस्य कर्तारो भण्डधूर्त निशाचरः)
हिन्दनामा में घुसपैठियों का फलक
विस्तृत है, जैसा कि होना ही चाहिए । यहाँ कौन कौन आये, कौन कौन आकर लौट गए, कौन
लोग यहीं के होकर यहीं सुपुर्दे ख़ाक हो गए और इस जमीं कुछ और ज़रखेज़ किया – उन सभी नें
इस कृति में अपना स्थान पाया । यह देश केवल बुद्ध, मीर, कोहिनूर, कावेरी, आर्यों, मुगलों,
योद्धाओं, कामगारों का ही नहीं है । यह देश उतनी ही भिखारियों, वेश्याओं,
नर्तकियों, जुआरियों, निर्वासित चित्रकारों और उपेक्षित कवियों की भूमि भी है । हिन्दनामा में गधों तक की अर्जी भी मंज़ूर की गई
है –
इस महादेश में गधों की कभी कोई कमी नहीं रही / लेकिन मुल्ला
नसरुद्दीन एक भी नहीं था
इस देश को इब्न बतूता और अल बरूनी नें
अगर इस महादेश को अपनी नज़रों से देखा तो अमीर ख़ुसरो नें इस देश को देखने के लिए नई
नज़र भी अता की –
अमीर ख़ुसरो सुल्तानों और औलिया के बीच बने हुए एक पुल का
नाम था जिसके नीचे से जमुना नदी प्रवाहित होती रहती थी !
इस देश के मुताल्लिक कुछ ऐसी बातें
रहीं हैं जो एक निर्णायक ढंग से हिन्दुस्तान को बाक़ी अन्य सभ्यताओं से पृथक करती
हुई एक मख़सूस पहचान देती है । हिन्द नामा
में उन बातों पर मुकम्मल तरहीज़ दी गई है । मैं वैसे ही अलग अलग खण्डों से कुछ
पंक्तियाँ ध्यानार्थ इंगित कर रहा हूँ ।
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हिन्दू कोई धर्म नहीं है /
यह एक स्थानवाचक संज्ञा है / जन्म-भूमि ही हमारा धर्म है
-
...लेकिन यह देश हर-बार /
अपनी राख से उठ खड़ा हुआ / यह महादेश मिट-मिट कर बना है
-
विपत्ति इस देश की सातवीं
ऋतु थी
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(नचिकेता के हवाले से) ...
ब्राह्मण की नाभि में / एक अखण्ड धूणा सुलगता रहता है / यमराज तक ब्राह्मण से
कांपता था !
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इस महादेश में अन्न और शब्दों
की कभी कमी नहीं रही
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इस महादेश में मृत्यु /
पाँवों में घुँघरू बाँध कर आती थी / और नाचती-गाती इकतारा बजाती हुई लौट जाती थी !
पिछले एक दो वर्षों में समय समय पर क़िताब
के अंश खुद लेखक द्वारा साझा किए जा चुके हैं । कई लोग इसके कलेवर से वाकिफ़ हैं,
ज़्यादा उद्धरण की आवश्यकता भी नहीं । किताब रोचक तरीके से लिखी गई है । शैली में
कल्पित जी की ट्रेडमार्क बेफ़िक्री के साथ तंज और व्यंग सामानांतर धारा में
प्रवाहित होते रहते हैं । कुछ कविताएँ हैं जो फ़कत सूचना-संकलन हैं, गद्य भी नहीं ।
अच्छी बात है कि ऐसी ‘कविताएँ’ कम हैं, बहुत कम । इस महादेश पर लिखी कोई भी किताब
अधूरी ही रह जानी है । इस हवाले से ‘हिन्दनामा’ एक मुकम्मल-सी अधूरी दास्तान है । मैं
अपनी पाठकीय टिपण्णी इसी किताब से ही ली गई इन पंक्तियों पर समाप्त करता हूं – भारत
एक खोया हुआ देश है / सबको अपना अपना / भारत खोजना पड़ता है ।
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अभिनव निरंजन
9650223928