अनुनाद

अनुनाद

गैरसैंण – अमित श्रीवास्तव की नई कविता

यह पहाड़ पर बुझी हुई लालटेन की तरह टंगी एक जगह है, जो राज्य स्थापना के बाद से ही बाट जोह रही है कि उसे जलाया जाए। उत्तराखंड जैसे किसी भी राज्य में उन सभी ताक़तों का होना स्वाभाविक ही है, जो चाहती हैं कि ये लालटेन बुझी ही रहे। उसके होने में कोई हर्ज़ नहीं, वह रहे और उसमें कभी-कभी धुआं भी उठे कि लगे उसे जलाना तो चाहते हैं। अमित श्रीवास्तव ने इस पूरी धूर्तता की तफ़्तीश अपनी कविता में की है। अनुनाद कवि को इस हस्तक्षेप के लिए शुक्रिया कहता है।

गैरसैंण एक शब्द है

पानी की बची हुई बूंद को छाल की शिराओं
में सँजोकर हरा होना सीखा था

इसने खिलना सीखा था
अब जब नाखून के पोर लाल हो उठे थे
किसने देखा कि इसके हाथों में निचुड़े हुए
बुरांश के फूल हैं

हथेली की गर्म सांस से चिपके
फूल, किसी आश्वासन के
संलग्नक बन जाते हैं अपनी उतराई में

कुछ हवा के साथ बहते दूर किसी चमकीले शहर
के पैरों पर गिरते हैं

कुछ बीमार पत्तों से उतर जाते हैं बेस्वाद
इसकी आंखों में उतर आता है
पत्थरों का गहरा सलेटीपन

किसने देखा कि इसके हाथों में दरातियाँ
हैं

चेहरे पर वक्त की बेशर्म  लिखावट
इसने गर्म दस्तानों से बाहर कर लिए हैं
हाथ

दस्ताने फट चुके हैं
हाथ कट चुके हैं
चेहरे पर अबूझ सांवलापन है अब

किसने देखा कि इसने खीजकर खोल दीं अपनी
हथेलियां

इसके हाथों में दूसरों के थमाए पर्चे थे
पर्चों पर लिखी थीं अद्भुद कविताएं मगर
कविताओं की वक्र पीठ पर खुदा हुआ नाम इसका
नहीं था

बंजर वायदे से उठ जाता है दिन
धूसर आपत्तियों सा रात ढल जाता है 
खाली तकती रह जाती हैं छः की छः सुबहें
भरोसे की बिसात पर

किसने देखा कि चौसर के ठीक बीच में गिरे
पासे सा ये और

इससे खेलने वाले समान दूरियों पर हैं
देखने वालों के
जीतने वाले हारे हुए दीखते हैं
इस लिए हैरान हैं हारे हुए लोग

किसने देखा कि माथे पर तमाम सलवटें
इसके होने और न होने के बीच द्वंद सी उठतीं
एक बवंडर उठाने को अभिशप्त पसीने की बूंदों
के साथ नीचे गिरकर

सपाट रह जाती हैं

किसने देखा कि इसके ढले हुए कन्धों पर
एक ही गांठ में नत्थी हैं
कुछ मुस्कुराटें
कुछ कराहें
और एक सोची समझी उदासीनता

अब तक तो इसे खिल जाना चाहिए था
अब तक तो इसे चुना जाना चाहिए था
अब तक तो इसे बिछ जाना चाहिए था रेशमी रूमालों
में

अब तक तो रूखेमलमली काली गिरहों
में इसे बिंध जाना चाहिए था चौफुंला की थाप सा

या इसे भी पंक्ति को ही दिया जाना चाहिए
था

किसने देखा कि अब तक तो इसे मिल जाना चाहिए
था कोई न कोई रंग

भाषा कोष में उर्दू के क़रीब
किसी उथले मैदान के गर्भ में 
कुछ मठ बनाए जाएंगे
टूटेंगे कुछ गढ़
कुछ ज़मीनों पर चढ़ेंगे आसमानी रंग
इसके खाली पेट को उलटकर ओढ़ लिया जाएगा कई
बेशर्म पीठों पर

बदले जाएंगे नाम वारिसान के
इसकी छातियों पर दगे होंगे चकत्ते
सफेद नीले और ख़ाकी
रस निकलने तक
इसके होने को चुभलाया जाएगा
अब तो शायद थूकने से पहले ही ये देखा जाएगा
कि इसके नाखून के पोर लाल हो उठे थे

और ये कि

गैरसैंण एक शब्द है राज कोष का !

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