चंद्रकांत देवताले की कविता में स्त्री पक्ष
चंद्रकांत देवताले साठोत्तरी कविता के प्रमुख कवि हैं, जिनकी कविता में स्त्री-जीवन की छवियॉं समकालीन हिन्दी कविता में स्त्री विमर्श के आरम्भ से कहीं पहले से उपस्थित है।
देवताले ने स्वयं के अनुभवों को बेटियों के पिता होने,अपनी पत्नी तथा समस्त संवेदनाओं अर्थात् जीवन के करूण और कठोर अनुभवों को अपनी रचनाओं के माध्यम से उकेरा हैं। उन्होंने भारतीय नारी की सनातन कर्म-यातना का एक विराट चित्र खींचा हैं,स्त्री के विविध रूपों एवं परिस्थियों को दिखाया हैं। उदाहरण के लिये ‘औरत‘,‘माँ जब परोसती थी‘,दो लड़कियों का पिता होने पर‘,‘नहाते हुए रोती औरत‘, बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियाँ,ये वो स्त्री विषयक कविताएँ है जो अपनी मार्मिकता के साथ औचिक स्मृति में बसी रहती हैं।
जब कोई रचनाकार परिवेशगत संपृक्ति और जीवनगत, मूल्यों से जुड़कर एवं स्त्री को केन्द्र में रखकर अपनी कलम चलाता है तब निश्चित ही रचना जीवत,प्रासंगिक और सार्थक बन जाती हैं। चाहे रचना आश्चर्यजनक और भयावह धारणाओं के भीतर से विचार तत्व प्रस्तुत करें या मौसम की चर्चा लेकर आम आदमी की पीडा का इज़हार करें। उसमें संवेदना की ईमानदारी बेहद अनिवार्य हैं। देवताले जी ने भारतीय नारी की सनातन कर्म-यातना का एक विराट चित्र उनकी कविता संग्रह ‘धनुष पर चिड़िया‘ (चयन एवं सम्पादन-प्रो शिरिष कुमार मौर्य) में चित्रित किया हैं। इसमें अनेक रंग है, अर्थात् स्त्री के विविध रूपों को व परिस्थितियों को दिखाया गया हैं। इसमें अनेक रंग है अर्थात् स्त्री के विविध रूपों को व परिस्थितियों को दिखाया गया है, उदाहरण के लिए ‘औरत‘,‘माँ‘ जब खाना परोसती थी। दो लडकियों का पिता होने पर‘,‘उसके सपने‘,‘बालम ककडी बेचने वाली लडकियाँ‘ ‘माँ‘ पर नहीं लिख सकता कविता‘,‘नहाते हुए रोती औरत‘,ये वे स्त्री विषयक कविताऍं हैं, जो अपनी मार्मिकता के साथ स्मृति में बसी रहती हैं।
देवताले ने केवल पत्नी पर ही नहीं स्त्री के एकाकीपन,एक पिता होने के अनुभव तथा माँ व समाज के विभिन्न वर्गों जैसे आदिवासी स्त्रियों के जीवन को उकेरा हैं। वह नारी-यातना की कर्म-गाथा और उसकी अस्मिता व नारी-विषयक गहन व्याकुल सरोकार का प्रमाण हैं। स्त्री का भारतीय समाज में जो आज की तारिख में भयावह हाल हुआ है उसका भी द्रवित करने वाला विशद चित्र खींचा हैं।
जीवन के करूण और कठोर अनुभवों को जब वरिष्ठ कवि चन्द्रकांत देवताले अपनी कविताओं में व्यक्त करते हैं तो उन्हें समय एवं सभ्यता की गहन समीक्षा के साथ हमारी संवेदना के इसी बहुविध संसार में देखा जा सकता हैं।
देवताले की स्त्रियाँ निजी जीवन व समाज व शोक और आह्लाद और उनके विलक्षण झुटपुट का वह महोत्सव,जिसका एक छोर विराट अमूर्तन हैं। पछीटे जाते कपडों,अंधेरा गुफा में गुंथे आटे से सूरज की पीठ पर पकती असंख्य रोटियों आदि-आदि में,तथा घर में अकेली उस युवती के निविड एकांत में जहाँ उसका अकेलापन ही उसका उल्लहा,उसका भोग,उसकी यातना,उसके भी आगे उसका स्वतन्त्रय हैं।–
“तुम्हारा पति अभी बाहर है। तुम नहाओं जी भर कर
आइने देखो इतना कि वह
तडकने-तडकने के हो जाये......।‘‘
धनुष पर चिड़िया को लेकर देवताले ने पूरे स्त्री संसार को उकेरा हैं। इसमें केवल अपनी पत्नी ही नही आदिवासी स्त्रियों व स्वयं पिता (पुत्रियों) होने के अहसास को दर्शाया है कि किस प्रकार एक पिता अपनी पुत्रियों के प्रति संवेदनशील हैं।
‘धनुष पर बैठी चिड़िया: को वह देखती है,पहली बार लटका धनुष उसे नागवार लगता था।‘
‘दो लडकियों का पिता हाने से’ कविता में पिता का अपनी पुत्रियों के प्रति चिंतित होना-
‘एक सुबह पहाड-सी दिखती हैं बेटियाँ
कलेजा कवि का चट्टान-सा होकर भी
थर्राता है पत्तियों की तरह
और अचानक
डर जाता है कवि
चिड़ियाओं से
चाहते हुए उन्हें इतना
करते हुए बेहद प्यार।‘
बेटे और माँ के बीच प्रेम और वात्सल्य के जो गहन क्षण होते हैं,ऊपर से जिनकी सम्प्रेषण प्रणाली बदल जाती हैं-
“वे दिन बहुत दूर हो गये हैं
जब माँ के बिना परसे पेट भरता ही नही था
वे दिन अथाह कुँए में छुट कर गिरी
पीतल की चमकदार बाल्टी की तरह।‘‘
भारतीय परिवार में पत्नी का खटते रहना और अपने को धीरे-धीरे क्षरित करना ये सनातन तथ्य है ऐसे में पति की आकांक्षा यही है कि ‘‘नींद में हँसते देखना उसे मेरा एक सपना यह भी‘‘ एक विलक्षण तीव्र ऊँचे स्वर में कवि शुरू करता हैं-
पत्नी की शारीरिक थकावट की गाथा-
“सुख पुलकने से नहीं
रबने खटने के थकने से
सोई हुई है जैसे उजडकर
गिरी सुखे पेड की टहनी
अब पडी पसरकर।‘‘
देवताले निकट के रिश्ते में ही भावनात्मक दृष्टि से समर्पित नहीं हैं। नारी के प्रति उनके मन में अद्भूत भाव हैं। ‘औरत‘ भारतीय नारी की सनातन कर्म-यातना का एक विराट चित्र अंकित हैं-
“वह औरत आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपडे पछीट रही हैं।
पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही हैं।‘‘
देवताले का वैशिष्ट्य यह भी है कि वे जितने कोमल बिंब सूक्ष्म अदाकारी से बुनते है, उतनी ही ताकत से भीषण पुरूष बिंबों का भी आयोजन कर सकते हैं,एक विलक्षण सुन्दर बिंब देखिये जिसमें आदिम गंध महकती हैं- (हमारे बीच)
“तुम्हारे भीतर
उस वक्त नावें चल रही थी और मैं शहद के छत्ते में
उलझता जा रहा था
पूरी पृथ्वी हमारे चतुर्दिक एक नाद रहित लयकारी
रच रही थी।‘‘
“बालम ककडी बेचने वाली लडकियाँ‘‘ एक मानवीय करूणा से ओत-प्रोत कविता हैं, जो हर दिन के हल्के-फुल्के शोषण के प्रसंग टुकडों से बुनी गई हैं। लोक जीवन की खट्टी और तीखी गंध लिये हुए, यह कविता आदिवासी जीवन के शोषण का बहुस्तरीय चित्रण करती हुई,उसकी जिजीविषा और जीवनाह्लाद को उभारती हैं। परन्तु कवि का मन उसकी सजग जानकार चेतना के कारण उसे सालता रहेगा-
“कोई लय नहीं थिरकती उनके होठों पर
नहीं चमकती आँखों से
जरा-सा भी कोई चीज
गठरी-सी बनी बैठी है सटकर
लडकियाँ सात सयानी और कच्ची उमर की
फैलाकर चीथडें पर
बालम ककडियों की ढींग
फकत भयभीत चिडियों-सी देखती रहती हैं
वे लडकियाँ सात।‘‘
इस प्रकार चन्द्रकांत देवताले जीवन के यर्थात् को बहुरंगी और बहुविध रूप में व्यक्त करती उनकी कविता में महज सूचना या तथ्य नहीं हैं। कविता में निजी और सार्वजनिक अनुभवों को एकमएक कर देने की यह रचना प्रक्रिया चन्द्रकांत देवताले को बडा और विशिष्ट कवि बनाती हैं। चन्द्रकांत देवताले जी की कविताओं में जीवन के विविध रंग उपस्थित हैं, कवि का सामाजिक और नैतिक दायित्व की विवेचना,दाम्पत्य प्रेम से भीगी कवितायें,स्त्री संसार,स्थानीय और नीजी जीवन से दो-चार होते अनुभव, संस्कृति की चिंता भी यहाँ उपस्थित हैं।
जीवन के करूण और कठोर अनुभवों को जब वरिष्ठ कवि चन्द्रकांत देवताले अपनी कविताओं में व्यक्त करते हैं। तो वह समय व समाज में व्याप्त परम्परायें जिनमें स्त्री बंधी हैं,गहन समीक्षा के साथ हमारी संवेदनाओं से जुडे रोजमर्रा के अनुभवों का प्रमाणिक दस्तावेज प्रस्तुत किया हैं।
स्त्री के संघर्ष,जद्दोजहद,उनके एकांकीपन उसके बहुविध रूप को चन्द्रकांत देवताले ने अपनी कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया हैं।
स्त्री जो आम-जीवन से जुडी थी वह जीवन से जुडे सवालों,अंधेरे,पतनशील समय से टकराने व अपनी मुक्ति का मार्ग तलाश रही हैं। स्त्री संसार यातना से जुडे भयावह अनुभवों के बीच उनकी कविता बाह्य स्वातंत्र्य की वकालत करती हैं। क्योंकि कवि के शब्दों में ही कविता जटिल समय में निज और सार्वजनिक आत्महत्या के विरूद्ध एक सतत् मानवीय जिरह साबित होती हैं। देवताले के लिए कविता को प्रासंगित बनाने का मतलब तात्कालिक जरूरतों, सूचनाओं और सुधारवादी टिप्पणियों की भरमार से नहीं है, जीवन के अनुभवों और घटनाओं को सही संज्ञा देना उनकी रचनात्मक चिंता रही हैं।
असिस्टेन्ट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
श्री गुलाब सिंह राजकीय महाविद्यालय, चकराता (देहरादून)
Mob. 7906221450
सन्दर्भ
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