अनुनाद

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टॉड मार्शल की एक कविता और लेख का अंश : चयन, अनुवाद एवं प्रस्तुति – यादवेन्द्र


टॉड मार्शल  की कविता
 
कोर्ट …….. वादी के साथ लम्बे रिश्ते का संज्ञान लेती है
और पूरी नेकनीयती के साथ विश्वास  करती है
कि दोनों पक्ष उदारता और विवेक दिखाते हुए  इस रिश्ते की गरिमा
अक्षुण्ण  रखेंगे।  

हवा को ऊँगली दिखा कर 
सेब के फूलों को निर्ममता के साथ 
बिखरा देने के लिए 
दोष मत दो। 

फूल लहक लहक कर  कामना करें  
कि आखिरी घड़ी आने पर 
जब वे विदा हों उससे पहले 
सबकी दुआएँ उनके आँचल में समा जाये। 
***
मूल कविता 
The court acknowledges the petitioner’s long involvement with
_________’s life and sincerely hopes that the parties involved
will have the generosity and wisdom to honor that relationship.
 
Do not blame the wind
that scatters apple blossoms
ruthlessly. Allow that flowers
desire farewell blessings
before their time has come.
***  
राष्ट्रपति बनने से पहले चुनावी गर्मागर्मी में  ट्रंप ने अश्वेत और लैटिनो आबादी के खिलाफ़ बहुत विष वमन किया और अब भी कर रहे हैं –  इसका ताज़ा उदाहरण अभी अभी (सितम्बर 2017 )में अलाबामा में देखने को आया जब उन्होंने गोरे अमेरिकियों को उँगली उठा उठा कर “आप जैसे लोग” ,अश्वेत आबादी को “वे लोग” कह कर सम्बोधित किया और कॉलिन कीपरनिक जैसे अश्वेत खिलाड़ियों को “सन ऑफ़ द बिच” तक कहा जो रंगभेदी भेदभाव का विरोध करते हुए राष्ट्रगान के समय जमीन पर घुटने तक कर झुके रहते हैं।”सन ऑफ़ ए बिच” के जवाब में कॉलिन कीपरनिक की माँ टेरेसा ने जवाबी ट्वीट किया :”यह जुमला मुझे एक गर्वीला बिच साबित करता है …”   इतना ही नहीं उन्होंने प्रोफेशनल  टीमों के मालिकों का आह्वान किया कि वे ऐसे देशद्रोही खिलाड़ियों को तत्काल बाहर का रास्ता दिखा दें। इसके प्रतिकार में सैकड़ों खिलाड़ियों ने घुटने टेक कर यह संदेश दिया कि कॉलिन कीपरनिक अकेले नहीं हैं बल्कि श्वेत अश्वेत अमेरिकियों का बड़ा समुदाय उनके साथ है।

न सिर्फ़ खिलाड़ियों ने बल्कि समाज के विभिन्न तबकों के अनेक अग्रणी लोगों ने राष्ट्रपति के इस बर्ताव की भर्त्सना की….पर अमेरिका के प्रख्यात कवि और वाशिंगटन स्टेट के राजकवि (पोएट लॉरियेट) टॉड मार्शल ने एक बेवाक लेख लिख कर राष्ट्रपति के आचरण पर अपना रोष प्रकट किया है…इस लेख के संपादित अंश यहाँ प्रस्तुत हैं।

भारतीय सन्दर्भ इस से कुछ अलग नहीं हैं…निरंकुश सत्ता का दम्भ बड़े निर्लज्ज ढंग से विभाजनकारी और साम्प्रदायिक विमर्श को न सिर्फ़ बढ़ावा दे रहा है बल्कि सड़कों पर इसका वीभत्स प्रदर्शन भी कर रहा है।हमारे बड़े कवि लेखक क्यों चुप हैं?





पिछले हफ़्ते राष्ट्रपति ने अन्याय का प्रतिकार करने के लिए शांतिपूर्वक अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रयोग करने वाले लोगों के लिए भद्दे रोष का प्रदर्शन किया….वहीं दूसरी तरफ़ निओ नाज़ी हिंसा और हत्या के प्रति गोलमोल बातें और बचाव के तरह तरह के तर्क गढ़ने का उदाहरण भी सामने है।यह किसी भी तरह से नॉर्मल बर्ताव नहीं है।
राष्ट्रपति ने स्त्रियों के बारे में भद्दे कुत्सित और आपत्तिजनक ढंग से बातें कहीं – इतना ही नहीं, अपनी वाणी से और क्रियाकलाप से –  नारीद्वेषी और हिंसा की संस्कृति को बढ़ावा देने का काम किया।हम इसे नॉर्मल बर्ताव कत्तई नहीं मान सकते।
राष्ट्र्पति अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के साथ दुर्व्यवहार करने को स्वीकार्य मानते हैं…हम इसको नॉर्मल बर्ताव नहीं मान सकते।

राष्ट्रपति निरंतर अपनी बातों से डर और घबराहट का वातावरण पैदा कर रहे हैं। बेहद आक्रामक शब्दों का प्रयोग कर डराने धमकाने का काम कर रहे हैं वह भी उन बातों पर जिनके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता – जैसे न्यूक्लियर युद्ध की संभावना। न्यूक्लियर बमबारी कोई मामूली बात नहीं है। 
राष्ट्रपति शब्दों का अवमूल्यन करते हैं ,सच्चाई का दुरूपयोग करते हैं और शब्दों के अंदर से उनके अर्थ चूस लेते हैं। होलोकॉस्ट विशेषज्ञ तिमोथी स्नाइडर मुझे याद दिलाते हैं कि जबतक दोनों पक्ष साझा शब्दावली पर सहमत नहीं होंगे साझा सच्चाई का कोई मतलब ही नहीं , यह निर्मित ही नहीं हो सकती। और बगैर साझा सच्चाई के कोई भी लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता फलना फूलना तो दूर। 
भाषा की साझा समझ विकसित किये बिना हम ईमानदारी और खुलेपन  के साथ नस्लवाद और सामाजिक न्याय हो या आर्थिक असमानता हो , स्वास्थ्य संबंधी नीति निर्धारण हो या इस देश में भेदभाव और दमन का इतिहास हो , या अमेरिकी अवाम के किसी हिस्से के प्रति दुर्भावना पूर्ण बर्ताव हो  किसी पर  कोई संवाद नहीं कर सकते। राष्ट्रपति ने अपने कार्यकाल के शुरूआती महीनों में निरंतर एक के बाद एक रैलियाँ कर के अपने अविवेकी दम्भ को संतुष्ट करने के लिए समाज को भड़का भड़का कर विभाजित करने का काम किया है … आग में घी डाल कर एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने का काम किया है। वह अपने लिए तालियाँ  बजवाने और राष्ट्रवादी जहर घोलने में मशगूल हैं जबकि अनेक महत्वपूर्ण और जरुरी काम करने को पड़े हैं – यहाँ तक कि सरकार चलाने के लिए सामान्य तौर पर जितने लोग चाहियें उनकी नियुक्तियाँ भी रुकी पड़ी हैं। भाषा के अश्लील दुरुपयोग और धुर फ़ासिस्ट रैलियाँ – इनमें से कोई भी नॉर्मल बात नहीं है।राष्ट्रपति ने देश में आक्रोश और अलगाव की संस्कृति पैदा की है ….हाँ, यह बिल्कुल सच है।हाँलाकि जिन ना इंसाफ़ियों का मैंने ऊपर जिक्र किया है उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो हमारे ऐतिहासिक सफ़र के साथ साथ गहरे रूप में जुड़े रहे हैं और मेरा मानना है कि हम बतौर समाज उनकी तरफ़ गौर करने लगे हैं,उनके बारे में खुले तौर पर चर्चा और बहस करने लगे हैं…और ऐसी कोशिशें सामने आने लगी हैं जिनमें अतीत के विभाजन और अन्यायों से पैदा हुई पीड़ा को कम किया जा सके,पीड़ितों के जख्मों पर मरहम लगाया जा सके।ऐसे संवादों को स्थगित कर देना,दूसरों के लिए सहानुभूति दिखाने और साझा समझ और भाषा विकसित करने के तमाम प्रयासों पर विराम लगा देना – ऐसे चालचलन और बर्ताव को नॉर्मल कहना मुनासिब नहीं होगा – न यह नॉर्मल है न ही होना चाहिए…बल्कि इसको नस्लवाद,सेक्सिज्म और देश और दुनिया के सबसे दुर्बल और असुरक्षित वर्गों के प्रति हिंसा की  घिनौनी आग भड़काने की कार्रवाई के रूप में देखा जाना चाहिए।
क्या इन हालातों को देखते हुए हमसब को दोनों घुटनों के बल झुक जाना चाहिए और सम्पूर्ण समाज की सामर्थ्य,मदद और मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करनी चाहिए – चाहे वे फुटबॉल खिलाड़ी हों चाहे कारखाना मजदूर…राजनीतिक कार्यकर्ता या कवि – यह सबको याद रखना जरूरी है कि नॉर्मल क्या है,सम्मानजनक क्या है,नैतिक क्या है…हम क्या बन सकते हैं,हमें क्या बनना चाहिए।”

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