Monday, July 24, 2017

अरुण देव की नई कविताएं




अरुण देव हमारे वक़्त के दुश्चक्रों से लड़ने वाले कवि हैं। उनकी कविता देश के कठिन समय में संविधान की प्रस्तावना हमारे सामने रखती है। विक्षत मनुष्यता के लिए कलपती कविता, जिस ज़रूरी क्षोभ से भरी होनी चाहिए, उसका अनन्य उदाहरण अरुण देव की कविताएं हैं। कविता में राजनीतिक समझ का एक अचूक औज़ार उन्होंने अर्जित किया है, जिससे सीखा जा सकता है। वे छह वर्षों से हिंदी की महत्वपूर्ण ई-पत्रिका समालोचन का सम्पादन कर रहे हैं। महज सहित्यकार हो जाने के बरअक्स उन्होंने साहित्य और विचार का कार्यकर्ता हो रहना स्वीकार किया है। ज्ञानपीठ और राजकमल से उनके दो कविता संग्रह आए हैं। अनुनाद को अरुण देव की कविताओं का इंतज़ार रहता है। इन कविताओं के लिए अनुनाद अपने कवि को शुक्रिया कहता है।  
**** 

वे अभी व्यस्त हैं

जब गाँधी अहिंसा तराश रहे थे
आम्बेडकर गढ़ रहे थे मनुष्यता का विधान
भगत सिंह साहस, सच और स्वाध्याय से होते हुए
नास्तिकता तक चले आये थे
सुभाषचंद्र बोस ने खोज़ लिया था खून से आज़ादी का रिश्ता
नेहरु निर्मित कर रहे थे शिक्षा और विज्ञान का घर

फतवों की कटीली बाड़ के बीच
सैय्यद अहमद खान ने तामीर की ज्ञान की मीनारें

तब तुम क्या कर रहे थे ?

तुम व्यस्त थे हिंदुत्व गढ़ने में
लिखने में एक ऐसा इतिहास जहाँ नफरतों की एक बड़ी नदी थी
सिन्धु से भी बड़ी

तुम तलाश रहे थे एक गोली, एक हत्यारा और एक राष्ट्रीय शोक

सहिष्णुता की जगह कट्टरता
आधुनिकता की जगह मृत परम्पराएँ
चेतना की जगह जड़ता

तुम माहिर हो उन्माद रचने में

किसान, श्रमिक, युवा, स्त्री, वंचित जब भी तुमसे कुछ कहना चाहते
उधर से एक मशीनी आवाज़ आती
आप जिनसे सम्पर्क करना चाहते हैं वे अभी व्यस्त हैं?


इस देश की सबसे सार्थक कविता

याद हो कि न याद हो
भारत एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है

इसके समस्त नागरिकों को
सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक
न्याय, विचार, अभिव्यक्ति
विश्वास, धर्म, उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा, अवसर की समता प्राप्त है

समरसता, समानता, भ्रातृत्व की भावना बहे
धर्म, भाषा, जाति, वर्ग और क्षेत्र की सीमाएं बाधक न बनें

त्याग दी जाएँ ऐसी प्रथाएं और विचार
जो मनुष्यों में भेद करते हों
स्त्रियों के सम्मान और गरिमा के प्रतिकूल हों

गंगा जमुनी तहज़ीब की मजबूत रवायत के महत्व को समझा जाए
वे समृद्ध हों सार्थक बनें

वन, झील, नदी, जीवों के लिए भी इस भूभाग पर जगह रहे
वे इसके आदि नागरिक हैं
फले, फूले, निर्भीक विचरें

वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद, ज्ञानार्जन, प्रगति की भावना से हम बढ़ें
हिंसा से दूर रहें

हो सतत प्रयास
सभी क्षेत्रों में बेहतरी की ओर बढ़ने का

जिससे राष्ट्र बढ़ें
विश्व सजे

यह वही कविता है जिसे इस देश के नागरिकों ने मिलकर अपने खून से लिखा है
आज़ादी की कविता

यही है देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति.


उत्तर – पैगम्बर  

१.
वह यह तो चाहेगा कि तुम नेक बनो
पर तुम्हारी वफ़ादारी उसने कभी नहीं मांगी
उसे आज्ञाकारी दास नहीं चाहिए थे

ये ज़ंजीरें तुम्हारी ख़ुद की हैं.

२.
तुम ख़ुशहाल रहो
आख़िरकार उसने तुम्हें बनाया जो है

पर तुम उसके कहर से न जाने क्यूँ डरते रहे
बचते रहे उसके श्राप से
वह तुम्हारे लिए विनाश और तबाहियाँ क्यों लाएगा
जबकि उसने तुम्हारे लिए सूरज चाँद तारे बनाये
सुकून भरी रातें और स्वाद भरे फल बिखरे दिए धरती पर

उसने सुन्दरता को पहचानने  के लिए रौशनी दी है तुम्हे.

३.
वह सर्वशक्तिमान है
वह तुम्हारे प्रसाद और बलि का मोहताज़ नहीं
उसे तुम्हारी कृतज्ञता भी नहीं चाहिए.

४.
उसे कुछ कहना होगा तो कह लेगा
उसे सब भाषाएँ आती हैं

वह आकाश के कागज़ पर कडकती बिजलियों से इबारत लिख सकता है

उसे किसी सन्देशवाहक की जरूरत नहीं
न कभी उसने भेजे

क्या उसने शेर को बताया उसका जंगल
चिड़िया को उसकी उड़ान
नदी को उसकी गति

क्या तुमने कभी खरगोश को प्रार्थना गाते सुना है
उसकी दौड़ ही प्रार्थना है.

५.
वह न्यायप्रिय ठहरा

और तुम उसके मानने वाले अपनी बहनों से ही नाइंसाफी करते हो
और फर्क करते हो उसकी संतानों में
काले गोरे नाटे लम्बे सब उसके ही साँचें ढले हैं

लोगों को उनके सद्गुणों  से पहचानों
उनके ज्ञान, विवेक और सहृदयता का सम्मान करो
श्रम की इज़्ज़त करना सीखो.

६.
वह तुम्हारा रखवाला है

बेवज़ह उसकी कृपा के लिए
झुके हुए बुदबुदाते रहते हो उसका नाम
वह बेख़बर  नहीं है तुमसे
उसकी कोई रीति नहीं
न ही उसका कहीं कोई घर है.

७.
वह सर्वव्यापी है
दिग्दिगन्त तक फैली है उसकी आभा
उसने तुम्हें विवेक दिया

वह कोई कातिब नहीं कि आखिरत में तुम्हारा हिसाब-किताब करेगा
न जन्म के पहले कुछ था न मृत्य के बाद कुछ है.

८.
तुम कैसे रहते हो
क्या पहनते हो
तुम्हें क्या खाना चाहिए

इसके लिए उसने कोई दिशा निर्देश नहीं दिए
नहीं तो वह तो तुम्हारी पीठ पर इन्हें उकेर देता

यह तुम खुद तय करो.

९.

जहाँ हो
वहीँ बना लो स्वर्ग

खिलो और फिर अपनी सन्ततियों में खिलते रहो
अपने कर्मों में महकते रहो
यही अमरता है.

१०.

और यह भी कि
यह धरती सिर्फ तुम्हारी नहीं है
आकाश, समुद्र और जमीन साझे के हैं
इस पर रहने वाले छोटे से छोटे कीट की भी यह उतनी ही है

एक असमय पड़ा पीला पत्ता  
कहीं किसी पेड़ के सूख जाने की तरफ इशारा करता है
और पेड़ों का काटा जाना जगलों की तबाही है
जहाँ से मिलती है तुम्हें हवा
और पहाड़ों के पीठ पर पानी से भरे बादल हैं
काले धुंए से पीला पड़ा प्रकाश तुम्हारे लिए विभीषका लाएगा
बचो खुद के पैदा किये कचरे से

मैंने तो तुम्हें साफ-सुथरी पृथ्वी दी थी
कल-कल करती नदी
और चमकती हवा


अगर कहीं कोई पीछे रह गया है तो रुक कर अपने में उसे शामिल कर लो.
         ***

Saturday, July 15, 2017

राकेश रोहित की ग्यारह कविताएं

राकेश रोहित हमारे समकाल के प्रमुख कवि के रूप में उभरे हैं। अनुनाद के वे पुराने साथी हैं, उनकी कविताएं कई बार अनुनाद ने छापी हैं। यहां आप पाएंगे कि राकेश रोहित की कविताओं के पास एक बहुत बड़ा कैनवास है, वे लगातार अनुपस्थित तथ्यों और दृश्यों को इस कैनवास पर सम्भव कर रहे हैं। इधर हिंदी कविता का हाल भी बहुधा यही हुआ है कि वह किसी न किसी स्टूडियो के झूटे दरवाज़े के पास खड़ी है। बंद स्टूडियो की दो-चार सीढियाँ चढ़कर ही वह स्वयं को बुलंद महसूस कर लेती है, ऐसे में राकेश रोहित जैसे कवि अपनी ही एक असमाप्त यात्रा पर निकलते हैं तो कविता के उल्लेखों में एक सुंदर दृश्य बनता है। 

अनुनाद ने रोकश रोहित से कविताओं के लिए अनुरोध किया था, जिसे उन्होंने पूरा किया। कवि को शुक्रिया और शुभकामनाएं। 
***
सागर किनारे : राकेश रोहित

उसकी तस्वीर

उसकी जितनी तस्वीरें हैं
उनमें वह स्टूडियो के झूठे दरवाजे के पास खड़ी है
जिसके उस पार रास्ता नहीं है
या फिर वह एक सजीले मेज पर कुहनी रखे
टिका रही है हथेली पर अपने चेहरे को
सोच की मुद्रा में।
पास में बंद स्टूडियो की दो- चार सीढियाँ हैं
एक में वह सीढियां चढ़कर
थोड़ा मुड़कर देख रही है
और समय फिर वहीं ठहरा हुआ है।
हर तस्वीर खिंचवाने के पीछे कितनी कवायदें होती थीं
उसने तय किया था वह एक दिन रोयेगी
अपनी इन सारी तस्वीरों के साथ
जबकि सिर्फ साफ दिखता है स्टूडियो का नाम
अब भी आंखें भरी- भरी लगती हैं
उन श्वेत- श्याम तस्वीरों में!
अपनी पुरानी तस्वीरें देखकर वह
खुद हैरान होती है
उसके पास नहीं है ऐसी तस्वीर
जिसमें उसके हाथ में फूल हो
और वह तितली के पीछे भाग रही हो!
पुरानी तस्वीरें देखते हुए
वह याद करती है अपनी पुरानी कविताएँ
जिसमें उसका अजाना बचपन छिपा है
कच्ची अमिया खाना उसे बहुत पसंद था
पर हाथ में पत्थर उठाये उसकी कोई तस्वीर नहीं है।
***  

परसों हम मिले थे
 
परसों हम मिले थे
याद है?
मैंने संजो रखी है वह मुलाकात!
आजकल मैं छोटी- छोटी चीज सहेजता रहता हूँ
जैसे कागज का वह टुकड़ा
जिस पर किसी का नंबर है पर नाम नहीं
जैसे पुरानी कलम का ढक्कन
खो गया है जिसका लिखने वाला सिरा
जैसे बस की रोज की टिकटें
उस एक दिन का छोड़ जब मैं खुद से नाराज था
जैसे अखबार के संग आये चमकीले पैम्फलेट
जैसे भीड़ भरी बस में
एक अनजान लड़की की खीज भरी मुस्कान!
जब कोई मेरे साथ नहीं होता
मैं उलटता- पलटता रहता हूँ इन चीजों को
जो मेरे पास है और जो मेरे मन में है
नौकरी मिलने पर भाई ने पहली बार चिट्ठी लिखी थी
पिता ने बताया था घर आ जाओ
शादी पक्की हो गयी है
माँ ने कहा था कोई दवाई काम नहीं करती
मशरूम वाली दवाई खा लूँ
दोस्त ने शहर आने की सूचना दी थी
और आया नहीं बता कर भी
बहुत सी स्मृतियाँ मैं अपने साथ समेट कर
भीड़ भरे शहर में अनमना घूमता रहता हूँ।
यह जो असबाब इकट्ठा कर रखा है मैंने
मन के अंदर और घर के उदास कोनों में
क्या एक दिन मैं इनको सजाकर तरतीब से
खोजूंगा अपनी जिंदगी का उलझा सिरा
और किसी गुम हँसी को अपने चेहरे पर सजा कर
गाने लगूंगा कोई अधूरा गीत!
कल मुझे अचानक वह नाम याद आया
जिससे दोस्त मुझे बुलाते थे
मुझे उनका इस तरह पुकारना कभी पसंद नहीं आया
पर मैंने उसे भी संजो लिया है
और कई बार खुद को पुकार कर देखता हूँ उस नाम से
क्या वह आवाज अब भी मुझ तक पहुंचती है!
अखबार के कई पीले पड़ गये टुकड़े
जिस पर छपे खबर की प्रासंगिकता भूल चुका हूँ मैं
अब भी रखे हैं मेरी पुरानी कॉपी में
और साहस कर भी उन्हें फेंक नहीं पाता
क्या था उन खबरों में जिसे मैं सहेजता आया इतने दिन
सोचता हूँ और गुजरता हूँ
स्मृति की अनजान गलियों में
किसी दिन वह जागता हुआ क्षण था
अब जिसकी याद भी बाकी नहीं है।
सहेजता हुआ कुछ अनजाना डर
मैं कुरेदता रहता हूँ
अनजान चेहरों में छुपा परिचय
संजोकर रखता हूँ कुछ अजनबी मुस्कराहटें
परसों हम मिले थे
याद है?
पर क्या हम कल भी मिले थे?
***
 
रंग कहाँ हैं
 
प्रिय!
रंग कहाँ हैं?
बस तुम्हारी आंखों में
जिसमें एक अधूरे स्वप्न की छाया है
और मेरी कविताओं में
जहाँ तुम्हें पुकारते कुछ शब्द हैं।
तुम्हारे लहराते दुपट्टे में
आसमान की सतरंगी छाया है
तुम्हारे होठों पर ठहरा हुआ है
सूरज की शोखी का रंग लाल
तुम्हारे मुस्कराहटों से धरती पर
थोड़ी पीली धूप फैली हुई है
तुम्हारी नजरों के देखे से
हरे रंग में रंगी हैं दिशाएं!
इनके अलावा
इन सबके अलावा रंग कहाँ हैं?
बस सारी उदासी को हटाकर जहाँ
मैंने प्यार का आख्यान लिखा है
वहाँ जिन्दगी में अब भी बचे हैं
रंग की निशानदेही करते कुछ शब्द
उनके अलावा
उन सबके अलावा रंग कहाँ हैं?
टूटने दो उस सितारे को
तुम तक जिसकी रोशनी नहीं पहुंचती
बस तुम्हारी हथेली में
एक शब्द प्रिय
झिलमिलाता रहने दो!
इस स्याह- सफेद दुनिया में
रंगों की तलाश करते मेरी कविता के शब्द
तुम्हारे सांसों की ऊष्मा से जरते हैं
जवां होते हैं!
एक दिन तुम्हारी आंखों में देखता हुआ मैं
देखता हूँ शाश्वत अग्नि से दहकती हुई धरती
एक दिन मैं देखता हूँ कविता
कैसे छुपी हुई थी तुम्हारे होठों के आस्वाद में
एक दिन हम तुम मिलकर लिखते हैं
धरती का धानी रंग
एक दिन बारिश में हरा हो जाता है
पत्तों का पीला रंग!
***
 
नमक के बारे में कविता और अपरिचय की कहानियाँ
 
वह मुझसे थोड़ा नमक चाहता था!
नमक! मैं चकित था
हाँ नमक! उसने कहा तो उसकी आँखों में नमी थी
जो शायद उसने बचा रखी थी
इसी दिन के लिए जब वह
एक अजनबी से सरे राह नमक मांगेगा!
पर नमक क्यों?
क्या भूखे हो तुम?
सुंदर, सजीले इस बाजार के दृश्य में
मैं कहाँ तलाश सकता था चुटकी भर नमक!
कुछ खाना है?
मैंने पूछा
यह सबसे सरल प्रस्ताव था मेरे लिए
पर उसने कहा, नहीं भूखा नहीं हूँ मैं
मैं भूल चुका हूँ जिंदगी का स्वाद
नहीं भूख नहीं, तुम्हारी आँखों में छाया
अपरिचय डराता है मुझे
मैं आज तुमसे लेकर थोड़ा नमक
कृतज्ञ होना चाहता हूँ एक अजनबी के प्रति!
पर क्यों
नमक ही क्यों चाहिए उसे?
मैं खुद से पूछता हूँ
और लगता है
जैसे अपने ही बेसबब सवाल से डर रहा हूँ
वे जो टूटी सड़क के कोने पर
मूंगफलियां बेच रहे हैं
क्या उनके पास होगा नमक!
मैं इस सृष्टि में विकल मन की तरह दौड़ रहा हूँ
नमक की तलाश में
मैं उस खोमचे वाले के सम्मुख अपना अपरिचय लिये
नतमस्तक खड़ा हूँ
क्या उसे पता है
मुझे चाहिए चुटकी भर नमक!
रोज हमारी जिंदगी का नमक कम हो रहा है
पर मैं रोज व्यग्र नहीं होता हूँ नमक की तलाश में
मैं अपनी याचना की दुविधा को
अपनी मुस्कराहट से ढकता हूँ
मैं चाहता हूँ नमक
जो थोड़ा कुछ बचा है
जतन कर लपेटी छोटी पुड़ियाओं में।
मैं चुटकी भर नमक
उस अजनबी के हाथ में रखकर
देखता हूँ उसकी आँखों की चमक
और नमक विहीन यह सृष्टि!
मैं उदास हूँ
मैं गले से चिपट कर रोना चाहता हूँ उसके
पर ठिठक कर पूछता हूँ
तुम बहुत दिनों से तलाश रहे थे नमक
कुछ खास बात है भाई इसमें?
हाँ खास है न!
वह कहता है
कुछ खास बात है इस नमक में
तभी तो, इस नमक की तलाश में
बेकल नदियाँ समंदर तक पहुँचती हैं
इसी नमक को खोकर मैं
मिलता हूँ तुमसे विह्वल रोज
और तुम तक नहीं पहुँचता!
***
 
मॉल में भय

वह देख कर सचमुच चकित हुआ

पैरों के नीचे जमीन नहीं थी, कांच था
और कांच के नीचे लोग थे!
यह नये युग का बाजार था
कांच से सजा हुआ
कांच की तरह
कि कोई छूते हुए भी डरे
और कांच के पीछे कुछ लोग थे बुत की तरह खड़े!
कोई देखता नहीं
यह कैसा है उल्लास का एकांत
है खड़ा कोने में वह
अस्थिर और अशांत!
सामने स्पष्ट लिखा हुआ
पर नहीं किसी को खबर है
सावधान आप पर
सीसीटीवी की नजर है!
बाहर निकलते हुए भी नजर करती है पीछा
यहाँ आपकी ईमानदारी की परीक्षा करता
एक दरवाजा लगा है!
आपसे है अनुरोध महाशय
आप इधर से आएं!
क्या खरीदा है, क्यों खरीदा है साफ- साफ बतलायें?
आप अच्छे ग्राहक हैं अगर आप बेआवाज निकल जायें!
*** 
पेड़ पर अधखाया फल
 
पेड़ पर अधखाया फल
पृथ्वी के गाल पर चुंबन का निशान है
यह प्रेम की अधसुनी आवाज है
यह सहसा मुड़ कर तुम्हारा देखना है।
यह तुम्हें पुकारते हुए
ठिठक गया मेरा मन है
यह कोई मधुर कथा सुनते हुए अचानक
तुम्हारे आंखों में ढलक आयी नींद है।
अधखाये फल से छुपाये नहीं छुपता है
प्यार का मीठा ताजा रंग
अधखाये फल से झरते हैं बीज
तो हरी होती है धरती की गोद
अधखाया फल अचानक हथेली पर गिरा
तो मैंने चाँद की तरह उसे समेट लिया
यह धरती पर सितारे बरसने की रात थी
मैंने हौले से चूम लिया उसे
जैसे उनींदे उठ कर तुम्हारा नींद भरा चेहरा।
**** 
 

प्रेम में हूँ इसलिए
 
मैं प्रेम में हूँ
इसलिए बेवकूफ हूँ।
मैं दुख में हूँ
इसलिए सिकुड़ा हुआ हूँ।
मैं जागता हूँ
तो रोता रहता हूँ
मैं नींद में हूँ
इसलिए डूबा हुआ हूँ।
तमाम फैले ज्ञानी जन
तैरते रहते हैं जल में
मैं कवि हूँ
इसलिए तल में हूँ।
*** 
 
शून्य के साथ
शून्य के साथ रखा अंक
सुन्दर लगने लगता है
जैसे पांच की जगह पचास!
जैसे अपने हृदय का शून्य
सौंपता हूँ तुम्हें
और महसूसता हूँ विराट की उपस्थिति!
अपना शून्य लेकर
भटकता रहता हूँ इस निर्जन वन में
तुमसे मिलता हूँ तो साकार हो जाता हूँ।
***  

मनुष्य को खा जाता है दुख
गेहूँ को घुन खा जाता है
और कभी-कभी पिस भी जाता है।
कीट खा जाते हैं हरी पत्तियाँ
और कभी मिल भी जाते हैं मिट्टी में।
सूखते पत्तों के संग
झर जाते हैं, जर जाते हैं
खाद हो जाते हैं।
मनुष्य को खा जाता है दुख
मनुष्य मर जाता है
दुख नहीं मरता
बस धीरे से देह बदल लेता है।
***  

नम अँधेरे में उम्मीद 
 
झर गया हूँ
पत्ते से कहता हूँ
पर टूटा तो नहीं हूँ!
टूट गया हूँ
पेड़ से कहता हूँ
पर उखड़ा तो नहीं हूँ!
उखड़ गया हूँ
जड़ से कहता हूँ
पर सूखा तो नहीं हूँ!
सूख गया हूँ
बीज से कहता हूँ
और चुप रहता हूँ!
इस नम अंधेरे में जन्मना है तुम्हें फिर
कहता है इस बार बीज।
***
 
रह जाता
धरती की तरह
             सह जाता
नदी की तरह
             बह जाता
चिड़िया की तरह
            कह जाता
तो दुख की तरह
            रह जाता
मैं भी
मन में और जीवन में!
***

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