अनुनाद

अनुनाद

विपिन चौधरी की कविताएं


समकालीन कविता-संसार में विपिन चौधरी का हस्तक्षेप बख़ूबी पहचाना गया है। अनुनाद पर विपिन की उपस्थिति के ये लिंक पाठकों के लिए – 
1.आत्मकथ्य और कविताएं
2.दस कविताएं  
3.माया एंजेला  

अनुनाद के एक पुराने पन्ने पर उनकी दस कविताएं लगाते हुए जो टिप्पणी की थी, उसे यहां दुबारा लगा रहा हूं। 
– – –


विचित्र लेकिन बहुत सुन्‍दर है आज की, अभी की हिंदी कविता का युवा संसार। कितनी तरह की आवाज़ें हैं इसमें, कितने रंग-रूप, कितने चेहरे, अपार और विकट अनुभव, उतनी ही अपार-विकट अभिव्‍यक्तियां। इस संसार का सबसे बड़ा सौन्‍दर्य यही है कि यह बनता हुआ संसार है, इसमें निर्मितियों की अकूत सम्‍भावनाएं हैं। यहां गति है, कुछ भी रुका-थमा नहीं है। यह टूटे और छूटे हुए को जोड़ रही है। इसमें पीछे खड़े संसार के प्रभाव कम, अपने अनुभवों पर यक़ीन ज्‍़यादा है। विपिन चौधरी की कविताएं इस दृश्‍य की लिखित प्रमाण हैं।



विपिन का नाम एक अरसे पढ़ा-सुना जा रहा लेकिन इस नाम परिचित होने के क्रम में बहुत चमकदार पुरस्‍कार या ऐसा कोई मान्‍यताप्रदायी प्रसंग नहीं है। उन्‍हें किसी बड़े नाम ने ऊंचा नहीं उठाया है, विपिन ने अपना नाम ख़ुद की मेहनत और अनिवार्य धैर्य के साथ स्‍थापित किया है। ए‍क बहुत ख़ास कोण है विपिन की कविता का कि वे प्रचलित, ऊबाऊ और अधकचरे स्‍त्री विमर्श की अभिव्‍यक्ति भूले से भी नहीं करती – वे अपनी कविताओं में डिस्‍कोर्स करती नज़र नहीं आतीं, वे बहस छेड़ती हैं। सीधी टक्‍कर में उतरती हैं। अभी के भारतीय समाज (उसमें हरियाणा जैसे समाज) में गहरे तक व्‍याप्‍त सामंतवाद और खाप-परम्‍पराओं से लड़ती हैं। ये सजगता का निषेध और पीछे छोड़ दी गई सहजता का स्‍वागत करती कविताएं हैं।  डिस्‍कोर्स के छिछले और उथलेपन के बरअक्‍स यहां गहरे ज़ख्‍़मों को कुरदने का साहस है। कविता में निजी लगने वाली पर दरअसल जनता के पक्ष में निरन्‍तर जारी रहनेवाली इस लड़ाई का अपना एक अलग सौन्‍दर्यशास्‍त्र है। 

*** 
उसका अकेलापन 


कभी- कभी मन करता 
बढ़ जाते उसकी ओर कदम   
वह,
हमारे स्कूल की एकमात्र एथलीट 
करती स्पोर्ट्स पीरियड को वही  गुलज़ार 

स्पोर्ट्स पीरियड  की घंटी बजते ही 
लड़के  हो जाते क्लास  से फुर्र 
लड़कियां, मध्यम  गति में मुस्कुराती हुयी 
निकल आती  कक्षा से बाहर  

लड़के खेलते क्रिकेट, वॉलीबॉल 
लड़कियां करती  गपशप 
करती  बातें गए  दिन देखे  सपनों की,  
परियों की, नेल पॉलिश के रंगों की  
स्पोर्ट्स पीरिएड में भी खेलों से रहती कोसों दूर   

वही एक,
खेल में घोलती हंसी-ख़ुशी भी
न होती वह लड़कों की टोली में शामिल
न लड़कियों के लगती नज़दीक 
जाती अक्सर ही खेल प्रतियोगिता में  
कक्षा में दिखती कभी कभार 
पढ़ाई में उसकी रुचि कम ही होती    
हो उठती  परेशान कभी  पीठ दर्द तो कभी पाँव की मोच से
नहीं बन सकी उसकी कोई सखी- सहेली 
 
स्पोर्ट्स पीरियड में लड़के गोल करते 
रन बनाते, विकेट लेते  
खेल से बेरुखी दिखाती लड़कियां 
स्कूल में प्रार्थना के समय   
न्यूज़ में जिक्र करती  
ताबड़तोड़ रन बनाते लड़को की 
 
सहेलियों से बातचीत में साथ जोड़ देती
यह टैग 
हमारा कैप्टन सनी अच्छा खेलता है’ 
मगर मुझे पसंद आता है विकेट कीपर राहुल 
 
आती है याद आज भी वे सब लड़कियां
अपने स्कूल की एकमात्र एथलीट 
जिसने छोटी उम्र में

अर्जित कर ली थी शोहरत,
के साथ
अथाह  अकेलापन
*** 
ठसक  

पुकारती वे प्रेममयी करुणा में  प्रभु-प्रभु 
निर्विकारअदेह हवा सा प्रभु
उनका प्रेमी  
 
इधर,जीवन को रंगीन सूत  में लपेटने वाली हम 
अपनी पूर्वज प्रेमिकाओं की स्मृतियाँ  
हम पर अपनी तह नहीं जमाती
तो कैसे बन पाती हम
नीची नज़रों वाली तुम सी
भीरु प्रेमिकाएं 
 
सीटियाँ बजाते हुए
हर बार हम प्रेम की गहन गुफा में दाखिल हुयी तो
निकली हर बार  चाहे रोते कलपते ही 
मगर हमनें हर बार प्रेम को,
कहा प्रेम ही 
*** 
 
लय के  रेखागणित का भार ढ़ोती, नृत्य-योगिनियां  
 
हमारी भाषा
देह की भाषा 
हमारी चाल,
हथनी की चाल 
हमारी ऊंगलियां,
हिलते हुए पात
नाखूनआभूषण और श्रृंगार मीठे फलों सा  मधुर
हम आदमकद कठपुतलियां,
पृथ्वी की  नृत्य-योगिनियाँ  हम

ज्यों  सांप का जहर चूसता  बादी
मन का तमाम जहर विष चूसने में सिद्धहस्त  हम
नृत्य के कड़े अनुशासन भीतर रह
कमान सी कसती  देह को अपनी,
 
सुबह -सवेरे  नृत्य का  अभ्यास  कर 
समेट लेती  देह भीतर,
पृथ्वी की सारी गतियां  
देवदासियां देवालयों में नाचती प्रभु के आनंद में 
हम  राज दरबार में  सिंहासनों  पर बैठे प्रबुद्धजनों  खातिर 
नृत्य के अंग-विन्यास में
 
बूँद की तरह मन की धरती पर धिरकती  हम
चाहती थी हम बनना नर्तकी
सिर्फ नर्तकी 
राज सिंहासनों  ने बनाया हमें राज नर्तकी 
भेदे हमारे  नख- शिख 
जांची हमारी गतियां  
पहनाये हमें तमगे
फेंकी हमपर अपने गले की  स्वर्ण मालाएं 
 
घोषित किया हमें राज नर्तकी
राजा की मुग्धता पर लज्जित हुआ तब राज  दरबार 
कैसे मान्य होता दरबार को  हमारा मान- सम्मान  ?
हमारी तुलना अप्सराओं से करता राजा तब   
स्वर्ग के देवता फूला लेते अपने चेहरे 
 
हज़ारों होते हमारी  देह संचालन पर  मन्त्र- मुग्ध 
कुतूहल करते देह की लचक पर  लाखों  

बदल जाते उनकी दिनचर्या के  इशारे 
नृत्य के आँगन में सिमटकर  
तब हम स्त्री से नर्तकी  बनती  
फिर बनती  वसंतमालिनी 
कभी बनती कामकंदला 
कभी आम्रपाली 

हमारा परिचय यही
हमारी गति यही 
मोहनजोदड़ो की खुदाई से मिलती हमारी  प्रतिमाएं 
सदियों से कांसे के सांचे  में कसमसाती हम,  बिना हिले- डुले 
थक गयी थी हमारी देह तुम्हारे मनोरंजन में 
हमने किया पृथ्वी की गोद में जी भर कर लम्बा आराम 
*** 
हर बार यही देहवासवदत्ता


सत्य को तलाशने के लिए  देखती थी हम दर्पण 
प्रेम दिखा तो एक छोटे से झरोखें से 
तेज़ क़दमों से आगे बढ़ता   हुआ 
 
आस जन्मी भिक्षु उपगुत्ता  को  पाने की  
मनचाहा टला इस बार भी  
तुम्हारा मन कब तुम्हारा हुआ वासवदत्ता  ? 
और देह तुम्हारी 
देह से ही हटती तुम बार बार
लौट आती इसकी देहरी  पर फिर 
 
देह की स्वीकृति के लिए नहीं करनी चाहिए प्रार्थना 
तुम करती थी मगर ध्यान 
देह ठहरती तो  आत्मा मोक्ष का गुहार करती 
मन की दूसरे किनारे 
दिखते  बुद्ध
तुम्हारी देह को देह मनवाने के लिए  
 
झूलती रहती  
इस बीच तुम देह और जीवन के मध्य 
उपगुत्ता के  इंकार ने जीवन तपाया 
हामी ने दी नयी दिशा 
 
थी अब तुम देह के उस पार 
दूर बैठे मुस्कुरा रहे थे बुद्ध
विभोर थी तब तुम
कातती हुयी प्रेम की कपास 
देह के नज़दीक रह कर भी
देह से दूर जा कर भी 
*** 


हुनर
बूझ लिया था मैंने शायद
मीना बाज़ार में परवान चढ़ा प्रेम,
राजा के संग बैठ राजदरबार में
फैसले निपटाने का राजनीतिक कौशल और प्रशासनिक ज्ञान,
संगमरमर, लाल बलुआ पत्थर पर फूलों की सजावट की अद्भुत वास्तुकला
आखेट में चार-शेरो को एक साथ लपेटने का शौर्य 
गुलाब से अर्क बनाने का मेरा सारा ‘मेहरनामा‘ 
छूट जाएगा सब उस महल में ही 

मेहरूनिसा से मोतीमहल फिर नूरजहां  बनने के सफर में 
इतना भर जानना ही क्या कम जानना हुआ ?  

यह भी तो समझा 
राजा की बीस  बीबीयों में  सबसे मुखर  रानी  बन इतिहास में तो
शामिल हो जाऊंगी 
 वर्तमान को चौकस बनाने में काम आएगा मेरा हुनर ही 

पिछले बारह सालों उकेर रही हूँ शब्द 
टप्चीहूलज़ंज़ीरबनारसी की मदद से करती हूँ चिकनकारी’ 
बना डाले हैं  ढेरों सफ़ेद  बेलबूटे 
लो अपनी कहानी सुनाते सुनते एक और फूल काढ़ लिया है मैंने 
क्या देखोगे नहीं इसे ? 
***
नहींहम तो बस यूँ ही  

घर के ढेरो काम समेटने  के बाद 
क्षण भर का मन बदलाव  
गर्दनकमर और टख़नों को जरा तिरछा कर त्रिभंग बनाने 
और शाल वृक्ष की डाल थामने की देरी थी बस 
कि  देख लिया तुमने 
रखा फिर इसी अवस्था में घंटों 

इस बीच हमारा ध्यान कई दिशाओं में गया  
वापिस लौटामगर  आधा ही 
आधा वही कहीं अटक जो गया था 

यहाँ मुग्ध तैयारी में जुटना भी  था  
बनानी थी बालों में कई मींढीयां   
लगाना था इत्रमाहवार 
पहनने थे ढेरों आभूषण 

होने को तो हम पेड़ की देवी हो सकती थी 
या फिर कोई यक्षिणी 

होने को तो हम  साधारण स्त्रियां भी
हो सकती थी
दुनिया भर के काम के बाद जो यूँ ज़रा  तफरीह कर,
सीधी कर रही थी कमर 


मिट्टी  में दफ़न मिलती है किसी को
सज़ा देता है कोई संग्राहलय में 
हम फिर कहती हैं कि हम तो  
यूँ ही अपने मन बदलाव के लिए……. 


आप ही मगर
कह उठते  हो 
हमें हर बार 
शालभंजिका,
मदनिका,
शिलाबालिका
 

0 thoughts on “विपिन चौधरी की कविताएं”

  1. कवि हाेने का काेई अतिरिक्त प्रयास यहाँ नहीं … अच्छी कविताएँ !! शुभकामनाएँ !! धन्यवाद अनुनाद !!
    – कमल जीत चाैधरी

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