अनुनाद

अनुनाद

प्रशान्त विप्लवी की बारह कविताएं


प्रशान्त की कविताएं समकालीन युवा कविता संसार में केन्द्रों के बरअक्स सीमान्तों की हूक की तरह हैं। उन्हें पढ़ना दूर-दराज़ के इलाक़ों को पढ़ने जैसा है जबकि कवि का रहवास सीमान्तों या दूर-दराज़ के इलाक़ों का नहीं है। ये सामान्य जीवनानुभव हैं, उन अनुभवों की निजी लेकिन विकट छवियां हैं, जो एक संसार रचती हैं। वह संसार, जो हमारा है, हमारे निकट का है पर जिस पर हमारा ध्यान कभी है, कभी नहीं।


साथ ही यह कविता के केन्द्रों में मान्यता मसला भी है, जहां विशिष्टों का ही बोलबाला है। कविता के सामान्य-से ठिये अनुनाद पर प्रशान्त का स्वागत है।
*** 
प्रशान्त-आलाप


. बदचलन औरतें


कुछ औरतें सचमुच बदचलन होती हैं
जैसे कुछ मर्द होते हैं सद्चरित्र
बाप,भाई, पति और समाज के मुँह पर पोतती हैं कालिख
लेकिन कोई शर्म से डूबकर नहीं मरता
 
मार दी जाती हैं वो औरतें
घर से, समाज से, स्मृति से, शरीर से
कुछ बदचलन औरतें फिर भी रह जाती हैं शेष
कि सचेत कर सके
 
कैसे इंद्र की खूबसूरती एक छद्म है
और उसके देवत्व में छुपा हुआ है कुछ देवताओं का छल-प्रपंच भी

नामर्द जैसे शब्द बेहिचक इस्तेमाल करती हैं ये औरतें
शब्द उच्चारण में एक हिचक
समय से नष्ट हो जाती है
जैसे-जैसे वो शाप-भ्रष्ट होने  लगती  हैं
बदचलन हो जाती हैं एक अदद औरत

किसी बदचलन औरत ने ही किया था पहली बार खुलासा
कि मर्दों की एक बड़ी आबादी है
जो दरअसल मर्द नहीं हैं



२. कविता

शब्दों को रखो ऐसे ..
जैसे तुलसी-चौरे पर रखती थी दादी
 
काँपते हाथों से संभालकर
 
एक टिमटिमाता हुआ दीया
पंक्तियों को बन जाने दो खुद-ब-खुद 
जैसे छोटी लड़कियाँ
 
खेल-खेल में बाँध लेती है
 
अपना-अपना हाथ
संवेदना के ज्वर में तपने दो अभिव्यक्ति 
जैसे देर तक सेंकती है माँ
 
मक्के की रोटी दोनों ही पीठ
बराबर-बराबर ..
बहने दो कविता को 
उसको उसकी ही गति में
 
जैसे कोई बच्चा विदा करता है
 
कागज की कश्ती को किसी बरसाती नाले में …




३. उदास दोपहर में ..

 
उदास दोपहर में ..
जब छतें बेहद चुप रहती हैं 
और घरेलू बिल्ली दुलकते हुए चलती है सूनी सड़क पे 
सबकुछ ठीक होने की 
एक आश्वस्ति रहती है ..
मुझे रात के किसी भी गंभीर पहर में 
बिल्ली का रोना अच्छा नहीं लगता
 
मुझे नहीं लगता कि कोई घरेलू बिल्ली रात में रोती है
उदास दोपहर में ..
 
सबसे अकेला लगता है वो खजूर का पेड़
 
जिसके खुरदरे शरीर पर
 
शाखें नहीं टिकती
 
उसने एक मुट्ठी हरियाली बचा रखी है
 
अपने ही मुँह में
खजूर का पेड़
 
घरेलू बिल्ली को नहीं डरा रहा अभी …
बिल्ली दुलकते हुए चल रही है
 
फिर तेजी से फांद गई है
 
एक छत से दूसरे छत
शाम उतरते ही मुस्कुराने लगा है बूढ़ा खजूर




४. कवि की मौत 

 
अंतिम कविता में
पानी माँगा
गाँव माँगा
छाँव माँगी
और अलसाईसी ठाँव माँगी
कविता के उर्ध्व पंक्तियों में दर्ज की
अपनी अकुलाहट
अंतिम पंक्ति के नीचे
रुग्ण हस्ताक्षर किये
और आँखें गोल कर पढता रहा कई बार
पानी..
गाँव ..
छाँव
ठाँव ..
विछोह में मरते हुए कवि के शब्द पंक्तिबद्ध रहे
पानी के तल-अतल तक
गाँव के सिमाने पर नीम के नीचे
छंद को टिकाये रहा देर तक
भाव पड़े रहे शिथिल-निष्प्राण
पन्नों के ठाँव में ..
एक अदद बाजार में ढूंढती रही कविता
अपने लिए एक छाँव
कवि, झूठे शब्दों के तिलिस्म में फँसा रहा जीवन-भर
पानी सूखते रहे
गाँव उजड़ते रहे
छाँव कौए की पीठ ही रही
हर अलसाई दोपहर में
एक कवि की मौत होती है




५. जनता की आँखों में

सामंती कुर्सी का एक हत्था 
जब जलाया गया घूरे की आग में
 
बिरंची की आँखें चौंधिया गई
 
लालबाबू को विलीन होते देखकर राख में
बिसेसरा को दे दी गई जोत की ज़मींन 
मालती को सौंप दी गई जप्त बकरी गाभिन
 
हेहड़ बच्चा रगेदने लगा खेत से बाछी
परिहारा वाली नवकी को चिढ़ावे बोलकर चाची
गाँव में घसर-घसर चलने लगे चप्पल
किसका घर-किसकी देहरी
कौन मालिक और है कौन मुख्तार
 
पन्नू बूढ़ा जोर से बोले यही है सुराज
अदला है बदला है सपने भी खूब है 
जनता की आँखों में मंहगाई की धूप है
खेत है खलिहान है किसान भी खूब हैं
 
गाँव की आँखों में सपनों की भूख है
कुर्सी का हत्था टूटता कहाँ है
बाप गया हाथ धोने, बेटा यहाँ है
बदला मिजाज़ है, ये कैसी सरकार है
चर्चे चले हैं मँहगे सामान पर 
रिश्ते बढे हैं पडोसी दूकान पर
 
मोहलत में टिकी है गरीबों की गरीबी
 
सपनों को देकर किसने सत्ता खरीदी
पन्नू बूढ़ा देख गए अपना सुराज 
पन्नू बूढ़ा ले गए अपना सुराज
मरे कोई भूख से या जान जाय गोली से
पास करे पढ़कर या टॉप करे लूट से
एक मुद्दा दारु पर अटकी हुई है सुई
कौन जाने इस प्रदेश को नज़र लग गई मुई
 



६. काले चादर पर रौशनी

सिराज़ घर पर नहीं था
उसकी अम्मी ने पानी पिलाया और नोट्स दिये
नये शहर में नॉर्मल और सेंसटिव डे जैसा कुछ फील नहीं होता है
बेकापुर के ललन सर मैथ्स पढ़ाते थे
मुंह में पान की गिलौरी दबाकर
एक एक आर्टिकल मोटे-मोटे अक्षरों से कॉपी भर देते थे
कॉपी में पान के पिक के छींटे ही 
ललन सर के शिष्य होने का प्रमाण था
दिलावरपुर से काली ताजिया होते हुए
बेकापुर के लिए एक सहज रास्ता है
लेकिन किसी आम दिन के लिए
अगर कमेला को पार कर सकते हैं
तो पुरबसराय दिलाबरपुर के नाक के पास है
लेकिन किसी आम दिन के लिए
अज़नबी शहर में शहर के बंदिशों से वाकिफ नहीं था
बेकापुर से दिलावरपुर लौट आया
बीच में काली ताजिया भी आई थी
सिराज़ का घर भी आया था
उसके दादा जी भी खूब पान खाते थे
उस रोज़ अचानक कुर्सी से उठकर आ गए
घर का हालचाल पूछते हुए साथ साथ चलने लगे
दिलावरपुर की सड़क दिखने लगी थी
पान दुकान पर रेडियो पर गाने की जगह खबरे सुनी जा रही थी
दिलावरपुर काली मन्दिर के पास मेरा स्वागत हुआ
देह टटोला गया
कोई खरोच नहीं
कोई खरोच नहीं, उनके लिए हतोत्साहित करने जैसा रहा होगा
कुछ लोग अचरज में भी थे
बेकापुर के लिए रास्ता लम्बा हो गया
रिफ्यूजी कॉलोनी से घूमते हुए बेकापुर
मेरे लिए दुरी असहजता नहीं थी
मेरे लिए असहजता थी
काली ताजिया के पास के उस अभ्यस्त जीवन से दूर हो जाना
उस जाने-पहचाने लोगों को नहीं देख पाने की छटपटाहट
 
मैं बीमार हो गया
जैसे देश बीमार हो गया था
खैर ! लौट आया हूँ ..
लेकिन दिलावरपुर की कोई खबर मेरे पास नहीं है
अखबारी ख़बरों में मेरे हिस्से का दिलावरपुर नहीं है ..

शायद इस जेठ की दोपहरी में सूर्य की चटकती किरनें
उस काले चादर पर पड़ रही होगी
और सिराज़ के दादा जी के होठो पर पान की लाली और गहरी हो गई होगी
दिलावरपुर के लोग
 
उन सबों का हालचाल पूछते हुए
बेकापुर की तरफ बढ़ गए होंगे



७. आदमी मर सकता है

पुराने बाशिंदों के स्मृति लेखों वाली दीवारें
कुछ गिरा दी गई हैं
कुछ गिर पड़े हैं
विह्वल प्रेमियों के नाखूनों से कुरेदे हुए अक्षर
स्वरूप खो चुके हैं
समय ने अक्षरों में झुर्रियाँ दी है
आसमानी इमारतों ने घेर लिया है रंगीन छतों को
सड़के, गलियाँ और मोहल्ले
 
आबादी से पटा है
बंटा है घर
और एक-एक आदमी बंटा है
तन्हाई नहीं है
दोपहर का सूनापन भी नहीं है
दरवाजों के पाटों के बीच फांक से
कोई लड़की नहीं घूरती है सड़क
पुरानी चीजों से जकड़कर भी आदमी मर सकता है
पीपल की छाँव, जहाँ झूले लगे हों
फुरसतिया लोगों के पाँव पसरे हो
कुत्ते झपकियां लेकर पड़े हों चुपचाप
वहां किसी भी आदमी का कत्ल हो सकता है
मगर आदमी उस जी उठने को लालायित आदमी का ही गला घोंट देता है
आईने के झुर्रियों पर आदमी सँवारता है चेहरा
आदमी अपने अंदर उस आदमी का लाश ढोता है




८. बाहर गया हुआ आदमी

सुनो प्रिये..
मैं सकुशल हूँ
 
लेकिन एक उन्मादी भीड़ ने फिर एक निर्दोष को पीट-पीट कर मार डाला
उसके मृत्यु पश्चात एक भीड़ अफ़सोस भी जता रही है
दुर्भाग्यवश मैं इस घटना का चश्मदीद हूँ
और मैं उस मरते हुए आदमी को भूलना चाहता हूँ
कातर होकर उसके जुड़े हुए हाथ
और थूथने से अनवरत रक्तस्राव 
भीड़ से अनुनय और याचना के लिए उच्चारित एक-एक शब्द
अभी भी मुझे कचोट रहे हैं
सुनो प्रिये
मैं ठीक हूँ
 
लेकिन एक निर्दोष व्यक्ति को मरते हुए देखकर
मैं बहुत डरा हुआ हूँ
अंधे-बहरों के बीच में गुनाह बाद में तय होता है
आदमी पहले मार दिए जाते हैं
हाँ, आश्वस्त रहो कि इसी देश में तय गुनाह पर
गुनहगार को कोई हाथ भी नहीं लगा सकता
सुनो प्रिये
मेरे लिए तुम्हारी चिंता लाज़िमी है
मैं एक डरपोक आदमी हूँ
 
जो न भीड़ बनना चाहती है
 
और न ही भीड़ के खिलाफ की कोई आवाज़
मैं उन मरे हुए लोगों में हूँ
 
जिन्हें कोई निर्दोष आदमी मरते हुए
 
छोड़कर चला जाता है
सुनो प्रिय 
मैं ठीक नहीं हूँ
कभी किसी भीड़ की चपेट में मैं मर जाऊं
तो सोचना मुझे निष्कृति मिली उस प्रायश्चित से
असहज था
निरुपाय था
कि मैं स्तब्ध देख रहा था
एक आदमी लड़खड़ा कर गिर रहा है
और हाँफता भीड़ पसीना पोछ रही है
सुनो प्रिये
आतंकित रहकर भी कुछ किया नहीं जा सकता
पेट के लिए इन वहशी भीड़ के बीच से ही गुज़रना पड़ता है
दस गुनाहगार के साथ एक निर्दोष का मर जाना
 
बुरा तो है , बेपरवाह सा जवाब था भीड़ का, मलाल नहीं था
तुम अपना ख्याल रखना 
बोझिल पैर कितने भी भटक जाएँ
घर का पता ही ढूंढती है
इस भीड़ से बचकर आ पाऊं
 
इसकी प्रार्थना करना
इति 
तुम्हारे घर से बाहर गया हुआ एक आदमी




९. पानी मेरे पिता 

पानी मेरे पिता 
बड़े आयत्व में
 
बेशक बहुत कमतर रहे
 
मगर मौजूदगी कायम रही
 
हर जगह …….
उछाले गए कंकड़-पत्थर
विनम्रता से आने दिया तल तक
 
विस्थापित हुए
 
लेकिन लौट आये समय से
 
अपनी ही जगह पिता
आस टूटने पर 
उतर आये पिता
अन्तरंग तक गीला करने
 
और बुन दिया आहिस्ते-आहिस्ते कोई नयी योजना
निरुपाय पिता 
पानी रहे …
सूखते रहे
 
सूखते रहे
 
सूखते रहे
 
जैसे लुप्त हो गए
 
फिर आँखों से उमड़ आये
 
मन का बोझ
 
बहा ले गये
 
पानी मेरे पिता
 




१०.नैयकी का स्वांग

चार साल के वैवाहिक जीवन में 
नैयकी को दौड़ा पड़ा पूरे सात बार 
ओझा गुनी सब उम्रदराज 
हार गया नैयकी के भूत से 
मगर मंतरिया जानता है देहगंध 
ब्रह्मडाकिनी और चुड़ैल की
देह सूंघ के कुछ देर तो चुप रहा 
फिर कलाई को आहिस्ते से दबाकर
 
मिलाया आँख-से-आँख
 
भयानक आँच से डरा
 
एक लम्बी सांस छोड़कर जाहिर किया
 
ऐसा-वैसा नहीं बड़का पीपर वाली ब्रह्म-डाकिनी है
 
नैयकी आश्वस्त हुई
 
मंतरिया के आँखों की लाली देख
 
पक्का इलाज़ इसी के पास है
हर रात जब भी संजोती कोई रंगीन ख्वाब 
पिटती और रोकर गुजार देती रात
 
नवेली दुल्हन की टीस
 
और पियक्कड़ दूल्हा
 
दोनों बिछावन के दो तरफ
बंधन में बंधी लड़की 
बनाती है योजना ..
बाल खुलते ही
 
सूर्ख लाल हो जाती है आँखें
 
भवें तन जाती है
 
और घृणा से भर उठता है मन
 
पहले आहट पर गुर्राई
 
कलाई पकड़ते ही चिल्लाई
 
उठा-पटक में पियक्कड़ था बिल्कुल नीचे
 
बैठ उसके छाती चीखती रही
 
तृष्णा और अतृप्त देह की चीत्कार से
 
गूंज उठा पूरा मुहल्ला
 
किसी चुड़ैल का साया है
 
या है ब्रह्म-डाकिनी की ये डाक
उस रात …
बेसुध सोई नवेली
 
और पियक्कड़ रतजगा बैठा
 
सेवता रहा नैयकी को
 
देह का उत्पीडन तो खत्म हुआ चुड़ैल की
 
मगर यौवन की प्यास में
 
तड़पती रही नवेली कई-कई रात
मन्तरिया का स्नेहिल स्पर्श 
जगा गई है एक क्षीण उम्मीद
 
गाँव की सहमति है
 
कई-कई रात कटे मन्तरिया संग अकेले
 
तब जायेगी ब्रह्म-डाकिनी
 
मगर उसकी आस्था जाग उठी है
 
रोई लिपटकर पति से
 
इस दुर्गन्ध से मुक्ति लो जल्दी
 
वर्ना जायेगी नहीं ब्रह्म-डाकिनी
फिर उस रात के बाद 
न मन्तरिया आया ..न ब्रह्म-डाकिनी
 
न महकी शराब की गंध
 
न उठा कोई कायर हाथ
 
कोख में पैर पटक रही है
 
कोई नई जीव बार-बार
 



११. बनारस

एक बूढ़े शहर के तलघर में 
बची हुई है निझूम शांति 
उसकी खुरदरे जमीन ने बचा रखी है 
पैरों के घर्षण का पुराना संगीत 
अतीत के पन्नों पर कोई रख गया है उम्मीद का एक बड़ा पत्थर 

बूढ़े शहर के पुराने लोग बंद हैं अपने घर के बंद कमरों में
उनकी स्मृति में बूढ़े शहर की सुबहें हैं , दोपहर है , रात है
हर शाम उस जर्जर चाय की दुकान पर
आश्वस्त होने के लिए गटकते हैं गर्म चाय की एक बड़ी घूँट

उस मरगंग के पेट पर
डोल रहे हैं कुछ नाव
कुछ विक्षिप्त लोग एक नाव के मचान पर याद कर रहे हैं अपना पुराना शहर
आगंतुकों की जिज्ञासा पर उत्सुक नहीं है बूढ़ा कवि
बूढ़े कवि ने हाथ में ले रखी है एक नई किताब
उसकी आँखें पीछा कर रही है शब्दों का

मेरे भागते पैर क्लांत होकर टूट रहे हैं
आकुल होकर ढूंढ रहा हूँ एक बूढ़ा शहर
उन घाटों पर चमकीले पोस्टर्स हैं
पागल चिन्तक , चित्रकार , मलंग बेदखल हो चुके हैं
लेकिन वहां बैठा हुआ है एक चिंतित बूढ़ा कवि
उसकी आँखों में मैं देख रहा हूँ
एक शहर , एक पुराना शहर , एक बूढ़ा शहर ….बनारस 



१२. कड़क चाय

कितनी आसानी से पूछ लेती हो
कॉफ़ी या चाय
और मैं अनमने ढंग से बोल देता हूँ
चाय कड़क
तुम सोचती हो हर बार
मैं कॉफ़ी क्यों नहीं बोलता
लेकिन जब भी तुम कॉफ़ी मग बढ़ा देती हो
मैं थामकर, मुस्कुरा देता हूँ
और चुस्कियों में सुनाता हूँ
पापा से जुडी कोई कहानी
बिलकुल मेरे पास बैठकर
तुम तन्मयता से सुनती हो
हर बार कहानी पूरी हो जाती है
और कॉफ़ी ठंढी
तुम दूसरा मग बनाना चाहती हो
सिर्फ मेरे लिए गरमा-गरम
मगर मैं किसी गहरी तन्द्रा में देखता हूँ –
पापा बरामदे पर रेडिओ से आ रही कोई पुरानी गीत सुन रहे हैं
लैंप की पीली रौशनी में
मैं पलट रहा हूँ कोई किताब
माँ आकर बता जाती है कॉफ़ी बनने की बात
मैं होठो की मुस्कान दबाकर झांकता हूँ
पापा का चेहरा
जहाँ सुकून ठहरा है
माँ उबाल कर कॉफ़ी बना रही है
मैं जानबूझकर खड़ा हूँ माँ के पास
एक चम्मच कॉफ़ी बढ़ा देती है माँ
मेरी घूँट तक टकटकी लगाये देखती है
फिर पूछती है आँखों के इशारे से कॉफ़ी का स्वाद
मैं भी आँखों से बहुत खूब कहता हूँ
पापा झांकते हैं रसोई में
और खींच लेते हैं नाक भर, कॉफ़ी की महक
माँ की आँखें भर आती हैं
पापा बहुत खुश हैं आज
उनकी आँखें चमक रही है
मैं जानता था
माँ की आँखे पापा की ख़ुशी में भर आती थी
और हमारे घर कॉफ़ी बहुत कम बन पाती थी
इसलिए जब भी तुम
आसानी से पूछती हो – “चाय या कॉफ़ी
मैं अनमने ढंग से बोलता हूँ
चाय कड़क 
***

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