राकेश रोहित ने पिछले कुछ समय में
निरन्तर मूल्यवान कविताएं लिखी हैं। प्रकृति के गझिन रूपकों और उदात्त मानवीय
भावनाओं के बीच उनकी भाषा ने इधर एक नया लहज़ा विकसित किया है। प्रस्तुत है राकेश जी की
ऐसी ही कुछ नई कविताएं।
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एक वृक्ष का शोकगीत
कहाँ से सूखता है वृक्ष
पहले जड़ें सूखती हैं
या पहले सूख जाता है टहनियों में बहता रस?
एक दिन पेड़ से झरा पत्ता
अपने दुख की कथा लेकर
लौटता है जड़ों के पास
बदलता करवटें बेचैनी में
धीरे-धीरे घुलता है
मिट्टी बन सोख लिया जाता है
जड़ों में
और निस्पंद टहनियां
उन्मत्त हो गाती हैं बसंत का गीत!
क्या टहनियों के पास झर गये पत्ते की स्मृतियां हैं?
क्या जड़ों को है उसका दुख?
धीरे-धीरे यह जो निरंतर
बिखर रहा है जीवन
और समय का सुगना पाखी
चुग रहा है विह्वल मन
क्या किसी को खबर है कि
कैसे एक दिन उदास हो जाती है टहनियां
और जागते जड़ों के रहते हुए भी
बन जाती हैं ठूंठ?
एक अकेले समूचे वृक्ष की भी
अलग- अलग गाथाएँ हैं
कविता लिखते हुए मुझे दिखता है
सबका अलग- अलग अकेलापन
इसलिए इतनी उदास है मेरी कविताएँ
इसलिए जब मैं एक वृक्ष के बारे में बोलता हूँ
मैं उस वृक्ष में छिपे
थके, आश्रय लेते
हजार अकेलेपन के बारे में सोचता हूँ।
एक साथ नहीं मरता है वृक्ष
पर कलरव में डूबे पक्षियों को खबर नहीं होती
पहले सूख जाती हैं जड़ें
या सूख जाता है पहले टहनियों का रस?
***
और विषाद की कुछ कविताएँ
(1)
दुख वही पुराना था
उसे नयी भाषा में कैसे कहता
पुरानी भाषा में ही
निहारता रहा अपना हारा मन।
हाथ में किरचें समेटे
चलता रहा भीड़ में
किसी ने नहीं पूछा
मैं इतना अकेला क्यों हूँ
किसी ने नहीं पूछा
मेरी खामोशी का सबब।
जब लोग युग का नया मुहावरा रच रहे थे
मैं समेट रहा था अपना आदिम दुख
चौंक गया एक दिन मैं यह देख कर
मेरी आँखों में कितने पुराने आंसू थे!
(2)
मेरे पास एक सपना है
और हजार दुख!
मैं आँसुओं को समेटता रहता हूँ सारी रात
और दुख रेत की तरह किरकिराता है आँखों में
मैं सपने के लिए थोड़ी नमी बचाना चाहता हूँ
और वह कहती है
आँसुओं को बह जाने दो
तो थोड़ा आराम आए!
इस समय में
जहाँ दुख हजार बिखरे हैं
बहुत कठिन है अपना एक सपना बचाना
यह जो धुंधला दिखता है जगत का दृश्य
कह नहीं सकता रेत चुभ रही है आँखों में
या मेरा सपना बिखर रहा है!
(3)
मैं उस जीवन को देखता हूँ जो धुंधला है
उसमें साफ नहीं है मेरी भी तस्वीर
एक अंधेरा जो मन के अकेले कोने से
अधिक काला है
धीरे- धीरे फैल रहा है
रोशनी की शहतीरों के बीच!
कुछ अव्यक्त उदासियों की
धरती पर छाया पड़ रही है
परछाइयाँ जिंदगी में यह कौन सा खेल खेलती हैं
जीवन में जब मैं पहली बार रोया था
क्या जिंदगी में मैं तब भी इतना ही अकेला था?
(4)
यह आकाश है
और इसमें एक ठहरी हुई गेंद
इस गेंद को अगर हाथ से छोड़ दें तो
गेंद ने विज्ञान नहीं पढ़ा
फिर भी गेंद वहीं जायेगी
जहाँ न्यूटन ने कह रखा है
पर अगर गुरूत्वाकर्षण न हो तो
तो यह वहीं थिर रहेगी
अनंत काल तक!
यह शून्य है
और इसमें मेरा मन
इसे नहीं खींचता धरती का कोई बल
इसका कोई भार नहीं है
न ही कोई आयतन
फिर भी यह थिर क्यों नहीं होता
क्यों भटकता है बिना किसी बल के
यह निर्बल, निर्भार?
(5)
दुख के इस पन्ने को रंग दो
नीले रंग से
फिर उस पर खींच दो
काली रेखाएं
अब अपनी आँखें बंद करो
और अपनी उंगली रखो उस पन्ने पर
कहीं भी
वह क्या है जो बिच्छू की तरह
डंक मारता है एक बार
और फिर सारी उम्र
टीसता है!
क्या रंग से पहले इस पन्ने पर
किसी का नाम लिखा था
फिर सारी जिंदगी हम
क्या लिखते रहे काली रेखाओं से?
(6)
जानने को कुछ नहीं रह गया है
गिरने दो विश्वास के वृक्ष का
आखिरी तना
चिड़ियाएं सारी उड़ कर
खो गयी हैं आकाश के एकांत में...
एक पत्ता टूट कर गिरता हुआ
तैरता है हवा में बेमतलब, बेचैन!
जड़ों के पास थोड़ी उखड़ी हुई
भुरभुरी मिट्टी है
और समाप्त हो गई
एक संभावनापूर्ण कथा!
***
अच्छी लगी शिरीष जी के विषाद की कवितायेँ या कहूँ विषाद का अनुनाद... पहली कविता प्रभावित करती है और बाद की विषाद की कविताओं का जस्टिफिकेशन दे रही होती हैं... या कहें कि बाद की कविताओं की प्रस्तावना है पहली कविता. छः कवितायेँ दुःख को अलग-अलग तरह से डिफ़ाइन करती है... अलग-अलग रूप शायद किसी को उसमें से अपने किसी दुःख की परछाईं मिल जाए. गेंद वाली कविता को छोड़, बाकी सब अपना प्रभाव छोडती है... गेंद वाली कविता में यह कहना कि गेंद वहीं जाएगी जहाँ न्यूटन ने कह रखा है... दरअसल न्यूटन ने गेंद (सेब) को जाते देख अपना नियम बनाया था.. इसलिए तो नीचे ही जाएगी चाहे न्यूटन कुछ भी कहे... कविता के भाव स्पष्ट हुए हैं और कवि सफल रहा है अपने भाव संप्रेषित करने में. दुःख के इन पन्नों को रंग दो, मेरी प्रिय कविता रही... और यह लहाने का तात्पर्य कतई ये नहीं कि बाकी कमतर है.
ReplyDeleteइनकी अन्य कविताओं को पढकर ही इनके रेंज का पता चलेगा! शुभकामनाएं!!
राकेश रोहित जी की कविताओं की भाषा जितनी सरल है, उनकी संवेदना उतनी ही गहरी...कहीं कहीं तो वे मन की तह में घुस कुछ कचोटती चीज़ों को सहला आते हैं, जिससे एक मीठा सा दर्द जाग उठता है
ReplyDeleteसमकालीन युवा कवियों में रोहित जी बहुत तेज़ी से मेरे पसंदीदा कवि हो गये हैं...इस प्रस्तुति के लिए अनुनाद को साधुवाद
क्षमा!! मैं प्रस्तावना में कवि का नाम नहीं देख पाया!! फिर भी कविता के प्रति मेरी अभिव्यक्ति वही है!! क्षमा पुनः!!
ReplyDeletein kavitao ko lambi umra milegi aisa vishwas h.
ReplyDeleteशब्दों के माध्यम से उड़ेल दिया है सारा शोक और विषाद एकदम शुद्ध रूप में।
ReplyDeleteRakesh Ji apne lekhn mein gahare aur alag hain. Har baar unki kavitayi rukkar padhne ke liye kahti hai. Aur Paathak ruk bhi jata hai. Lagbhag sabhi kavitayen Achchhi lagi ...Mitra Rakesh ji ko Haardik Shubhkaamnayen !!
ReplyDeletePriy Anunad.com ko dil se Shukriya!!
- Kamal Jeet Choudhary.
एक वृक्ष का शोकगीत ही तो हमारी जिन्दगी के वषाद की कविताएँ हैं , राकेश जी की कविताओं में प्रकृति अपना रास्ता तलाशती रहती है और ये उकेरते रहते हैं उनके शब्दों को ---
ReplyDeleteहमेशा की तरह सभी कविताएँ लाजवाब हैं ----
अच्छी कवितायें ,और हाँ बिल्कुल नये लहजे में.हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ राकेश रोहित जी आपको.
ReplyDeleteबहुत खूब हैं आपकी कवितायें !आत्मिक बधाई !
ReplyDeleteएक अकेले समूचे वृक्ष की भी
ReplyDeleteअलग- अलग गाथाएँ हैं
कविता लिखते हुए मुझे दिखता है
सबका अलग- अलग अकेलापन...
विषाद प्रायः कुरूप होता है। लेकिन आपने सुन्दर शब्द और भावों में पिरोकर इसे भी सुन्दरता से प्रस्तुत किया है। बहुत बधाई राकेश जी को...
एक वृक्ष का शोक गीत के अंतर्गत सभी विषाद की कविताओं में गहन संवेदनशीलता का भाव मुखर हुआ है । कविता बहुत रच-पच के लिखी गयी है । इसलिए वो पाठक के मर्म को स्पर्श करने में सफ़ल हुई हैं । नवाचार की उम्दा कविताएँ । बधाई राकेश रोहित जी ।
ReplyDeleteराकेश रोहित जी की कविताएँ समकालीन हिन्दी कविता में अलग से पहचाने जाने लायक है।दुख की कविताओं ने मन को गहरे छुआ।दुख जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है और इस सच्चाई को बहुत ही ईमानदारी के साथ कवि ने अभिव्यक्त किया है।राकेश रोहित जी को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteहमारे दौर में जिन कुछ कवियों ने अपनी भाषा अर्जित की है और अपना मुहावरा गढा है, उनमें राकेश जी एक हैं। दिक्कत यह है कि यह विशेषता सीमा बनकर न रह जाए।
ReplyDeleteकवि की संवेदना गहन है और भाषा सहज। इससे प्रस्तुति असरदार हो जाती है। वृक्ष, नदी, फूल, चिड़िया,मिट्टी, चाँद, दुख,विषाद ये सारे पद कवि के अपने बन गये हैं!
Bhut khub
ReplyDeleteगहन संवेदना के आत्मीय निवेदन,जहाँ हर चंचलता ठिठक जाये। बहुत सुंदर कवितायेँ। राकेश जी को बधाई।
ReplyDeleteराकेश जी की कविताओं की छुअन से ह्रदय का प्रत्येक कोना एक अलग ही वेदना में है। यह वेदना जो हमसे उत्पन्न होते हुए भी हमसे अपरिचित थी।
ReplyDeleteशानदार अभिव्यक्ति.... इक टीस सी उठती है। शानदार अभिव्यक्ति.... इक टीस सी उठती है।
ReplyDeleteजीवन का संगीत है इन कविताओं में ...
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