Tuesday, July 26, 2016

गीता गैरोला की कविताएं

कई दिन बीते, मैं ढहे हुए नेट की रफ़्तार खोज रहा हूं। कुछ दिन पहले वि.वि. में ईमेल देखे तो पाया कि वहां गीता गैरोला की कई कविताएं हैं। वे हमारी गीता दी हैं, महिलाओं के हक़ के लिए लम्बी लड़ाइयां उन्होंने लड़ी हैं। मैं समाज में उनके काम को पिछले बीस बरस से जानता हूं। 2008 में पहली बार मिला, जानने का ये सिलसिला मुलाक़ात में भी बदला। गीता गैरोला का एक कविता संग्रह 'नूपीलान की मायरा पायबी' अंतिका प्रकाशन से छपा और चर्चा में रहा है। कुछ समय पहले संस्मरण की एक किताब 'मल्यो की डार' समयसाक्ष्य प्रकाशन से आयी है।

अनुनाद इन सभी कविताओं को एक साथ छापते हुए कवि को शुक्रिया कहता है। 


***
1.

जिन्दगी की हदें हैं  मौत
आंसू की हदें हंसी
खुशी की हदें गम है
और पंछी की हदें आसमान
सागर की हदें किनारे हैं
चीखें खामोशी की हद हैं
दिन की हदें रात है
और रातों की हदें दिन

2.
यहां प्रेम करने की मनाही है
फिर भी सब प्रेम में पड़ जाते हैं

3.
इस घर के दरवाजे अदृश्य हैं
ना वो बंद हैं ना खुले हैं
अदृश्य रहना व उनकी असली पहचान है
यहां हर कोई बेखौफ कमरें में जा सकता है
और टकराकर बाहर आ सकता है
बाहर कर सकता है
अनदेखे दरवाजों की पीछे घुप्प अंधेरा है
और छन-छन कर रोशनी भी आती है
ये अदृश्यता की हद है।

4.
चलो सपने बुनें
बदलाव के सपने
आंखों में पुतलियां घूमने के सपने
रूक कर ठहराव के सपने
मजबूत नींव वाली दीवारों के सपने
सफेद कबूतरों के उड़ान के सपने
वक्त की उम्मीदों के सपने
दीवारें टूटने के सपने
चलों सपने बुने।

5.
तू रोज-रोज क्या फटके री
दो बार फटकूं
अपने होने की गाली
अपना मन सहेजूं
चार बार फटकूं सपनों के छिलके
छिलके सहेजूं री
अनकहे लफ्जो की पीर फटकूं
अपना दिन फटकूं री
बार-बार फटकूं देह की निचोड़
तन फटकूं तो मन सहेजूं
वर्जित प्यार का फल सहेजूं
मन का राग सहेजूं री

आदि से अनन्त फटकू
बीजों के गीत सहेजूं री

6.

ये रास्ता ना छोटा है
ना ही अंतहीन है
इसमें जो चलेगा, वहीं जिंदा रहेगा
इस रास्ते के बीचों बीच बने दरबार के
जी हजूरे दरबारी आत्म मुग्ध हैं
दरबार की नींव
सप्त नदीयों के रेत से पूरी गई है
चिरजीवीं होने के अहसास से फूले
दरबारियांें की कुर्सियां/ कलदारों ने तराशी है
ये वक्त के गठजोड़ हैं
ये सियासतों के साथ विरासतों
का खेल है

7.
परछाइयों के स्याह अन्धेरे दौर में
बस जुगनू से चमकते हैं।
ढलते वक्त की नोकों पर
 मोम की तरह जमीं
इनकी खामोश यात्राएं
सन्नाटों को थपथपा रही हैं
आवाजों का वक्त ठिठका अभी है
रास्तों की तलाश जारी है
त्रतुओं के सपनों की आंच
सप्त नदियों की रेत के नीचे
पानियों को समेट रही है।

8.
समय की धार कुन्द है
और राजनीति की धार तेज
आसमान का रंग गहरा सलेटी है
इन गहरी परछाइयों के बीच
तन्त्र दहक रहा है
लोक की रूह
दिन रात के महीन वितांन से तने अम्बर से
ग्रहों की तरह लटक रही है
डरावने चेहरें मिट्टी
के नीचे दबी
दूब की नसों को खोद रहे है
इतिहास की बस्तियां मौन हैं
उनकी  प्रार्थनाएं कसमसा रही हैं
बैचेनियां बहुत निडर हैं
ये सरकते वक्त के साथ
आने वाले वक्त की
 करवटें बदलने की आहट है।

9.
कमरों के ओनों कोनों में
हर सिगांर की महक विचर रही है
आसमान की सीमा पर
 सांझ के बादलों से छनकर आती
चांदनी का बिछौना पसरा है
कुछ भूले बिसरे से नरम सुख
जन्म-मृत्यु की गहन
स्याह गुफाओं की आॅक में
चाँदनी भरकर पी रहें हैं
चांद अपनी परिधि के विस्तार में
नीलकंठ को बांधे है
वर्ज़ित प्रेम के स्वप्न
प्रसव पीड़ा में कराह रहे हैं
दीवारों के कान चैड़े हो गये
फिर भी असीम, गतिमान, अदृश्य चाहतें
प्रेम राग की पीड़ाओं का उत्सव मना रही है

10.
ओ सखी, मैं तेरे घने पेड़ों की छांह में
नन्हें अंकुर की तरह पलना चाहती हूँ
तुझसे गलभइयां भरने के लिए
तेरी धूल-मिट्टी में लोटना चाहती हूं
अपने हिस्से की बारिश का पानी
तेरी जड़ों को पिलाना चाहती हूँ
तेरे पहाड़ तो झपकियां ले रहे हैं
नीला अम्बर तुझ पर औंधा पड़ा है
ओह! तेरी बेबसी पल-पल क्षरित हो रही है
भेड़ों के झुंड के बीच वन-वन डोलती
जौंल्या मुरूली की धुन
तुझे बजानी होगी।

11.
सागर की उत्ताल तरंगें
अकूत पानी को चन्द्रमा की देन हैं
तरंगों के पार
जहां सागर आसमान से मिलता है
सुबह-शाम नारंगी सूरज
शिशुओं की तरह अठखेलियां करता है
धरती प्रसव पीड़ा के बाद मुस्कराती है
सागर के छोर पर तैरते नारंगी गोले का रंग
धरती को अपनी बाँहों में भर लेता है
और सांझ को रूपहला चांद
तभी पानी के साथ, धरती को
 चांदी से लीप देता है
मैं वजू़ करती हूंँ
और सागर के दोनों रंग
मेरी नमाज को
प्रेम और द्वन्द के रेशों में पिरोकर
थपकियां देते हैं।

12.
तुम्हारा प्रेम गाहे-बगाहे चला आता है
कभी यूं ही
राह चलते तुम्हारी अंगुलियों की टकराहट से
यूं ही याद दिलाता हैं
अब कोई गलन नहीं होती
प्रेम की अभिव्यक्तियों से
कोई प्रतीक्षा भी नहीं रहती
मैं अपने ही ताने-बानों में मस्त हूंँ
तुम्हारा प्रेम
मेरे तानों-बानों में कोई दखल नहीं देता
मेरे मन की आकाश-गंगा अब पिघलती नहीं इस प्रेम से
चुप्पी सी बहती है
आकाश में पंछी गाते हैं
भूला बिसरा सा प्रेम का राग
समय के किनारों पर उग आई है झिझक
समय के वेग में उड़ गया है प्रेम कपूर सा
प्रेम जुगनू सा चमकता है अब
मरा नहीं है, मौजूद है यहीं कहीं
अब मुझे प्रेम का चखना मत देना
मैं रोजे से हूंँ
और मेरे सपने बे-गुनाह है
मेरी गुनाह से तौबा है

13.
टोंस जो नदी है
उसकी दो सखियां रूपिन-सुपिन
पानी की निरन्तरता को बनाए हुए हैं
जमुना में मिला है
जमुना के पानी में बहता तिलाड़ी का खून
जमुना और टांेस तिलाड़ी में बहे खून के
इतिहास की गवाह है
टोंस के उद्गम की गवाही
मोनाल देती है
पर तुम क्यों दुबला गयी हो?
रूपिन-सुपिन तो अभी हरी है
उसकी मिट्टी बहते पानी के साथ
इतिहास ढो रही है
इतिहासों का कभी उपसंहार नहीं होता
ये तुम्हारे अपने वक्त हैं
तुम्हारी फसलें उगनी बाकी हैं
जमुना में क्रान्ति बह रही है
लोहे के दरवाजों से टकराती
तुम्हारी टकराहट
बर्दाश्त से बाहर कब होगी।

14.
लो खिला बुरांश
धरती पर काँच सी जमी
 बर्फ के पिघलते ही
ऊंचे पहाड़ों की गहनतम
हरियाली के बीच
खुद के काटे जाने से बेखबर
सुवाओं के मन को रंगता
बसंत के आने की आहट से भरा
ठिठुरते पेड़ों के दरमियान
जंगल की सर्दीली खामोश उदासी को झटककर
लो खिला बुरांश

15.

मां खरीद रही है साड़ी-गहनें
और जाने कौन-कौन सी चीजें
नमी लिए आंखों से मुस्कुराती है मां
चंदन की चौकी पर
पूरती है गणेश का चौक
और कच्ची हल्दी के
महकतें उबटन में मिलाती है
उदास खिल-खिलाहट
मां पूजा के दिए के पास बने एपण में
अपने मन की रेत से
लिखती है बार-बार
आज मैं निर्धन हुई
झरती आंखों की सीली-सी हंसी से मां चुनती है
सेहरे की कलियां
मन ही मन मंत्रों सी दोहराती है
मैं तुम्हें प्यार करती हूं
बस तुम ही मेरा विश्राम स्थल हो।

16.
 उसे छूने के लिए
 हाथ बढ़ाया ही था कि
वो सर्र से सरक गई भीड़ में कही
वहीं हाँ वही तो है
ओह! उसकी वासन्ती दहकती
आभा नीली झक्क आंखें
जिन्दगी की बस्ती में गुम गई हैं
उसकी सहेलीपने वाले वो
सभी दिन जिंदा है अभी भी
वो खिलन्दड़े दिन
एक घन्टा पहले स्कूल में
पहुँच कर चारों सखियां
उगते सूरज के गीत गाती थी
स्कूल की ऊंची दीवार से
लगे हर सिंगार के पेड़ों के नीचे
रात भर झरे
फूलों को बीन कर
अपनी छलछलाती हंसी में पिरो कर/ ब्रह्म मूहूर्त
के अगले पहर
राग भैरवी गाती थी
दीवार के दूसरी तरफ
अपने गाये राग भैरवी और
हर सिगांर की महक से
झुण्ड में जुड़े पक्षियों के वृन्दगान से
अपनी उम्र की टहनी पर बैठे
सपनों की बातें करते थे
बस अभी तो थोड़ा ही सरका है वक्त का पाखी
तुम्हारी वासन्ती दहकती आभा ने
कैसे दम तोड़ दिया
हर सिगांर की महक
और झुण्डों वाले
पाखियों का वृन्दगान
सपनों के आकाशों में अभी तक कुलाचें भर रहा है
नीली आंखों की गहराई में
अंकुरित हर सिगांर की महक दबी है कहीं
 वक्त ही तो सरका है
जीवन अभी बाकी है
हर सिगांर भी है
और रातें उतनी ही गीली है
जुगनू अपने पंखों से छू कर
हर सिंगार को आज भी गिराते हैं
गीली रातों में झरे
हर सिंगार को फिर से
पिरो कर
एक उदद पल रोक लो।

17.
वही रास्ते वही हरियायें पहाड़ों की कतारें
दिन कुछ उदास अनमने से
बारिश की बौछारों से भीगे- भीगे
सरक रहे हैं धीरे-धीरे
सर्पीली काली सड़कों पर दौड़ती हैं
इक्की दुक्की बसें गदेरे का
काँच सा पानी थम-थम के बह रहा है
धुएँ से काली पड़ी टीन की छतों वाले
ढाबे में धुएं की एक लकीर
निरन्तर बह रही है
चाय की चुस्कियां लेने बैठे हम राज जात्री।
थकी हुई पिण्डलियों को सहलाते हैं
चौपड़ों के पीछे वाली पहाड़ी में
 अटका है दूज का चाँद
जिंदगी कुछ अटकी  कुछ भटकी सी
सरकती जा रही है
पर एक पल ठहरे हैं
चौपड़ों के उसी ढाबे में।

18.
इस वक्त जब उम्र
गुजरती जा रही है
प्रेम चुपचाप गहरा रहा है।
मृत्यु पाखी के सफेद नरम
परों के साथ
लीसे की तरह पिघल रहा है प्रेम
वक्त के धागे रोशनियों की
चादर बुन रहे हैं
चांद की खिलखिलाती किरणें
सरकते वक्त कि पन्नों पर
प्रेमराग लिख रही है
गुनगनाती हवायें इबादत में
वक्त के पंछी को रोक रही हैं
सूरज अपनी सुनहरी स्याही से
समूची कायनात में
सुबह लिख रहा है
ये सही वक्त है
जब प्रेम जिंदगी से
पीड़ाओं को फटक रहा है
जिंदगी वनफशा सी महक रही है।

19.
आसमान के बींचो बीच
पैर रोप दिये हैं
हथेली से जकड़ी है, सूरज के रथ की तीलियां
उंगलियों को ठोंक दिया है
धरती की परिधि पर पाताल लोक तक
 मेरी हथेलियों के चारों तरफ
अपनी हथेलियों से
धूप के घेरों को रोक कर
सांझ की छाया फैला दो
अपने हाथों की ओक में
अम्बर का अंश भर कर
गोधूलि के तारे को
प्यार की गीत सुनाओं
और ख्वाबों के विरूद्ध
पनपाए षडयन्त्रों को
सपनों की आंच देकर
विस्तार दे दो।

20.
भूगोल के किसी कोने पर
जहां सीमाओं का अंत होता है
बसती है एक ढाणी
नागोदर फकीर की ढाणी
ढाणी के आखिरी
किनारे से हो जाती है
दूसरी सीमायें शुरू
एक काली सर्पीली सड़क
 एक सीमा के अन्त
और दूसरी सीमा की शुरूआत करती है
हालांकि वो सड़क का आखिरी सिरा
जहां सीमा का अंत है
वहीं से उनकी सीमा का प्रारम्भ होता है।
ये ठीक दो विरोधी बातें हैं
पर है एकदम यथार्थ
सड़क के किनारे बसी
कच्ची रेतीली मिट्टी से बनी
ढाणियों के आकाश में
अक्सर गोला-बारूद की राख
उड़ा करती है
उसे सीमा के अन्त होने वाले
वो राख दाणी के ऊपर ही उड़ती है।
हरी  वार्दियां और बन्दूकों से भरी गाडियां
काली सर्पीली सड़क पर
सीमा के अन्त तक
 हमेशा दौड़ा करती हैं
रेतीले समन्दर में उगी
खेजड़ी के पेड़ों वाली
नागोदर फकीर की ढाणी
डर, भूख और प्यास के आतंक
से घिरी रहती हैं
वर्दी और गोलियां
दाणी की सरहदों के वासी हैं
सरहदों की दोनों सीमायें
ढा़णी के वाशिन्दों की
 पीड़ाओं से मुक्त हैं
उन खेतों के आकाश में
 दोनों सरहदों की
गोलियां का शंखनाद गूंजता रहता है
इस पार से उस पार तक
आकाश में दाणी की अपनी कोई
कन्दील नहीं जलती,
सरहदें उनके विरूद्ध
लगातार फुसफुसाती हैं
ये फुसफुसाहट दोनों ओर की राजधानियों तक जाती है
दाणी के वासी इससे अनजाने रखे जाते हैं।
रेतीले सैलाबों की आंधियों में
बहती आवाजों के सवाल
रकावत की देहरियों पर
सिसकते रहते हैं
नागोदर  फकीर की ढाणी
के वशंज दोनों तरफ
अपने खोए रिश्ते ढूंढते रहते हैं
उनकी आवाजें हमेशा रेत में दबा दी जाती हैं
रेत में दबी जितनी आवाजों के
 कत्ल किए गए हैं
मौजूद रहते हैं हमेशा उनके अवशेष
रहस्य भरी खामोश सरगोशियां
फिजा में हर समय मौजूद रहती हैं
रेतीले सन्नाटों से भरी
सरहदें मुल्कों को बांटती है
पर लोगों को जोड़ती है
वो आहटों को समेटती हैं।

21.
कोई किसी का
दरवाजा नहीं होता
सब अपना रास्ता
बनते हैं
और हां
औरतें आकाश बेल
नहीं होती

22.
चलो कुछ बातें करें
इधर की बातें उधर की बातें
फिज़ूल-सी बातें
आसान-सी बातें
वक्त काटने के लिए
बिना हबड़-तबड़ के
बिना हिसाब लगाए
खुद को छिपाते हुए
बस सांसों को चलाते रहने के लिए
कुछ कहने की
कुछ भी ना कहने की
चलो कोई बातें करें

23.
मैं निकली डेरा छोड़
मैं प्रेम में हूँ
मेरे समय का नहीं है कोई छोर
मैं प्रेम में हूँ
मैं चली अनहद की ओर
मैं प्रेम में हूँ
मैंने ओढ़ी फकीरी दस ओर
मैं प्रेम में हूँ
मैं निकली पिंजरे तोड़
मैं प्रेम में हूँ।

24.
नीलाएं अंबर में छितराई हैं
बादलों की रूई चंदा मामा वाली
 नानी कातेगी सूत बादलों की रूई से
बनाएगी चांद के लिए ढीला सा झंगोला
सूरज के लिए झिर्री वाला ओढ़ना
और तारों के लिए नन्हे- नन्हे कनटोप
कन टोपों के नीचे से
झिप- झिपाई आँखों से
तारे धरती को निहारेगें
वक्त के उलझे धागे को सुलझा कर
आसमान में बनाएगी
एक छोटा सा झरोखा
सूरज के सुनहरे तार,
चांद की रूपहली ओढ़नी
और तारों की झिम-झिम
 नानी के बनाए झरोखे से
छन-छन कर धरती को लीप देगी।

25.
मैंने एक सपना देखा
परिवर्तन का सपना
आँखों की पुतलियां
सपने से चरपरा रही है
पुतलियों की चरपराहर
तोड़ रही है
महलों की ईंट-ईंट
ईटों की खचपचाहते से ही
नींव हिलने लगी है
मेरे सपनों से
निकलकर, उड़ने लगे सफेद कबूतर
मेरे उम्मीदों के कबूतर वक्त से मेरा विद्रोह हैं।


26.
घर बनाती, चिनती
घरों के सपने देखती हैं औरतें
उम्र के चूक जाने के बाद बने
इसी घर में रहती औरतों की कहानियां
घर की नींव में दब जाती है।

27.
खिड़कियों की एक-एक दरार के साथ
दरवाजों के सारे बंद खुलें हैं
खिड़कियों की दरारों से
झाँकती रोशनी की लकीरें
और दरवाजों की दरारों से आती
 पूस की सुरसुरी हवा
गवाही देती है यहां मैं हूँ
यहां मेरी नींदें जागती है
और दिन कविता लिखते हैं
दरारों से छनती धूप की लकीरें
मेरी ख्वाहिशों में खाद डालती हैं
मैं इस घर की नींव में
अपना इतिहास ढूढँती हूँ
दरवाजे और खिड़कियां मेरे हाशिये बनाती है
और पैरों की सरहदंे तप करती है,
मेरा वक्त हाशियां और सरहदों से निर्लिप्त
बसंत की प्रतीक्षा में है।

28.
जब वक्त अच्छा बीत रहा हो
आसमानी रंगते खिड़की दरवाजों से
ढिढोली करती घुसी चली आती है।
काली घनेरी रात में चमकता है
जादुई चांद
तनहाई के रहस्यमई अंधरे कोने
जुगनू से चमकते हैं, गुलमोहर
मेरे हिस्से की तपती जमीन में
चटक चादर बिछातें हैं।
मेरा मौन  बीथोवेन. की सिम्फनी सा थिरकता है

29.
ठिठके बादलों के झुरमुट
के पार उड़ती
हवाओं के धागों को।
बिजली के कणों के साथ
जिंदगी में पिरोना है।

30.
पहाड़ मेरे लिए
सिर्फ पहाड़ नहीं है
चिलकती लू में ठन्डक देने वाला।
या सिर्फ घूमने
और चंद दिन बिताने की जगह
पहाड़ मेरे लिए पिता है।
सिर सहलाने वाला नरम हाथ
और पीठ टिकाने का आधार
वो मुझे कभी खाली
हाथ नहीं लौटाता
वो सहलाता है मन्द-मन्द मुझे
और मेरे ताप वाले दिनों को
हौले से गुजर जाने को रास्ता देता है
पहाड़ अपने बदलते मौसमों
में मेरे लिए लिखता है
प्रेम पत्र
और जीवन मेें उगते रेगिस्तान
को विश्वास से भर देता है।
पहाड़ मुझे अंत के विरूद्ध
अनन्त की लय से जोड़ता है।
पहाड़ केवल पहाड़ नहीं होता
वो मुझे कभी खाली हाथ नहीं रहने देता।
पहाड़ मेरे लिए जिंदगी की तरफ झांकता
आकाश दीप है।
पहाड़ मेरा मायका है और मायके का मतलब
केवल बेटियां ही जानती है।

31.
शाम धुंधली है
बादल चहलकदमी पर है
दिन की देह
शाम की गोद में दुबकी है
पक्षी बसेरे की उड़ान पर हैं
पगडंडी की छोर पर खड़ा
बूढ़ा पीपल का पेड़
सदियों से एक दुनिया को समेटे है
गाँव की बस्तियों की
चहल-पहल में
मौन छिपा है
उदास धुएं की लकीरें
आसमानों के अनन्त विस्तार में
सोने जा रही है
धुंधलाई शाम दोपहरी के
पैंरों के निशानों को सहलाती है
रात की काली बिल्ली
भोर की प्रतीक्षा में है।

32.
वे इतिहास, भूगोल और शब्दों से भरे
पूरे- मकान  मालिक हैं
घोड़े की चालाक दुलत्तियाँ
भी उन्हीं के पास है
हमारे पास बस दुलत्तियों को पहचानने
की परख है
और उन्हें मुखौटे लगा कर
अभिनय करना खूब भी आता है
पर वो नहीं जानते
बहुत निर्मम होती है
हवा और पानी की
इकट्ठी मार।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                      

33.
आदम और हव्वा ने
जो फल खाया
उसके बीज से उगे पेड़
विशाल हो गए हैं
औंरतें पेंड़ के फूलों को बालों में गूंथ देती हैं
वे फलों की चोरी करती हैं
उन सबने पेड़ की टहनियों से छतें बना ली हैं।
और वर्नित पत्तों से अल्पना पूरती हैं।
वे फलों को खाती है
चुपके से बीज रोप देती हैं।
और पौधे उगने की
प्रतीक्षा करती हैं।

34.
हरसिगांर की महक पसरी है
कमरों के ओनो कोनो में
धरती के ओर छोर में
सांझ के बादलों से छन कर चांदनी बिछौना
बिछाये है
कुछ भूले बिसरे से नरम सुख
जन्म मृत्यु की गहन
दुरूह गुफाओं की ओक
में चांदनी भर कर पी रहे हैं
चांद अपनी परिधि के पिंजरे में
नील कंठ को बांधे है
ऋतुओं के स्वप्न वर्जित  प्रेम
की प्रसव पीड़ा में कराह रहे हैं
दीवारों के कान चैड़े हो गए
सीमाओं से असीमता के बीच
खिचें अदृश्य धागे
प्रेम राग की चाह में
पीड़ाओं का उत्सव मना रहे हैं।

35.
मैं दुनिया की उन तमाम औरतों की कथा लिखना चाहती हूँ।
जो बेबस है, लाचार है, भूखी है, नंगी है।
जो शिकंजों में जकड़ी है
जिन्होंने शिकंजों की अपनी सीमाएं बना लिया हैं।
मैं उन शिकंजों के नापना चाहती हूँ
जिनके अन्दर रिश्तों के रेशों में उलझी
वो अपना छप्पर बुनती हैं।
मैं दुनिया की उन सारी औंरतों की
गूँगी आवाजों की बगावत को
क्राँति की लय में गूँथ देना चाहती हूँ
उन सारी औरतों का
इतिहास लिखना चाहती हूँ
जो अनेक खाँचों में बंटी
अपनी अदम्य जीवन शक्ति से
धरती के अन्तिम छोर तक
अपनी जन्म कथा लिखने को बैचेन है
तिनका-तिनका बिखरी उनकी सांझी
संवेदनाओं को सफेद कबूतरों की नस्लों में
बदल देना चाहती हूँ।
उन तमाम औरतों की सांझी चेतना को
आदिम षड़यन्त्र के
सनातन रहस्य लोक के
विरूद्ध खड़ा करना चाहती हूँ

36-
पहाड़ जब तक रहेंगें
तब तक रहूँगी मैं
जब तक रहूँगी मैं
तब तक रहेंगे पहाड़
पहाड़ में रहते हैं पेड़, पौधे, पशु, पक्षी
मिट्टी पत्थर आद पानी, आग और प्रेम
मुझमें रहता है खून, हड्डियां
राख, पानी, नफरत और पे्रम
हम दोनों एक हैं
पर हमें
एक दूसरे के विरूद्ध कर
दिया गया है
मैं पहाड़ को जलाती हूँ
काटती हूँ
खोदती हूँ
और पहाड़ मुझे
पहाड़ फिर-फिर उग आते हैं
और मैं भी बार-बार जन्म लेती हूँ
जब तक रहेगा काटने, कटते जाने का रिवाज
पहाड़ और मैं
एक दूसरे के सामने खड़े रहेगें।
ना पहाड़ खत्म होगें
और ना ही मैं
इस खुले हुए युद्ध क्षेत्र में
हम दोनों एक दूसरे को
जिन्दा रखने का युद्ध
एक साथ लडे़गें।

37. 
कौन कहता है
मुझे कविता लिखनी नहीं आती
जब मैं घर के ओने-कोने
में पोछा लगा रही होती हूँ
पोछे से धूल साफ करते ही फर्श पर
कविता की पंक्तियां बिखर जाती हंै।
जब मैं आंगन को
रगड़ -रगड़ कर धोती हूँ
झाडू की हर सींक के साथ
मेरे मन में छिपी ढेरों कहानियां
 शब्द-शब्द  आंगन में बिछ जाती हैं
जब मैं रोटी बेलती हूँ
बेलन की हर गोलाई के साथ
धरती से आकाश की गोलाई नाप देती हूँ
जब मैं बर्तन मांजती हूँ
जूने की हर रगड़ के साथ
जीवन की रागनियां बजती रहती है
जब मैं छाती उघाड़ कर अपने बच्चे को दूध पिलाती हूँ
ब्रह्माण्ड की अनन्त गतियों को सहलाती हूँ
गर्भावस्था के दौरान जब मैं
अपने शिशु को गर्भनाल से अपना
खून पिला कर पाल रही होती हूँ
तो मेरे चेहरे का वात्सल्य
आसमान पर संगीत लिख रहा होता है
मैं आदि लोरियां बना रही होती हूँ
जब मैं कपड़े धो रही होती हूँ।
और पानी में छाल-छाल कर
निचोड़ रही होती हूँ
तो जीवन के सारे दुख छटक रही होती हूँ।
झाडू, जूना, थपकी, पौछा,
करछी, बेलन, पतीली, कढ़ाही
ये सब मेरे रचना संसार
की निधियां हैं
कोई नहीं मानता पर
इस सृष्टि चक्र में समस्त
रचनाओं की रचनाकार मैं हूँ।
***







Tuesday, July 19, 2016

मचान खाली है - अनिरुद्ध उमट

बहुत समय कवि-कथाकार अनिरुद्ध उमट से सम्पर्क हो पाया है। उमट ख़ामोशी से काम करने वाले लेखक हैं। यहां छप रहे गद्य के लिए अनुनाद उनका आभारी है। 

 
1

मचान पर जो बैठा है वह शिकार की पतीक्षा में नहीं बल्कि उस क्षण की प्रतीक्षा में है जब उसका शिकार कर लिया जाएगा।

वह जाने कब से वहाँ सांस रोके बैठा रहता है।  वह किसी का  छल से शिकार करने नहीं बैठता।  इस मचान पर उससे पहले भी कई लोग बैठे हैऔर अचूक निशाने और अपार धीरज के चलते वांछित शिकार कर ही गए हैं।
पर यह जो बैठा है उसके पास कोई हथियार नहीं है कोई बचाव का साधन नहीं है, उसके पास सिर्फ अपना आप है जिसे उसने मचान पर बैठा दिया है।  आंधी, बारिश, सर्दी, गर्मी जैसे यहाँ अपना असर खो देते हैं।

एक लेखक अपनी मेज पर इसी तरह बैठ सकता है।

अपने भीतर की हलचलों, स्वप्नों, भय,कुंठा से सना किसी के आगमन की प्रतीक्षा [या भय ] में-----किसी आहट को सूंघता वह बार-बार खुद को टटोलता है कि कहीं किसी तरह की चूक उसे उस क्षण से वंचित न कर दे।

उसकी भाषा एक पतली गली की तरह उसे अपने में पुकारती है।  उस पुकार से बंधा वह बंद दरवाजों, खिड़कियों की गली में प्रवेश कर जाता है।  जब वह सामने देखता है तब दरवाजे, खिड़कियाँ बंद नजर आते हैं पर जैसे जैसे वह आगे बढ़ता है उसकी पीठ देखती है कि दरवाजों, खिड़कियों ने खुद को खोल दिया है।  बंद दरवाजे, खिड़कियाँ उसे आगे खींचते हैं पर उसकी पीठ पर खुले दरवाजों, खिड़कियों का भार बढ़ता जाता है।

किसी क्षण शाम होते-होते वह गली के  किसी मोड़ पर मुंह के बल गिरा पाया जाता है।
उसकी पीठ पर गली भर के दरवाजों, खिड़कियों का ढेर होता है जिस पर एक चिड़िया फुदकती है।
मुंह के बल गिरा वह सांस भी नहीं ले सकता क्योंकि ऐसा करने पर वह चिड़िया भय से उड़ सकती है।

मेरा प्रिय लेखक इसी तरह उस चिड़िया के बने रहने में सांस को कसे रहता है।

मैं जब उसके सामने बैठता हूँ तब वह संकोच और संशय से अपनी नजर उन कागजों पर बैठा देता है जो कुछ कोरे हैं कुछ भरे हैं।  वह चाहता है उसकी नजर उन कागजों पर उसी तरह रह पाए जिस तरह गली में मुंह के बल पड़े व्यक्ति की पीठ पर दरवाजों, खिड़कियों के ढेर पर बैठी चिड़िया रह पा रही है। चिड़िया तो अपने मन से उड़ भी सकती है किन्तु मेरी नजर उन कागजों के ढेर पर एक बार पड़ने के बाद उड़ नहीं सकती।

अजीब सा दृश्य होता है तब, कभी वे कागज उसे खाते हैं, कभी वह कागजों को खाने लगती है।

अरसे बाद ये भी पता नहीं चलता कि कौन किसको खा रहा है।

2
वह उठता है और खिड़की से बाहर देखता है किन्तु खिड़की से बाहर उसे वही मेज और उस पर झुका कोई दिखाई देता है।  वहां भी कोई उसकी मेज के सामने बैठा है।

3
प्रिय लेखक का एकांत अपने पाठक से किसी गूंगे गान या प्रलाप या विलाप की तरह बार-बार कहता है कि वह कुछ देर के लिए उसे अकेला छोड़ दे।  अभी वह तुम से भी अधिक खाली और खोखला है।

उसकी किताबें किसी दुस्वप्न की तरह उसे हर क्षण उसके व अपने अधूरे होने का अहसास कराती ----चिडचिडी सी ------उसे चींधती रहती है।

हर दिन वह अपनी उम्र में देखता है भाषा उससे जिस लहजे में शिकायत करती है वह मरने से कम नहीं। जिसे बरसों तक इसी तरह मचान पर बैठ-बैठ उसने अपने अपने को तिल-तिल देते हुए, खुद का भक्षण कराते हुए अपनी आत्मा में मंडराने का अवसर पाया वह भाषा ही एक उम्र बाद अपने अधूरेपन के उलाहने से उसे बींधते रहती है।

मेरा प्रिय लेखक भाषा के उलाहने से बिंधा अपनी नजर में अभियुक्त सा अँधेरे में खुद से छिपता हुआ कुछ लिखता है।
उसकी लगभग समस्त चाह्नाएं सूख चुकी है।
उसकी लगभग समस्त आग बुझ चुकी है।
उसकी लगभग समस्त राख उड़ चुकी है।

अपने ऐसे अकेले प्रिय लेखक के लिए पाठक क्या करे ?

4
एक गली खुलती है जिसमें हर घर के दरवाजे, खिड़कियाँ खुले हैं।  पाठक दोपहर  की तपती धूप में एक घर में प्रवेश करता है किन्तु दूसरे  घर से निकलता है।
कहीं कोई छाया या साया नहीं।  कोई आवाज का सूखा पत्ता नहीं।  वह दिन भर इसी तरह भटकता रहता है।

एक बच्चा उसे दूर से यूं देखता है जैसे वह घरों में भटक नहीं रहा बल्कि किसी किताब को पढ़ता किसी दृश्य में स्थिर हो सूखे पत्ते सा फड़फड़ा रहा है।

वह बच्चा दौड़ कर आता है और उसके कान में कुछ बुदबुदाता है।

बच्चा देखता है उसका कहा गया किसी के कान में पथरा गया है।  वह रुआंसा-सा उलटे पाँव गली से बाहर भागता है।
गली से बाहर भागता वह किसी किताब से बाहर भागता दिखाई देता है।

भाषा उस दिखने में खुद को मरते देखती है।

5
मेरे घर में ढेरों किताबें थीं लेकिन मेरी पहुँच से परे।
मेरे घर में बहुत सी किताबों की गंध में मेरे पिता की आवाज थी।

किसी दिन उन्होंने सारी किताबो को छत पर धूप में बिछा दिया।  धूप सेकती उन किताबों के उस दृश्य को देखता एक दिन मैं देख रहा था कि दीमकों ने उन्हें कुतर डाला है।  उनकी रेत में पिता की भीगी आँखे थीं जिन्हें मैं जीवन भर फिर भूल नहीं पाया।
एक दिन जब भरी दोपहर मेरे पिता खुली आँखों इस दुनिया से चले गए तब से मैं इस चिंता में जाने क्या-क्या जतन करता रहा कि वे अपनी उदास आँखें मूँद लें।

भाषा और पिता ने अपने मरने की आवाज भी नहीं होने दी।

6
प्रिय लेखक के एकांत की गुहार अरसे बाद मेरे गले से फूटने लगी।
मैंने ईश्वर से कहा मेरा पाठक कोई न हो कम से कम इतना रहम कर दो।
ईश्वर ने बेरहमी से मेरा कहा अनसुना कर दिया।

अपने कंधे पर जल से भरा घड़ा लिए मैं जाने कहाँ खुद को जाते देखता हूँ।

मेरी मेज पर एक भी सूखा कागज नहीं बचा है।

मेरे कमरे में रखे घड़े का  सूखापन बताता है कि उसमें जल भरे जन्मों हो गए हैं।  मेरे कमरे में दीवारों पर लगे फ्रेम में कोई तस्वीर नहीं।  केलेंडरों में कोई तारीख नहीं।

फिर भी एक भय जो मरा नहीं देर रात बिना दस्तक दिए वह पाठक की शक्ल में मेरी मेज के उस तरफ आ बैठता है।
वह कहता कुछ नहीं। अपलक मुझे देखता रहता है।  उसके पास एक झोला होता है जिसमें जाने कितने मुखौटे होते हैं। वह कुछ देर बाद एक-एक कर वे  मुखौटे मेरी मेज पर रखता रहता है।  मेरी मेज पर उन मुखौटों का ढेर लग जाता है।  अब हम एक-दूसरे को नहीं देख पा रहे थे।  उस ढेर पर हमारा न देख पाना गुमसुम सा बैठा था।
उस तरफ वाले को खबर न हो मैं इस तरह से उठता और दूसरे  कमरे में चला जाता जहां मेरे न लिख पाने के सारे पिछले दिन इधर-उधर बिखरे पड़े रहते हैं।
उधर उस तरफ बैठा भी उसी तरह उठता और मुझे खबर न हो उस तरह मेरे पीछे आ खड़ा होता।
उसका खड़ा होना मेरी पीठ पर लद जाता।  और मैं उस बोझ से मुंह के बल गिर जाता।

7
कोई सुबह है ।  नहीं है।  कोई वीरान दोपहर है।  नहीं है।  कोई बोझिल शाम है।  नहीं है।  कोई मारक रात है।  नहीं है। नहीं होने में कुछ होने का भीगा सा कंपन है।  वह एक-एक परत उतर रहा है।
लेखक और पाठक एक-दूसरे के पूरक नहीं।
दोनों में से कोई एक रहेगा।  एक है कोई जो दूसरे की चाहत से सना है वह उसे मार देगा।  वह जानता है जीवित रह कर वह उसका नहीं हो पायेगा।
एक कहेगा यह सैरगाह नहीं है।
दूसरा कहेगा यह मरघट है।
एक कहेगा यह मैं नहीं हूँ।
दूसरा कहेगा वह मैं नहीं हूँ

कोई छाया का गुट्ठल  है।

8
प्रिय लेखक के तपते ललाट पर किसी की तपती हथेली है।
कोई कहेगा तुम लिख लो।
वह कहेगा तुम मुझे लिखने मत दो।

9
जब किताबों को बहुत पढ़ा जाता है तब वे अनपढ़ी रह जाती है।  कुछ को लेखक कभी नहीं चाहता कि पढ़ा जाए वही बार बार पढी जाती है।

10
हर बार प्रिय लेखक पाठक को अपना-सा होने का वहम देता है।  कोई पाठक लेखक को अपना प्रिय होने का वहम नहीं दे सकता।

11
कोई देह मात्र रह जाता है इधर से उधर धकियाता।  ठेलता।

12
भाषा बरसों में कभी किसी दुर्लभ-मारक क्षण इस दृश्य को पीती है।  उसकी अतृप्ति जन्मो की सी लगती है।  जिसे पीया जा रहा है वह बरसों का अभागा लगता है।

13
किसी घर को मुखोटों का अंधड़ अपने में लील लेता है।
सुबह वहाँ कुछ नहीं पाया जाता।

14
उस कुछ नहीं की जगह पर कुछ न होने का विस्मरण पसरा होता है।

नहीं कोई कथा नहीं।

15
किसी को कोई, किसी का हाथ थामे, कंधे पर हाथ रखे ले जाता-सा दीखता है।

16
मचान खाली है।
***

Tuesday, July 12, 2016

अपर्णा कडसकर की कविताएं : अनुवाद - स्वरांगी साने



स्वरांगी साने के अनुवाद में मराठी कविताओं की यह दूसरी प्रस्तुति है। कवि और अनुवादक का आभार।
***
अपर्णा कडसकर, इस नाम की एक अलग छटा है। उसे जितनी बार पढ़ा है, हर बार चौंकाया है…उसकी कविताएँ बहुत कुछ कहती हैं। कई चीज़ों के बारे में बहुत सशक्त तरीके से कहतीहैं। उसका विमर्श उस तरह का स्त्री विमर्श नहीं है और केवल स्त्री विमर्श नहीं है…उसका विमर्श उसके वलय से जुड़ा है, जिसमें कई चीज़ें समाहित हैं।


ज़ुबान


शारीरिक संबंध बनाने से
मना कर दिया था उस महिला ने
सुना है                           
इस वजह से
उन लोगों ने
उसकी ज़ुबान काट डाली थी
फ़िर दर्ज हुआ अपराध
पुलिस ने बाकायदा की जाँच
कचहरी में मुकदमा भी चला
पर कोई सबूत न होने से
न्यायाधीश ने
सबको बाइज़्ज़त बरी कर दिया
तब बहुत बरपा हंगामा प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में।
किसी ने कहा                                  
पुलिस ने उसकी कटी ज़ुबान को सबूत ही नहीं माना
उन्हें लगा होगा, ज़ुबान और वह भी स्त्री की उसकी क्या कीमत!
कोई बोल पड़ा
गवाह था ही नहीं कोई जो देखता उसकी ज़ुबान कटते हुए
(वैसे भी कौनखुली आँखें रखता है
वे तो बाद में खुलती हैं।)
किसी ने कहा
सवाल-जवाब हुए
तब वह कुछ बोली ही नहीं
और किसी भी सवाल का कोई जवाब नहीं दिया उसने
ख़ुद को जाने क्या समझती थी

किसी ने कहा,
वह अपराधियों के नाम नहीं बता सकती थी
तो कम से कम लिख ही देती
पर लगता है अंगुली कट जाएगी
इस डर से वह मुट्ठी बाँधे बैठी रही थी पूरे समय
बेअक़्ल, डरपोक कहीं की!
फिर पता चला
मेडिकल रिपोर्ट पढ़कर
न्यायाधीश ने दिया था निर्णय
उनका कहना था यह मुकदमा ही झूठा था
ज़ुबान काटना संभव ही नहीं था
क्योंकि
चिकित्सा जाँच में पाया गया था
कि उस महिला को ज़ुबान थी ही नहीं ।
***

ज़ुबान


शारीरिक संबंध बनाने से
मना किया
कहते हैं इसलिए उन लोगों ने
उसकी ज़ुबान काट डाली।

औरतो सावधान रहो, समझीं !
हाथ हिलाकर निषेध किया तो हाथ नहीं रहेंगे
गर्दन मनाही में हिलाई तो गला तक काट डालेंगे वे।
बुरी से बुरी स्थिति के लिए हमें तैयार रहना होगा
बहनो
किसी के बारे में कुछ कह नहीं सकते
तुम्हें ही तय करना होगा कि
कैसे दें नकार
पर पहले तो यह तय करना होगा
कि नकार देना भी है या नहीं?
और उसके एवज में क्या खोना है
क्योंकि
महिला जब इंकार करती है
तो उसका पूरा शरीर इंकार करता है
उसका रोम-रोम
उसकी जागृति,
उसका हृदय,
मन, बुद्धि और आत्मा भी कर देती है इंकार।     
***

ज़ुबान


ज़ुबान काट डाली उसकी
क्योंकि उसने
शारीरिक संबंध रखने से मना कर दिया था
क्या उसे पता नहीं था
महिलाओं के लिए ज़ुबान
केवल खाना निगलने के लिए है
और पुरुषों के सारे अपराध निगलकर
हमेशा के लिए अपने पेट में दबाए रखने के लिए होती है ज़ुबान
***

ज़ुबान

मुझे बहुत चिंता होने लगी है
उसने शारीरिक संबंध बनाने से मना कर दिया
इसलिए उन्होंने उसकी ज़ुबान काट डाली न, तबसे।
छि: ! छि: ! अब उसकी चिंता करने से क्या होगा?
चिंता तो पहले ही की जानी चाहिए थी उसकी
कम से कम उसे तो अपनी ज़ुबान की चिंता करनी थी
मुझे तो किसी और बात को लेकर चिंता है
उस कटी ज़ुबान का क्या हुआ?
कहाँ है वह ज़ुबान?
अरे नहीं,
मुझे ज़ुबान की भी चिंता नहीं
मेरी बात ठीक से सुन तो लीजिए
मुझे डर है
कि
मान लो वह ज़ुबान
किसी मासूम बच्ची के हाथ लग गई हो ग़लती से
और उसने उसे
ख़ुद की ज़ुबान पर चस्पा करलिया तो…
उस ज़ुबान का ख़ात्मा करना ही होगा, सबसे पहले।
***
 
ज़ुबान


काट डाली नराधमों ने उसकी ज़ुबान
नहीं, नहीं उन्हें उसकी ज़ुबान नहीं चाहिए थी
उन्हें चाहिए था उसका पूरा शरीर
पर उसने दिया नकार
अरे, उसमें इतना हो-हल्ला मचाने की क्या बात
उसमें सदमे में आने जैसा क्या है भला
महिलाओं की ज़ुबान वैसे भी
किसी भी उम्र में
कहीं भी, कभी भी काट दी जाती है
कभी जन्म लेने से पहले
तो कभी जन्मते ही उसके साथ मार डाली जाती है उसकी ज़ुबान
बचपन में
लड़कपन में
युवावस्था में
बड़ी उम्र की हो जाने पर
कभी लालच देकर
कभी मुँह बंद कर
कभी डर दिखा कर
बंद कर दी जाती है उसकी ज़ुबान।
शादी के बाद कई बार बेहोश कर दी जाती है ज़ुबान
कभी ज़ुबान जला दी जाती है
कभी खुद ही फाँसी पर झूल जाती है
तो कभी पी लेती है ज़हर।
ऐसा कुछ नहीं हुआ तो
तड़प-तड़प कर मरती है घर-संसार में
मरना ही बदा होता है आख़िरकार ज़ुबान के लिए
ज़ुबान अभी कटी क्या, और बाद में कटी क्या?
उसकी ज़ुबान की आगे भी क्या गारंटी कि वह बचती ही?
***
 
ज़ुबान


माना कि उसने
शारीरिक संबंध बनाने से मना कर दिया
और उन्होंने उसकी ज़ुबान काट डाली
आदि इत्यादि
लेकिन
मेरे सामने कुछ मूलभूत वैज्ञानिक सवाल खड़े हैं
मतलब
युगों युगों से महिलाओं की ज़ुबानें काटी जा रही हैं
उनकी ज़ुबान का कोई उपयोग नहीं
तो डार्विन के सिद्धांत के अनुसार
महिलाओं की ज़ुबान नष्ट कैसे नहीं हुई?

या
छिपकली की पूँछ जैसे कटने पर
छटपटाती रहती है
उसी तरह महिला की ज़ुबान भी कटने पर तड़पती है क्या?
और
इतनी तमाम महिलाओं की ज़ुबानें काट डाली जाती हैं
घर में,ऑफ़िस में
रास्ते पर, स्कूल में
मैदान में, काम पर
लिफ्ट में, टूटी इमारत में
निर्माणाधीन इमारत में, कभी खंडहर में
बगीचे में, पहाड़ पर, जंगल में, गाड़ी में, अस्पताल में
फिल्मों में
फिर वे सारी ज़ुबानें दिखती क्यों नहीं
यहाँ-वहाँ गिरी हुई?
निश्चित ही वे तुरंत नष्ट हो जाती होंगी
वायुमंडल में विलीन हो जाती होंगी
तंदूर में जलकर
पानी में घुलकर
भूमि में समाकर
मतलब महिलाओं की ज़ुबान
बायो-डिग्रेडेबल होनी चाहिए
और
होना चाहिए इस पर भी शोध
कि एक बार कट गई तो दुबारा दूसरी ज़ुबान उगाई जा सकती है क्या?
और
इस पर भी होनी चाहिए खोज
कि किसी एक की ज़ुबान काटने पर
बाकी कई महिलाओं की ज़ुबानें अपने आप
निढाल कैसे हो जाती हैं!
***
अपर्णा कडसकर
जन्म             -  २ अप्रैल १९६८
 
शिक्षा          -  यांत्रिक अभियंता (पदविका)
हिंदी/ मराठी/ उर्दू में लेखन
कवि बलदेव निर्मोही की हिंदी कविताओं का मराठी में ‘समांतर रेखा’ नाम से अनुवाद
कवयित्री माधवी वैद्य की मराठी कविताओं का सय्यद आसिफ के साथ मिलकर उर्दू में भाषांतर ‘पलाश गुल’ नाम से
संस्था हिंदी आंदोलन, माझी गजल, उर्दू साहित्य परिषद पुणे की सदस्य
वाइल्ड सोसाइटी फॉर कॉन्सर्वेशन ऑफ वाइल्ड लाइफ एंड फॉरेस्ट की कार्यकर्ता

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails