अनुनाद

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संजय चौधरी की कविताएं – चयन, मराठी से अनुवाद और प्रस्तुति : स्वरांगी साने



स्वरांगी साने की कविताएं अनुनाद छापते हुए मैंने उनसे मराठी से अनुवाद के लिए अनुरोध किया था और उन्होंने कुछ अनुवाद भेजने शुरू किए हैं। मराठी कविता में संजय चौधरी के नाम मेरे लिए अनसुना है। उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता  शिवाजी की तलवार और बाबा साहेब के हाथों की किताब के बीच बहुत स्पष्ट नहीं है इस प्रसंग में दुविधा है। आगे बाल भिक्खू के संवाद और उसके बाद वाली कविता से कवि की वैचारिकी कुछ स्पष्ट होती दिखाई पड़ती है। उनके बारे में कोई राय बनाने के लिए हमें उन्हें और पढ़ना होगा, ये कविताएं तो कुछ शुरूआती संकेत भर हैं। 
कवि का अनुनाद पर स्वागत  और स्वरांगी को इस सिरीज़ को शुरू करने के लिए शुक्रिया।    
-शिरीष कुमार मौर्य

मैं निकला हूँ तुम्हारी दिशा में गौतम….’ जब किसी कवि का परिचय यह बन जाए तो उसके आगे सारे शब्द मौन हो जाते हैं। इन दिनों ठाणे महाराष्ट्र में रहने वाले संजय चौधरी का पहला काव्य संग्रह 2005 राजहंस प्रकाशन पुणे से माझं इवलं हस्ताक्षरआया और देखते ही देखते उसकी तीन आवृत्तियाँ भी  आ गई। राज्य के तमाम प्रतिष्ठित पुरस्कार उस संग्रह के नाम दर्ज हैं।  उनकी कुछ मराठी कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत है।
      स्वरांगी साने

                         
कविता की कविता


मेरी जेब में होती है क़लम
जैसे शिवाजी महारा की क़मर से
बंधी होती है तलवार

बाबा साहेब के हाथ में होती है हमेशा किताब
वैसे     
मेरे हाथों में होता है कविता का सामान

बुद्ध आँखें बंदकर प्रवेश करते हैं भीतर और भीतर
वैसे ही मैं कविता में प्रवेश करता हूँ

मैं लड़ता हूँ लेखनी के साथ दुनिया का हर युद्ध
***

बाल भिक्खू का बुद्ध से संवाद

उसने एक शब्द तक नहीं कहा
मैं भी होंठ बंदकर
बैठा हूँ उसके आगे


केवल सांसों के चलने की आवाज़


मौन के विद्यालय में
आज मेरा पहला ही दिन 
मैंने अपना नाम लिखवाया है
बुद्ध की पाठशाला में
….

मैंने उससे पूछा
किस रास्ते से जाना होगा भीतर?
उसने कहा
जिस रास्ते से आँसू आते हैं बाहर

अब मैं निकला हूँ
उसकी अंगुली पकड़
करूणा के निर्मल धरातल की ओर
….

मैंने पूछा
कहाँ से आए हो
कहाँ जा रहे हो?
कहाँ है तुम्हारी पोटली, कपड़ेलत्ते?
बुद्ध ने कहा,
मैं सिर्फ़ खुद को अपने साथ रखता हूँ

तुम्हारे पास सब कुछ है
पर
तुम्हारा तुम खो गया है इस कचरे में

उसने किया स्मित हास्य
और मैं रहा मौन
उसने कहा चलो
मैं चल पड़ा उसके कदमों की दिशा में
खुद की खोज में
….
**

 
लड़कियों की कविताएँ


लड़कियों को अपना सौंदर्य
किसी की बपौती नहीं बनाना चाहिए
जो सम्मान कर सकें
उन आँखों को दान कर देना चाहिए


ग्रीष्म ऋतु लड़कियों को सुखा नहीं सकती
लड़कियाँ उसे वापस भेज देती है
ग्रीष्म सूर्य से कहता है
ऊष्णता सब जगह है
तुम्हारे जितनी ही

अब लड़कियों की रश्मियाँ
सूर्य तक जा रही हैं
….

लड़कियाँ घायल कर लेती हैं
अपने आपको
गहरी नींद में
सपनों से

और कराहती रहती है
उजाले में, जागते हुए


कच्ची उम्र की लड़कियों के
हिसाब भी कच्चे

लड़कियाँ
सर्वस्व के बदले में
दु:ख के गहने पहन लेती हैं


हर लड़की का रास्ता
कौए1 के घर से गुज़रता है
कौआ लड़कियों को    
ऋतु के गीत देता है
इन दिनों
लड़कियों ने
कौए का घर पीछे छोड़ दिया है

अब लड़कियाँ सोती हैं तब भी
उनका शरीर जाग रहा होता है
….

1-   मराठी घरों में ऋतुचक्र के दिनों को आम बोलचाल में  कौए ने छूलियाकहा जाता है।

कवि परिचय  
                                    
संजयचौधरी
माँ  सौ.रमाबाई पिता    श्री.नारायणचौधरी
जन्म  २८ अगस्त १९६५
शिक्षा विद्युत अभियांत्रिकी में पदविका १९८४
         
एम ए ( मराठी ) – १९९१
कवितासंग्रह  “ माझं इवलं हस्ताक्षर” , राजहंस प्रकाशन, पुणे
                                     # 
प्रथम आवृत्ति जनवरी २००५
                                     # 
द्वितीय आवृत्ति –  फरवरी २००५
                                     # 
तृतीय आवृत्ति दिसंबर २०१३
         

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  1. मराठी कवि संजय चौधरी की ये निस्संदेह मजबूत शिल्प की कविताएँ हैं।
    ऐसी रचनाओं का एक डर यह होता है कि कभी कभी अथवा कहीं कहीं सम्मोहक देहयष्टि के भीतर खोखलापन का वास होता है! शिल्प को 'ऊंचा उठा रखने' की प्रवृत्ति हिंदी में जोर मार रही है।
    कविताएँ मोडरेटर शिरीष की टिप्पणी के साथ पढ़ रहा हूँ और उनसे इत्तिफाक रख रहा हूँ।
    पहली कविता 'कविता की कविता' में अम्बेडकर की किताब एवं शिवाजी की तलवार का साथ देखकर मैं भी चौंका। उक्त कविता की अंतिम पंक्ति में तलवार छोड़ केवल लेखनी के साथ आ गया है कवि। वैसे भी, दुनिया का हर युद्ध कोई एक व्यक्ति क्या लड़ेगा!

    'बाल भिक्खु से बुद्ध का संवाद' कविता में कवि जीवन से अधिक वायवीय अध्यात्म के संग है। बुद्ध एवं कबीर के अध्यात्म का जो हिस्सा जीवन से परे जाता है, अबूझ हो जाता है वहाँ बुद्धत्व नहीं है! खुद की खोज उतना भी दुष्कर नहीं रहा है! बुद्ध एवं कबीर आदि के सहारे हरदम हरकदम नहीं चला जा सकता, न ही इसकी जरूरत है! महान से महान व्यक्ति एवं विचार में से कुछ को छोड़ना ही पड़ता है! इस कविता को पहली कविता से जोड़ कर देखिये, विरोधाभास खुल जाता है.

    'लड़कियों की कविताएँ' कविता का शीर्षक लाजवाब है। मुझे तो यह शीर्षक ही एक कविता लगती है! हाँ, कविता एक स्त्रीवादी मर्द की नजर से बुनी गयी है, यह साफ़ है। ग्रीष्म ऋतु एवं सूर्य वाले बिम्ब में अति ऊहात्मकता है। बेहद उचकता आशावाद है। असहायता, विवशता के अंकन के बरअक्स कटु यथार्थ से अलग लड़कियों को शक्ति-सामर्थ्य सौंपने की हड़बड़ी भी है यहाँ! 'आसमान से सितारे तोड़ लाने, 'आसमान में सूराख कर डालने','सारे जहां से अच्छा…, की बातें कहने की बात भर हैं!

    हमारी कविताओं को एक हद बांधकर ही उमगना चाहिए!

    और, सौंदर्य किसी को यदि सौंपने की सी वस्तु है तो यह दैहिक ही होगी! कवि पुनः स्त्री पक्ष में खड़ा होते हुए स्त्री की सुन्दरता को मर्दवादी चौखटे में ही रख डालता है। लड़कियों का सौंदर्य स्व से विसर्जन और किसी कद्रदान को सौंपने में ही क्यों मायने पाएगा? उनके खुदवज़ूद के विरुद्ध जाता पाता हूँ मैं इस बिम्ब को।

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