अनुनाद

अनुनाद

प्रदीप अवस्थी की दस कविताएं एवं वक्तव्य

वक्तव्य
 

दो बातें बहुत ज़रूरी हैं लगातार लिखते रहकर अपने समय को जितना हो सके दर्ज करते रहना और जो अनुपस्थित हैं, जिनसे चाहकर भी उस तरह संवाद नहीं हो सकता जैसा हम चाहते हैं,उनसे बात करते रहना | यह दोनों काम मैं सहज रूप में कविता के माध्यम से कर पाता हूँ | पिछले कुछ वर्षों में अकेलेपन ने जीवन का बड़ा हिस्सा भरा | आप अंदर से मचलते हों पर सुनने वाला कोई ना हो,ज़रूरी हो जाता है कि लिखकर बाहर निकाल दिया जाए | मैंने ऐसे ही कविता का सहारा लिया है अपने भारी क्षणों को थोड़ा सहनीय बनाने के लिए | मेरे ख़याल से तो गहन पीड़ा के क्षणों में ही कोई अपने पहले शब्द लिखता है | यह देखने की बात होती है कि आगे वह किस तरह बढ़ता है | यही मेरे लिए भी रोचक रहेगा कि आगे मेरी यात्रा क्या रूप लेती है |
       थोड़ी सी बात माहौल की भी | बहुत लोग कविता को बचाने की बात करते हैं | मुझे लगता है कविता हमें बचाती है, हम कविता को नहीं | यहाँ जो चुपचाप लिख रहे हैं, उनपर ध्यान नहीं जाता किसी का | क्या यह अब ज़्यादा ज़रूरी हो गया है कि रोज़ ऐलान किए जाएँ कि देखिए मैं लिख रहा हूँ या हमेशा से ऐसा ही था | मैं पिछले दो साल के माहौल को देखकर ऐसा कह रह हूँ | कई अग्रज परेशान और मायूस भी दिखते हैं कि कविता का क्या होगा | मेरा आप बताएं, लेकिन कुछ लोग तो हैं जो वाकई बेहतरीन हैं | जो खालिस होगा, वह टिकेगा और सामने आएगा ही | बस एक और बात यह कि तोड़-फोड़ भी होने दीजिए | कोई भी विधा खांचे में बंधने वाली नहीं |  
 
1) अजनबी लड़कियाँ प्रेमिका नहीं होतीं

   सुबह चार बजे
   दस अंको का एक नंबर
   जिसका एक-एक अंक छपा है छाती में
   भेजता है आवाज़
   व्यस्त होने की ।

   दिल गिरता है पाताल में कहीं
   मैं शब्दकोष निकालता हूँ
   जहाँ भरोसा लिखा है
   घबराते दिल और काँपते शरीर से  
   वह पन्ना फाड़ कर खा जाता हूँ
   धोखा लिखा हो जहाँ
   वह पन्ना जेब में लेकर
   चलता चला जाता हूँ क्षितिज तक

    प्याज़ काटते हुए अचानक
    दाँए हाथ के अँगूठे पर पड़ता है चाकू
    टप-टप गूँजती है आवाज़ बेआवाज़ दुनिया में
    गिरता हुआ लाल रंग आँखों में भर आता है  
    अतीत में गिरता चला जाता है अतीत
    फिर भी बच जाता है ।

    कि बिल्कुल अभी दिल को अंदर ही अंदर भींच रहा है कोई   
    और नींद की गोलियां सिरहाने आ पहुँची है
    मैं उन्हें गटककर सो जाता हूँ
    कैसे बताऊँ !

    किराए के कमरे घर नहीं होते
    अजनबी लड़कियाँ प्रेमिका नहीं होतीं
    ज़मीन खुरचने से नाख़ून बढ़ने बंद नहीं होते
    दीवारों से लिपट कर रोने से कम नहीं होता प्यार ।

2) हमारी स्त्रियाँ हमें लौटा दो.

    हमने घर बनाए
   उनकी चौखटों से बाँध दिया औरतों को
   घर की नींव में गाड़ दिया उनकी खनक को गहरे
  बुनियाद उतनी पक्की जितनी भीषण उनकी चुप्पी
  उनके लिए पैदा किया बच्चे
  हवादार रोशनदान वाली रसोईयां कर दी उनके नाम
  घर आबाद रहे, इसके लिए
  सांसें बचाए रख बाकी सब मार दिया उनका
  पीढ़ियाँ यूँ बीतीं ।

   आंटे में कब घुला आंसुओं का नमक
   गले का पानी कब सूख गया
   बच्चे कहते इतनी चिड़चिड़ी क्यों है माँ !

   ख़त लिखते थे पिता,लिखते रहे
   माँ ने छोड़ा लिखना ख़त आख़िरकार  
    
   जब स्त्रियाँ छोड़ देती हैं लिखना ख़त
   तब लौट आते पुरुष कि ध्यान नहीं दे पाया
   ध्यान जबकि वे दे ही रहे थे
   कि भूख का इलाज और कोई नहीं
   और जैसे वे कहते हैं
   घर के आँगन में अंकुरित नहीं होंगे रुपए
   अमरूद की तरह तोड़कर नहीं खाए जा सकेंगे सिक्के

    पर हाय ! स्त्री का पत्थर हो जाना
    जो जा सकती है चली जाती है कहीं और
    जो नहीं जा सकती वो पागल हो जाती है
    बच्चे कराते इलाज.

    तोड़ क्यों नहीं देते इन घरों को
    यह दुश्मन है हमारी स्त्रियों के

    हमारे पेट की भूख वापस दे दो और निकाल लो हमारी आँखों से सपने हाथ डालकर
    हमारी स्त्रियाँ हमें लौटा दो.

3) उनके दुखों में थे कपड़े जिनसे स्तन भी एक ही ढँकता था 

    बहुत अँधेरा है माँ
   इतना कि ये ट्यूब लाइट मेरी आँखों में उतर आती है
   सब कुछ इतना साफ़ दिखाई देता है कि कुछ नहीं
   एक दाग़ नहीं अँधेरे के चेहरे पर
  बरसों से एक ज्वालामुखी दहक रहा है अंदर
  मैं किसी सर्द जमी हुई नदी की बर्फ़ में दब जाना चाहता हूँ |

   कितने दिन जिंदा रह सकता है अकेला आदमी बिना हँसे
  एक दिन जब घिर आती है उदासी की बूँदें आँखों में
  तो ठहर-ठहर हँसता है |

 कितनी रातें बीत गईं ऐसी जुड़वा बच्चों जैसी
 जिनकी माँ ढूँढने पर भी नहीं मिलती
 कहाँ होंगी वे ?

 उन्होंने शहर बदल लिए होंगे
 या नदी में कूद मृत्यु की चाह में बचाई होगी ज़िन्दगी
 उन्हें किसी खेत में लूटा गया होगा या मख़मली बिस्तर में  
 बाहर गुड्डे गुड़िया की शादी कराती होंगी बच्चियां
 प्यारे भाई छीनकर तोड़ते होंगे गर्दनें
 आदमी तो फिर भी मार दिए जाएंगे
 औरतों को छोड़ दिया जाएगा नंगा करके 
 खेतों से लौटकर वे छुएँगे माओं के पैर लेंगे आशीर्वाद
 और पत्नियों की छाती में मूँह रखकर सो जाएंगे
 कि पेट में बच्चा है और लक्ष्मी ही आनी चाहिए घर में |

 इतना अँधेरा !
 काली रात की आँखों में काजल भरना कहूं तो कैसा मनहूस सा लगता है ना !
 नज़र उतारो कोई इन रातों की लोभान का धुआँ करो रे |

 मैं जब कह नहीं पाता था जैसा कि अक्सर था
 जैसा बनाया गया था या बन गया था मैं अपने आप
 तो लिख देता था
 उन्हें लगता कि….

 हमारे दुखों में इतना सुख तो था कि उन्हें सोच कर लिखा जा सकता था
 उनके दुखों में थे कपड़े जिनसे स्तन भी एक ही ढँकता था 
और माँगकर खाना जिसे बेशर्मी समझते रहे आप पूरी बेशर्मी से
कितने गर्भों में भर दी गईं थी अनचाही संतानें
 उन्हें भी तो खींच कर निकाल लिया गया दंगों में एक बार
माफ़ करना इस ज़िक्र से कहीं मैंने पहुंचाई हो राष्ट्र को कोई क्षति
आसमान से कंचे खेलती इमारतों का निर्माण हो रहा है देश में
भीतर सब अच्छा है,सब मर्यादा में

आओ
उन बच्चों को ढूँढते हैं
जिन्हें फ्लश कर दिया गया शौचालयों में
फ़ेंक दिया गया जंगलों में या दबा दिया गया मिट्टी में
माएँ तो उनकी खो गईं जैसा ऊपर लिखा था मैंने
वे लटक गई हैं,उनकी नसें चटक गई हैं
वे बाज़ारों की रौनक हैं,
वे ज़माने भर की हवस को अपने जिस्म में संभाल रही हैं
वे जहाँ भी हैं,यहाँ या वहाँ,लौट नहीं सकती,
आप उन्हें एक रास्ते पर भेज देते हैं,फिर ध्वस्त कर देते हैं वह रास्ता

रुकिए यहाँ !

ऊपर लिखा,यह सब काल्पनिक है
इसपर तनिक भी विश्वास नहीं करना
बच्चे बड़ा होने से मना कर देंगे वरना  
लड़कियां हो जाएँगी इतनी समझदार कि गर्भ में ही
अपनी नन्ही हथेलियों से घोंट लेंगी अपना गला
फिर हवस का क्या होगा ?

मुझे अपना दुःख तुझसे कहना था माँ,क्या क्या कह गया 
वहाँ सबसे कहना ऐसा कुछ नहीं होता
यह तो बस ख़बरें हैं जो हम टीवी में देखते हैं

मैं कहता जाता हूँ चरणस्पर्श
माँ कहती जाती है ख़ुश रह
फ़ोन कट जाता है
फिर रात आती है
ऐसी रात !

4) इतने में ख़ुदकुशी की ख़बर आती है

    सूरज जब डूबता है
   कौन छीन लेता है उससे उसकी चमक

   कोई दो बजे का वक़्त होगा रात में
   या जितना भी आप रखना चाहें
   रोता है कुत्ता
   बड़ा मनहूस कहते हैं लोग पर कौन जाने
   कहीं काँच चुभ गया हो पैर में

   मेरे सोते हुए शरीर में से उठकर चल देता है एक शरीर
   और दिन-भर बैठकर मुझे देखा करता है
   मैं भाग बस उसी से रहा हूँ
   कई सारे कटे-फटे निशान हैं उसकी नंगी छाती पर
   और तुम मनाए जाने की गहरी इच्छा लिए रूठती हुई
   कंधे झटकती हो मेरी हथेलियों से तो रुक जाता है मेरा भागना
   अपनी आँखें रख देता हूँ तुम्हारे सीने में
   तो रास्ता बदल लेती हैं मुफ़लिसियाँ

   अजनबी शहर से लौटते बार बार
   अजनबी होते जाते घर की ओर
   ठहरने और लौटने की कश्मकश में
   कट-कटकर गिरते थोड़े यहाँ-वहाँ

      इतने में ख़ुदकुशी की ख़बर आती है
      मैं पिछली बार के घावों पर बर्फ़ घिसता चला जाता हूँ
     जैसे बचपन में नहलाते समय माँ कोहनी का मैल छुड़ाने को रगड़ती थी ईंट का टुकड़ा
     दुनिया की सारी बर्फ़ पिघल रही है माँ
    और मैं अपने दिनों की उल्टियों में जी रहा हूँ
    ऊपर से इन ख़बरों ने दुभर कर दिया है जीना
    विदा दो….

    भाषा असमर्थ हो जाती है
  शब्दों की पीठ पर लदे अर्थ फिसलने लगते हैं
  रुदन अपने लिए होता है
  अपने भीतर के ताप को कम करने के लिए
  ताप इतना आता कहाँ से है !

  मत कहना I

5) यह पहली आग है

  मैं रूठकर पलट गया हूँ ग़ुस्से में
 वह एक झटके में उठकर बैठ गई है
 उसका दिल आँखों से निकलकर
 सामने की दीवार पर चिपक गया है

 अब मैं चाह रहा हूँ कि वह मुझे रिझाए
 वह चाह रही है कि मैं उसके अपमान को समझूँ

 उस रात हमारे बीच बिस्तर पर आग की एक रेखा है
 यह दूसरी आग है
 जो दिलों को बर्फ़ की तरह जमा देगी

 रूठने के बजाय
 माथा चूमना था मुझे
 और आग के बरसने का इंतज़ार करना था
 यह पहली आग है
 इसे उम्र भर दिलों में जलना था

 और क्या !
 मुझे बस तुम्हारे तिलों से दोस्ती करनी है
 तुम मेरे घाव पहचान लेना ।  

6) यदि मेरी अनुपस्थिति तुम्हें नहीं टीसती

  यदि मेरी अनुपस्थिति तुम्हें नहीं टीसती
  तो अच्छा हुआ मैं अनुपस्थित रहा तुम्हारे जीवन में

  यदि उस अनुपस्थिति की टीस में इतना ज़ोर नहीं
  कि मुझ तक पहुँच सकने वाली आवाज़ लगा ली जाती
  तो अच्छा हुआ कि इतना ज़ोर नहीं था टीस में

  भट्टी सा तपता था तुम्हारा मन यदि
  और अहंकार भी बचाए रखना था
  या एक वेदना थी भीतर जो चीखने को मूँह खोलती थी
  और झुलस जाती थी ज़ुबान,
  जो भी था
  हर दोष मेरे मत्थे क्यों !

  मोह मुझे नहीं खींचता अब
  उपेक्षा एक आदत में बदल चुकी है
  और मैं
  कुचला जा चुका हूँ |

7)  फिर कभी नहीं लौटे ! पिता

हाफलौंग की पहाड़ियाँ हमेशा याद रहेंगी मुझे ।   

     वॉलन्टरी रिटायरमेंट लेकर कोई लौटता है घर  
     बीच में रास्ता खा जाता है उसे ।
     दुःख ख़बर बन कर आता है
     एक पूरी रात बीतती है छटपटाते  
     सुध-बुध बटोरते ।

     अनगिनत रास्ते लील गए हैं सैकड़ों जानें ।
     एक-दूसरे से अपना दुःख कभी न कह सकने वाले अपने
     कैसे रो पाते होंगे फूट-फूट कर ।
     

     असम में लोग ख़ुश नहीं है
     बहुत सारी प्रजातियाँ अपनी आज़ादी के लिए लड़ रही हैं
     उनके लिए कोई और रास्ता नहीं छोड़ा गया है शायद ।
     हथियार उठाना मजबूरी ही होती है यक़ीन मानिए  
     कोई मौत लपेटकर चलने को यूँ ही तैयार नहीं हो जाता ।

     आप देश की बात करते हैं,
     युद्ध की बात करते हैं,
     देश तो लोग ही हैं ना !
     उनके मरने से कैसे बचता है देश ?

     बॉर्डर पर,कश्मीर में,बंगाल में,छत्तीसगढ़ में,उड़ीसा में,असम में
     मरते है पिता
     उजड़ते हैं घर
     बचते हैं देश ।

     अख़बारों में कितनी ग़लत खबरें छपती हैं,यह तभी समझ आया ।  
     
     सामान लौटता है !
     गोलियों से छिदा हुआ खाने का टिफ़िन,
     रुका हुआ समय दिखाती एक दीवार घड़ी,
     बचपन से ख़बरें सुनाता रेडियो,
     खरोंचों वाली कलाई-घड़ी,
     खून में भीगी मिठाइयाँ,
     लाल हो चुके नोट,
     वीरता के तमगे,
     और धोखा देती स्मृति ।
     
     कितनी बार आप लौट आए
     वो मेरी नींद होती थी या सपना या कुछ और
     जब चौखट बजती थी और आप टूटी-फूटी हालत में आते थे
     फिर कुछ दिनों में चंगे हो जाते थे
     ऐसा मैंने कुछ सालों तक देखा
     अब वो साल तक नहीं लौटते ।

     हर बार सोचा कि
     इस बार जब आप आएंगे सपने में
     तो दबोच लूँगा आपको
     सुबह उठकर सबको बोलूंगा कि देखो
     लौट आए पापा
     मैं ले आया हूँ इन्हें उस दुनिया से
     जहाँ का सब दावा करते हैं कि नहीं लौटता कोई वहाँ से,
     ऐसी सोची गई हर सुबह मिथ्या साबित हुई ।

     काश फिर आए ऐसा कोई सपना
     फिर मिल पाए वही ऊर्जा
     एक घर को
     जो पिता के होने से होती है ।

     हे ईश्वर !
     कोई कैसे यह समझ पैदा करे कि बिना झिझके सीख पाए कहना
     “पिता नहीं हैं 

    और कितनी भी क़समें खाते जाएँ हम
    कि नहीं आने देंगे किसी भी और का ज़िक्र यहाँ
    पर एक समय था,एक शहर था बुद्ध का,एक साथ था,
    फल्गु नदी बहती थी ,
    विष्णुपद मंदिर में पूर्वजों को दिलाई जाती थी मुक्ति ।
    हम यहाँ दोबारा आएंगे और करेंगे पिण्ड-दान
    ऐसा कहती,भविष्य की योजनाएँ बनाती एक लड़की
    जा बैठी है अतीत में कहीं ।

    आख़िरी स्मृतियों में बचती है रेल,
    प्लेटफार्म पर हाथ हिलाते हुए पीछे छूट जाना।
    उस आख़िरी साथ में पहली बार उन्होंने बताए थे अपने सपने ।  
    
    सात साल पहले इसी दिन वो लौटे
    हमने उन्हेँ जला दिया ।
    फिर कभी नहीं लौटे
    पिता ।

8)  लेकिन उनके लिए या अपने लिए क्या हूँ 

     मैंने औरों के प्रति बरती ईमानदारी   
   इसमें अपने प्रति ग़द्दारी छिपी थी |

   वे प्रेम जैसा कोई शब्द पुकारते हुए मेरे पीछे दौड़े
   मैं यातना नाम का शब्द चिल्लाते हुए उनसे बचकर भागा |

      गिड़गिड़ाते हुए लोगों की आँखों में झाँककर देखा जाना चाहिए
   वे बचाना चाहते हैं कुछ ऐसा
   जो जीवन भर सालता रहेगा |

   कहानियाँ बस शुरू होती हैं,ख़त्म कभी नहीं
   ख़त्म हम होते हैं |

    और मैं कहना बस यह चाहता था कि
   मैं उन्हें पहचानता ज़रूर हूँ
  लेकिन उनके लिए या अपने लिए क्या हूँ
  मैं नहीं जानता |

9) जो बाद में पूछते पागल क्यों ?
    नींद में मारे जाते कोड़े     
    सोने से लगता डर
     
    कोयला मेरे गले में
    पर मैं काला नहीं

   कितने अच्छे लगते हैं ना  
   हँसते हुए लोग
   पर जब वे हँसते हों किसी के रोने पर !

  मोम पिघलता कानों में
  आवाज़ की खनक बढ़ती जाती
  सब रास्ते बंद करके कहा जाता
  वापस लौटो ।

  दिमाग़ में घूमता सारा ब्रह्माण्ड
  मेरे ब्रह्माण्ड में एक ही इंसान

  जब आप मेरा नाम पुकार रहे होते हैं
  मैं वहाँ होता ही नहीं
  जूझते हम सपने में
  बचाता कोई ।

  यह पागलपन उन्होंने ही दिया
  जो बाद में पूछते पागल क्यों ?

10) और मुझे लगता रहा कि इंसानियत भी बचाई जा सकती है

  वे लगातार खोज रहे हैं नए-नए शब्द
 दुनिया भर के शब्दकोशों से,
 बड़ी मेहनत से रच रहे हैं नित नए और मुश्किल वाक्य,
 वे जन्म दे रहे हैं नए मुहावरों को
 और दिनोंदिन होती जा रही हैं उनकी कविताएँ और जटिल
               
 वे जटिलता बचाने और सबसे महान कवि कहलाने की होड़ में हैं शायद |

 और मुझे लगता रहा कि
 इंसानियत भी बचाई जा सकती है कविताएँ लिखकर |

 एक बार एक बड़े कवि ने मुझसे कहा कि
 जो बातें हम किसी से कहना चाहते हैं और कह नहीं पाते
 वह बातें करने का ज़रिया है कविता
 और इस तरह मैंने अपनी माँ, पिता,भाई, दोस्तों
 पूर्व-प्रेमिका और प्रेमिका से की बहुत सारी बातें |

 मुझे आज भी यही सही लगता है |

 शब्दों और वाक्यों को रचने की अय्यारी भर कविता बची है बस
 उनकी एक बात दिल तक नहीं पहुँचती,
 कहीं कोई टीस नहीं उठती,
 उनके लिखे से कहीं कोई ज़ख्म फिर नहीं दुखता
 और वे इस समय के लोकप्रिय कवि हैं |
***
प्रदीप अवस्थी
9930910871
मुंबई
(कवि,गीतकार और फ़िलहाल पटकथा लेखन में सक्रिय)









0 thoughts on “प्रदीप अवस्थी की दस कविताएं एवं वक्तव्य”

  1. इस कवि में सम्भावना है .भाषा और कथ्य में अलग हैं कवितायें. नये कवियों के लिये धैर्य जरूरी है .इसे बचा कर रखना चाहिये ..कवि प्रदीप को बधाई .

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