अनिल
कार्की संभावनाओं का एक नाम है और महेश पुनेठा सुपरिचित कवि-समीक्षक। महेश पुनेठा
का अनिल के संग्रह पर लिखना सुखद है। महेश और अनिल, इस पृथ्वी
पर एक ही भूगोल साझा करते हैं और मैं भी। इस समीक्षा के लिए मैं महेश पुनेठा का
आभारी हूं।
***
पहाड़
को देखने के सबके अपने-अपने नजरिए हैं-कोई उसके प्राकृतिक सौंदर्य को देखता है तो
कोई उसकी भौगलिक दुरूहता को ,कोई वहां रहने वालों के
सीधे-सच्चे व भोलपन को, कोई उनके अभाव, दुःख-दर्द व कष्ट को। ऐसे बहुत कम हैं जिन्होंने पहाड़ को उसकी समग्रता
में देखा हो-उसकी प्रकृति, उसका सौंदर्य, समाज-संस्कृति व उसमें आ रहे बदलाव, उसकी
जल-जंगल-जमीन की लूट और संघर्ष। अनिल कार्की उन युवा साहित्यकारों में हैं जो
पहाड़ को उसकी समग्रता में महसूस और
व्यक्त करते हैं। उनकी कहानी हों या कविताएं, उनमें
पहाड़ के लोकजीवन के रूप-रंग,रस-गंध के साथ-साथ उसका
संघर्षधर्मी स्वरूप भी अभिव्यक्त हुआ है। उनके पास लोक का विस्तृत वितान और
जीवनानुभव है, जिसके द्वारा वह अपने समय और समाज के सवालों
को प्रतिबिंबित करते हैं। वैश्वीकरण के बाद समाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक जीवन में आए
बदलावों को दर्ज करते हैं। पिछले दिनों दखल प्रकाशन से आए उनके पहले कविता संग्रह ‘उदास बखतों का रमोलिया’ की कविताओं में ये बातें
साफ-साफ देखी जा सकती हैं।
अनिल
कुमांउनी लोक में आकंठ डूबे हुए कवि हैं। उनकी ‘फसक’और ‘ठसक’,दोनों में आप यह बात
महसूस कर सकते हैं। इसी कारण वह अपनी कविताओं में एक कुमाउंनी मुहावरा गढ़ने में
सफल रहते हैं। लोकजीवन और उसकी विविधताओं की जितनी बारीक समझ अनिल में है, उतनी इधर के कम ही युवा कवियों में दिखाई देती है। लोकजीवन की समझ के
मामले में मुझे वह गिर्दा के नजदीक लगते हैं। अनिल में गिर्दा का जैसा पहाड़ीपन और
हौंसियापन दोनों दिखाई देता है। इसलिए मैं अनिल को गिर्दा की परंपरा का कवि मानता
हूं। जैसा कि वह इस बात को स्वयं भी स्वीकार करते हैं, ‘‘मेरा
वह पहाड़ीपन हो सकता है जो गिर्दा के साथ ज्यादा तादात्म्य स्थापित कर पाता है।
हौंसियापन गिर्दा की कविताओं के प्रति मेरे लगाव का कारण है।’’ अनिल लोकगीतों की शैली और मिथकों
का बेहतरीन उपयोग करते हैं। अपनी लोक बोली से कविता को नई ऊर्जा प्रदान करते हैं।
ये सब उनकी लोक के प्रति प्रतिबद्धता से ही संभव हुआ है।
युवा
कवि अनिल कार्की का कवि मन अपने गांव की सबसे ऊंची जगह पर खड़ा होकर पूरी दुनिया
को देखना चाहता है,
अर्थात उसका केंद्र अपना जीया-भोगा लोक है, जहां
कवि की उदासी और उम्मीद दोनों की जड़ें हैं। कवि का लोक बाहर से भले ही जितना खुरदुरा-उबड़खाबड़
और कठोर-चट्टानी दिखता हो लेकिन भीतर से बहुत नर्म है। यह महत्वपूर्ण बात है। अनिल
ने अपनी कविताओं में जीवन के संपन्न पक्ष को नहीं बल्कि अभाव पक्ष को चुना है-
मैं
उन अनाम
घायल
लोगों के बीच की
कराह
हूं...चीख हूं
जो
मर खप जाएंगे।
यही
पक्ष है जो एक सच्चे कवि को चुनना भी चाहिए। जहां अभाव और उपेक्षा है वहीं कविता
की जरूरत भी है। संपन्न पक्ष के लिए तो कविता सजावट की चीज है। अभाव पक्ष के लिए
लड़ने का औजार। कविता ही है जो उसे जीवन के कठिन संघर्षों में सुस्ताने की जगह
उपलब्ध कराती है। ढाढ़स बंधाती है। उसकी सहचरी है जो उदासी और हताशा में साहस देती
है व आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है़। मौन के खिलाफ उठ खड़े होने को प्रेरित
करती है। वह जानती है कि इस व्यवस्था ने चारों ओर ‘मौन अपेक्षित
है’ की अघोषित तख्ती लगाई है, जिसका
उद्देश्य इस विसंगति-विडंबनाओं के खिलाफ उठने वाले किसी भी प्रश्न को रोकना है।
कविता भयानक आपदाओं के बाद भी चूल्हे जलाने की आग बनती है। श्रम का गीत बनकर फूटती
है और श्रमवीर का साथ निभाती है। ‘जो छले गए है’ उनके हाथों में ‘चटक चमकीले रूमाल’ की तरह लहराती है। उसकी चीख और आर्तनाद में शामिल हो जाती है। हृदय की
गहराई में उतर जाती है और रक्तवाहिकाओं में रक्त बनकर दौड़ने लगती है। ‘उसकी दुखती पीठ और चड़कती नसों पर’ मरहम लगाती है।
ये बातें आप अनिल की कविताओं में यत्र-तत्र देख सकते हैं। उनका गहरा विश्वास है
कि-
एक
दिन
हमारे
गीत
हमारे
नृत्य
जरूर
युद्ध की तरफ लौटेंगे
शायद
एक अलग रूप में। वह ‘अपने सीढ़ीनुमा खेतों पर जुबान उगाना’ चाहते हैं।
ताकि ‘वह जवाब दे सके/हिसाब मांग सके।’ इस तरह अनिल की कविताओं का तेवर पूरी तरह से राजनीतिक है।
अनिल
नमक को जीवन मानने वाले कवि हैं, क्योंकि वह जानते हैं-
पसीने
का स्वाद नमक की तरह ही होता है
रक्त
भी नमकीन होता है
आंसू
की धार भी नमकीन होती है
बहती
नाख भी नमकीन होती है।
लेकिन
उन्हें पहाड़ों को खारा कहना उनका अपमान लगता है। उनके लिए नमकीन होना और खारा
होना दो अलग-अलग चीजें हैं। खारा होना किसी के भी काम का न होना है। जबकि वह इस
नमक में भविष्य के विद्रोह की संभावना देखते हैं। यह नमक उन्हें उत्तराखंड के
पहाड़ों से लेकर दक्षिण अफ्रीका के आदिवासी पुरखों तक में दिखाई देता है जो ग्वाले,अहीर,शेरपा,चरवाहे,डोंगरिया आदि-आदि हैं-‘जिनको इतिहास के कुचक्रों का
बार-बार शिकार होना पड़ा है।’ भले-‘इतिहास
ने उन्हें अनपढ़,मलेच्छ घोषित किया हर बार’ लेकिन कवि कहता है-
वे
इतिहास के उन पृष्ठों के पीछे जिंदा हैं
जिन
पृष्ठों पर राजाओं,अवतारों के बोझ में उन कथाओं में जिंदा है
जिन्हें
गाता है आज भी
मेरा
भाई आंगन-पटांगण
मेरे
ही पुरखे हैं जिनकी कथाओं में आज भी जीने की कसक है
स्वाभिमान
के साथ....मेरे चरवाहे पुरखों के कंठ से पहाड़ी जलस्रोत से फूटते थे
जिनकी
दुनाली मुरली में बसता था
मेहनत
से उपजा संसार का महान सौंदर्यशास्त्र।
मेहनत
से उपजा यही सौंदर्यशास्त्र अनिल की कविताओं का सौंदर्यशास्त्र है, इसलिए उनकी अधिकांश कविताएं पसीने के गंध से सुवासित हैं। अनिल पुरखों में
अपनी पहचान की शिनाख्त करते हुए इतिहास में उनके साथ शुरू हुए शोषण-उत्पीड़न को
तार्किक ढंग से वर्तमान से जोड़ते हैं-
उस
समय भी समुद्र मंथन का सारा विष
परिधि
पर खड़ा मेरा पुरखा पी रहा था
आज
भी मथे जा रहे हैं पहाड़,पर्वत,नदियां,समंदर
आज
भी पी रही है मेरी पीढ़ी विष
आज
भी पहाड़ बने हुए हैं
जीते
जी उनके स्वर्गारोहण की सीढ़ी।
वह
जानते हैं चूसे जाने की यह श्रृंखला पहाड़ तक ही सीमित नहीं है बल्कि-
मैं
भी उसी कतार में खड़ा हूं जिस कतार में खड़े हैं मेरे भाई
काले
हब्शी,अफ्रीकी,बलूची,आदिवासी अब
फिलिस्तीनी भी।
इस
तरह उनकी कविता स्थानीयता की जमीन से पैदा होकर वैश्विकता के आकाश में फैलती है।
वह साफ-साफ कहती है,‘धरती के किसी भी जगह होते हैं पहाड़।’ और इन पहाड़ों में रहने वालों के संघर्ष सभी जगह लगभग
एक जैसे हैं। सभी जगह पहाड़ों को काटा-पीटा-लूटा-डूबाया जा रहा है। उनकी छाती को
चीरा जा रहा है। उनके गर्भ में छुपे अमूल्य संसाधनों को लूटा जा रहा है। उसे विकृत
किया जा रहा है। दुनिया के सबसे ऊंचे पहाड़ों को जीतने के लिए अपने झंडों और
औजारों को ढोने के लिए उनके रहवासियों की पीठों का इस्तेमाल किया जा रहा है। इतना
ही नहीं उन्हीं के कंधों पर चढ़कर लोकतंत्र पर कब्जा किया जा रहा है। उनके संतानों
की चीख-पुकार को अनसुना किया जा रहा है। लेकिन कवि उन्हें बहुत गहराई से सुनता है,
वह पहाड़ को ‘पहाड़’बनाने
वाली इजाओं(मां) की ताकत को जानता है और कहता है-
जिन्होंने
पहली बार मशाल जलाकर
अंधेरी
रातों में घर से बाहर निकलना सिखाया मुझे
जिन्होंने
बताया रास्ते पार करना
बीहड़ों
में गीत गाना
पहाडि़यों
पर पैर जमाना
और
अपने हिस्से की हरियाली को काटना
दुर्गम
बीहड़ों से।
यह
कवि की कोरी भावुकता नहीं है बल्कि पहाड़ की स्त्री की हकीकत है। पहाड़ यदि बचा है
तो यहां की स्त्रियों की बदौलत ही बचा है। तमाम कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने
पहाड़ी नदियों के मानिंद बहने का जज्बा बनाए रखा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘इनका हौंसिया पराण बहुत चीमड़ है।’ दो रोटी की तलाश
में पहाड़ से नीचे उतर चुके पुरुषों की अनुपस्थिति में पहाड़ के घर-बार, खेती-बाड़ी, तीज-त्यौहार, जल-जंगल-जमीन
इन्हीं के भरोसे तो बचे हैं। वह ‘मरके भी नहीं छोड़ती अपनी
जमीनें’। हर दुःख में देती हैं लड़ने का हौंसला अपने ‘संगज्यों’ को। दसियों किलोमीटर पैदल चलकर सामुदायिक
स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंच जन्म देती हैं बच्चे को। कवि का यह प्रश्न बहुत गहरे तक
तक सोचने को विवश करता है-
सोचो
एक दिन
ये
नदियां बहना छोड़ देंगी जब
तब
बचेगा ही क्या
पहाड़
के पास।
यही
स्त्री तो है ‘जिसके होने में महकता रहा मध्य हिमालय का लोकजीवन।’ जिसके
‘भ्यासपन में ही छिपा है उसका सौंदर्य।’ जिसके पास है लोकज्ञान की अनूठी गठरी। ये पहाड़ों पर नमक बोती हैं।
उगता
है उनका नमक
अपनी
ही बरसातों में
अपने
ही एकांत में
अपनी
ही काया में
अपनी
ही ठसक में।....करती हैं वे संबोधित
अपनी
ही भाषा में
अपने
ही अनगढ़ शब्दों में पहाड़ को......उनका यह महकदार नमक सीझता नहीं
बल्कि
बिखर जाता है....नमक बोती हुई औरतें
थकती
नहीं
या
कि उन्हें थकना बताया ही नहीं गया है....
वह
अपने पतियों के बिना भी रहती हैं खुश
पति
उनके लिए केवल
होते
हैं पति
या
फिर फौजी कैंटीन के सस्ते सामान की तरह.....
महकदार
नमक लिए
चलती
हैं हमेशा.....अपने देशाटन गए
पतियों
से वे करती आई हैं
विद्रोह।
पहाड़
की यह स्त्री दोहरा संघर्ष करती है-पहला, पुरुषवादी समाज से
और दूसरा, प्रकृति से। पुरुषवादी समाज से उसकी लड़ाई तो
देश-दुनिया की आम औरत की तरह ही है, लेकिन पहाड़ों में उसकी
एक और लड़ाई प्रकृति से है। घास-लकड़ी लाने जंगल गए तो कभी जंगली जानवरों के हाथों
तो कभी घास-लकड़ी बटोरते खड़ी चट्टान से लुढ़कर गिरने की खबरें आम हैं। यह पहाड़ी
स्त्री का एक ऐसा संघर्ष है जो उसे नगरों में रहने वाली स्त्रियों से अलगाता है।
अनिल पहाड़ी स्त्री के प्रकृति के इस संघर्ष को भी अपनी कविताओं का विषय बनाते
हैं-
अपने
इतिहास और अपनी लड़ाइयों में
वे
राजधानी से दूर
किस
तरह होती हैं शामिल
किस
तरह होती हैं शहीद
किस
तरह करती हैं गर्व
किस
तरह उगती हैं ढलानों पर
किस
तरह भींच लेती हैं जमीनों को अपनी जड़ों से।
पहाड़
की औरतों का एक और यथार्थ सीमाओं में तैनात फौजियों की पत्नी के रूप में हैं। आपको
पहाड़ में ऐसी सैकड़ों औरतें मिल जाएंगी जो अपनी पूरी जवानी फौज में तैनात अपने
पति की यादों में ‘सैनिकों के कार्यक्रम रेडियो पर सुनते हुए’ काट देती
हैं। या शहीद की विधवा का गौरव लिए खुलकर रो भी नहीं पाती हैं। अनिल ‘उन अबोध सत्रह साला इजाओं की चीखें सुनते हैं और उस पीड़ा को महसूस करते हैं ‘जो अपने सैनिक पतियों से सालों नहीं मिली।’ इस चीख
को भी बहुत मार्मिक ढंग से अपनी अनेक कविताओं में अभिव्यक्त करते हैं। कवि पति की
याद में डूबी इन औरतों को-‘उजाड़ बाखलियों-सा/निराश आंगनों-सा/झड़
चुकी हरी पपड़ी वाले अखरोट-सा’ देखता है। कितना मर्मबेधी
बिंब है। एक विरहणी का इससे जीवंत वर्णन क्या हो सकता है भला। यह अनिल की बहुत बड़ी ताकत है कि वह अपनी कविताओं
के रूपक और बिंब अपने ही लोकजीवन से उठाते हैं और ऐसे जो शायद ही कभी किसी कविता
में आए हों। देखिए, कितनी अनूठी पंक्तियां हैं-
अब
जब इस वक्त मैं तुम्हारे साथ नहीं हूं
उदासी
के कंठ में चुभती है हाड़फोड़ ठंड
लेकिन
तुम्हारे साथ गुजारा हुआ
हर
क्षण मेरी नसों में
कबूतर
के गर्म जवां खून की तरह बहा करेगा आजीवन।
अनिल
की कविता लोक की जीवटता और प्रकृति से लड़ने की उसकी ताकत से अपने पाठकों को
परिचित कराती है। वह बताती है कि कैसे आपदा में सब कुछ खो चुकने के बाद भी वे उठ
खड़े होते हैं,दरकते पहाड़ों के सीने के बीच से पगडंडी बनाते हैं और पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी
पर फिर से अपने घर और खेत बना लेते हैं-
वे
झगड़ते हैं देवताओं से
चीरते
हैं नदियों के सीने
भिड़ते
हैं पहाड़ों से
कहते
हैं शेर को बणबिल्ली
आश्चर्य!
फिर
भी वे दुष्यंत के पुत्र भरत नहीं होते
जिसके
नाम पर रखा जा सके किसी देश का नाम।
अंत
में यहां एक बड़ा सवाल भी खड़ा कर देते हैं। एक ऐसा सवाल जो हाशिए में पड़े लोगों
के प्रति मुख्यधारा के समाज के व्यवहार को प्रदर्शित करता है। संकेतों ही संकेतों
में सही लक्ष्य पर निशाना साधना ,यही तो है एक अच्छी कविता की
विशेषता।
अनिल
एक ऐसे भूगोल से जुड़े हैं जिसे हमें आनंदोलन के भूगोल के रूप में जानते हैं। पृथक
राज्य निर्माण को लेकर उत्तराखंड के निवासियों ने एक लंबा आंदोलन किया। इस आंदोलन
से वहां रहने वालों की गहरी आशा-आकंाक्षाएं जुड़ी रही। स्थानीय निवासियों को लगता
था कि पहाड़ी राज्य बन जाने से सरकार की नीतियों का निर्माण और क्रियान्वयन उनकी
आशाओं-अपेक्षाओं और जरूरतों के अनुरूप होगा। जल-जंगल-जमीन में पूरी तरह समुदाय का
नियंत्रण रहेगा। ‘शराब नहीं-रोजगार दो’ जैसी चिर परिचित मांग पूरी
होगी। पहाड़ी स्त्री के पीठ और मन का बोझ कम होगा। पहाड़ का पानी और पहाड़ की
जवानी पहाड़ के काम आएगी। पहाड़ के पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन स्थापित होगा।
यहां की प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक विविधता इस राज्य की पहचान बनेगी। लेकिन हुआ कुछ
अजीब-अजीब ही। राज्य बनने के बाद छुटभैया नेताओं के बल्ले-बल्ले हो गए, जो एक ब्लॉकप्रमुख बनने की योग्यता नहीं रखते थे, केबिनेट
मंत्री बन गए। माफियाओं की नई-नई प्रजातियां पनप आई। गांव वाले खुद को अपने ही
गांव में भी सुरक्षित नहीं महसूस कर रहे हैं। पता नहीं किस ‘जिंदल’
के बाउंसर उनके सिर को फोड़ डालें, कहना
मुश्किल हैं। संघर्षशील ताकतों में बिखराव देखने में आ रहा है। राज्य ‘बिना तंत्र की कुर्सी की भेंट चढ़ गया’ है। लोक की
उम्मीदें उदासियों में बदलती जा रही हैं। ये उदासियां अनिल की कविताओं में जगह-जगह
व्यंजित होती हैं। वह इस उदास बखत के ‘रमोलिया’ के रूप में सामने आते हैं और ‘राजा’ के प्रति अपने गहरे आक्रोश को प्रकट करते हैं। प्रकारांतर से यह उस लोक का
आक्रोश है जो आज राज्य को लेकर देखे गए सपनों को टूटते देख खुद को ठगा सा महसूस कर
रहा है। वह कुछ ऐसा कहने को मजबूर है-
तेरी
गुद्दी फोड़ गिद्द खाए
तेरे
हाड़ सियार चूसे
चूहे
के बिलों में धंसे तेरे अपशकुनी पैर
लमपुछिया
कीड़े पड़े तेरी मीठी जुबान में
तेरी
आंखों में मक्खियां भनके
आदमी
का खून लगी तेरी जुबान
रह
जाए डुंग में रे
नाम
लेवा न बचे कोई तेरा।
कवि
यहां केवल आक्रोश ही नहीं व्यक्त करता है बल्कि स्थितियों को बदलने के लिए
श्रमजीवी वर्ग को जगाता भी है,जो खेत के कामगार और जमीन के
दावेदार हैं। उनसे कहता है-
गांव
की सीवान से लेकर
शहर
की चौबटिया तक हर जगह लुट रहे हैं रे तेरे लाल
....रजवाड़े
अल्पसंख्यक होकर आरक्षण खा रहे हैं
हल
बाने वाले अब भी
हल
बा रहे हैं
...
इसलिए
कवि उनसे अपने पुरखों की संघर्षशील परंपरा को अपने भीतर जगाने की अपील करता है-
ए
हो मेरे पुरखो
जागो
जागो रे
मेरे
भीतर जागो
इस
बखत के बीच में।
.....काट
रे काट जाल
पौ
फाड़
पूरब
की दिशा जगा
जगा
रे सूरज के घोडि़यों को जगा।
अच्छी
बात है कि कवि उदास जरूर है लेकिन हताश नहीं है। उम्मीद का दिया उसके भीतर बलता
रहता है-
देखना
रे खिलेगा एक दिन जंगलों में बुरांस
भरेगा
एक दिन काफल में रस
भरेंगी
नदियां
कूदेगी
ताल की माछी
छींड़
का पानी फोड़ेगा
डांसी
पत्थर।
उनका
विश्वास है कि-
तांबई
बाहों वाले हमारे बच्चे
निकट
भविष्य में
पहाड़ों
के सर पर बजाएंगे
हरे
बांस की मुरली
........धीरे-धीरे
ही छटकेगा
कुहरा
आवाजें
और साफ
और
हमारे करीब होती जाएंगी
एक
दिन ...तोड़ देंगे जंगलों का मौन....
उदासियों
की कोख में जो बच्चे पल रहे हैं
वे
बड़े होंगे एक दिन
अपनी
कंचों भरी जेबों में समय को ठूंसते हुए
पार
करेंगे उम्र.....
पहचानेंगे
खामोशी की जुबां
उदासी
का मतलब
जेबों
से निकालेंगे समय
और
कंचों की तरह बिखेर देंगे
इतिहास
के पृष्ठों पर।
‘उम्मीदों का लालिमा भरा चेहरा’ उनकी कविताओं के
हाथों में दमकता हुआ दिखाई देता है। कवि घंटों सोचता है उम्मीद के बारे में ,घंटों चुप रहता है उम्मीद के लिए और घंटों बोलता है उम्मीद पर। यही उसे
जनता का कवि बनाता है। उनका दृढ़ विश्वास है कि ‘हमारे उदास
दिन अपना रंग बदलेंगे’ लेकिन ये कब बदलेंगे? जब-‘हमारी अपनी धरती का ओर-पोर/हमारे ही पसीने की
नदी में/हरियायेगा।’ इसके लिए हमें अपने ‘आक्रोश और सपनों’ को एक साथ मिलाना होगा। कवि को इस
बात की गहरी समझ है कि जो भी बदलाव आएगा वह श्रम करने वालों की एकजुटता और संघर्ष
से ही आएगा। यही संघर्षशील तबका है। इसी वर्ग की ताकत पर विश्वास करता हुआ वह
शोषणकारी-दमनकारी और लूटेरी व्यवस्था को चेतावनी देता है-याद रखना!/कविता के खत्म
होने का मतलब/हमेशा तालियों का बजना हो जरूरी नहीं/वह पहली और अंतिम चेतावनी भी हो
सकती है/तुम्हारे लिए।’ कवि का यह स्वर बहुत प्रीतिकर लगता
है। एक ‘दरिन्दे समय के विरुद्ध’ अनिल
की कविता पूरी दृढ़ता के साथ गूंजती हैं। उम्मीदों से भरे इस युवा कवि से हिंदी
कविता को भी बहुत अधिक उम्मीद है कि यह ‘जीवन में रोटियों की
तरह’ की कुछ यादगार अवश्य कविताएं देगा। पूरा विश्वास है कि
इस आवाज और इस नजर को कोई भी धन्ना सेठ या सत्ता की ताकत बेच नहीं पाएगी और न ही
कोई उसके आंखों के समंदरों पर नागफनी उगा
पाएगा।
***