गहरे आक्रोश में डूबी ये कविताएं, कविता होने के पारम्परिक विधान को भी मुंह चिढ़ाती हैं। इनके कथ्य पर बहस हो और क्राफ़्ट पर भी - यही इन कविताओं की आंकाक्षा है आर सफलता है। सदियों के संताप का मुहावरा अब बहुत मुखर होकर सामने है। अन्याय जब तक रहेगा, ये ज़मीन असल इंसान के रहने-बसने काबिल नहीं बनेगी, तब तक समाज के कानों के परदों को भेदता ये आक्रोश गूंजता रहेगा। यह साहस अब संकल्प बन कर हमारे सामने है।
अनुनाद अपने कवि का स्वागत करता है और उन्हें कविताएं भेजने के लिए शुक्रिया भी कहता है। असंग घोष का नया संग्रह अभी शिल्पायन प्रकाशन के अनुषंग प्रकाशन सान्निध्य से प्रकाशित हुआ है।
अपने सांड़ को बांध ले
ये सांड़
जिसके पुट्ठे को
तूने चिन्ह कर
छोड़ दिया हैं
गलियों-बाजारों में
घूमता हुआ
हमारे खेतों में
फसलों को चौपट करने
घूस आता है बार-बार,
भले ही इसे छोड़ा होगा तूने
अपने धर्म की खातिर
अब तू बांध ले इसे
मेरे सब्र का बाँध
फट पड़ने को हैं,
अब बांध ले
तू इसे
या
मैं कर दूंगा
इसका काम तमाम
फिर ना कहना
कि मैंने तुझे चेताया नहीं।
***
बनानी होगी सुरक्षा पाल
आसमान में
मण्डराते
गिद्धों के झुण्ड
अपनी पैनी निगाहों से
हमारे दुर्बल शरीर को खोजते
हमारी लाशों पर
टूट पड़ने
किसी दिन
मण्डराना छोड़
अपना निवाला बनाने
नीचे जमीन पर
उतर ही आऐंगे,
ऐसे किसी दिन के
आने से पहले ही
इन गिद्धों से
खुद को बचाने
हमें ही बनाना होगी
अपनी सुरक्षा पाल।
***
मनुवादी न्याय
(स्मृतिशेष नामदेव ढसाल से प्रेरित एवं उन्हीं को सादर समर्पित)
मनु!
वही जो चित्त सोई थी
तेरे साथ
आज
अपनी पहचान छिपाने
आँखों पर पट्टी बांध
भांजी और डाण्डी
मारती हुई चुड़ैल!
न्याय की मूर्ति बन
खड़ी है
कुर्सी के पीछे
आज़ादी के
सालों बाद भी
पैसों के लिए भड़वों के साथ
वह सोने को हर वक्त तैयार,
मनु !
तेरे चेले
तेरी ही
परम्परा का निर्वहन करते
लेट जाते है बार-बार
इस अंधी देवी के साथ,
तुम अपना भेजा लगाकर
कमियाँ ढूंढ़ते हो,
और
इस अन्यायी देवी से
खुद के हक में न्यायदान पाते हो
जो हर बार तराजू को एक ओर रख
सो जाती है
पैसों के साथ,
उठकर फिर से
आँखों पर पट्टी बांधे
बार-बार खड़ी हो जाती है
कांटी-डांडी मारने
मनु!
मैं किसी दिन
तराजू
काली पट्टी
सहित उठाकर
कैथा की तरह दे मारूँगा,
तेरे सिर पर
इसे ।
***
मैं बनाता रहूँगा वसूले की धार
मैं
वसूला लिए
अपने हाथों छिलता हूँ
तुम्हारी गांठ
बार-बार
कि वह छिलती नही
चिकनाते हुए
बहुत गहरे पैठ गई है
उस पर किंचित खरोंचें आती है
मेरे किए वार से
हर बार
मेरे वसूले की ही धार
भोथरी हो जाती है
किन्तु मैं कतई विचलित नही हूँ
ना कभी विचलित होऊंगा
रोज लगाऊँगा
इस वसूले पर धार
तेरी गांठ
कब तक
अपनी जड़ों से बिंधी रहेगी
एक ना एक दिन
कटना ही होगा इसे
और उस दिन के इंतजार में ही
बार-बार
मैं घिसता रहूँगा वसूला
करता रहूँगा
इसकी धार
तेज ओर तेज....
***
***
देखते रहना!
जिस किताब को
आँगन के बाहर
औसारे में रखे पीढ़े पर
तुम बैठ पढ़ते रहे
और देते रहे
हमारे विरुद्ध
फतवा!
हाँकते रहे
तुम्हारे कारिंदे
हमें खेतो में
बैलों की जगह जोत कर
कराने बेगार।
हम घेरते रहे
तुम्हारा खिरका
बाड़े में लाकर
छोड़ते रहे
तुम्हारें ढौर
मुट्ठीभर अन्न की खातिर,
फिर भी तुम
ऐरा¤
में छोड़ते रहे उन्हें
जिन्हें अपनी माँ
कहते नही अधाते हो
माँ को
कोई कहीं ऐसे
ऐरा में छोड़ता है?
मैं!
आज कोई सवाल
नही कर सकता तुमसे
लेकिन कहता हूँ
एक दिन
तुम्हारी आँखों की
किरकिरी बन गड़ जाऊँगा
अपने हथेलियों में सजा
अपनी किताब
अगली पुश्तों को सौपूँगा
उस समय तुम
उल्लू की तरह
सिर्फ देखते रहोगे मुझे।
***
¤ ऐरा - पशुओं को आवारा छोड़ने की प्रथा।
बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteबिलकुल अलग तेवर की कविताएँ
ReplyDeleteBahut khub sir
ReplyDeleteBahut khub sir
ReplyDeleteBahut khub sir
ReplyDeleteBahut khub sir
ReplyDeleteBahut khub sir
ReplyDeleteBahut khub sir ji
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