Wednesday, October 14, 2015

लाल्टू की नई कविताएं


मुझे कुछ ही देर पहले ये कविताएं मिली हैं और मैं इन्हें एक सांस में पढ़ गया हूं। आज और अभी के हिंसक प्रसंगों के बीच कविता के पास प्रतिरोध एक सहेजने लायक पूंजी है। लाल्टू की कविताओं की ये भीतरी आग और उसके रिसाव बंजर पठारों पर बहती मैग्मा की धाराओं सरीखे हैं, जो जलाती तो हैं पर पीछे उर्वर धरा छोड़ जाती हैं। 

अब हर कोई अखलाक है
हर कोई कलबुर्गी
हर कोई अंकारा में है
हर कोई दादरी में है
हर प्राण फिलस्तीन है


इन कविताओं के लिए शुक्रिया मेरे प्रिय कवि। 
 
देखो, हर ओर उल्लास है

1
पत्ता पत्ते से
फूल फूल से
क्या कह रहा है

मैं तुम्हारी और तुम मेरी आँखों में
क्या देख रहे हैं

जो मारे गए
क्या वे चुप हो गए हैं?

नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं
पत्तों फूलों में गा रहे हैं
देखो, हर ओर उल्लास है।

2

बच्चा क्या सोचता है
क्या कहता है
देखता है प्राण बहा जाता सृष्टि में

चींटी से, केंचुए से बातें करता है
उँगली पर कीट को बैठाकर नाचता है कि
कायनात में कितने रंग हैं
यह कौन हमारे अंदर के बच्चे का गला घोंट रहा है
पत्ता पत्ते से
फूल फूल से पूछता है
मैं और तुम भींच लेते हैं एक दूजे की हथेलियाँ

जो मारे गए
क्या वे चुप हो गए हैं?

नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं
पत्तों फूलों में गा रहे हैं
देखो, हर ओर उल्लास है।

3

लोग हँस खेल रहे हैं
ऐसा कभी पहले हुआ था

बहुत देर लगी जानने में कि एक मुल्क कैदखाने में तब्दील हो गया है
धरती पर बहुत सारे लोग इस तकलीफ में हैं
कि कैसे वे उन यादों की कैद से छूट सकें
जिनमें उनके पुरखों ने हँसते खेलते एक मुल्क को कैदखाना बना दिया था

इसलिए ऐ शरीफ लोगो, देखो
हमारी हथेलियाँ उठ रहीं हैं साथ-साथ
मनों में उमंग है
अब हर कोई अखलाक है
हर कोई कलबुर्गी
हर कोई अंकारा में है
हर कोई दादरी में है
हर प्राण फिलस्तीन है

हमारी मुट्ठियाँ तन रही हैं साथ-साथ
देखो, हर ओर उल्लास है।

4

हवा बहती है, मुल्क की धमनियों को छूती हवा बहती है
खेतों मैदानों पर हवा बहती है
लोग हवा की साँय-साँय सुनने को बेताब कान खड़े किए हैं
हवा बहती है, पहाड़ों, नदियों पर हवा बहती है
किसको यह गुमान कि वह हवा पर सवार
वह नहीं जानता कि हवा ढोती है प्यार

उसे पछाड़ती बह जाएगी
यह हवा की फितरत है

सदियों से हवा ने हमारा प्यार ढोया है

जो मारे गए
क्या वे चुप हो गए हैं?

नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं
पत्तों फूलों में गा रहे हैं
देखो, हर ओर उल्लास है।
*** 
 
बुद्ध को क्या पता था

1

("कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती”)

बहते हैं और नहीं बहते हैं
कि कोई आकर थाम ले इन आँसुओं को
रोना नहीं है रोना नहीं है कह ले

कहीं तो जाने का मन करता है
कहाँ जाऊँ

महानगर में सड़क किनारे बैठा हूँ
देखता हूँ एक ऊँट है चल रहा धीरे-धीरे
उसकी कूबड़ के साथ बिछावन के रंगों को देखता हूँ
उस पर बैठे लड़के को देखता हूँ

है, उम्मीद है, अंजाने ही उसे कहता हूँ
कि सारे तारे आस्मां से गायब नहीं होंगे
अँधेरे को चीरता टिमटिमाएगा आखिरी नक्षत्र
रचता रहेगा कविता गीत गाता रहेगा

उठता हूँ
कोई पूछता है
कि कब तक उम्मीदों का भार सँभालोगे
फिलहाल इतना ही निजी इतना ही राजनैतिक
चलता हूँ राजपथ पर।

सोचते रहो कि एक दिन सब चाहतें खत्म हो जाएँगीं
नहीं होंगी
ऐसे ही तड़पते रहोगे हमेशा
दूर से वायलिन की आवाज़ आएगी
पलकें उठकर फिर नीचे आ जाएँगीं
कोई नहीं होगा उस दिशा में
जहाँ कोई तड़प बुलाती सी लगती है

देह खत्म भी हो जाे
तो क्या
हवा बहेगी तो उड़ेगी खाक जिसमें तुम रहोगे
हवा की साँय-साँय से दरों-दीवारों की खरोंचों में
तुम जिओगे ऐसे ही रोते हुए
बुद्ध को क्या पता था कि खत्म होने के बाद क्या होता है
तुम जानोगे
जब रोओगे उन सबके लिए
जिन्हें भरपूर प्यार नहीं कर पाए।

2

मारते रहो मुझे बार बार
मैं और नहीं कहूँगा तुम्हारे बारे में
मुझे कहना है अपने बारे में
मैं प्यार में डूबा हूँ
अपने अवसाद अपने उल्लास में डूबा हूँ

मार दो मुझे कि मैं तुम्हारे खिलाफ कभी न कह सकूँ
सिर्फ इस वजह से मैं रोऊँगा नहीं
नहीं गरजूँगा
नहीं तड़पूँगा
रोने को मुहब्बत हैं कम नहीं ज़माने में
ग़मों के लिए मैं नहीं रोऊँगा।
*** 
 
डर

मैं सोच रहा था कि उमस बढ़ रही है
उसने कहा कि आपको डर नहीं लगता
मैंने कहा कि लगता है
उसने सोचा कि जवाब पूरा नहीं था
तो मैंने पूछा - तो।
बढ़ती उमस में सिर भारी हो रहा था
उसने विस्तार से बात की -
नहीं, जैसे खबर बढ़ी आती है कि
लोग मारे जाएँगे।
मैंने कहा - हाँ।
मैं उमस के मुखातिब था
यह तो मैं तब समझा जब उसने निकाला खंजर
कि वह मुझसे सवाल कर रहा था।
*** 
 
वे सुंदर लोग

आज जुलूस में, कल घर से, हर कहीं से
कौन पकड़ा जाता है, कौन छूट जाता है
क्या फ़र्क पड़ता है
मिट्टी से आया मिट्टी में जाएगा
यह सब किस्मत की बात है
इंसान गाय-बकरी खा सकता है तो
इंसान इंसान को क्यों नहीं मार सकता है?

वे सचमुच हकीकी इश्क में हैं
तय करते हैं कि आदमी मारा जाएगा
शालीनता से काम निपटाते हैं
कोई आदेश देता है, कोई इंतज़ाम करता है
और कोई जल्लाद कहलाता है

उन्हें कभी कोई शक नहीं होता
यह खुदा का करम यह जिम्मेदारी
उनकी फितरत है

हम ग़म ग़लत करते हैं
वे
पीते होंगे तो बच्चों के सामने नहीं
अक्सर शाकाहारी होते हैं
बीवी से बातें करते वक्त उसकी ओर ताकते नहीं हैं
वे सुंदर लोग हैं।

हमलोग उन्हें समझ नहीं आते
कभी कभी झल्लाते हैं
उनकी आँखों में अधिकतर दया का भाव होता है
अपनी ताकत का अहसास होता है उन्हें हर वक्त

हम अचरज में होते हैं कि
सचमुच खर्राटों वाली भरपूर नींद में वे सोते हैं।
वे सुंदर लोग।

1 comment:

  1. लाल्टू जी की इन सामयिक और सशक्त कविताओं के क्या कहने ! तेवर दार और धार दार !!

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