Friday, October 30, 2015

कृष्ण कल्पित की बारह कविताएं



कवि कृष्ण कल्पित भारतनामा शीर्षक से कविता की एक सिरीज़ लिख रहे हैं। उनके जन्मदिन के अवसर पर बधाई देते हुए इसी सिरीज़ से बारह कविताएं। ये कविताएं उसी क्रम में नहीं हैं, जिसमें कवि द्वारा इन्हें प्रस्तुत किया गया है। वहां कविताओं की संख्या सौ पर पहुंचने को है, मैंने बारह का चयन किया है। 


1
कभी का धूल-धूसरित हो जाता यह देश
बिखर जाता

टुकड़ों-टुकड़ों में विभक्त हो जाता

लेकिन इस महादेश को
अभावों ने कसकर थाम रखा था


ग़रीबों की आहें
हमारी प्राण-वायु थी !

***
2
खेत जोतने वाले मज़दूर
लोहा गलाने वाले लुहार
बढ़ई मिस्त्री इमारतसाज़
मिट्टी के बरतन बनाने वाले कुम्हार
रोज़ी-रोटी के लिये
पूरब से पश्चिम
उत्तर से दक्षिण

हर सम्भव दिशा में भटकते रहते थे

ये भूमिहीन लोग थे
सुई की नोक बराबर भी जिनके पास भूमि नहीं थी

बस-रेलगाड़ियाँ लदी रहती थीं
इन अभागे नागरिकों से


अब कहीं दूर-देश जाने की ज़रूरत नहीं थी
अपने ही देश में
निर्वासित थे करोड़ों लोग !

***
3
मैं बहुत सारी किताबों की
एक किताब बनाता हूँ


मैं कवि नहीं
जिल्दसाज हूँ

जो बिखरी हुई किताबों को बांधता है

किताबें जलाने वाले इस महादेश में
मैं किताब बचाने का काम करता हूँ !

***
4
वरमद्य कपोत: श्वो मयूरात् !
( आज प्राप्त कबूतर कल मिलने वाले मयूर से अच्छा है ! )


वरं सांशयिकान्निष्कादसांशयिक: कार्षापण:
इति लौकायतिका: !
( जिस सोने के मिलने में सन्देह हो उससे वह ताम्बे का सिक्का अच्छा जो असन्दिग्ध रूप से मिल रहा हो । यह लौकायतिकों का मत था ! )


अलौकिक लोगों के अलावा इस देश में
लौकिक लोग भी रहते थे


***  
5
ख़ामोश हो गया हूँ
अपने ही देश में


जब-जब खोलता हूँ ज़बान
बढ़ती जाती है दुश्मनों की कतार


कहाँ से लाऊँ प्रेम की बानी
अपनी आत्मा के दाग़ लेकर
किस घाट पर पर जाऊँ
किस धोबी किस रजक के पास


मेरी चादर मैली होती जाती है !
***
6
किसी ने मेरे भारत को देखा है
किसी ने


एक फटेहाल स्त्री
इस महादेश के फुटपाथों पर भटकती थी
अपने भारत को खोजती हुई


जैसे अपने खोये हुये पुत्र को !
***
7
आज भारतवंशी करोड़ों जिप्सी
यूरोप से लेकर सारी दुनिया में भटकते हैं

उनके क़ाफ़िले बढ़ते ही जाते हैं

एक पढ़-लिख गये जिप्सी ने
बड़ी वेदना से 1967 में अपने देश को याद करते हुये अपनी डायरी में यह दर्ज़ किया :
हम अपने छूटे हुये देश को कितना याद करते हैं लेकिन लगता है हमारा देश हमें भूल गया है । कितनी हसरत से मैं जवाहरलाल नेहरू लिखित 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' ख़रीद कर लाया लेकिन उसमें हमारे बारे में, अपने विस्मृत बंधुओं के लिये, एक शब्द भी नहीं है


ओ बंजारो
ओ जिप्सियो
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ मेरे बिछुड़े हुये भाइयो


इस महादेश का एक कवि
अश्रुपूरित नेत्रों से तुमको याद करता है !

***
8
इब्न बतूता मोराको से हिंदुस्तान आया था
 

उसने अपने प्रसिद्ध यात्रा-वृत्तांत में
अपने ख़ैर-ख़्वाह मुहम्मद तुग़लक़ के बारे में लिखा है :
शायद ही कोई दिन जाता हो कि
बादशाह किसी भिखमंगे को धनाढ्य न बनाता हो
और किसी मनुष्य का वध न करता हो


प्रसिद्ध दानवीरों ने अपनी समस्त आयु में
इतना दान नहीं किया होगा
जितना तुग़लक़ एक दिन में करता था

ऐसा न्यायप्रिय और आदर-सत्कार करने वाला
कोई दूसरा मुहम्मद तुग़लक़ की बराबरी नहीं कर सकता

कोई सप्ताह भी ऐसा नहीं बीतता था जब यह सम्राट ईश्वर-भक्तों माननीयों धर्मात्मा सैयदों वेदान्तियों साधुओं और कवियों-लेखकों को न बुलवाता हो
और उनका वध करके
रुधिर की नदियाँ न बहाता हो


विद्वानों कवियों लेखकों विचारकों को
मुहम्मद तुग़लक़ ईनाम देकर मार देता था
या तेग़ से उनका सर काट देता था


मुहम्मद तुग़लक़ उनको दोनों तरह से मार देता था !
***
9
इस देश के बंजारे
जिप्सियों का भेस धरकर
पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं


सिकंदर लोदी के समय
जिन्हें खदेड़ा गया था अपने देश के बाहर

कल के बंजारे
आज के जिप्सी
 

उतने ही चंचल मदमस्त
गीत गाते हुये परिव्राजक

उनकी दृढ मान्यता है कि
अंतिम जिप्सी व्यक्ति
पाश्चात्य दुनिया के बिखरे हुये खंडहरों से
अपना रास्ता खोजते हुये
अपने खोये हुये देश भारत लौटेगा


यह महादेश
निर्वासित बंजारों का गंतव्य है !

***
10
शताब्दियों बाद आज भी
वह पुष्करणी प्रवाहित है
जिसमें कभी वैशाली की नगरवधू
अपने चरण पखारती थी


खरौना पोखर की निर्मल जल-धारा में
आज भी आम्रपाली की
देह-गंध बसी हुई है


वह अपार-सौंदर्य
बुद्ध की अपार-करुणा के सिवा कहाँ समाता


और काल की क्रूर सड़क पर
साइकिल का चक्का दौड़ाता हुआ
वह नंग-धड़ंग बच्चा !

***
11
इस देश का समस्त प्राच्य-साहित्य
उत्कृष्ट श्रेणी की मेधा
और उत्कृष्ट श्रेणी की ठगी के मिश्रण से बना

बेसुध कर देने वाला आसव है

यह कोई कम करामात नहीं कि
शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ-याग को
कितनी कुशलता से रंग-राग में बदल दिया गया है :
हे गौतम स्त्री अग्नि है उसकी इन्द्रियाँ समिधा है लोम धुंआ है योनि लौ है सहवास अंगारा है और आनन्द चिंगारियाँ हैं
इस अग्नि में देव वीर्य आहुति से पुरुष उत्पन्न होता है जब तक आयु है जीता है
मरने पर उसको अग्नि तक ले जाते हैं


इस महादेश में कामक्रीड़ा भी एक तरह का यज्ञ थी
और यज्ञ भी एक तरह की कामक्रीड़ा !

***
12
कितने रजवाड़े मिट गये
कितने साम्राज्य ढ़ह गये
कितने राजप्रासाद ढ़ेर हो गये

कितने राजा बादशाह सामन्त सुलतान शहंशाह वज़ीरे-आज़म और राष्ट्राध्यक्ष
इस महादेश की मिट्टी में मिल गये


फिर आता है कोई नया तानाशाह
सत्ता-मद में चूर
लोकतंत्र का नगाड़ा बजाता
भड़कीले वस्त्रों में भड़कीली भाषा बोलता हुआ

जिसे देखकर डर लगता है
कलेजा कांप जाता है
उसका भयानक हश्र देखकर


किसी से भी पूछकर देखो
इस देश की गली-गली में भविष्य-वक्ता पाये जाते हैं !

***

Wednesday, October 14, 2015

लाल्टू की नई कविताएं


मुझे कुछ ही देर पहले ये कविताएं मिली हैं और मैं इन्हें एक सांस में पढ़ गया हूं। आज और अभी के हिंसक प्रसंगों के बीच कविता के पास प्रतिरोध एक सहेजने लायक पूंजी है। लाल्टू की कविताओं की ये भीतरी आग और उसके रिसाव बंजर पठारों पर बहती मैग्मा की धाराओं सरीखे हैं, जो जलाती तो हैं पर पीछे उर्वर धरा छोड़ जाती हैं। 

अब हर कोई अखलाक है
हर कोई कलबुर्गी
हर कोई अंकारा में है
हर कोई दादरी में है
हर प्राण फिलस्तीन है


इन कविताओं के लिए शुक्रिया मेरे प्रिय कवि। 
 
देखो, हर ओर उल्लास है

1
पत्ता पत्ते से
फूल फूल से
क्या कह रहा है

मैं तुम्हारी और तुम मेरी आँखों में
क्या देख रहे हैं

जो मारे गए
क्या वे चुप हो गए हैं?

नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं
पत्तों फूलों में गा रहे हैं
देखो, हर ओर उल्लास है।

2

बच्चा क्या सोचता है
क्या कहता है
देखता है प्राण बहा जाता सृष्टि में

चींटी से, केंचुए से बातें करता है
उँगली पर कीट को बैठाकर नाचता है कि
कायनात में कितने रंग हैं
यह कौन हमारे अंदर के बच्चे का गला घोंट रहा है
पत्ता पत्ते से
फूल फूल से पूछता है
मैं और तुम भींच लेते हैं एक दूजे की हथेलियाँ

जो मारे गए
क्या वे चुप हो गए हैं?

नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं
पत्तों फूलों में गा रहे हैं
देखो, हर ओर उल्लास है।

3

लोग हँस खेल रहे हैं
ऐसा कभी पहले हुआ था

बहुत देर लगी जानने में कि एक मुल्क कैदखाने में तब्दील हो गया है
धरती पर बहुत सारे लोग इस तकलीफ में हैं
कि कैसे वे उन यादों की कैद से छूट सकें
जिनमें उनके पुरखों ने हँसते खेलते एक मुल्क को कैदखाना बना दिया था

इसलिए ऐ शरीफ लोगो, देखो
हमारी हथेलियाँ उठ रहीं हैं साथ-साथ
मनों में उमंग है
अब हर कोई अखलाक है
हर कोई कलबुर्गी
हर कोई अंकारा में है
हर कोई दादरी में है
हर प्राण फिलस्तीन है

हमारी मुट्ठियाँ तन रही हैं साथ-साथ
देखो, हर ओर उल्लास है।

4

हवा बहती है, मुल्क की धमनियों को छूती हवा बहती है
खेतों मैदानों पर हवा बहती है
लोग हवा की साँय-साँय सुनने को बेताब कान खड़े किए हैं
हवा बहती है, पहाड़ों, नदियों पर हवा बहती है
किसको यह गुमान कि वह हवा पर सवार
वह नहीं जानता कि हवा ढोती है प्यार

उसे पछाड़ती बह जाएगी
यह हवा की फितरत है

सदियों से हवा ने हमारा प्यार ढोया है

जो मारे गए
क्या वे चुप हो गए हैं?

नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं
पत्तों फूलों में गा रहे हैं
देखो, हर ओर उल्लास है।
*** 
 
बुद्ध को क्या पता था

1

("कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती”)

बहते हैं और नहीं बहते हैं
कि कोई आकर थाम ले इन आँसुओं को
रोना नहीं है रोना नहीं है कह ले

कहीं तो जाने का मन करता है
कहाँ जाऊँ

महानगर में सड़क किनारे बैठा हूँ
देखता हूँ एक ऊँट है चल रहा धीरे-धीरे
उसकी कूबड़ के साथ बिछावन के रंगों को देखता हूँ
उस पर बैठे लड़के को देखता हूँ

है, उम्मीद है, अंजाने ही उसे कहता हूँ
कि सारे तारे आस्मां से गायब नहीं होंगे
अँधेरे को चीरता टिमटिमाएगा आखिरी नक्षत्र
रचता रहेगा कविता गीत गाता रहेगा

उठता हूँ
कोई पूछता है
कि कब तक उम्मीदों का भार सँभालोगे
फिलहाल इतना ही निजी इतना ही राजनैतिक
चलता हूँ राजपथ पर।

सोचते रहो कि एक दिन सब चाहतें खत्म हो जाएँगीं
नहीं होंगी
ऐसे ही तड़पते रहोगे हमेशा
दूर से वायलिन की आवाज़ आएगी
पलकें उठकर फिर नीचे आ जाएँगीं
कोई नहीं होगा उस दिशा में
जहाँ कोई तड़प बुलाती सी लगती है

देह खत्म भी हो जाे
तो क्या
हवा बहेगी तो उड़ेगी खाक जिसमें तुम रहोगे
हवा की साँय-साँय से दरों-दीवारों की खरोंचों में
तुम जिओगे ऐसे ही रोते हुए
बुद्ध को क्या पता था कि खत्म होने के बाद क्या होता है
तुम जानोगे
जब रोओगे उन सबके लिए
जिन्हें भरपूर प्यार नहीं कर पाए।

2

मारते रहो मुझे बार बार
मैं और नहीं कहूँगा तुम्हारे बारे में
मुझे कहना है अपने बारे में
मैं प्यार में डूबा हूँ
अपने अवसाद अपने उल्लास में डूबा हूँ

मार दो मुझे कि मैं तुम्हारे खिलाफ कभी न कह सकूँ
सिर्फ इस वजह से मैं रोऊँगा नहीं
नहीं गरजूँगा
नहीं तड़पूँगा
रोने को मुहब्बत हैं कम नहीं ज़माने में
ग़मों के लिए मैं नहीं रोऊँगा।
*** 
 
डर

मैं सोच रहा था कि उमस बढ़ रही है
उसने कहा कि आपको डर नहीं लगता
मैंने कहा कि लगता है
उसने सोचा कि जवाब पूरा नहीं था
तो मैंने पूछा - तो।
बढ़ती उमस में सिर भारी हो रहा था
उसने विस्तार से बात की -
नहीं, जैसे खबर बढ़ी आती है कि
लोग मारे जाएँगे।
मैंने कहा - हाँ।
मैं उमस के मुखातिब था
यह तो मैं तब समझा जब उसने निकाला खंजर
कि वह मुझसे सवाल कर रहा था।
*** 
 
वे सुंदर लोग

आज जुलूस में, कल घर से, हर कहीं से
कौन पकड़ा जाता है, कौन छूट जाता है
क्या फ़र्क पड़ता है
मिट्टी से आया मिट्टी में जाएगा
यह सब किस्मत की बात है
इंसान गाय-बकरी खा सकता है तो
इंसान इंसान को क्यों नहीं मार सकता है?

वे सचमुच हकीकी इश्क में हैं
तय करते हैं कि आदमी मारा जाएगा
शालीनता से काम निपटाते हैं
कोई आदेश देता है, कोई इंतज़ाम करता है
और कोई जल्लाद कहलाता है

उन्हें कभी कोई शक नहीं होता
यह खुदा का करम यह जिम्मेदारी
उनकी फितरत है

हम ग़म ग़लत करते हैं
वे
पीते होंगे तो बच्चों के सामने नहीं
अक्सर शाकाहारी होते हैं
बीवी से बातें करते वक्त उसकी ओर ताकते नहीं हैं
वे सुंदर लोग हैं।

हमलोग उन्हें समझ नहीं आते
कभी कभी झल्लाते हैं
उनकी आँखों में अधिकतर दया का भाव होता है
अपनी ताकत का अहसास होता है उन्हें हर वक्त

हम अचरज में होते हैं कि
सचमुच खर्राटों वाली भरपूर नींद में वे सोते हैं।
वे सुंदर लोग।

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