Wednesday, July 29, 2015

स्मरण में है आज जीवन : वसुंधरा ताई कोमकली - संदीप नाईक




“जब होवेगी उम्र पुरी, तब टूटेगी हुकुम हुजूरी, यम के दूत बड़े मरदूद, यम से पडा झमेला”
(पंडित स्व कुमार गन्धर्व की पत्नी पदमश्री वसुंधरा ताई का निधन )


“भानुकुल” आज उदास है ऐसा उदास वह 12 जनवरी 1992 को हुआ था जब भारतीय शास्त्रीय संगीत के मूर्धन्य गायक पंडित कुमार गन्धर्व ने अंतिम सांस ली थी, दुर्भाग्य से आज फिर माताजी के रास्ते वाले सारे पेड़ ग़मगीन है और भानुकुल में एक सन्नाटा पसरा है. भानुकुल देवास की टेकडी के नीचे बसा एक बँगला है जहां भारतीय संगीत के दो महान लोग आकर बसे और इस शहर के माध्यम से देश विदेश में भारतीय संगीत और खासकरके निर्गुणी भजनों की अनूठी परम्परा को फैलाया. इसी बंगले में पंडित कुमार गन्धर्व ने संगीत रचा, नए राग रागिनियों की रचना की, उनके सुयोग्य पुत्र मुकुल शिवपुत्र ने संगीत की शिक्षा ली, पंडित की पहली पत्नी भनुमति ताई के निधन के बाद उनकी सहयात्री बनी ग्वालियर घराने की प्रसिद्द गायिका विदुषी वसुंधरा ताई जिनके साथ पंडित जी का दूसरा विवाह अप्रैल सन 1962 में हुआ. कुमार जी को यक्ष्मा की शिकायत थी और मालवे के हवा पानी ने उन्हें एक नई जिन्दगी दी, एक फेफड़ा खोने के बाद भी उनका संगीत में योगदान किसी से छुपा नहीं है.  कुमार जी के होने में और यश के शिखर पर पहुँचाने में वसुंधरा ताई के योगदान को भूलाया नहीं जा सकता, जिन्होंने कुमार जी के साथ जीवन में ही नहीं वरन हर मंच पर उनका हर आरोह अवरोह में साथ दिया और हर तान के साथ अपना जीवन लगा दिया. वसुंधरा ताई जैसी विदुषी महिला आज के समय में दुर्लभ है. 

पंडित देवधर की सुयोग्य शिष्या और बेटी वसुंधरा ताई ग्वालियर से देवास आने के बाद मालवे में ऐसी रच बस गयी कि यहाँ के लोग उनके घर के लोग हो गए, वे देवास, इंदौर और उज्जैन के हर घर में पहचानी जाने लगी, देवास के हर भाषा और मजहब के लोगों से उनका वास्ता पड़ा और उन्होंने बहुत सहज होकर सबको अपना लिया. ना मात्र अपने गायन से बल्कि उनकी सहजता, अपनत्व और वात्सल्य भरी मेजबानी के व्यवहार से हर शख्स उनका कायल था. स्व कुमार जी जब तक थे या आज भी देश-विदेश के बड़े से बड़े गायक - वादक, साहित्यकार, अधिकारी, कलाकार, पत्रकार जब भी इंदौर, देवास या उज्जैंन से गुजरे तो एक बार वे जरुर कुमार जी के भानुकुल में आये और जी भरकर कुमार जी से बाते की और ताई का आतिथ्य पाया जो उनकी यात्रा को महत्वपूर्ण बना गया.

कलागुरु विष्णु चिंचालकर, नाट्यकर्मी बाबा डिके, प्रसिद्ध पत्रकार और सम्पादक राहुल बारपुते और स्व कुमार गन्धर्व कला क्षेत्र की ये चौकड़ी मालवा ही नहीं वरन देश विदेश में प्रसिद्द थी और जब ये मिल जाते थे तो बहुत लम्बी चर्चाएँ, और बहस होती थी. अशोक वाजपेयी तब मप्र शासन में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी थे और भारत भवन बनाने की तैयारी में थे. अक्सर देवास उनका आना होता था और ताई के स्नेह और आतिथ्य के लिए वे लालायित रहते थे क्योकि उन्हें ताई से कई रचनात्मक सुझाव मिलते थे. चारों मित्रों की यह अमर जोड़ी बनाने में वसुंधरा ताई का बहुत बड़ा हाथ था. ताई की समझ सिर्फ संगीत ही नहीं बल्कि व्यापक मुद्दों और रंजकता, कला के विविध पक्ष और साहित्य पर भी बराबर थी. कुमार जी के घर लगभग सारे अखबार और पत्रिकाएं आती थी जिनका अध्ययन और मनन वे लगातार करती रहती थी. मुझे याद है एक बार जब जब्बार पटेल ने अपने नवनिर्मित फिल्म “उड़ जाएगा हंस अकेला” का प्रीमियर देवास में रखा था और मै जब्बार पटेल का इंटरव्यू कर रहा था तो ताई ने कई मुद्दों और फिल्म के तकनीकी पहलुओं पर विस्तृत बात रखकर जब्बार पटेल को भी आश्चर्य में डाल दिया था. फिल्म के शो के बाद लोगों के प्रश्नों का भी ताई ने बखूबी जवाब दिया था जो उनके गहन वाचन और याद रखने का अनूठा उदाहरण था.

संगीत के कार्यक्रमों में देवास में लगभग हर कलाकार यहाँ आता है और भानुकुल जाकर स्व कुमार जी श्रद्धा सुमन अर्पित करता है और ताई से आशीर्वाद लेता था. हम बड़े कौतुक से हर शख्स को ताई से बात करते हुए देखते थे और पाते थे कि वे  हर कलाकार की उनके गुणों के कारण तारीफ़ करती और रचनात्मक सुझाव भी देती थी और हर कलाकार इसे सहजता से स्वीकार करता था. शायद हम कभी महसूस ही नहीं कर पाए कि कुमार जी और ताई जैसे बड़े महान लोगों के सानिध्य में हमारा बचपन कब गुजर गया और हम संगीत में संस्कारित हुए. कुमार जी और ताई ने देवास की अनेक पीढ़ियों को शास्त्रीय संगीत का ककहरा सिखाने का महत्वपूर्ण किया.

ताई सिर्फ कुमारजी की सहचरणी नहीं थी बल्कि शास्त्रीय संगीत के जो संस्कार ग्वालियर घराने और अपने पिता से मिले थे उन्होंने संगीत में बहुत प्रयोग किये, निर्गुणी भजनों की परम्परा को जीवित रखा. देश विदेश में उनके शिष्य आज इस परम्परा को निभा रहे है. कुमार जी के निधन के बाद वे सार्वजनिक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी कम करने लगी थी परन्तु अपनी पुत्री सुश्री कलापिनी और पोते भुवनेश को उन्होंने संगीत की विधिवत शिक्षा देकर इतना पारंगत कर दिया कि ये दोनों आज देश के स्थापित कलाकार है.

इधर ताई बीमार रहने लगी थी, जब भी मिलते तो कहती थी कि मिलने आ जाया करो, अब तबियत ठीक नहीं रहती. और आखिर कल वही हुआ जिसका डर था, कल वे अपने ही घर पर गिर गयी और कूल्हे में चोट लगी थी, कलापिनी और भुवनेश ने खूब प्रयास किये परन्तु कल दोपहर उन्होंने अंतिम सांस ली. ताई को भारत सरकार ने कई पदम् पुरस्कारों और उपाधियों से नवाजा था. भारतीय संगीत की मूर्धन्य गायिका तो वे थी ही, साथ ही एक अच्छी गुरु और बहुत स्नेहिल माँ थी. देवास के साथ साथ पुरे मालवे ने आज एक वात्सल्यमयी माँ को खो दिया.
*** 
संदीप नाईक,
सी – 55, कालानी बाग़,
देवास, मप्र.
9425919221.

Tuesday, July 28, 2015

अशोक कुमार पाण्डेय की तीन कविताएं



जबकि हमारी अपनी ही स्मृतियां निर्जनता के कगार पर खड़ी हैं, अशोक तीन बुज़ुर्गों से कविता में संवाद कर रहा है। यहां तीन अलग लोग एक ही ऊर्जा में जलते हुए मिलते हैं, उनके साथ जलता है आज का कवि। ये और वे, विचार के सब रास्ते अब भी हलचल से भरे हैं और उन पर आगे भी आहटें भरपूर रहेंगी - ऐसा विश्वास दिलाने वाली इन कविताओं के लिए शुकिया दोस्त। 
*** 
प्रकाश दीक्षित
 
प्रकाश दीक्षित

शहर ही था जो तुमसे बाहर नहीं गया
तुम तो कबके हो गए थे शहर से बाहर

देह में ताब नहीं, न मन में हुलास कि चलो देख आयें दिल्ली एक बार
जहाँ तुम्हारे शिष्य याद करते रहते हैं तुम्हें जैसे कालेज के दिनों की प्रेमिकाओं को

लिखे हुए पन्नों के पीछे गोंजते रहते हो जाने क्या क्या
एक इतिहास तुम्हारे चश्में के शीशों में जमा वाष्प की तरह
एक वर्तमान जोड़ों की दर्द की तरह पीरा रहा है कबसे
सूने ऐश ट्रे सा भविष्य जलती सिगरेट के मसले जाने की बाट जोहता

सम्मानों की गीली मट्टी पर संभल संभल कर चलते
अपमानों के अदृश्य ईश्वर पर हंसते कभी डरते
जैसे सूख गयी वह नदी जिसमें नहाते बीते बचपन के दिन
जैसे छूट गयीं वे आदतें जिनकी संगत में गुज़री जवानी
और वे दोस्त हर सपने में रही जिनकी हिस्सेदारी
सूखती वैसी ही उम्मीदों और छूटती वैसी ही समय की चार पहिया गाड़ी को
देखते अकेले दरवाज़े की ओट से
पीछे छूट गए देखते आगे निकल गयों के रंग
तुम मुझे भी तो देख रहे होगे?

लिखो न एक अंतिम नांदी इस अंतहीन नाटक के लिए साथी
पार्श्व में गूँजता मंदिर का घंटा उसकी शुरुआत का उद्घोष कर रहा है कबसे.
*** 

 
लाल बहादुर वर्मा

लाल बहादुर वर्मा

ठीक इस वक़्त जब तुम्हारी साँसे किसी मशीन के रहम-ओ-करम पर हैं
मैं इतिहास के पेड़ से गिर पड़े पत्तों पर बैठा हूँ लाचार

वे इतिहास को एक मनोरंजक धारावाहिक में तब्दील कर रहे हैं साथी और तुम्हारी आवाज़ जूझ रही है

तुम्हारा उत्तर पूर्व अब तक घायल है
तुम्हारे इलाहाबाद में भी हो सकते हैं दंगे
तुम्हारा गोरखपुर अब हिटलरी प्रयोगशाला है
फ्रांस की ख़बर नहीं मुझे फलस्तीन के जख्म फिर से हरे हैं साथी

और तुम्हारे हाथों में अनगिनत तार लगे हैं
पहाड़ जैसा सीना तुम्हारा नहीं काबू कर पा रहा है अपने भीतर बहते रक्त को
समंदर की उठती लहरों जैसी तुम्हारी आवाज़ किसी मृतप्राय नदी सी ख़ामोश
बुझी हुई है ध्रुव तारे सी तुम्हारी आँखें
अनगिनत मरूथलों की यात्रा में नहीं थके जो पाँव गतिहीन हैं वे

हम अभिशप्त दिनों की पैदाइश थे
तुम सपनीले दिनों की
तुम्हारे पास किस्से भी हैं और सपनें भी
और उन सपनीली राहों पर चलने का अदम्य साहस
कितने रास्तों से लौटे और कहा कि नहीं यह रास्ता नहीं जाता उस ओर जिधर जाना था हमें

यह राह नहीं है तुम्हारी साथी
लौट आओ...हम एक नए रास्ते पर चलेंगे एक साथ

चन्द्रकान्त देवताले और अशोक
 
चंद्रकात देवताले  

सुना आज उज्जैन में ख़ूब हुई बरसात
सुना तुम्हारा मन भी बरसा था बादल के साथ

मुझे नींद नहीं आ रही और बतियाना चाहता हूँ तुमसे
कि पता चले कहीं खून ठंडा तो नहीं हो गया मेरा
सच कहूँ...कुछ लोगों की नींद हराम करने का बड़ा मन है!

पठार अब और तेज़ भभक उट्ठा है साथी
जो लोहा जुटा रहे थे उन्होंने किसी मूर्ति के लिए दान कर दिया है
तुमने जिस बच्ची को बिठा लिया था बस में अपनी गोद में
उसकी नीलामी की ख़बर है बाज़ार में

आग हर चीज़ में बताई गयी थी और हड्डियों तक में न बची
देखते देखते सिंहासनों पर जम गए भेडिये
देखते देखते मंचों पर हुए सियार सब सवार
अबकि तुम्हारी काफी में मिला ही देंगे ज़हर
और तुम सावधान मत होना..प्लीज़

चलो घूम कर आते हैं
नुक्कड़ की वह गर्म चाय और प्याज कचौड़ी चलो खिलाओ
वरना तो फिर सपने में ताई की डांट पड़ेगी
बच्चों को भूखा भेजा? कब सुधरोगे ?

चलो जुनूं में बकते ही हैं कुछ
क्या करें?
कहाँ जाएँ?
मैं दिल्ली तुम उज्जैन
दोनों बेबस दोनों बेचैन!
*** 

Sunday, July 26, 2015

संजय कुमार शांडिल्य की कविताएं



हमें कविताओं से क्या मिलता है

कोई जीडीपी में बढ़त दर्ज करता है तो कैसे करता है
जबकि हम कविता से बर्फ़ीली सर्दियों में जुराबों का
काम लेना चाहते हैं
लकड़ियों और भेड़ों से भोजन मिलता है हमें कविताओं से क्या मिलता है


सरसों का तेल, नमक और तोरयी से एक शाम की मितली रुकती है
पाँच आदमी जीप की एक सीट पर बैठकर बस्ती से शहर आते हैं
दो रुपये की हींग से रसोई महकने लगती है
पंसारी की दुकान में जीवन के सामान मिलते हैं , कविताओं के पास क्या है


थोड़े से जुलाब से कब्ज़ और सुअर की चर्बी से ज़ुकाम ठीक होता है
एक अध्धे से थकान मिट जाती है
दो-चार गालियों से गुस्सा बाहर हो जाता है
खिड़की से हवा मिल जाती है कुएँ से पानी मिल जाता है
महाजन से बीमारी में कर्जे काश्तकार से खाने भर ज़मीन मिल जाती है
क्या मिलता है कविताओं से ?


जीवन से इतनी कम उम्मीद रखने वाले लोगों ,
मैं भी यही पूछता हूँ कविताओं में
कि आखिर इनसे हमें क्या मिल सकता है

इन क़ब्रों में
थोड़ी सी और जगह के लिए कविता है
थोड़ी सी और हवा के लिए कविता है
थोड़े से अधिक जीवन के लिए कविता है

हमें यह मालूम है कि धूप बहुत कड़ी है
और जूतों से आराम मिलता है हमें कविताओं से कुछ नहीं मिलता ।

***  

शहद एक शहतूत का पेड़ है

मुट्ठी भर रेत को छूकर उसने कहा कि
यह प्यार हो सकता है जो नहीं हुआ


गठरी भर कपास के लिए
एक बियाबाँ में हम दौड़ते रहे
जिनपर दुनिया का सबसे मीठा प्रेम
जो नहीं खिल सका पुष्पित हो सकता था

मुट्ठी भर रेत और गठरी भर कपास के लिए
हमने मौसमों की हत्याएँ की

वह घड़ा मिट्टी से बनता था जिसे हमने धातुओं
से बनाना चाहा
हम दोनों इसी नदी में डूबे जो तैरने के लिए
सबसे आसान थी


मैं और तुम जानते तो थे कि मधुमक्खियाँ
शहद जहाँ इकट्ठा करतीं हैं वहाँ वह शहद बनता नहीं
बात उस ज्ञान का था जिसमें वह प्रेम-नगर उजाड़ हुआ
बसने के नियम वही होते जो उजड़ने के होते हैं
यह किसका गुनाह था जिसमें हमने जीवन का
हर पाठ गलत पढ़ा
शहद हर उस जगह था जहाँ एक शहतूत का पेड़ है ।

***  

आकाश से गिरी हुई रात

इस छिपकली की जीभ पर
एक पतंगे के ख़ून का ताज़ा गीत है

मकान वायलिन की तरह
बजता है
इस मकड़ी के जाले के आसपास

उदासियाँ फर्श पर पसरी हुई
कथरी है
खून और इसकी ठंडक में रेंगती हुई
चींटियाँ


बाहर कारोबार की तरह
गिरी हुई रात है
आकाश से

तालाब एक उल्टी हुई पॉलीथिन है
रौशनी छिटक रही है क़ब्रगाहों से
चार सू चमकता हुआ अँधेरा है

इस चार सू चमकते हुए अँधेरे में
जुआघर हैं, शराबख़ाने हैं

छोटे-छोटे ताबूत बना रहा है
बढ़ई
बूढ़े पछीट रहे हैं पुरानी सदियाँ ।

***

इन छुट्टियों में

इन छुट्टियों में आधे-आधे लोग
अपने गाँव लौटे हैं

आधे रह गए हैं उसी जगह
जहाँ ग्यारह महीने रहते हैं
उन ग्यारह महीनों में
कुछ बाल्टियों के पेंदों में
छोटे सुराख़ बड़े सुराखों
में बदल जाते हैं


उन ग्यारह महीनों में
चाय की उन प्यालियों में
कुछ और गहरी दरारें
बनती है
जिन पर यारों का प्यार
छनता है


बच्चे ग्यारह महीने बड़े होकर
सचमुच बड़े दिखने लगते हैं
बूढ़ी होती पेशानी पर
कुछ और गहरी रेखाएं
कुछ और गहरी रेखाओं में
जमा होती है ग्यारह महीने में


इस एक महीने में
कोई आधा आदमी
कितना पूरा हो सकता है
कि ग्यारह महीने बाद
अगली छुट्टियों में
आधे-आधे लोग फिर
गाँव लौट पाएं ।

***

उस बच्चे की मुस्कुराहट में उसकी माँ झाँकती है

सातवें आसमान पर कोई खिड़की है
जो उसके ओठों पर खुलती है

उसकी हँसी उसकी माँ से मिलती है
मैं उसे उसकी माँ की तस्वीरों से मिला कर
देखता हूँ

उसकी माँ जो नहीं है कहीं
वह हर उन जगहों में काँपती है
जहाँ वह हवा की तरह बहती थी
वैसे उसके होने का कहीं निशान नहीं है
जाने वह कैसे इस दुनिया में रहती थी

वह जब थी लगता नहीं था कि वह
नहीं रहेगी
अपनी बेटी को जन्म देते हुए
उसे लगा कि इस दुनिया में
इतनी ही जगह खाली है

तीन साल की उसकी बेटी
खुश-फैल रह सके
पृथ्वी पर
उतनी जगह
उसकी समझ इस समय की
आलोचना है

माँ का नहीं होना
अक्सर उसकी उम्र में
उसे महसूस नहीं होता है
वह अँगूठा मुँह में लेकर
सो जाती है

उसकी माँ वैसे तो अब
इस घर में हर जगह काँपती है
खासकर उस बच्चे की
मासूम मुस्कुराहट में
उसकी माँ झाँकती है ।

***

पिघलते ध्रुवों की पृथ्वी

पगडंडियों पर पाँव हैं और धड़ नहीं है
यह खूब कुदरती है ,सारी चहलकदमियाँ सहज

कुछ दूरी पर फैले हुए खेत हैं


धूपछांही सी फसलें
जड़ें नहीं हैं किसी भी पौधे में
हवा उन्हें हिलाती है कभी-कभी


बूढ़े सहज हैं मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए
स्त्रियाँ सहज हैं श्रृंगार की जरूरतों के बिना

हाथ एक गर्दिश करती हुई मछली है
कंधे जीवनरहित सिर को
पहाड़ सा धारण किए हुए


साँस लेने की मशीन भर नाक जीवित है


पूरे चेहरे के विजन में अकेला जागता हुआ
यह सब सहज है जीवन में
सिर्फ़ पेट दिखाई पड़ता है
चीजों को एक साथ जोड़ता


आँखें सबसे पहले अलग हुईं
सहजता से
दुर्घटनाओं के बाद सिर्फ़ विलाप के
लिए खुलती हैं

पृथ्वी पर खुली हुई आँखों के
सिर्फ़ बर्फ़ीले ध्रुव हैं
जो लगातार पिघल रहे हैं ।

***

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails