Thursday, May 28, 2015

एक पागल आदमी की चिट्ठी-सी विकल कविता - विमलेश त्रिपाठी की दो लम्बी कविताओं पर रसाल सिंह का लेख

विमलेश त्रिपाठी समकालीन समय के सर्वाधिक संभावनाशील और विश्वसनीय युवा साहित्यकार हैं। उन्होंने हम बचे रहेंगे, एक देश और मरे हुए लोग (कविता-संग्रह), अधूरे अंत की शुरुआत (कहानी-संग्रह) और कैनवास पर प्रेम (उपन्यास) नामक रचनाओं के जरिए अपनी अलग पहचान बनायी है। उनके लिए लिखना जीने का और जीना लिखने का पर्यायऔर पारस्परिक स्रोत हैं। सहज और सरल भाषा में अपने कथ्य और सर्जनात्मक चिन्ताओं को सम्प्रेषित करना उनकी खासियत है। वे युवा सर्जनात्मकता की एक ऊर्जस्वी और भविष्यधर्मी आवाज हैं।
विमलेश त्रिपाठी की कविताएं एक देश और मरे हुए लोग’, ‘एक पागल आदमी की चिट्ठीऔर हम बचे रहेंगेआदि, वास्तव में उदारीकरण के बाद के भारत देश और भारतवासियों की मरणासन्नता का आलोचनात्मक आख्यान हैं। गल्प के शिल्प में लिखी गयीं ये कविताएं भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप भारतऔर भारतवासियोंके क्रमशः मरते चले जाने का ब्यौरा देती हैं। सन् 1991 के आसपास अपनाई गयी नई आर्थिक नीतिने न सिपर्फ गाँव-गिरांव को उजाड़ दिया बल्कि पारिवारिक संबंधें को भी सिकुड़ा दिया। लोगों के सामाजिक बोध् और नैतिक चेतना में गुणात्मक गिरावट आई। मनुष्य यकायक सामाजिक प्राणीसे एक व्यक्ति मात्रा में तब्दील हो गया। वह मनुष्य से क्रमशः ऐसा पशुबन गया जिसे जैसे-तैसे तृप्तकाम होना है। यह तृप्ति किन शर्तों पर और क्या कुछ गँवाकर मिल रही है, यह प्रश्न उसे तनिक भी विचलित नहीं करता बल्कि कहना चाहिए कि ऐसे सवालों के बारे में सोचने की उसे न तो जरूरत है और न ही उसके पास पफुरसत है। नयी सदी में प्रवेश करते ही सूचना-तकनीक क्रान्ति और उपभोक्तावादी हवश ने मनुष्य को अपने पंजों में दबोच लिया है। अब उसके पास अपने आस-पड़ोस, परिवार, मित्रों, संबंधियों और देश-समाज की सुध-बुध लेने का समय और चिन्ता नहीं बची है।
          मृतात्माओं को पुनर्जीवित करने के संकल्प के साथ लिखी गयी विमलेश त्रिपाठी की कविताएं सामूहिकता, सामाजिकता और नैतिकता की मृत्यु का प्रलाप मात्रा नहीं अपितु पश्चिमीकरण, तकनीकीकरण और बाजारीकरण के खतरों की सजग सूचना हैं। ये तीनों माया के उत्तरआधुनिक तिरगुन फाँसहैं, जिनमें उसने भारत जैसे अविकसित, अल्पविकसित देशों को फाँस लिया है और आजादी के 65-70 साल बाद भी आजाद नहीं होने दिया है। नव्य-पूँजीवाद और नव्य-उपनिवेशीकरणजनित गुलामी हमारी अनिवार्य पारिस्थितिकी है। इस मानसिक गुलामी ने मनुष्य के सोचने-समझने की क्षमता को नष्ट करके उसे मृतप्राय बना दिया है। आज वह अपने जीवन और अपनी भौतिक जरूरतों को पूरा करने की जुगत में अपनी जड़ों से कटता जा रहा है। चरम उपभोग और विलासिता की वस्तुओं का संग्रह ही उसका एकमात्रा ध्येय है। इस वस्तुवाद ने उसे बौद्धिक रूप से पूरी तरह विपन्न करके चरम सांस्कृतिक संकट पैदा कर दिया है। विमलेश त्रिपाठी इन्हीं तमाम संकटों की पड़ताल करते हैं और उनका एक यकीनतलब विवरण हमें देते हैं। आदिवासी, स्त्री, किसान, दलित, ईमानदार और स्वाभिमानी मनुष्य, ये सब-के-सब किस प्रकार हमारे लोकतांत्रिक देशमें अप्रासंगिक और अनुपयोगी होते जा रहे हैं, किस प्रकार बारीक-से-बारीक चक्रव्यूह रचकर उनका संहार किया जा रहा है, ये सब सवाल लगातार उनकी चिंता के केन्द्र में हैं। पूरी की पूरी प्रशासनिक मशीनरी इन लोगों को ठिकाने लगाने की दिशा में सक्रिय और संकल्प नजर आती है। एक लोकतांत्रिक देश को जहाँ आम आदमी के हित और हक के लिए काम करते हुए लोक कल्याणकारी राज्यहोना चाहिए था, वहाँ वह सिर्फ चुनिन्दा लोगों के लिए काम कर रहा है-
‘‘इतिहास के कई रंग हो सकते हैं
लेकिन पागल आदमी की चिट्ठी में
इतिहास का रंग काला ही होता है अक्सर
और यह गौर करने लायक बात है
कि उसकी चिट्ठी में
इतिहास लिखकर उस पर स्याही पोत दी गई होती है
.....................................................
वे साजिशें लिखी होती हैं
जिसके कारण पैंसठ साल बाद भी
इस देश के एक अरब से अध्कि लोग
गुलाम और मरे हुए लोगों की तरह
हरकत करते दिखते हैं
पागल आदमी की चिट्ठी में
रंग नहीं लिखा होता
सिपर्फ खून के ध्ब्बे लिखे होते हैं।’’

          उनकी कविता समकालीन भारत में सोचने-समझने और अपनी बात को खुलकर रखने की गुंजाइश के लगातार खत्म होते चले जाने की त्रासदी का बयान है-
‘‘अपने ही देश में सच बोलना मना
सच सोचना मना
सच को सच की तरह लिखना मना
छुप-छुप कर डर-डर कर जीना
मना मना मना जिंदा रहना’’

आज स्वतंत्र चिंतन, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और स्वतंत्र आचरण की कोई जगह इस देश में नहीं बची। पालतू और पूँछ हिलाने वालों की पूछ है। इस देश में राजमाता से लेकर राजा तक सब मरे हुए लोग हैं और अपनी लाश ढोने को अभिशप्त हैं। कहीं असहमति, विरोध् या विद्रोह की जगह नहीं। असहिष्णुता, आक्रामकता और उन्माद का बोलबाला है। जिन्दा व्यक्तियों, वस्तुओं और तर्कों को सबसे बड़ा खतरा मानकर संगठित तरीके से उनका शिकार किया जाता है। जो गूँगे-बहरे, मुंडी हिलाने वाले और पिछलग्गू हैं, उन्हें तरह-तरह से पुरस्कृत और प्रतिष्ठित किया जाता है। मनुष्यता की अवमानना और मनुष्य के अमानवीकरण का धंधा जोरों पर है-
‘‘यह ढोल नगाड़ों का समय था
खाप पंचायतों का समय था
राजनीति का समय था
मक्कारी और बेशर्मी का समय था
इस समय सबसे अधिक होड़
सबसे कम आदमी रह जाने के लिए थी’’

सबको एक ही साँचे/खाँचे में ढालने की साजिशें चलती रहती हैं - अनवरत्। सच बोलने वाले और सही सोचने वाले अपने ही देश में निर्वासित और उपेक्षित हैं क्योंकि न सोचने वालों और न बोलने वाले मृतकों का बोलबाला और वर्चस्व है-
‘‘एक पहले से मरा हुआ
गाता देशभक्ति के गीत
एक सदियों का मरा आदमी
ईश्वर और मुक्ति के उपाय पर
करता प्रवचन
मरे हुए लोग मुक्ति के लिए
लगाते भीड़ उसके आस-पास
मरे हुए लोगों का बढ़ रहा कारोबार
एक देश जहां मुर्दे लोग सबसे अधिक ताकतवर
जिंदा लोगों को भेजा जा रहा जेल
चढ़ाया जा रहा सूली पर
उन्हें मारने के लिए की जा रहीं
तरह-तरह की साजिशें’’

स्वार्थी, अहंकारी और पाखण्डी लोगों के लिए रामराज्यहै। उनके लिए अनेक अवसर और संभावनाएं हैं। झूठ, फरेब और मक्कारी हमारे समय की अनिवार्य जीवन-स्थिति है। मरी हुई आत्मा वाले तमाम बुद्धिजीवी, राजनेता, कलाकार, पत्राकार, अपफसर, संत-महंत, मंत्री-संत्री और यहाँ तक कि राजा स्वयं मुखौटे लगाये घूम रहे हैं और ऐसी स्थितियाँ बना रहे हैं कि हर किसी को मुखौटा लगाना पड़ रहा है। इन मुखौटों के पीछे एक से एक छंटे हुए गुण्डे, बदमाश, बलात्कारी, व्यभिचारी, घोटालेबाज, दगाबाज छिपे हुए हैं। विमलेश त्रिपाठी अपनी कविताओं के माध्यम से इनके मुखौटों को नोंचकर हमें उनकी वास्तविकता से परिचित कराते हैं। वे नयी सदी में धर्मतंत्र, राजनीति-तंत्र और अर्थतंत्र की आपसी और अवैध साँठ-गाँठ का पर्दाफाश करते हैं-
‘‘उसे अमर होना है इतिहास में नाम दर्ज कराना है
हे नाथ क्षमा करना
वही करता भ्रष्ट सब काम
उसके चेहरे पर कई चेहरों की पर्तें
जिनका जरूरत के मुताबिक
करता इस्तेमाल
यह देश उसे ही मानता है आजकल
सभ्य नागरिक
शिष्टजन
अध्यापक
वैज्ञानिक
राजनीतिज्ञ
समाजशास्त्री
भाषाविद्
इत्यादि.....’’

          ये कविताएं समकालीन समय में मनुष्य के नैतिक-बोध, अन्तरात्मा की आवाज और विवेक-चेतना की मृत्यु की विवरणिका हैं। मरने के बाद आदमी कुछ नहीं सोचता, मरने के बाद आदमी कुछ नहीं बोलता, कुछ न सोचने और न बोलने से आदमी मर जाता हैकहकर वरिष्ठ कवि उदय प्रकाश जिन्दा मुर्दा आदमी की पहचान प्रस्तावित करते हैं। मूल्य निरपेक्षता, रणनीतिक तटस्थता, चाटुकारिता, स्वार्थपरता, अंधनुकरण-वृत्ति, आत्मस्पफीति, प्रदर्शनप्रियता और कायर अकर्मण्यता ने आज के आदमी की आत्मा को खाली और खोखला बना डाला है। आज के भारत में मनुष्य-भाव और अभिव्यक्ति-स्वातंत्रय की शवयात्रा निकल रही है। आत्मजीविता, असवरवाद और आत्मकेन्द्रिकता ने मनुष्य की आत्मा को मृतपाय कर दिया है। विमलेश त्रिपाठी की यह कविता इसी संकट के गहराने की चिंता को व्यक्त करती है। समकालीन मनुष्य जीवन की वास्तविकताओं से मुँह चुराकर अड़ोस-पड़ोस, परिवार-रिश्तों से कटकर फेसबुक फ्रेन्ड्सके सहारे जी रहा है। वह आभासी, ओढ़ी हुई, पालिश्ड और परतदार छवियों को ही जीवन का सच मान रहा है। ये ऐसी ही अनेक सच्चाइयों से उद्वेलित कविताएं हैं।
          एक देश और मरे हुए लोगनामक लंबी कविता को पढ़ते हुए स्मृति में मुक्तिबोध की कालजयी कविता अंधेरे मेंबराबर कौंधती है। अंधेरे मेंकी तर्ज पर एक देश और मरे हुए लोग’ 21वीं सदी के भारत की स्वप्नहीनता, मानसिक पराधीनता, आत्मजीविता और अवसरवाद का पता देती है। नयी सदी में बिगड़ते/मरते एक देश की विस्तृत व्यथा-कथा इस कविता में मौजूद है। मानसिक गुलामी, धूर्तता, पाखण्ड और प्रपंच जीवन जीने की और आगे बढ़ने की अनिवार्य शर्त बन गये हैं। जो दिन के उजाले में और सार्वजनिक जीवन में नैतिकता की जितनी ज्यादा उल्टी करता है, वह रात के अंधेरे में और व्यक्तिगत जीवन में उतना ही बड़ा खूंखार दैत्यहै। आज डिग्रियाँ, नौकरियाँ, ठेके, टिकटें, पुरस्कार सब कुछ मृतात्माओंको दिया जा रहा है। जो जिन्दा हैं, वे तिल-तिल मरने या फिर तिरस्कृत-बहिष्कृत होने के लिए अभिशप्त हैं। यह कविता समकालीन भारत की वंचना का ब्यौरा देती है। ऐसे अंधेरे समय में कवि को महात्मा गाँधी, विनाबा भावे, जयप्रकाश नारायण, अन्ना हजारे, निराला और मुक्तिबोध जैसे जिन्दा लोगों की रह-रहकर याद आती है जिन्होंने अपना देश तो बनाया पर घर नहीं-
‘‘कहते हैं
वह इतिहास से बचकर छुपते-छुपाते
चला आया एक आदमी था
जो वर्तमान में गाता घूम रहा था
और भविष्य की ओर देखते हुए
जार-जार रोता था
उसकी कथरी में असंख्य गीत थे
उसके दिमाग में कहीं और ज्यादा
इतने कि उससे एक देश बनाया जा सके
उसके गीत घर तो न बना सके
लेकिन देश बना सकते थे’’

आज गंगा उल्टी दिशा में बहने लगी है। देश को बिगाड़कर, खुद की आत्मा को मारकर, पीढि़यों के भविष्य को रौंदकर अपना घरभरने की धुन मृतात्माओंपर सवार है। लोग व्यक्तिगत सुख-सुविधा के दायरे में सिमट-सिकुड़ गये हैं। उनकी आत्मा का आयतन बेहद कम हो गया है। यह बात विमलेश त्रिपाठी को लगातार व्यथित और बेचैन करती है। इसलिए वह सुषुप्त चेतना को जगाना चाहते हैं, मृतात्माओं में प्राण पफूँकना चाहते हैं। वे मानसिक गुलामी और स्वार्थपरता को निरस्त करके एक स्वतंत्रा एवं स्वस्थ सोच और सामूहिक-सामाजिक बोध् से समन्वित मनुष्य-समाज देखना चाहते हैं। वे भौतिक वस्तुओं के संग्रह और असीमित विलासिता के बरक्स सब बच्चों के लिए हवा, पानी और रोटी की जरूरत को रेखांकित करते हैं। वे संतुलित और सार्वजनीन विकास की प्रस्तावना करते हैं जिससे दूर-दराज के ग्रामीण-किसान, आदिवासी, दलित और स्त्रियाँ भी भारत को अपना देश मान सकें। उसकी राष्ट्रीयता से जुड़ सकें -
‘‘1857 की क्रान्ति को एक शोकेस में सजाकर
धूप और अगरबत्ती दिखा रहे हैं कुछ लोग
बिरसा मुण्डा बिरसा मुण्डा
चिल्ला रहा है एक आदिवासी
एक लड़की लक्ष्मीबाई की तस्वीर
और झण्डा लेकर खड़ी है
पुरुषों की सदियों पुरानी परंपराओं के खिलापफ
मंच पर पता नहीं कितने समय से
चल रहा है यह दृश्य
यह नाटक रुकने का नाम ही नहीं लेता
जब कि इस देश को आजाद हुए
हो गया पैंसठ साल से ज्यादा’’

          अभी तो भारत एक बीमार, मरणासन्न और खण्डित राष्ट्रीयता का देश बन गया है। रघुवीर सहाय ने राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत भाग्य विधाता है, फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता हैकहकर अपने ही देश में अजनबी और उपेक्षित वंचित तबकों की पीड़ा को आवाज दी। विमलेश त्रिपाठी भी फटा सुथन्ना पहने हुए भूखे पेट वाले करोड़ों हरचरनाओंकी दुखगाथा कहते हैं। अपने जल, जंगल, जमीन और जज्बात से करोड़ों आदिवासियों-किसानों का विस्थापन कवि के मन में आक्रोश भरता है। इस आक्रोश की आवेगमयी अभिव्यक्ति एक देश और मरे हुए लोगहै। वह इस विडंबना को भी उभारते हैं कि 65-70 साल पहले आजाद हुए देश में आज भी मुक्ति गीतों की जरूरत है-
‘‘एक नदी है मेरी धमनियों में बहती
एक गांव है मेरे फेंफड़े में हांफता
एक औरत है जो मेरी परछाई है
एक-एक शब्द मेरी सांस हैं
एक-एक कविता मेरा जीवन...
एक गुमनाम कवि मैं
अंततः
एक चौराहे पर खड़ा होकर
जोर-जोर से चिल्लाना चाहता हूं
देश
देश और लोकतंत्र
कि कविता कविता
और कविता...।’’

वस्तुतः कवि का इशारा सामाजिक-आर्थिक पराधीनता की ओर है। हालांकि, राजनीतिक आजादी भी शोकेसमें सजाने और दिखावे की चीज भर ही है। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे स्वाधीनता आन्दोलन के जीवन-मूल्य और नारे संविधान नामक किताब में मरणासन्न पड़े हैं। विमलेश त्रिपाठी मनुष्य के मरते चले जाने के कारणों की पड़ताल करते-करते हमारे पवित्र धार्मिक ग्रंथोंका भी आलोचनात्मक मूल्यांकन करते हैं और स्थापित करते हैं कि इन धार्मिक ग्रंथों ने भी स्वतंत्र चिंतन की संभावनाओं को बराबर कम किया है। मनुष्य को असहिष्णु और उसकी मानसिकता को संकुचित किया है।
          विमलेश त्रिपाठी की कविता हमारे समय के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रदूषण और आर्थिक-राजनीतिक भ्रष्टाचार का मुकाबला करने को संलग्न होती है। उनको कविता और जिन्दगी की जीत में गहरा यकीन है-
‘‘देश और देश और देश के बीच
मरे हुए और मरे हुए लोगों के बीच
कथा और हकीकत के बीच
बचे हुए कुछ जिंदा शब्द
हंस रहे पूरे आत्मविश्वास के साथ
और बन रही है कहीं
कोई एक लंबी कविता।’’

कवि की स्थापना और मान्यता है कि विकल्पहीन नहीं है दुनिया।आज उच्छृंल उपभोग ने मनुष्य को संवेदनहीन और विवेकशून्य व्यक्ति में तब्दील कर दिया है। जिससे मनुष्यता अवमूल्यित हो रही है, नैतिकता का ह्रास हो रहा है। ऐसे समय में विमलेश त्रिपाठी अपनी कलम और अपनी आस्था के सहारे मनुष्य की जिन्दादिली और जज्बात को बचाने की जद्दोजहद करते हैं। वे नाउम्मीद नहीं होते। पिछले दिनों अन्ना आंदोलन, निर्भया आंदोलन तथा आम आदमी पार्टी को मिला अपार समर्थन तथा जनता की सक्रिय भागीदारी हम सबकी उम्मीद को बल देती है। अभिव्यक्ति के खतरेउठाकर विमलेश त्रिपाठी मृतात्माओं के गढ़ और मठ ध्वस्त करने की दिशा में सक्रिय होते हैं। इस मुश्किल दौर में कविता एकमात्रा ऐसा साधन है जिस पर भरोसा किया जा सकता है। वह एक ऐसे मंत्रा की तरह है जो मृतात्माओं में प्राणों का संचार कर सकती है। इसीलिए कवि विमलेश त्रिपाठी इस उम्मीद को थामते हैं और रचनात्मक संकल्प के साथ परिवर्तन और प्रतिरोध की दिशा में सक्रिय होते हैं। उनका कवि और उसकी कविताई में गहरा यकीन है। वे लिखते हैं -
‘‘लेकिन हर देश में और हर समय में जिन्दा रहती हैं कुछ विलुप्त मान ली गई प्रजातियाँ
वे छुप-छुपकर रहती हैं जिन्दा और कुछ के पास तो जन्मतः ही होता है एक कवच-कुण्डल और
जिन्हें मार पाना कभी भी नहीं रहा आसान किसी भी तंत्र के लिए।’’

और ऐसे लोग वेश बदलकर फैल गए पूरे देश में शब्दों के जादू मंतर लेकर जिन्दा करने मरे हुए लोगों को। अन्ततः मृत लोगों में प्राणों का संचार होता है और लोग जुटते गए और कारवाँ बनता गयाकी तर्ज पर वे अन्ततः मृत राजा को पदच्युत कर देते हैं। लेकिन कवि उस मनुष्य-संहारक मशीन को अर्थात् अनवरत आपाधपी की कोल्हू के बैल जैसी जिन्दगी देने वाली व्यवस्था को नष्ट करके एक संतुलित और मानवीय व्यवस्था की स्थापना करना चाहता है। मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय और धूमिल आदि कवियों के रचनात्मक मुहावरे में लिखी गयीं उनकी कविताएं अपने गठन में बिखराव के बावजूद महत्वपूर्ण कविताएं बन पड़ी हैं। कवि के मानस में उमड़ती-घुमड़ती अनेक चिंताएं और सवाल कविता में ढलने को विकल हैं, इसलिए कहीं-कहीं उनकी अभिव्यक्ति में बिखराव आ गया है। यत्र-तत्र आवेग और आक्रोश की कमी के चलते आई थोड़ी शिथिलता और ठण्डेपन से भी उनकी कविताओं की सम्प्रेषणीयता बाधित होती है।

-- रसाल सिंह

किरोड़ीमल कालेज, दिल्ली-07
फोन: 8800886847

Friday, May 8, 2015

कुँवर रवीन्द्र : बोध और द्वन्द के सजग शिल्पी - उमाशंकर सिंह परमार

कुंवर रवीन्द्र पर कुछ पहले किसी पत्रिका के लिए मैंने एक लेख लिखा था, जो छपा पर मुझसे कहीं गुम हो गया। अभी मुझे मेलबाक्स में उन पर यह लेख मिला तो ख़ुशी हुई। उमाशंकर सिंह परमार पहली बार अनुनाद के लिए लिख रहे हैं, उनका यहां स्वागत है। आशा है आगे भी वे कविता पर अपना दृष्टिकोण हमें देंगे। 
*** 
कला  के विभिन्न उपगमों में चित्रकला ही सौन्दर्य शास्त्रीय अध्ययन की दुष्टि से कविता के सन्निकट है व एक दूसरे को भाव पूर्वक समाहित करते हैं। कविता और चित्र का अन्तरंग और बहिरंग सम्बन्ध हिन्दी के के लिए नया नही है। छायावादी कविता में महादेवी वर्मा का अध्ययन बगैर उनकी कला को समझे हुए नही किया जा सकता जब भी कवि यथार्थ को लेकर भावात्मक रूप से उद्वलित होता है तो विभिन्न ललित कलाओं का मधुरिम घाल मेल कर देता है। सच यह है कि भावनात्मक संवेदन ही सम्पूर्ण कलाओं की उत्स भूमि है। एक चित्रकार भी कवि की तरह जमीनी टकरावों और विसंगतियों का भोक्ता होता है कवि या चित्रकार की अन्तःवृत्तियों का टकराव जब सामाजिक यथार्थ की परिस्थितियों से होता है तो भावनात्मक संवदेना खुद ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम अन्वेषित कर लेता है। 

पाश्चात्य विचारकों में हीगल और क्रोचे तो हिन्दी में महादेवी वर्मा, विजेन्द्र आदि चित्रकला व कविता के मिलन सूत्र है। हीगल और क्रोचे ने कला के सन्दर्भ में कला को संकुचित करे के आका है। चित्रकला की सार्थकता रंगों का काल्पनिक संम्मेलन है। ऐसा उनका अभिमत है। कला यथार्थ का अंकन है तो क्रोचे ने कला को यथार्थ का परिष्कृत रूप कहा है, उसका कहना है कि यथार्थ विद्रूप होता है - उसका हूबहू कविता या चित्र में अंकन कला को कला नही रहने देता क्योंकि विद्रूप का चित्रांकन भी विद्रूप ही होगा, जबकि चित्रकला विद्रूप का अंकन नही , सुन्दर का अंकन करती है। क्रोचे का अभिमत अधूरा है क्योंकि आज के दौर में चित्र यथार्थ का ही अंकन करता है, यही उसका सौन्दर्य है। विद्रूप यदि दर्शक पर भावनात्मक दबाव देता है तो विद्रूप भी सुन्दर है। आज सुन्दरता के मायने बदल चुके है यथार्थ के परिपे्रक्ष्य में काल्पनिकता द्वितीयक वस्तु है। यही कारण है कला को जीवन का अंकन कहा जाता है। इस अभिमत को मानने वालों की संख्या आज सबसे अधिक है, जीवन का अंकन ही कला है एवं जीवन का अंकन ही कविता है। 

चित्रकला में मिथक व क्लासिकल रूढ़वादी परम्पराओं को छोड़कर यथार्थ की नैसर्गिक प्रवृत्ति का चित्रण करने वाले चित्रकार बहुत कम मिलते है ऐसा चित्रकार कवि भी हो यह तो और भी मुश्किल है। कुँवर रवीन्द्र ऐसे ही कलाकार हैं, उनकी कला/कविता का दायरा वस्तुगत जगत का स्वउपभुक्त यथार्थ है। वस्तुगत जगत की विसंगतियों में जी रहे मनुष्य के जीवन का सिद्दत के साथ सर्वांग रैखिक बिम्व सृजन करना एवं शब्द बिम्वों से उसे संपुष्ट करना उनकी विलक्षणता है। जितनी सिद्दत के साथ चित्रकला को यथार्थ से सरोबोर करके कलात्मक टच दिया है उसी सिद्दत के साथ वें अपनी कविताओं में यथार्थ के विरूद्ध गम्भीर आक्रोश व्यक्त करते है। कुँवर रवीन्द्र के चित्रों को समझने के लिए उनकी कविता बहुत की कारगर औजार है। चित्रों के रंग संयोजन में व हल्के गहरे आरोह-अवरोह में कौन सा तथ्य छिपा है, इसकी जानकारी उनकी कविता ही दे सकती है। अमूमन चित्रकला को कल्पना से जोड़ने की बहुत बड़ी गलती कर दी जाती है कुँवर रवीन्द्र के चित्र इस गलती का खण्डन है। वह सिद्ध कर देते है कि चित्रकला का आशय रेखाओं और रंगों में प्रकृति के सर्वभौम जीवन को मूर्त करना है यही मूर्तन पुनः अंकन है, यही कला है एवं कविता में यही मूर्तन सम्वेद्य बिम्व है। चित्रकार की उत्प्रेरणा भौतिक प्रकृति की रचनात्मक शक्तियों का प्रतिबिम्व है वह जिस जीवन का अध्ययन कर रहा है, जिन परिस्थितियों से प्रभावित हो रहा है, वह जिस यथार्थ से आम लोक मानस को आबद्ध देख रहा है उस यथार्थ को रंगों में व्यक्त करना ही चित्रकला है और कुँवर रवीन्द्र इस मानक में खरे उतरते है। 

रवीन्द्र ने वाह यथार्थ का अनुभव अपने चित्रों में बखूबी सहेजा है उनकी कवितायें भी इस कटुता को दर-कनिार नही करती अपितु यथार्थ के प्रति कवितायें उतनी ही मुखर है जितना की उनके चित्र। रवीन्द्र ने श्रमजीवी समूहों के श्रम में ही कविता खोजी है वे कला और कविता को मनुष्य से पृथक करके देखना पसंद नही करते किसान के मिट्टी फैलाने, फावडा चलाने में भी उन्हें शब्दों का सामूहन दिखाई देता है, यही उनकी रचनात्मकता का वस्तुगत यथार्थ है। देखिए एक उदाहरण व यह चित्र जिसमें रंगों का आलेखन वही कह रहा है जो कविता कह रही है।
नही वह मिट्टी नही फैला रहा है
वह कविता लिख रहा है
       जमीन पर जमीन की कविता           
‘‘जमीन पर जमीन की कविता’’ यह कथन उनकी कविता की विषय दृष्टि व भौतिक जगत की अंकन दृष्टि का परिचय करा देती है इस कविता में प्रयुक्त शब्द चित्र के किसी भी कोण में भी विसंगति उत्पन्न नही करते यथार्थ के प्रति कही भी अतिरंजना का शिकार नही है किसी भी विचार से यह चित्र कल्पना यूटोपिआई सुमच्चय नही हैं बल्कि यथार्थ के अनुभव को ही उन्होंने अपनी बिम्व सृजक प्रतिभा से और भी स्पष्ट कर दिया है। इसी क्रिया को रूसी आलोचक चेरनोंवस्की ने यथार्थ का पुनः अंकन कहा है। उसने कहा है कि ‘‘कोई भी कलाकार भौतिक प्रकृति का जितनी गहराई से अंकन करता है उतनी ही कुशलता से हमारे समक्ष अनुभूत होकर प्रस्तुत होता है वह कलाकार उतना ही महान होता है’’। रवीन्द्र ने इस कविता एवं चित्र में यही किया है।
रवीन्द्र की कवितायें यथार्थजन्य पीडाबोध को अनेक सन्दर्भों में व्यक्ति करती है इस पीडाबोध के कई कारण है। सबसे बड़ा कारण तो लोकतन्त्र में लोक की बजाय अभिजन की बहुलता उन्हें अखरती है। स्वतन्त्रता के बाद पूँजीवादी शक्तियों ने जिस तरह समूची लोकतान्त्ररिक प्रक्रियाओं को अपने स्वार्थानुसार स्वयं की सुरक्षा हेतु ढ़ाल लिया है यह परिस्थिति आम लोक मानस के हक के लिहाज से तनाव और घुटन का कारक है। राजनैतिक सत्ताधारियों के पूँजीवादी वर्ग चरित्र ने आम जनता के लिए केवल धोखा, अभाव व मरणासन्न परिस्थितियाँ ही सृजित की है। रवीन्द्र इस हकीकत से वाकिफ है उनके चित्रों में सामयिक लोकतान्त्रिक विसंगतियों की लोकोन्मुख समझ बखूबी अभिव्यक्त हुई है। उनके कई चित्र व कवितायें जनतन्त्र के इस खण्डित स्वरूप को बया करती है। देखे एक चित्र व कविता जहाँ वे अपनी लोकतान्त्रिक आस्था के साथ-साथ लोकतान्त्रिक सन्त्रास को भी मूर्त रूप देते है एवं विभिन्न रंगों की उतार-चढ़ाव में तनाव, घुटन, असहजता को भी व्यक्त कर देते है।
बुद्ध तुम एक बार फिर
वृक्ष के नीचे बैठोगें
और ढूड सकोगे
लोकतंत्र से उपजे
    दुःख, सन्ताप और मृत्यु का निदान           
रवीन्द्र अपने युग की तमाम हलचलों एवं समस्याओं से निरपेक्ष नही है वे उन कलाकारों में है जो सम्पूर्ण व्यवस्था का महा मंथन करते हुए उसमें छिपी मानवता विरोधी साजिशों का पर्दाफाश करते है। वे जानते है भारत का किसान किस कारण से आत्म हत्या कर रहा है वे समझते है कि मजदूर शोषाण का शिकार क्यों है, वे जानते है कि अधाधुन्ध शोषण व पूँजीवादी हृदय हीनता ने समूची मानवता को बाजार में बिकने को उतारू उत्पाद बना डाला है, वे समझते है कि गरीब की रोटी छिन जाने से कौन खुस है, वे समझते है कि लोकतंत्र का सबसे बडा कटु सत्य यही है कि सब कुछ बाजार में बदल दो व मूल्य सहेजना तो दूर मूल्यों को कैद कर दो। स्वप्न वही देखों जो बाजार दिखा रहा हो स्वप्न वही खरीदों जो बाजार बेच रहा है। इस कथ्य को व्यंजित करता हुआ यह चित्र एवं कविता देखिए।
वे खुश होते हैं
कि आज मैने सपने बेचे
उन भूखे-नंगों को
जो सपने में देखते है सिर्फ
बदसूरत रोटियाँ               
यही वैज्ञानिक वर्गीय समझ रवीन्द्र के चित्रों का मूल स्वर है। जिस वर्गीय समझ को उन्होंने अपनी कविता का प्रतिपाद्य बनाया है वही वर्गीय समझ विभिन्न रेखाओं और रंगों के सान्द्र आवेष्ठन से उनके चित्रों में अन्र्तभूत है यदि चित्रों को उनकी कविता के समानान्तर रखकर विवेचित किया जाय तो चित्र अपनी सन्देश परकता में कविता से भी आगे निकल जाते है। अधिकांशतया मनुष्य के जैवकीय दंश उनके चित्रों मे मटमैला रंग लेकर अवतरित होते है यह मटमैला रंग अभिव्यंजित कर देता है कि संवेद्य भाव जमीन से जुडे है वह कटु यथार्थ का उपभुक्त अंकन है। परिवेश के प्रति यही सजगता उनके पाठकों को कचोट देती है। यही सजगता उनकी कविताओं में तीखापन उत्पन्न करती है। रवीन्द्र इस परिवेश के प्रति अदृश्य लगाव को ‘‘जहरीली आस्था’’ कहते है। ऐसे परिवेश का कथ्य सान्ध्य कालीन चित्र बखूबी बया करते है जहाँ अन्धकार का घोर कालिमा युक्त प्रपीड़क परिवेश साकार हो जाता है।

जहरीली होती जा रही है
आस्थायें
टूटते जा रहे है
सपनों के बंध
संगीनों के साये में
सांय-सायं करता जंगल                
यही भयावह परिदृश्य समकालीनता को मुह चिढाता हुआ, मानवता को उकेरता हुआ उनकी कविताओं में व अन्य चित्रों में पूरे अस्तित्व के साथ वर्तमान है। प्रकृति के उपागमों से विनिर्मित चित्रों में कई चित्र ऐसे है जिसमें मनुष्य की बेवशी और दुश्वार जीवन की झलक मिलती है। हालांकि रवीन्द्र की कवितायें भी इस बेवसी को अंकित करती है पर वह केवल अंकन से ही संतुष्ट नही होते  एक योद्धा की तरह एक कदम आगे बढ़कर क्रान्ति का आवाहन भी करते है। असमानता व पूँजीवादी कुचक्रों का रहस्य तो उनके चित्र ही बया कर देते है कविता चित्रों से थोडा आगे बढ़कर भ्रष्टाचार एवं अत्याचार के विरूद्ध अन्तस का क्षोभ व्यक्त कर देती है। कवि ऐसे परिवेश को तोड़ने के लिए मुठभेड के लिए खुद को प्रस्तुत कर देता है तो चित्रकार अपने चित्र को ही मुठभोर के लिए एक सैनिक की तरह व्यूह बनाकर खड़ा कर देता है। इस परिवेश के लिए कवि रास्ता खोजना चाहता है। वह ऐसा रास्ता चाहता है जिससे असंख्य छोटी-छोटी पगडण्डिया नजर आने लगे। जहाँ से मनुष्य अपने लिए मुकम्मल स्वप्न तलाश कर सके। देखिए इस कविता का कथ्य कथन व चित्र का पुर्नकथन
बस
बहुत हुआ
रोशन करदो झरोखों को
शायद
पगडण्डी नजर आने लगे।             

झरोखों को रोशन करनें का भाव है कि दीपक जला दो, उजाला कर दो यही उजाला क्रान्ति की संकलपना है। क्रान्ति की सजग अभिव्यक्ति है इस कविता में प्रतीक के रूप में उकेरी गई क्रान्ति चित्र में उकेरे गये क्षोंभ को समाहित कर रही है। लालवेस में आधारित चित्र व लाल सूर्य का चित्रण कविता व भाव में पूर्ण साम्य मिला देता है।  

यदि कला का लक्ष्य मानव जीवन का पुनः अंकन है तो रवीन्द्र इस उद्देश्य में पूर्ण सफल रहे है बहुधा उनकी उकेरी आकृतियाँ जीवन का स्पष्टीकरण देते समय जीवन का मूल्यांकन भी करने लगती है जब चित्र जीवन का मूल्यांकन करने लगे तो वह ऐतिहासिक हो जाता है ऐसी कला अपने समय के साथ टकराती है वह समय का साक्ष्य बनकर उभरती है यही कला की ऐतिहासिता है रवीन्द्र की कलाकृतितयाँ व कविता दोनों समय सापेक्ष है। समय की गति को एक खुली किताब की तरह व्यक्त करती है। आजादी के बाद खण्डित स्वप्नों का मूल्यांकन करती है। यदि आजादी के बाद का इतिहास अनुभव करना है तो रवीन्द्र के कविता व कलाकृतियाँ से बेहतर अन्य कोई उपागम नही है। रवीन्द्र की चित्रकला में क्लासिकल सिद्धान्तों को थोपा नही जा सकता क्योंकि उनकी कला का मूल विषय समय और मनुष्य है। अतः कला के लिए कला का सिद्धान्त, उनके लिए उतना ही अपरचित है जितना की संपदा के लिए सम्पदा, और विज्ञान के लिए विज्ञान, यही कारण कि रवीन्द्र के चित्र कला का सृजन नही करते अपितु पुनः सृजन करते है। यथार्थ को हुबहू अंकित कर व्यापक मानवीय आदर्श देते है। जिस प्रकार उनकी कविता मानवीय द्वन्दों व टकरावों की कविता है उसी प्रकार उनके चित्र भी द्वन्दों और टकरावों के चित्र है। बोध और द्वन्द की यही अभिव्यक्ति उनके चित्रों का प्राण तत्व है।                                    

(चित्र सौजन्य - लेखक उमाशंकर सिंह परमार। उमाशंकर सक्रिय वामपंथी कार्यकर्ता तथा जनवादी लेखक संघ बांदा के जिला सचिव हैं।)

अगली पोस्ट में विमलेश त्रिपाठी की दो लम्बी कविताओं 'एक देश और मरे हुए लोग' तथा 'पागल आदमी की चिट्ठी' पर रसाल का लेख आ रहा है। विमलेश की ये दोनों लम्बी कविताएं पहले अनुनाद पर ही छप चुकी हैं।   
                                           

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