आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को कबीरदास के जटिल व्यक्ति
के सच को खोज निकालने का दुरूह और दुष्कर कार्य करने का श्रेय प्राप्त है।
द्विवेदी जी द्वारा सच्चे अर्थों में कबीर की आत्म खोज
निकालना किसी आविष्कार से कम नहीं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ
‘कबीर’
(1971) के रूप में उनके पुनर्जन्म की बात
कही है। इस ग्रन्थ के माध्यम से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कबीर के बारे में
जितना कुछ लिखा है वह कबीर प्रेमियों के लिए महत्वपूर्ण है। कबीर को खोजने व समझने
के लिए कबीर बनने की आवश्यकता थी,
जो मानव-मानव के बीच के कृतिम भेद
को मिटा कर जात-पात की दीवारों को तोड़ता तथा बाह्माडम्बर के जाल को तोड़कर इस नश्वर
शरीर से ईश्वर के अमृत-रस का पान कर सकता,
जो आत्म को परमात्मा का दर्शन करा, नरक को मोक्ष में बदल सकता था।
कबीर के मान के समाने बड़े से बड़ा ज्ञानी भी नतमस्तक है।
यही कारण है कि जहाँ एक ओर कबीर समाज में भी लोकप्रिय बने रहंे, वहीं दूसरी ओर सहज बौध्य और सर्वग्राह्म भी बने रहे।
कबीर के इस बहुआयामी व्यक्तित्व और उनकी आत्मिक शक्ति के रहस्यों को आचार्य द्विवेदी
ने खोज निकाला है।
कबीर की वाणी वह लता है जिससे योग के क्षेत्र में भक्ति
का बीज अंकुरित हुआ। कबीर ने कभी अपने ज्ञान को अपने गुरू को और अपनी साधना को कभी
सन्देह की नजरों ने नहीं देखा अपने प्रति उनका विश्वास कभी भी डिगा नहीं। वे वीर साधक
थे, और वीरता अखण्ड आत्म विश्वास को अजेय
करके ही पनपती है कबीर के लिए साधना एक विकट संग्राम स्थल थी। जहाँ कोई बिरला शूर ही
टिक सकता है।1
कबीर निगुर्ण निराकार ब्रह्म को मानते थे इसलिए वे पण्डित
या शेख पर आक्रमण करने पर कभी पीछे नहीं रहे। कबीर उस समाज मंे पाले गये जो न तो हिन्दुओं
द्वारा समादृर्त था न मुसलमानों द्वारा पूर्णरूप से स्वीकृत कबीर सभी धर्मों को एक
समान मानते थे। कबीर की व्यक्तित्व की एक विशेषता यह भी थी वह मस्त मौला स्वभाव के
फक्कड़, आदत से अवफड भक्त के सामने, भेदधारी के आगे प्रचण्ड,
दिल के साफ, दिमाग के दुरूस्त भीतर से कोमल, बाहर से कठोर जन्म से अस्पृश्य, कर्म से बन्दनीय थे जो कुछ कहते अनुभव के आधार पर कहते
थे।2
द्विवेदी जी ने कबीर में शायक सर्जक का रूप भी देखा होगा
अन्यथा उनकी उलटवासियों में वे जीवन दर्शन क्यों ढूॅढतें। वस्तुतः हिन्दी साहित्य के
इतिहास में सूर और तुलसी के बाद कबीर साहित्य को उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करने का
श्रेय द्विवेदी जी को जाता है। वे अपने बहुचर्चित ग्रन्थ ‘कबीर’
में लिखते हैं- ‘‘कबीरदास का रास्ता उल्टा था। उन्हें सौभाग्य वश सुयोग
भी अच्छा मिला था, जितने प्रकार के संस्कार पड़ने के
रास्ते हैं, वे प्रायः सभी उनके लिए बंद थे। वे
मुसलमान होकर भी असल में मुसलमान नहीं थे,
हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे। वे
साधु होकर भी साधु नहीं थे। वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे। योगी होकर भी योगी नहीं
थे। वे भगवान की आरे से सबसे न्यारे बनाकर भेजे गये थे।’’ कबीर पर ईश्वर की अति अनुकम्पा रही जिसका उपयोग उन्होंने
बखूबी निभाया।3
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना था ‘‘कबीरदास मुसलमान वंश में पैदा होकर भी सत्संग के बल
पर हिन्दू शास्त्रीय मातों को इतना जान सके थे। यह सिद्धान्त वस्तुतः किसी दृढ़-प्रमाण
पर आधारित नहीं है’’
यह कहना अनुचित है कि कबीरदास सत्संगी
नहीं थे, किन्तु हिन्दू धर्म- सम्बन्धी उनका
ज्ञान केवल सत्संग के बल पर प्राप्त नहीं किया गया था। परमात्मा-विश्वास-निर्गुण-निराकार
की भावना, समाधि-सहजावस्था आदि का सम्पूर्ण
ज्ञान उन्हें अपने कुल-परम्परा,
गुरू-परम्परा से प्राप्त थे। कबीर
की साखियों का सीधा अर्थ कबीर के आत्म विचार को पहचान दिया है। जब कबीरदास निर्गुण
भगवान का स्मरण करते हैं तो उनका उद्देश्य यह होता है कि भगवान के गुणमय शरीर की जो
कल्पना की गयी है वह कबीर का मात्र नहीं है।4
कुल-परम्परा से द्विवेदी जी का आशय है कि नीरू और नीमा
नामक जुलाहा दम्पत्ति ने कबीर का पालन-पोषण किया,
वे नाथपंथी योगियों के शिष्य थे।
द्विवेदी जी का मानना था कि कबीर मुसलमान होने के बाद न तो जुलाहा जाति अपने पूर्व
संस्कार से एक दम मुक्त हो सकी थी और न उसकी सामाजिक मर्यादा बहुत ऊँची हो सकी थी।
द्विवेदी जी के शब्दों में ‘‘कबीर मुसलमान नाम मात्र के ही थे। इस नाथ-भावापन्न साद्योधर्मान्तरित
जुलाहा जाति में पालित होने के कारण कबीरदास में नाथपंथी विश्वास सहज रूप में विद्यमान
था। उनका मन योगियों के संस्कार से सुसंस्कृत था। उन्हें यौगिक सिद्धान्तों का ज्ञान
अपनी धाय-माता से प्राप्त हुआ। कुल-गुरू-परम्परा के सम्बन्ध में द्विवेदी जी का मानना
है कि कुल गुरू-परम्परा ईसवी सन् की पहली शताब्दी के अंतिम वर्षों में शुरू होती है, जब सहजमत में बौद्धगान व दोहे लिखे जाते थे। कबीरदास
ने बाह्माचारमूलक धर्म की जो आलोचना की है उसकी भी एक सुदीर्ध परम्परा थी। इसी परम्परा
को उन्होंने अपने विचार में स्थिर किया।’’5
द्विवेदी जी की दृष्टि में भक्ति ने कबीर को इतना महिमाशाली
बना दिया कि वे जन-जन के कण्ठहार बन गए। ऐसी भक्ति-जो न योगियों के पास थी और न सहजयानी
सिद्धों के पास, न कर्मकाण्डी पण्डितों के पास थी
और काजियों के पास। राम और उनकी भक्ति ये कबीर के गुरू रामानन्द की देन है। इन्हीं
दो वस्तुओं ने कबीर को योगियों से अलग कर दिया। इन्हीं को पाकर कबीर सबसे अलग सबसे
ऊपर हैं, और सबसे आगे भी।
द्विवेदी जी की दृष्टि में ज्ञान और भक्ति दोनों साथ-साथ
चल सकते है और ईश्वरी ज्ञान अर्थात् ईश्वर के बारे में जानने की इच्छा मानव की भक्ति
है। कबीर की ज्ञान-भक्ति-भावना पर लोगों ने तरह-तरह के सवाल खड़े किए हैं। लोगों को
उत्तर देते हुए कबीर स्वंय लिखते हैं- ‘सतगुरू भक्ति ले आए है।’6
कबीरदास ने आजीवन सम्प्रदायवाद, ब्राहमाचार और बाहरी भेदभाव पर कठोरतम आघात किया था।
माला तिलक निन्दा करे ते परगट जमइत
कहे कबीर विचारिक तेउ राक्षस भूत
द्वादश तिलक बनार्वइ,
अंग-अंग अस्थान
कहे कबीर विराजही उज्जवल हंस समान
कबीर मसूर में गुरू महिमा सउडात।7
उत्तर भारत में भक्ति मार्ग को रामनन्द ले आये थे और
सौभाग्य से उन्हें कबीर जैसा शिष्य मिल गया था। कबीर के अनुयायियों में ये दोहा प्रचालित
है-
‘‘भक्ति द्रविड़ ऊपजी लाये रामानन्द
प्रगट किया कबीर सत्प दीप नवखण्ड’’
द्विवेदी जी का मानना है कि कबीरदास की वाणी वह लता
है जो योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज पड़ने से अंकुरित हुई थी। द्विवेदी जी ने उनके
स्वभाव का बड़ा ही सटीक विवेचन इस प्रकार किया है। ‘‘वे स्वभाव से फक्कड़ थे, अच्छा हो या बुरा,
खरा हो या खोटा जिससे एक बार चिपट
गये, उससे जिन्दगी पर चिपटे रहे। वे सत्य
के जिज्ञासु थे और कोई मोह ममता उन्हें अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकती थी। वे सिर
से पेर तक मस्तमौला थे। मस्त,
जो पुराने कृत्यों का हिसाब नहीं
रखता, वर्तमान कर्मों को सर्वस्त नहीं समझता
और भविष्य में सब कुछ झाड़-फटकार कर निकल जाता है।8
हम घर जारा आपना,
लिया मुराडा हाथ
अब घर जारो तातु का जाचले हमारा साक
कबीर की यह घर-फूॅक मस्ती, फक्कड़ाना लापरवाही और निर्मम अक्खड़ता उनके अखण्ड आत्म-विश्वास
का परिणाम थी। उन्होंने कभी अपने ज्ञान को,
अपने गुरू को और अपनी साधना को संदेह
की नजरों से नहीं देखा। अपने प्रति उना विश्वास कहीं भी डिगा नहीं वे वीर साधक थे और
वीरता अखण्ड आत्मविश्वास का आश्रय करके ही पनपती है।9
द्विवेदी जी कबीर को अपने युग का सबसे बड़ा क्रान्तिकारी
मानते है। वे लिखते हैं- ‘‘सहज सत्य का सहज ढंग से वर्णन करने
में कबीरदास अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते। वे मनुष्य बुद्धि को व्याहत करने वाली
सभी वस्तुओं को अस्वीकार करने का अपास साहस लेकर उत्पन्न हुए। पण्डित, शेख,
मुनि,
पीर,
औलिया, कुरान,
रोजा-नमाज, एकादशी,
मन्दिर और मस्जिद उन दिनों मनुष्य
चित्त को अभिभूत कर बैठे थे। परन्तु वे कबीरदास का मार्ग न रोक सकें, इसलिए कबीर अपने युग के सबसे क्रान्तिदर्शी थे।’’
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की भाषा का सही
मूल्यांकन किया है। ‘‘भाषा कबीर का अच्छा अधिकार था। वे
वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा उसे उसी रूप
में भाषा से कहलवा लिया। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नजर आती है उसमें मानें हिम्मत
ही नहीं थी कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को नहीं कर सकें। जैसी ताकत कबीर की
भाषा में थी, वैसी बहुत कम लेखकों में है। ‘‘कबीर की छनद योजना,
उक्ति वैचित्र्य और अलंकार निधान
पूर्ण रूप से स्वाभाविक अल्पसाधिक है।10
द्विवेदी जी ने कबीर में शायद अपने सजृन का रूप देखा
होगा अन्यथा उनकी उलटवासियों में वे जीवन दर्शन को क्यों ढूंढते द्विवेदी जी अपने प्रसिद्ध
ग्रन्थ ‘कबीर’
में लिखते है। कबीर का रास्ता उल्टा
था उन्हें सौभाग्यवश सयोग भी अच्छा मिला था। जितने प्रकार के संस्कार पड़ने के रास्ते
है, वे प्रायः उनके लिए बंद थे। वे मुसलमान
होकर भी असल में मुसलमान नहीं थे। हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे। वे साधु होकर भी
साधु अग्रहस्थ नहीं थे,
वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे।
योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे भगवान की ओर से सबसे न्यारे बनाकर भेजे गये थे। सच्चे
अर्थों में कबीर एक मानव थे।11
द्विवेदी जी ने निर्गुण भक्तिधारा में कबीर की वाणी
समाज को नई दिशा देती है,
जाति व्यवस्था पर प्रहार करते हुए
संत कबीर ने कहा-
जात पात पूछे नहीं कोई
हारे को भजे सो हारे का होई
कर्मकाडों के विरूद्ध संतों के निर्भीक स्वर उपजे कबीर
की दृष्टि यहाँ समविष्टनिष्ठ की अपेक्षा व्यक्तिनिष्ठ अधिक दिखाई पड़ती हैं वह संसार
को खाता-पीता तथा सुखी देखकर ईष्र्या नहीं करता वह सत्य दुःख में रात-रात भर जागता
है, रोता है। वह कार्ल माक्र्स की तरह
किसी रक्त रंजित क्रान्ति की बात नहीं करता और न श्रम को मृत पूॅजी मानता है वह भारतीय
समतवादी दर्शन के परिप्रेक्ष्य में संतोष धन को गले लगाकर बोल उठता हैं।
गोधन गण धन वाणि धन और रतन धन खान
जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान
कबीर प्रगतिशील वाणी न किसी पूँजीपति को ललकारती है
और न किसी के आगे गिड़गिडाती है व जन सामान्य को लालच से बचने के लिए प्रेरित करती
है।
द्विवेदी जी का आलोचना ग्रन्थ ‘‘कबीर’’
स्पष्ट करता है कि कबीर मानव के द्वारा
बनाये गये भेदों के बीच भी मानवीय रूप ही स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने अपने संवादों
में मानवीय एकता का बीज बोया है,
जो पल्लवित पुष्पित होकर विश्व को
मानवता की भावना से ओत-प्रोत करने में समर्थ है।
द्विवेदी जी ने जिस तन्मयता, और अध्यवसाय के स्वरूप कबीर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व
प्रस्तुतीकरण किया है,
वह एक प्रकार की कबीर साधना है।
(डॉ. शशि पाण्डे)
हिन्दी विभाग
डी0एस0बी0 परिसर
नैनीताल
सन्दर्भ सूची
1. हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली- 04, संपादक- मुकन्द द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन,
पृ0-
391
2. वही,
पृ0-
325-328
3. वही,
पृ0-
287
4. वही,
पृ0-
202
5. वही,
पृ0-
206
6. वही,
पृ0-
210-211
7. वही,
पृ0-
319
8. कबीर मंसूर में गुरू महिमा से उद्धत (पृ0- 1363), द्विवेदी ग्रन्थावली, पृ0-
211
9. वही,
पृ0-
321
10. वही,
पृ0-
366
11. हजारी प्रसाद द्विवेदी और उनका रचना संसार, डॉ. श्याम सिंह शशि के आलेख पृ0- 1
12. वही,
पृ0-
3
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