Saturday, April 4, 2015

दीपक तिरुवा की दो कविताएं



कभी हमें ऐसी कविताएं मिलती हैं, जिनसे गुज़रने के अनुभव हमारे अब तक के लिखे-पढ़े को और समृद्ध करते हैं। दीपक तिरुवा की कविताएं, ऐसी ही कविताएं हैं। भूगोल और भाषा-साहित्य के सीमान्तों पर रहते हुए लोग एक दे दिए गए व्यर्थ और हिंसक संसार के विरुद्ध तनकर खड़े हैं, यह देखना मेरे अपने वैचारिक संघर्षों में नई राहें खोलता है। जब तक कविता में (अौर उसकी निजता में भी) समाज और विचार  साफ़ न दिखे, कला पर बहस करना बेकार है। दीपक की इन कविताओं में कला सामाजिक है और राजनीतिक भी - हमारे लिए यही कला की उदात्तता है। 

इन कविताओं के लिए शुक्रिया कहते हुए मैं दीपक का अनुनाद पर स्वागत करता हूं। आगे भी अनुनाद पर आपका संग-साथ बना रहे साथी।
***


कोई आ रहा है

तुम्हारे मेरे मिलन वाले
हमारे स्वप्निल पलों में
ये आदमी कौन है
जो अक्सर चला आता है
मुहब्बत हैरान आँखों से
उसका क़द  देखती है

मुझे स्थगित चुम्बनों के
इस अपराधी की
लम्बी खोज पर
निकलना पड़ता है

रास्ते में सबसे पहले
माँ मिलती है
जिसने पहले मुझे
और दूसरी किश्त में
मेरे लिंग को पैदा किया 

मेरे हाथों में अभी तक
गुलाबी दस्ताने हैं
जो माँ की हसरत ने
बुनकर चढ़ाये थे
मैं जिनसे तुम्हें
जादूगर की तरह छूता हूँ
नतीज़े में शर्तिया
तुम्हारा मोम पिघलने
और गुलाबी लकीरें
उभर आने की उम्मीद में
आँखें झाँकता हूँ तुम्हारी
और क्यूपिड की तरह
मुस्कुराता हूँ


ठीक उसी वक़्त
कोई आ रहा है, तुम कहती हो ...

मैं वो दस्ताने उतार कर फेंकता हूँ
और सुबह की चाय बनाकर
माँ की बूढ़ी औरत को देता हूँ

मुझ अकेले पर
विरासत में थूके गये घर में
मैं बहन के कमरे की
पुश्तैनी बंद खिड़की खोलता हूँ
इससे पहले कि उसका धूसर लिबास
मुझे साफ़ धुले कपड़े थमा कर
एक और रक्षा बंधन हँस दे
मैं उसे आसमानी रंग का
नया जोड़ा देता हूँ

मैं आँखों की गैरहाज़री में दाखिल हूँ

सेफ्टी रेज़र के विज्ञापन वाली
लड़की की चिकनी देह
मुझ पर ठहाके लगाती हुई
न्यूज़ चैनल की इकट्ठे सात मर्दों वाली
ब्लू फिल्म में घुस जाती है
एंकर,गैंग रेप की रिपोर्टिंग पसंद करने के लिए
ठीक मेरे जन्मदिन वाले अंक
sms करने को कहती है

मेरे पास कुशन वाली सीट है
जिस पर मैं साम्यवाद आने तक
धंस कर बैठा
निर्विकार गालियाँ दे सकता हूँ
रियल वर्चुअल कुछ भी होते सोते

मैं ज़िंदगी से पूछता हूँ
तुम्हारे हाथ इतने सर्द क्यों क्यों हैं ?
ज़िंदगी चुपचाप मुझे एक
उल्टा ग्लोब थमा देती है .

मैं क्रांतिकारी कवियों की
बेसिक ग़लती से लौट कर
तुम्हारे पास आ गया हूँ
मुझे लेकर तुम चलो
कि तुम्हारी नज़र के बगैर
नहीं मिल सकतीं मुझे
मेरी आँखें वापस
या फिर हर बार
मिलन के बीच आने वाला आदमी..!
*** 


मेरे हिस्से की ज़मीन

अनगढ़ डांसी पत्थर
संगमरमर की तरह
अंगुलियों के
शास्त्रीय राग नहीं सुनता
पीठ तक तान कर
मारे गये घन के पीछे
मांस पेशियों की चीख होती है
उस पर भी संवरता नहीं
महज आकार लेता है डांसी पत्थर

सैलानी धूप चश्मों की हैरान आँख
और किताबों में दर्ज़ हिमालय से
अनुपस्थित पहाड़ पर
बसा हुआ है मेरा गाँव

मेरा गाँव जिसमें
कुलगुरु की भरी हुई एक्स्ट्रा हवा से
राजा के बाजू
गिर जाने के बाद  बसे  
उसके बहुतेरे बेटों ने
कुलगुरु के एक बच्चे और
मेरे पुरखे को
दूसरे गाँव से लाकर रोपा था ।

अंततः पागल हो जाने से पहले
मेरी दादी उस दिन से अधपागल कहलायी
जब बहुधंधी मेहनतकश पुरखों के
कई पुश्तों तक उनके खेत जोतने
लोहारी करने कपड़ा सीने चमड़ा कमाने
उनके लिए गाने बजाने घरवाली नचाने
उनके देवता प्रकट कराने के बाद
आखिर मेरे दादा को
अपना हथौड़ा फेंक देना पड़ा
जबकि वो मकबरा नहीं
उनका घर चिन रहे थे
डांसी पत्थर से
बदले में काटा जा रहा था उनका पेट
जिस पर हाथ उगे हुए थे ।

वर्तमान आदमी की
खिल्ली उड़ाता हुआ समय है
इसके भीतर अतीत के पैबंद
गड्ड मड्ड घुसे रहते हैं
हर आज अपने आप में
एक मध्यकाल होता है

क़बीले अपने युग के साथ नदी किनारे
श्मशान वाले मंदिर में जुटते हैं
शिव रात्रि के मेले में
आस पास के हर गाँव से निकलकर
किसी न किसी बहाने से
फुटव्वल सिर उठा लेती है
और सस्ती वीरगाथाएं
पनप जाती हैं अगले मेले तक

क़स्बा बाज़ार में टकरा कर
कुछ महारथी ओपन चैलेंज दे डालते हैं
और तय वक़्त तय जगह
सौ - सौ लाठी डंडे हॉकी ख़ुकरी
वर्तमान हो जाते हैं
अपने-अपने गांवों से आदमी  लेकर

एक बार काली गंगा के जल से
पवित्र होकर प्राण प्रतिष्ठा पाने के बाद
मेरे डूम पुरखे के हाथ से बना
श्मशान का
व्यापक मान्यता प्राप्त मंदिर
अपनी पवित्रता बरक़रार रखे हुए है
मंदिर के बाहर ही पकड़ा दिया जाता है
मुझे कोरा लाल टीका पत्ते में रखकर

वर्जनाएं नहीं तोड़ते
पवित्रलोक में बने रहते हैं
पूजा की थाली चन्दन और
टीके को गीला करने लायक पानी
कुलगुरु का वंशज मेरे लाये हुए
फल और नगद भेंट
मंदिर और अंततः अपने भीतर ले लेता है

मेरे दादा के फेंके हुए हथौड़े ने
गाँव छोड़ा पहाड़ छोड़ा नौकरी की
उनके तंगहाल मनी आर्डर
परिवार और भूख से बहुत छोटे थे

अधपगलाई खटती रही दादी
घास के एक-एक हथौले के लिए
खड़ी चट्टान में वहां तक चढ़ती रही
बकरियाँ भी जहाँ चरना छोड़ देती हैं
निचोड़ती रही भैंस के थन से आखरी बूँद
पांच बच्चों के पढ़ लिख कर
नौकरियों पर दूर शहरों को जाने के बाद
अकेले कटखने घर में
सचमुच पागल हो जाने तक

समय की किताब के नये प्रिंट में
राजा के बहुसंख्यक बेटों के चैप्टर में
ठसक की जगह कसक छप गया है
जिसकी पहली खुन्नस के आरक्त क्षण
मेरे चाचा ने देखे जिसे काट कर फेंक दिया गया

गाँव की दूसरी बड़ी आबादी का
नब्बे फीसद हिस्सा
आरक्षण के बावज़ूद
पुरखों वाले पुश्तैनी काम में
अब भी लगा है वहीं खड़ा है

गाँव में रोपे गए
कुलगुरु के पहले ही बच्चे से
कथाएं बांचने और बच्चों को
विज्ञान पढ़ाने का सिलसिला था 
सबसे कम आबादी उनकी है
सबसे बड़े घर सबसे ज़्यादा ज़मीन
सबसे बड़ी दुकान सबसे बड़ी नौकरियां
ओहदे उनके हैं राजनीति उनकी है
मंदिर अब पार्ट टाइम हो गया है 

मेहनतकशों को तीखा खाना पसंद है
पर उनके हिस्से में नहीं हैं
मिर्च उगाने लायक भी खेत
उनके पुरखे को गाँव में रोपते वक़्त
दी गयी थी थोड़ी सी
कुकुरमुखे पत्थरों से भरी
असिंचित बंजर ज़मीन

राजा का एक शिक्षित वंशज
अखबारी विज्ञापन में
अपनी आबादी के प्रतिशत में
रोज़गार ढूंढता हुआ
अचानक उठकर
मंदिर को सवालिया
नज़र से देखता है

जबकि नामचीन यूनिवर्सिटी से पढ़ा हुआ
कुलगुरु का एक वंशज
कार्ल मार्क्स नामक नया देवता
इंट्रोड्यूस करा रहा है
वर्ग संघर्ष ! वर्ग संघर्ष ! वर्ग संघर्ष !

मेरे दादा का हथौड़ा तीन पीढ़ी से
हवा में भटक रहा है शहर दर शहर
किराये पर मकान मिलना मुश्किल
कोई सम्मानित स्वरोजगार चलना मुश्किल
सोसाइटी मिलना मुश्किल
अपने हिस्से गाँव में अब भी
गर्मियों में सूख जाने वाला डुमनौला है
रात में उनके स्रोत से
पानी चुराने की मज़बूरी है
हल चलाने के लिए उनके खेत हैं
मंदिर में छुपा हुआ छुईमुई भग-वानहै
डांसी पत्थर हैं
सब है, नहीं है तो सिर्फ
लौट आने के लिये हथौड़े भर ज़मीन
जबकि उसे क्षेत्रफल बट्टा आबादी
होना ही चाहिये ...
***

5 comments:

  1. बढ़िया कविताएँ

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  2. जहां सामन्ती शोषण को उद्घृत करती दुसरी कविता कई पीड़ियों की दास्तां का दस्तावेज सी ....वहीँ पहली कविता का रंग और तेवर अलग है ... फिर भी दोनों कवितायें अपने अपने विचारों को बखूबी बयां करती है एक अलग ही अंदाज़ में ... धन्यवाद अनुनाद इन्हें पढवाने के लिए

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  3. दोनों कविताएँ बेधती हुई ! जैसे आँखों में अँगुली कोंचकर कह रही हों कि देखो , जो चमक रहा है बस लीपा-पोती है दरअसल !

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  4. अच्छी कवितायेँ. शिरीष की एक और सार्थक खोज.

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  5. अच्छी कविताएँ ....... दीपक जी हमेशा प्रभावित करते हैं ........

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