Friday, March 20, 2015

विजय गौड़ की कविताएं



विजय कई वर्षों से कथा और कविता के प्रदेश के नागरिक हैं। इस ख़ूब विचारवान और अनुभवसम्पन्न साथी की कविताएं बहुत समय बाद अनुनाद को मिली हैं। उनका कविता संग्रह 'सबसे सही नदी का रस्ता' मेरी स्मृति का स्थायी अंश है। इस कवि की चिंताएं भाषा और भूगोल(भूमंडल नहीं) से गहरी जुड़ती हैं। मैं विजय का आभारी हूं कि उन्होंने अनुनाद को ये कविताएं भेजीं। 

कुंवर रविन्द्र 
शुभ संदेश


सिर्फ मुरझा जाने वाले चिह्न
जैसे हँसी
जैसे फूल
क्यों देते हो मित्र
हथेली पर लिखे गए वो शब्द
उन क्षणों में उठे मनाभावों को व्यक्त करने में,
जो कतई नहीं थे झूठे,
सुरक्षित रख पाना
संभव ही नहीं रहा मेरे लिए
कितनी बार तो हाथ धोने की
जरूरी प्रक्रिया से भी बचा
पर कम्बख्त फिर भी धुँधले पड़ते रहे
बची ही नहीं उनकी छाया भी
एक दिन

अभी तो दिन भी नहीं बीता
देखो कितने मुरझाने लगे हैं,
शुभकामनाओं के जो दिए थे तुमने फूल
कुछ देर पहले तक
कैसे तो थे खिल खिलाते हुए।
*** 
भाषा बर्फ़ का गोला है

भाषा बर्फ़ का गोला है
रंग से पहचाना जाए कैसे ?

स्मृति पटल पर दर्ज हैं रेत के ढूह
पसीने की चिपचिपाहट से भरे चेहरे
सूरज को मुँह चिढ़ा रहे, दो-कूबड़वाले ऊँट की
पीठ के गडढे पर
हुन्दर का विस्तार याद है
याद है नुब्रा घाटी की हरियाली के बीच
शुष्क हो गया तुम्हारा चेहरा
सियाचीन ग्लेशियर के वीराने में,
पैंट और कसी हुई पेटी के साथ,
सीमा की चौकसी में जुटे तुम्हारे भाई का वृतांत

कैसे-कैसे तो उठ रहे थे भाव उस वक्त
चेहरे पर तुम्हारे,
यकीकन तुम्हें लद्दाखी न मानने की कोई वजह न थी
हमें एक कमरा चाहिए रात भर के लिए
चलताऊ भाषा में बोला गया मेरा कथन याद करो
उसकी लटकन में मेरे चेहरे का रंग याद करो
शायद कुछ-कुछ योरोपिय चमक-सा दिखा था, तुम्हें
कैसे तो चौंके थे तुम
हतप्रभ
समझ तो पाए ही नहीं मैंने क्या कह दिया
तुम भी तो लद्दाखी हो नहीं,
यदि बता दिया होता पहले
तो नर मुंडों के कंकाल पर जमे हुए इतिहास
की भाषा में मेरे लिए मुश्किल न होता तुमसे
बतियाना
रूपकुंड में डूबकर ही तो पाई है मैंने भी ताजगी।
*** 

गनीमत हो

बारिश के रुकने के बाद
मौसम खुला तो
रूइनसारा ताल के नीचे से
दिख गई स्वर्गारोहिणी

आँखों में दर्ज हो चुका
दिखा पाऊं तुम्हें,
खींच लाया बस तस्वीर

ललचा क्यों रही हो
ले चलूंगा तुम्हें कभी
कर लेना दर्शन खुद ही-
पिट्ठू तैयार कर लो
गरम कपड़े रख लो
सोने के लिए कैरी मैट और स्लिपिंग बैग भी
टैंट ले चलूंगा मैं
कस लो जूते

चढ़ाई-उतराई भरे रास्ते पर चलते हुए
रूइनसारा के पास पहुंचकर ही जानोगी
झलक भर दर्शन को कैसे तड़फता है मन
कितनी होती है बेचैनी
और झल्लाहट भी

गनीमत हो कि मौसम खुले
और स्वर्गारोहिणी दिखे।
*** 

मुरब्बा

(शिरीष कुमार मौर्य के लिए)

रातों रात कम हो गई मेरी आंखों की ज्योति
यह 'दंतकथाओं" का पता है
कल रात मैंने उन्हें बांचा था ठीक-ठीक
अभी खोलता हूं बोई
तो आखर उड़ती हुई मक्खियां नजर आते हैं
बैठते ही नहीं टिक कर

लाओ एक आंवला तो खिला दो यार
झूठ नहीं सच कह रहा हूं ,

आंवला मांगने की युक्ति में ही क्यों खत्म करना चाहेगा
कोई अपनी आंखों की रोशनी

वैसे वाकई सच कहूं- मक्खियां न भिनभिनाती यूं आंखों में
तो भी आंवला खाने का
कोई न कोई बहाना तो बनाता ही मैं
तुमने कम्बखत मुरब्बा बनाया भी तो है इतना अनोखा,
चुरा-चुरा कर खाने का हो रहा है मन।
***  
सम्पर्क :    
Flat No. 91, 12th Floor, Type-3

Central Government Houses
Grahm Road
Tollygunge
Kolkata-700040

Mob: 09474095290

3 comments:

  1. बढिया कवितायें हैं वगैर किसी कलात्मक बाजीगरी के सधे हुए शिल्प मे अपनी बात कह रहीं हैं

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  2. अच्छी कविताये.....पसन्द आयी

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