अनुनाद पर पिछली पोस्ट में विजय गौड़ की कविताएं आपने पढ़ीं। मेरे लिए विजय की एक पहचान देहरादून है, गो वे अब कोलकाता में रहते हैं। संयोग है कि यह पोस्ट भी देहरादून से ही।
नूतन
डिमरी गैरोला की ये कविताएं इतने अटपटे स्वर में बोलती हैं कि समय के मुहावरों से अलग कोई
आवाज़ सुनाई देने लगती है। सभी कुछ गढ़ डालने की इच्छाओं के बीच यह एक सच्ची आवाज़
अनगढ़ रह जाने की सुनी जानी चाहिए। सामान्य जीवन के घटनाक्रम यहां हैं, किंचित गूढ़ पर उतनी ही सहजता से कह दिए जाते। वैसी ही
इच्छाएं भी- जितनी मानवीय, उतने ही
अमानवीय तरीके से समाज और संस्कारों में तय कर दिए गए उनके अंत। पहली कविता हमें
बहुत बोलने वालों के इलाक़े में हमारी ही हत्याओं के दृश्य दिखाती है। यह एक
समकालीन प्रसंग है, जिसके राजनीतिक आशय किसी छुपे नहीं रह
सके हैं। बातों का वह खेल जो हमारे सार्वजनिक जीवन में है, नूतन
उसकी विस्तृत पड़ताल करती हैं।
नूतन पहले भी एक बार अनुनाद पर छपी हैं। वे वरिष्ठ
चिकित्सक हैं और सामाजिक हलचलों में शामिल रहती हैं। नेट पर ही
कुछ जगह और उन्हें पढ़ने की स्मृतियां पाठकों के मन में अवश्य होंगी। मैं अनुनाद
पर उनका स्वागत करता हूं।
***
आवाज़ें
मौत की घंटियाँ सुन रही
हूँ
शरीर जम्हाई लेता है
लम्बी सांस खींचता है बार
बार ...
पिछले कुछ दिनों से अपने
में ही दुबक गयी हूँ मैं
ग़ायब हो जाने के लिए
मेरे शब्द मौन हो गए हैं
अब
कुछ हिचकियाँ बाक़ी है
बे सिर-पैर की बातें हंसती
हैं
चारों तरफ़
फांद आई हैं वो
दालान और छत
कि सबसे तेज़ क़दम चलती
हैं वे
चलती हैं तो हवाओं से हलकी
ठहरती हैं तो पृथ्वी से
भारी होती हैं
उनके जूते कभी घिसते नहीं
और उन जूतों के ख़रीददार
भी
चारों तरफ़
हमारे समय का सबसे तेज़
दिमाग़
निवेश करता है
उनके जूतों की दुकान में
जूते इनके जाल हैं
जिनमे बेसिर पैर की बातें
ठूंस लेती हैं अपने हाथ
मानो पैर
हाथ होते हैं आँखों पर
दिखता कुछ आधा अधूरा, उल्टा-पुल्टा, धुंधला बेहद
और कान जन्म से पहले ही
छोड़ आई है
ये डार्विनवाद की तरह
यकायक
चुन नहीं ली गयी कईयों के
बीच से ..
लम्बे समय समयांतराल में
जरूरत के हिसाब से
इनके सर पाँव गल गए हैं
समकालीन होने के लिए
लैमार्क ज्यादा सही थे
विकास के प्रक्रम में
( ऐसा मेरा मानना है )
इनका उदर बड़ा हो चुका है
और देह में एक बहुत बड़ा
विकसित मुंह
जिससे सच्चाई को दबाने
चबाने पिचकाने पचाने
का काम आसानी से होता है
आवाजों का हाहाकार के बीच
भी
इनका काटा सच बहरा गूंगा हो जाता है
इनके हाथ कितने लम्बे होते
हैं मालूम नहीं
जो हत्यारे होते है सर
पैरों के
कि उसके बाद तुरंत समेट
लेते है उनको
उदर के खोल में
जैसे घोंघों की
स्पर्शिकायें सिकुड़ जाती हैं कड़े खोलों में...
इनका कोई ओर-छोर नहीं
जैसे किसी गेंद पर रखो क़दम
तो लुढ़कते जाओगे
किसी ग्रह-उपग्रह जैसे
पृथ्वी या चाँद पर चलना
कि चलते जाओगे
दूरी की कोई थाह नहीं|
ये कम सतह पर समाहित कर
देते हैं
सबसे ज्यादा वज़न
और यलगार नहीं कहते
बस कर देते है आक्रमण
इनके भार से झुक जाती है
पृथ्वी,
और जैसे सच ...
वैसा ही आह मेरा गला
आह मेरी आवाज़
***
अपने हिस्से
का पानी
हम अपने-अपने
हिस्से का पानी लिए
जिए जा रहे हैं
देह में उबलता
हुआ, लहू सा बहता हुआ
और एक दुनिया
जो है पानी सी
हमसे भी और
हमारे साथ भी
जिसमें हम घुल
जाते हैं रम जाते हैं
और हर सुख
दुःख में
निश्छल पानी
सा ढल जाते हैं
और तुम
कितने गहरे, कैसा
तुम्हारा विस्तार, कितने तुम गूढ़
एक सागर तुममें
देखा था
जबकि तुम
इस दुनिया से
निकल गए
एक नदी की तरह
कभी न पलट आने
के लिए
मैं हर रोज़
अंजुलि में पानी भर
देख लेती हूँ
किनारों को
भिगोता हुआ
एक सम्पूर्ण
सागर
और किनारे
जो समानांतर
दूर दूर नहीं टिके
वो एक परिधि
में,
घूमते हैं
मिल जाते हैं
और उस सागर
में होते हो तुम
और होता है
प्रतिबिम्ब तुम्हारा
एक घूंट से
मैं आचमन कर लेती हूँ
बाक़ी से खुद
को भिगो देती हूँ
***
सुनो
तुम किस-किस
को बूझोगे?
किस-किस की
सुनोगे?
यह कठिन प्रश्न तो मेरे लिए है,
यह कठिन प्रश्न तो मेरे लिए है,
तुम्हारे लिए
महज
एक उत्तर सहज
सा ....
फिर भी साथ बने रहने के लिए
सुनो! उस सूखी बावड़ी के किनारे
जहाँ कोमल इच्छाएं करती हैं आत्महत्या
हम एक बागीचा लगा देते है सभी कोमल फूलों का
कि तुम हाथ में लिए रहो उनका लेखा जोखा
थोड़ी काली मिट्टी और कुछ भुरभुरी खाद
फिर बैठ कर साथ उन फूलों के रंगों पे गीत गायेंगे
बांटेंगे उनका सुख दुःख
फिर भी साथ बने रहने के लिए
सुनो! उस सूखी बावड़ी के किनारे
जहाँ कोमल इच्छाएं करती हैं आत्महत्या
हम एक बागीचा लगा देते है सभी कोमल फूलों का
कि तुम हाथ में लिए रहो उनका लेखा जोखा
थोड़ी काली मिट्टी और कुछ भुरभुरी खाद
फिर बैठ कर साथ उन फूलों के रंगों पे गीत गायेंगे
बांटेंगे उनका सुख दुःख
शर्त इतनी है
मेरी
कि मुझमें फिर कभी मत ढूंढना
विराम से पहले का
वह कोमल गुलाब|
***
कि मुझमें फिर कभी मत ढूंढना
विराम से पहले का
वह कोमल गुलाब|
***
उसने देखी थी तस्वीर
अपनी ही सखी की
जिसमे स्त्री हो जाती है
जंगली
जिसके तन पर उग आती है पत्तियाँ
बलखाती बेलें अनावृत सी
कुछ टीले टापू और ढलानें
और
जंगल के बीच अलमस्त बैठी वह
स्त्री
सारा जंगल समेटे हुए
प्रशंसक हैं कि टकटकी बाँध घेरे
हुए तस्वीर को
और चितेरे अपने मन के रंग भरते
हुए ..........
अपनी ही सखी की
जिसमे स्त्री हो जाती है
जंगली
जिसके तन पर उग आती है पत्तियाँ
बलखाती बेलें अनावृत सी
कुछ टीले टापू और ढलानें
और
जंगल के बीच अलमस्त बैठी वह
स्त्री
सारा जंगल समेटे हुए
प्रशंसक हैं कि टकटकी बाँध घेरे
हुए तस्वीर को
और चितेरे अपने मन के रंग भरते
हुए ..........
तब धिक्कारती है वह अपने भीतर की स्त्री को
जिसने
देह के सजीले पुष्प और महक को
छुपा कर रखा बरसों
किसी तहखाने में जन्मों से
कितने ही मौसमों तक
और तंग आ चुकती है वह तब
दुनिया
भर के आवरण और लाग लपेट से
वह कुत्ते की दुम को सीधा
करना चाहती है
ठीक वैसे ही जैसे वह चाहती है जंगली हो जाना
लेकिन उसके भीतर का जंगल
जिधर खुलता है
उधर बहती है एक नदी
तथाकथित संस्कारों की
जिसके पानी के ऊपर हरहरा रहा है बेमौसमी जंगल
और वह देखती है एक मछली में खुद को
जो तैर रही है उस पानी में
वह कुढ़ती है खुद से
वह उठाती है कलम
और कागज पर खींचना चाहती है एक जंगल बेतरतीब सा
पर शब्द भी ऐसे हैं उसके कि जंगली
हो नहीं पाते
ईमानदारी से जानने लगी
है वह
जंगली हो पाना कितना कठिन है
असंभव
वह छटपटाती है
हाथ पैर मारती है
जिधर से गुजरती है वह
उसके मन के जंगल से गिर जाता है
सहज हरा धरती पर
प्रकृति खिल उठती है
हरियाली लहलहाने लगती है
प्यूंली खिल उठती है पहाड़ों में
कोयल गीत गाती है
और बसंत मुस्कुराता है
***
देह के सजीले पुष्प और महक को
छुपा कर रखा बरसों
किसी तहखाने में जन्मों से
कितने ही मौसमों तक
और तंग आ चुकती है वह तब
दुनिया
भर के आवरण और लाग लपेट से
वह कुत्ते की दुम को सीधा
करना चाहती है
ठीक वैसे ही जैसे वह चाहती है जंगली हो जाना
लेकिन उसके भीतर का जंगल
जिधर खुलता है
उधर बहती है एक नदी
तथाकथित संस्कारों की
जिसके पानी के ऊपर हरहरा रहा है बेमौसमी जंगल
और वह देखती है एक मछली में खुद को
जो तैर रही है उस पानी में
वह कुढ़ती है खुद से
वह उठाती है कलम
और कागज पर खींचना चाहती है एक जंगल बेतरतीब सा
पर शब्द भी ऐसे हैं उसके कि जंगली
हो नहीं पाते
ईमानदारी से जानने लगी
है वह
जंगली हो पाना कितना कठिन है
असंभव
वह छटपटाती है
हाथ पैर मारती है
जिधर से गुजरती है वह
उसके मन के जंगल से गिर जाता है
सहज हरा धरती पर
प्रकृति खिल उठती है
हरियाली लहलहाने लगती है
प्यूंली खिल उठती है पहाड़ों में
कोयल गीत गाती है
और बसंत मुस्कुराता है
***
अपनी हत्या
के ख़िलाफ़
मुझे इस्तेमाल करना है ज़िंदगी को
अपने ही हाथों
अपनी हत्या के ख़िलाफ़
रोज़ उम्मीदों की देह पर उमगते नासूर
हत्या की साजिश करते हैं
और सुर्ख़ विचार
विचलित होते मन की पीठ पर
हाथ धरते हैं|
मैं अपनी ज़िद पर अड़ी
जिंदगी को हर दिन गुलदान में
सजा देती हूँ
ताकि महकता रहे घर भर ……
विचलित होते मन की पीठ पर
हाथ धरते हैं|
मैं अपनी ज़िद पर अड़ी
जिंदगी को हर दिन गुलदान में
सजा देती हूँ
ताकि महकता रहे घर भर ……
***
केतली में
उजाला
उसने खौला लिया था सूरज एक चम्मच चीनी के साथ
वह जीवन के कडुवे अंधेरों में कुछ मिठास घोलना चाहता था
उसके दिन के उजाले चाय के कप में डूबे हुए थे
और उसका सूरज
ताजगी देता हुआ जीवन की उष्मा से भरपूर
गर्म सिप बनकर उतर आता था लोगों की जिह्वा पर
.
उसकी केतली घूमती थी बाजार भर
और वह पहाड़ की ओट के ढालान पर
सर्दी में भी
दिन की ठंडी छाया में
शीतल सरसराती हवाओं में ठिठुरता हुआ
छोटे कांच के गिलास में
उड़ेल कर
गर्मी और ज़ायके का व्यापार करता था .......
नहीं जानता था वह ग्रीन टी
न चाय निम्बू की
पुश्तों से जाना था
ब्रुक बांड टी और गाढ़ा भैंस का दूध
जो दुह कर मुंह सवेरे वह निकल पड़ता था
उसकी चाय का कुछ ख़ास स्वाद होता था|
कुछ थके-हारे लम्बे सफ़र के
ट्रक चालक
उन गिलासों के साथ अपनी थकान वहीं छोड़ जाते थे
वह तुरंत पलट कर धो देता था गिलास
पानी से धोते हुए जम जाते थे उसके हाथ
वह पानी बाँज की जड़ों का रिसता जल था
पहाड़ का सबसे स्वादिष्ट सबसे ठंडा तरल
वह जीवन के कडुवे अंधेरों में कुछ मिठास घोलना चाहता था
उसके दिन के उजाले चाय के कप में डूबे हुए थे
और उसका सूरज
ताजगी देता हुआ जीवन की उष्मा से भरपूर
गर्म सिप बनकर उतर आता था लोगों की जिह्वा पर
.
उसकी केतली घूमती थी बाजार भर
और वह पहाड़ की ओट के ढालान पर
सर्दी में भी
दिन की ठंडी छाया में
शीतल सरसराती हवाओं में ठिठुरता हुआ
छोटे कांच के गिलास में
उड़ेल कर
गर्मी और ज़ायके का व्यापार करता था .......
नहीं जानता था वह ग्रीन टी
न चाय निम्बू की
पुश्तों से जाना था
ब्रुक बांड टी और गाढ़ा भैंस का दूध
जो दुह कर मुंह सवेरे वह निकल पड़ता था
उसकी चाय का कुछ ख़ास स्वाद होता था|
कुछ थके-हारे लम्बे सफ़र के
ट्रक चालक
उन गिलासों के साथ अपनी थकान वहीं छोड़ जाते थे
वह तुरंत पलट कर धो देता था गिलास
पानी से धोते हुए जम जाते थे उसके हाथ
वह पानी बाँज की जड़ों का रिसता जल था
पहाड़ का सबसे स्वादिष्ट सबसे ठंडा तरल
और वह रात को बाजार की आख़िरी बंद होती दूकान के बाद
अपनी चादर पटरा समेटता था
कुछ बर्तन हाथ में और होता था कंधें में एक झोला
दूर से टकटकी लगाये उसका बाट जोहती चार जोड़ी निगाहें
और उस दिशा में उकाल पर चढ़ता
वह धौकनी होती अपनी फूलती साँसों की परवाह न करता
.
आख़िरी धार पर मिट्टी की झोपड़ी
कि घर के भीतर घुसते ही
उसके कंधे के झोले की ओर
प्रश्नवाचक उत्सुक निगाहें
झोले के बंद रहस्य में छिपे
बहुरंगी खुशियों को घेर लेती
वह झोला खोल देता
और
बरबस उन निगाहों में
चमक उतर आती ......
कितने ही सूरज उसके घर उस वक्त जगमगा उठते|
तब उस रात के अँधेरे में
वह खुशियों से भरा
एक गुनगुना दिन जोड़ लेता |
***