Friday, February 27, 2015

किसी सलीब पर देखा है मुझको बोलो तो - अशोक कुमार पांडेय की नई कविता



अशोक की कविता में बेचैनी भी एक मूल्य की तरह उभरती है। हिंदी कविता में उसका चेहरा  बे‍शिकन चेहरा नहीं है। वहां गहरे स्याह साए और एक जलती हुई उम्मीद है। वो ख़ुद से जिरह करते हुए उस जिरह की सामाजिकता को बहुत ख़ामोशी से अंधेरों के माथे पर उकेरता हुआ भी चलता है। विचार जब प्रहसन बन चले हैं, अशोक जैसे कवि उनकी संजीदगी को अपने जीवन-संघर्षों की उमस भरी उर्वरता में बो देते हैं। यहां दी जा रही कविता ख़ुद की तलाश में मिले घावों से भरी हुई है। आत्म को सुन्दर समाज के स्वप्न में खोजना ही आत्मखोज है, जटिल और सुन्दर। मैं ऐसी कविता और कवियों में अपने जीवन संघर्ष भी तलाश पाता हूं। अकेले की कला के विरुद्ध यह जीवट भरी सामाजिक कला है, जिससे हमारा तादात्म्य सहज ही स्थापित हो जाता है। इस कविता के लिए अनुनाद का आभार स्वीकार करो कामरेड।  

 
(एक)

आधी रात बाक़ी है जैसे आधी उम्र बाक़ी है

आधा कर्ज बाक़ी है आधी नौकरी आधी उम्मीदें अभी बाक़ी हैं

पता नहीं आधा भी बचा है कि नहीं जीवन



अब भी अधूरे मन से लौट आता हूँ रोज़ शाम

रोज़ सुबह जाता हूँ तो अधूरे मन से ही

जो अधूरा है उसे पूरा कहके ख़ुश होने का हुनर बाक़ी है अभी

अधूरे नाम से पुकारता हूँ जिसे प्यार का नाम समझता है वह उसे!



एक अधूरे तानाशाह के फरमानों के आगे झुकता हूँ आधा

एक अधूरे प्रेम में डूबता हूँ कमर तक



(दो)



वह जो चल रहा है मेरे क़दमों से मैं नहीं हूँ



हवा में धूल की तरह चला आया कोई

कोई पानी में चला आया मीन की तरह

कोई सब्जियों में हरे कीट की तरह

और इस तरह बना एक जीवन भरा पूरा



पाँचो तत्व सो रहे हैं जब गहरी नींद में

तो जो गिन रहा है सड़कों पर हरे पेड़

वह मैं नहीं हूँ



(तीन)



इतनी ऊँची कहाँ है मेरी आवाज़

एक कमज़ोर आदमी देर तक घूरता है कोई तो डर जाता हूँ

कोई लाठी पटकता है जोर से तो अपनी पीठ सहलाता हूँ

शराबियों तक से बच के निकलता हूँ

कोई प्रेम से देखे तो सोचते हुए भूल जाता हूँ मुस्कुराना





दफ्तर में मंदिर की तरह जाता हूँ

मंदिर में दफ्तर की तरह



अभी अभी जो सुनी मेरी आवाज़ आपने और भयभीत हुए

वह मेरे भय की आवाज़ है बंदानवाज़



(चार)



कौन करता मेरा ज़िक्र?



मैं इस देश का एक अदना सा वोटर

एक नीला निशान मेरा हासिल है

मैं इतिहास में दर्ज होने की इच्छाओं के साथ जी तो सकता हूँ

मरना मुझे परिवार के शज़रे में शामिल रहने की इच्छा के साथ ही है



किसी ने कहा प्रेम तो मैंने परिवार सुना

किसी ने क्रान्ति कहा तो नौकरी सुना मैंने

मैंने हर बार बोलने से पहले सोचा देर तक

और बोलने के बाद शर्मिन्दा हुआ



मैंने मोमबत्तियाँ जलाईं, तालियाँ बजाईं

गया जुलूस में जंतर मंतर गया कुर्सियां कम पड़ीं तो खड़ा रहा सबसे पीछे हाल में

और रात होने से पहले घर लौट आया



वह जो अखबार के पन्ने में भीड़ थी

जो अधूरा सा चित्र उसमें वह मेरा है

सिर्फ इतने के लिए भी चाय पिला सकता हूँ आपको

कमीज़ साफ़ होती तो सिगरेट के लिए भी पूछता

--- 
रुकिए..लिख तो दूँ कि धूम्रपान हानिकारक है स्वास्थ्य के लिए

12 comments:

  1. अपने में गहरे उतरकर लिखना बहुत कठिन है | अवलोकन आसान होता है जबकि आत्म-विश्लेषण हमेशा दुविधा में डालता है लेकिन अशोक भाई को जब भी पढ़ा उन्हें ईमानदार पाया | कुछ पंक्तियाँ बार-बार पढ़कर एहसास करने का मन हुआ , बांधती हुई कविता ..भाव जटिल थे ..निरीह व्यक्ति का विरोध नहीं दिखा वरन वृद्ध भाव थे जिसने जीवन को गहरे तक जिया और जीना चाहता है |

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  2. किसी ने कहा प्रेम तो मैंने परिवार सुना ...दफ्तर में जाता हूँ मंदिर की तरह और मंदिर जाता हूँ दफ्तर की तरह... खतरनाक पंक्तियाँ ... । जब आपको पढ़ती हूँ मुक्तिबोध याद आते हैं। दर अस्ल मुक्तिबोध जहां रुकते हैं वहाँ से आपकी कविता शुरू होती है।

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  3. बहुत उम्दा कवितायें! हमेशा की तरह अशोक जी की कवितायें गुमराहों को चेतन रास्तों का रोडमेप दिखलाती हैं

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  4. बहुत ही अच्छी कविताएं। दिल भर आया,अपने पिताजी को इन सब के अंदर देख पा रही हूं और उनके जैसे जाने कितने ही। loved these. ..

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  5. गहरी संवेदना की कवितायेँ ! बकौल धूमिल " कविता घिरे हुए आदमी का संक्षिप्त एकालाप है " कुछ वैसी ही बेचैन और व्यथित कर देने वाली मार्मिक कवितायेँ !

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  6. तुषार धवलFebruary 27, 2015 at 11:40 PM

    अशोक, आज कुछ नहीं लिखूंगा. बस चुप रहना चाहता हूँ, बहुत देर तक. इसे अपना असर समझो.

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  7. तरुण भटनागरFebruary 27, 2015 at 11:41 PM

    जो महसूस होता है उसे कहने को ठीक ठीक शब्द नहीं तलाश पाया... हो सकता कोई अतिशयोक्ति कहे पर यह है बिलकुल। सहमत हूँ Tushar ये कम्बख्त चुप करा देता है...' जो अधूरा है उसे पूरा कहके खुश होने का हुनर बाकी है अभी'...सच में अगर उम्दा कह दूँ तो भी खुद को लगेगा की क्या कहा, कितना कम...सच में कुछ कहा नहीं जा सकता...

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  8. वंदना रागFebruary 27, 2015 at 11:42 PM

    इतना अधूरा की कमतरी का अहसास होने लगे,खतरनाक है...बधाई अशोक.लेकिन कलेजे में चोट सी लगी..

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  9. सुमंत पंडयाFebruary 27, 2015 at 11:43 PM

    दफ्तर में मंदिर की तरह जाता हूं ,
    मंदिर में दफ्तर की तरह जाता हूं ।
    बहुत गहराई में ले जाने वाली कविता ।

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  10. बहुत मार्मिक कविता। वैचारिक बेचैनी और सघन संवेदना का ऐसा संतुलन साधना कठिन होता है, यहाँ सध सका है कुछ तो कवि-स्वभाव के ही कारण और कुछ कडे़ आत्मानुशासन के कारण..
    बधाई अशोक...

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  11. एक अजीब सी बेचैनी दिखती है इस कविता में .कहीं -कहीं अपने भीतर की बेचैनी की झलक दिख जा रही है..मन में गहरे उतर जाती हैं आपकी कवितायेँ.

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  12. एक प्रतिबद्ध कवि जो अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष कर रहा है, अशोक पाण्डेय अपने समय और परिवेश के प्रति गहरी मानवीय संवेदना के कवि हैं। आज आदमी पर जिस तरह के दबाव पड़ रहे हैं उन्हें देखते हुए गहरे अर्थों में लिखी गयी कविता अपने कलात्मकता में अलग पहचानी जा सकती है।

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