Wednesday, January 14, 2015

लोककाव्य के रूप(कुमाउनी पहेलियाँ) - राजेश प्रसाद

          मनुष्य के मनोरंजनार्थ चिर-परिचित कथन को रहस्यात्मक और प्रश्नात्मक रूप में उत्तर देने वाली युक्ति को पहेलीकहते हैं। जो वास्तव में मनुष्य के ज्ञान की प्राप्ति का परिणाम और उसका प्रसार करती हैं। मानव समाज में मनोरंजन के अनेक साधन होते हैं जिसमें प्रश्नोत्तर शैली में चलने वाली पहेलियों का प्राचीन काल से ही महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। लोकसाहित्य में मनोरंजन की दृष्टि से पहेलियों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। भारतवर्ष के प्रत्येक क्षेत्र के साहित्य में ये पहेलियाँ अलग-अलग नाम से विद्यमान हैं। कुमाउनी समाज में भी पहेलियों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यहाँ इन्हें आ्ण या आहण नाम से जाना जाता है। बागेश्वर जिले के नाकुरी क्षेत्र में इन्हें एैणनाम से भी जाना जाता है। यह शब्द मूलतः संस्कृत में आभाणकहै जो प्राकृत में आहाणयहोकर भारत के विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग नाम से जाना जाता है। कुमाउनी में आणशब्द पहेली के अर्थ में जाना जाता है। कहीं-कहीं पहेली को लोकोक्ति भी कहा गया है। गढ़वाल में भी कहीं-कहीं भणनोधातु या आणोशब्द का प्रयोग लोकोक्ति के लिए होता है।1

          ‘भोजपुरी लोकसाहित्य का अध्ययननामक पुस्तक में डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय लिखते हैं: ‘‘पहेली लोकोक्ति है, लोकमानस इसके द्वारा अर्थ-गौरव की रक्षा करता है और मनोरंजन प्राप्त करता है, यह बुद्धिपरीक्षा का साधन है। पहेलियाँ पद्यात्मक होती हैं।’’2 कृष्णदेव उपाध्याय अपनी दूसरी पुस्तक हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहासमें लिखते हैं - ‘‘पहेली यथार्थ में किसी वस्तु का वर्णन है जिसमें अप्रकृत के द्वारा प्रकृत का संकेत है। अप्रकृत इन पहेलियों में बहुधा वस्तु उपमानके रूप में आता है। ग्रामीण पहेलियों में ऐसे उपमान ग्रामीण वातावरण से लिए जाते हैं, ये एक प्रकार से वस्तु को सुझाने वाली उपमानों से निर्मित शब्द चित्रावली है कि यह किसका चित्र है, पर इससे यह नहीं समझना चाहिए कि उपमानों के द्वारा यह चित्र पूर्ण होता है, उपमानों द्वारा जो चित्र निर्मित होता है वह अस्पष्ट होता है उससे अधूरा संकेत मिलता है पर वह संकेत इतना निश्चित होता है कि यथासम्भव उससे किसी अन्य वस्तु का बोध नहीं हो सकता, ये मनोरंजन के साथ-साथ बुद्धि परीक्षा का काम देती हैं।’’3

          सुप्रसिद्ध कुमाउनी भाषा साहित्य विशेषज्ञ डॉ. त्रिलोचन पाण्डेय अपनी पुस्तक कुमाउनी भाषा और उसका साहित्यमें लिखते हैं कि - ‘‘पहेलियाँ मनोरंजन का उत्कृष्ट साधन हैं। बुद्धिमान भी कभी-कभी इनके कौतुहल मिश्रित अर्थगौरव के सामने सिर झुका देते हैं। अस्पष्ट संकेत देकर सामने वाले से वस्तु का नाम पूछना वस्तुतः बुद्धि परीक्षा के समान ही व्यापार है।’’4 पहेलियां जनसाधारण के लिए मनोविनोद के सहज उपलब्ध साधन हैं, जिनका उद्देश्य उत्तर-प्रत्युत्तर द्वारा अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना होता है। पहेलियों में जिस वण्र्य वस्तु के गुण, रूप, रंग, आकार, प्रकार, उपयोग अथवा स्वभाव के विषय मे श्लेषमूलक संकेत रहता है उसी को पकड़कर अर्थ की कल्पना की जाती है। इनके अन्तर्गत प्रायः वही वस्तुएँ निर्दिष्ट रहती हैं जिनका ग्रामीण वातावरण एवं जनजीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।
          इसी प्रकार डॉ. उर्बादत्त उपाध्याय ने अपनी पुस्तक कुमाउनी की लोकगाथाओं का साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययनमें लिखा है - ‘‘परस्पर मानसिक स्तर तथा बौद्धिक विकास को परखने  के लिए पहेलियाँ पूछने की लम्बी परम्परा रही है। अतः मौखिक साहित्य में इनका निजी स्थान है, ये मनोरंजन का बहुत बड़ा साधन है। पहेली में किसी साधारण बात को इस ढंग से पूछा जाता है कि श्रोता के मस्तिष्क पर दबाव पड़ता है और वह गणित के प्रश्न की तरह उत्तर ढूँढने की चेष्टा में खो जाता है।’’5
          पहेलियों की परम्परा अत्यधिक प्राचीन है जो हमें सर्वप्रथम वेदों में देखने को मिलती है। मुख्यतः ऋग्वेदइनका भण्डार है इसी कारण ऋग्वेदको पहेलियों का वेद भी कहा गया है। इन पहेलियों को वेदों में ब्रह्मोदयनाम से जाना जाता है। कुमाउनी जन-जीवन में यह सामान्य जन के मनोविनोद का महत्त्वपूर्ण साधन है। इसके अन्तर्गत प्रश्नकर्ता पहेली के माध्यम से प्रश्न पूछता है और उत्तर देने वाला पहेली से प्राप्त भाव, संकेत या लक्षण के आधार पर उसका अर्थ देता है। श्रोताओं में से जो जितनी जल्दी पहेली का अर्थ बताता है वह उतना ही अधिक बुद्धिमान और श्रेष्ठ माना जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता  है कि पहेली एक ऐसा प्रश्न है जिसमें उसके रूप रंग आकार-प्रकार आदि का संकेत छिपा रहता है, जैसे-
ऊँनकि उनीं छू,
          ऊनि ले न देखि, जानि ले न देखि   
अर्थात्- नींद
          इस प्रश्न को पहेली के रूप में सुनकर सामान्यतः बालक वर्ग या श्रोतागण अनुमान लगाते हैं कि ऐसी कौन सी वस्तु है जो आती तो जरूर है किंतु न आते दिखती है न जाते। अर्थात् - नींदयह एक ऐसी चीज है जो हर प्राणी के जीवन में अनिवार्यतः समाविष्ट रहती है किन्तु उसके आने जाने को देखा नहीं जा सकता है। इससे पहेली की सार्थकता प्रकट होती है।
          इस प्रकार कुमाउनी में प्रचलित कुछ पहेलियाँ प्रस्तुत हैं-
1-      थाई में डबल गणि नी सकीन,     
स्यांरि सिकड़ टोडि़ न सकीन,     
झल्लू बल्द बाधि न सकीन                       
अर्थात्- क्रमशः- तारे, साँप, बाघ
2-      सफेद घ्वड़ पाणि पींण जां
          लाल घ्वड़ पाणि पिभे आं            
अर्थात्- पूरी
3-      सेति पिटारिक काव ढांकन
          काव पिटारिक स्यत ढांकन                      
अर्थात्- उड़द
4-      खानन् तो खानि
          बिहुँ नी राखन                                       
अर्थात्- नमक
5-      सब बाबा बजार गयीं
          यक घरै लटक रौ                        
अर्थात्- ताला
6-      ‘‘लाल बट्टु डबल भरी’’6                 
अर्थात्- मिर्च
7-      देखिणक् रंगील चंगील,
          खाणक् बेहाल                                        
अर्थात्- इन्द्राणि (जहरीला फल विशेष)
8-      ऊँनकि उनी छू
          ऊँनि ले नै देखि, जानि ले न देखि
अर्थात्- नींद
9-      हरा गेयी ख्वार पड़ग्ये
          पा हालि सिर पड़ग्ये                               
अर्थात्- टोपी
10-    देखण देखौ छू, बुलाई न्हांति       
अर्थात्- फोटो
11-    यतण हैग्यूं कां नै गयूँ                              
अर्थात्- मकान
12-    बुब जै नाति कैं पैंला कुणौ            
अर्थात्- घड़ा-लोटा
13-    तू हिट मैं आब ऊँ                        
अर्थात्- दरवाजा
14-    पेट म्यर गड़बडि़या, बिमार लै न्हाँति
          हा्त मेरि लाठि, बुढ़ लै न्हाँति
          ख्वर म्यर बभूत, जोगि लै न्हाँति।
                                      अर्थात्- हुक्का, चिलम
15-    काई नथूली सुकिल बिन्दी                       
अर्थात्- तवा रोटी
16-    सारै कुडि़क एक्कै खाम                 
अर्थात्- छाता
17-    ‘‘नान् नानि बामणिक हाथ भरी चुड़’’7   
अर्थात्- झाड़ू
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पहेलियों का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन है। कभी-कभी इन पहेलियों में ऐसी बातों का भी वर्णन होता है जिससे हास्य रस की सृष्टि होती है अर्थात् कभी-कभी इनसे हास्य रस की भी उत्पत्ति होती है। गोपनीयता, सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता इनका गुण है। कुमाउनी लोक साहित्य की मौखिक परंपरा में आ्ण’ (पहेली) का महत्तवपूर्ण स्थान है। मनोरंजन के साथ-साथ ये ज्ञानवर्धन भी करती हैं। यह बालक-बालिकाओं, युवा-वृद्ध हर आयु वर्ग के लोगों को आकर्षित करती हैं एक-दूसरे की बुद्धि-परीक्षा के लिए भी इन पहेलियों का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है किंतु वर्तमान में ज्ञान-विज्ञान के नित नए साधनों के समाज में आ जाने से लोक में प्रचलित आणका प्रयोग दिन-प्रतिदिन कमतर होता चला जा रहा है, जिनसे इनकी स्थिति लुप्तप्राय सी होती जा रही है।
***
सन्दर्भ ग्रन्थ
1- गोविन्द चातक, गढ़वाल: भाषा, साहित्य और संस्कृति; पृ0115; तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली;2008
2- डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी लोकसाहित्य का अध्ययन, पृ0 392-96, हिन्दी प्रचारक, 1960
3- डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय,  हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास, पृ0सं. 07, षोडस भाग।
4- डॉ. त्रिलोचन, कुमाउनी भाषा और उसका साहित्य; पृ0सं. 229; राजर्षि पुरूषोत्तमदास टण्डन, हिन्दी भवन लखनऊ, 1977
5- डॉ. उर्बादत्त उपाध्याय, कुमाउनी की लोकगाथाओं का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन, पृ0 63-64
6- डॉ. त्रिलोचन, कुमाउनी भाषा और उसका साहित्य; पृ0सं0 335; राजर्षि पुरूषोत्तमदास टण्डन, हिन्दी भवन लखनऊ, 1977
7- डॉ. देवसिंह पोखरिया, कुमाउनी भाषा साहित्य एवं संस्कृति, पृ0 79, अल्मोड़ा बुक डिपो, 1994
 - राजेश प्रसाद
जूनियर रिसर्च फैलो
हिंदी विभाग, डी.एस.बी.परिसर
कु.वि.वि. नैनीताल

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