Wednesday, January 28, 2015

सोनी पाण्डेय की लम्बी कविता



भारतीय स्त्री के जीवन के करुण महाख्यान के कुछ पृष्ठ लिखती सोनी पाण्डेय की यह कविता प्रस्तुत करते हुए अनुनाद उनका आभारी है। यह पृष्ठ जो बहस में रहेंगे, विमर्श में नहीं अटेंगे, किसी भी अकादमिक बड़बोले अकादमिक लेखन से दूर हमेशा इसी तरह के प्रतिबद्ध रचनात्मक लेखन में धड़केंगे। सोनी पाण्डेय ने अब तक के कविकर्म में अपने जीवनानुभवों के साथ जिस सामाजिक यथार्थ को पाठकों के सामने रखा है, वह हमारे बहुत निकट का यथार्थ है और उतना ही विकट भी। इस जीवन को जानना, इस पर गहराते संकटों को गहरे तक जानना भी है। ऐसे कवि हमें चाहिए जो उस महाख्यान को समझें, जिसे एक समग्र पद में हम जीवन कहते हैं। सोनी ऐसे ही कवियों में अब शुमार हैं।  
***  

चौके की रांड़, गोड़वुल वाली आजी
(एक विधवा के जीवन पर आधारित कुल कथा जिसे माँ के मुँह से सुना था )

1.
मेरे बचपन की कहानियों में
न राजा था न रानी
ना आजी और नानी की भावपूर्ण लोरियाँ
सतरंगी बचपन के ना ही खूबसूरत स्वप्न
माँ थी , माँ का जीवन संघर्ष था ,
सासों का द्वन्द था
माँ सिसकती रही तब से
जब से छिना उसकी नन्हीं उँगलियों के बीच से माँ के आँचल का कोर
आज भी जार - जार रोती है
उसके अन्दर की बेटी
माँ के कफ़न लिपटे शरीर को याद कर ।

2.

बिन माँ की बेटी माँ के हिस्से में नहीं थे राजा और रानी के किस्से
इस लिये वो हम चारो को
सुनाती थी कुछ जीवन्त किस्से
जिसमें औरत थी
औरत का जीवन था
चूल्हा था चाकी था , दरवाजे पर बँधा हाथी था
बाबा का बंगला
बावन गाँव की राजशाही थी ।

3 .
इसी घर में अम्मा ने देखा था
गोडवुल वाली आजी को
भर - भर अंचरा निचुडते
गठरी भर सिकुडते हुए
अम्मा के क़िस्सो में ये सबसे करुण गाथा थी
क्यों कि आजी और अम्मा का नाता
काश और मूज की तरह बना
सुजनी से छेद कर डाली में ढ़ला
जिसमें सहेज कर रखती रहीं घर भर की सुहागिनें
सिंनोरा भर सेंदुर
कहलाती रहीं सधवा ।

4.

मैंने भी देखा था
दक्खिन वाली दालान के कोने में
एक शापित कोठरी
जिसके छाजन की आँखों से आज भी बूँद - बूँद टपकता है आजी का जीवन
यहीं ब्याह कर उतरीं थीं आजी
और सुहाग सेज पर बैठे हुए काल को दे बैठीं जीवन का उजास
डूब गया ब्याहते ही जीवन का सूर्य
बन बैठीं उतरते ही चौके की रांड़।

5.
चौके की रांड़ आजी
अम्मा कहते - कहते फफक पडती
बहिनी घर में पड़ा अतिरिक्त सामान थीं
संस्कृति का कूडे़दान थीं
जहाँ खखाकर थूकना चाहती थी पुरुष की सभ्यता
और आजी पूरे दिन क़ैद रहतीं चौखट के पिंजड़े में ।

6.

गोड़वुल वाली आजी तब तक रहीं घर में रहीं अहम
जब तक लातीं रहीं नईहर से
बाँधकर कमर में
भर खोंईछादानी अशरफ़ी और मुहरें
रसद बैलगाड़ी में
अम्मा ने सुना था नाऊन के मुँह से कि
उनके पलंग के पाये चाँदी के और झालर सोने के थे ।

7.
आजी की सफ़ेद एकलाईवाली साड़ी
अम्मा कहती थी
धीरे - धीरे मटमैली होती गयी
जब ख़ाली हो गयी नईहर की तिजोरी
बचा रह गए शापित खेत और खलिहान
घर और दालान
जिसकी चौखट पर उजाड़ कर पूरा कुटम्ब बैठे थे ब्रह्म
शेष बची आजी कही जाती थीं
हट्ठिन और मरीन
जिसका बिहाने मुँह देखना महापाप
छू जाना शाप था ।

8.

धीरे - धीरे अम्मा कहती थीं
कि आजी का जीवन
घर भर की सुहागिनों के उतरन और बच्चों के जूठन पर आ टिका
जो लेकर उतरीं थीं
सोने की ईंट
बखरी भर रसद ।

9.

चौके की राड़ आजी और अम्मा का नाता
बिन सास के घर में
दियना संग बाती-सा था
जब उतरी थी अम्मा बारहवें साल में
बन कर नववधू बड़का दुवार पर
बिन माँ की बेटी को छाती से साट कर सोती थीं आजी
जब बाऊजी सोते थे पिता की गोद में
पकडकर नन्हीं हथेलियों को सिखातीं लिखना और पढना
औरत का जीवन जब बाऊजी जाते दूर शहर पढने
आजी के कमरे की दीवारों पर देखे थे अम्मा ने
कुछ लाल कुछ स्याह धब्बे
जो भरे यौवन में बड़ी तबाही का दस्तावेज़ थे ।
देखी थीं पलंग के नीचे मऊनी में कुछ लाल कुछ पीली चूडियाँ
जिसे रात में पहनतीं और दिन में तोडतीं थीं आजी
काठ के सन्दूक में कुछ नीली -पीली साड़ियां
ताखे पर डिबनी भर पीला सिन्दूर
जिसे रात में लगाकर सुबह धोती थीं आजी
कहलाती थीं राड़िन और साढ़िन
विधवा का प्रपंच ।

10.

अम्मा कहते -कहते रो पड़ती फफक कर
कि
त्योहारों में आजी
कूंच लेतीं पाँव के नाख़ून
और रिसते हुए ख़ून से
पोत लेतीं महावर
भर लेतीं माँग और कढ़ाकर
करुण राग चित्कारतीं
" कहाँ गईलें रे रमऊवा
हमार सेजिया डसाई के हो रामा . . . ,"
***

सोनी पाण्डेय
कृष्णानगर
मऊ रोड
सिधारी आजमगढ
उत्तर प्रदेश
9415907958
dr.antimasoni@gmail.com

Sunday, January 18, 2015

संध्या नवोदिता की कविताएं




इसी मुल्क का ज़िंदा बाशिंदा


अब मैं इससे ज्यादा वेदना से नही रो सकता

इससे ज्यादा आंसू नहीं हैं मेरे पास
मन भर की कराह और जीवन की आह
से ज्यादा नहीं है कुछ
अपनी सच्चाई का यकीन दिलाने के लिए।

मुझे रोटी चाहिए
यह जो आँखें धँस रही हैं
और जो मैं लुढका जा रहा हूँ ज़मीन पर
सच कहता हूँ
यह नींद की खुमारी नहीं
मैं आलसी और निकम्मा भी नहीं
मेरी आंते ऐंठ रही हैं
सिर्फ रोटी के लिए

मेरा सच मेरी ज़िन्दगी है

मैं भी तमाम व्यंजन खा सकता हूँ
सपने देख सकता हूँ डिजिटल सिनेमाघर में
मैं नाच भी सकता हूँ, गा भी सकता हूँ और तेज़ रफ़्तार से कार भी चला सकता हूँ
पर यकीन जानो
ऐसा कुछ करने का जरा भी दिल नहीं मेरा
मैं तो बस यकीन दिलाना चाहता हूँ कि मरगिल्ला सा मैं जो तुम्हारे सामने पड़ा हूँ
इसी मुल्क का जिंदा बाशिंदा हूँ
और बस तुम्हे अपने इंसान होने का सुबूत भर पेश कर रहा हूँ

मैं अब इससे ज्यादा कुछ कहने लायक नहीं
थोड़ी देर में नसें तड़क जायेंगी मेरी
आँखें आसमान से जा मिलेंगी
और जिस्म ज़मीन से

मेरा शरीर तुममें संवेदना नहीं
घिन और जुगुप्सा जगाता है
मैं भी हूँ इसी मुल्क का ज़िंदा बाशिंदा
और मर रहा हूँ

जूझ रहा हूँ एक बूँद पानी और एक निवाले के लिए
भूख से तड़प रहे अपने बच्चों को अपनी गोद में संभाले
मैं बदहाल फटेहाल

तुम मुझे पहचानते नहीं
और मैं अपने होने की जिद पर अड़ा हूँ।
*** 
एक दिन जब हम नहीं रहेंगे 
 
एक दिन जब हम नहीं रहेंगे
किताबों की ये अलमारी खोलेगा कोई और
किसी और के हाथ छुएंगे इस घर की दीवारों को
कोई खोलेगा खिडकी
और हमारा रोपा इन्द्रबेला मुस्कुराएगा.
हो सकता है किसी और की उंगलियां नृत्य करें इस कंप्यूटर कीबोर्ड पर
कोई और उठाये फोन का रिसीवर

एक दिन
जब नहीं रहेंगे हम
कुछ भी नही बदला होगा
वैसे ही निकलेगा सूरज ,होगी शाम
छायेगे घने बादल
बंधेगी बारिश की लंबी-लंबी डोरियाँ
नाव तैरायेंगे बच्चे .. छई छप करते हुए..

हमारे जाने के बहुत बहुत बाद तक रहेगा हमारा घर हो चुका यह मकान
यह अलमारी, बरसो बरती गयी यह मेज़,
मेले से चुन कर लाया गया यह गुलदस्ता,
बेहतरीन कारीगर के बनाए चमड़े के बने घोड़े,
शिल्प-हाट से बहुत मन से लिए गए कांच के बगुले, टेराकोटा का घना पेड़,
लिखने की इटैलियन मोल्डेड टेबल ,
पहनी हुई चप्पलें, टूथ ब्रश ,ढेर सारे नए कपडे भी ,जो कभी पहने नहीं गए,

हारमोनियम, कांच की चूडी, यहाँ तक कि आइना भी
और हाँ ,दूसरे मुल्क की सैर कराने वाला पासपोर्ट
और वे सभी कागज़-पत्तर जो हमारे जीवित होने तक पहचान पत्र बने रहे
सब कुछ बच रहेगा बहुत समय तक
बिना हमारे किसी निशान  के

जिस पल ये सब कुछ होगा
बस हमारी गंध नही होगी इन सब पर ,
हमारी मौजूदगी का कोई चिन्ह नही
उस दिन भी सब कुछ चलेगा ऐसे ही
कुछ आपाधापी, कुछ मौज मस्ती

लौट
-लौट के आती है इन सब के बीच होने की ख्वाहिश
कहाँ से बरसती हैं ऐसी हसीन इच्छाएं

एक दिन
जब जायेंगे हम फिर कभी न लौटने के लिए
नहीं ही तो लौट पायेंगे सचमुच .
*** 


औरतें -1

कहाँ हैं औरतें ?
ज़िन्दगी को  रेशा-रेशा उधेड़ती
वक्त की चमकीली सलाइयों  में
अपने ख्वाबों के फंदे डालती
घायल उंगलियों को  तेज़ी से चला रही हैं औरतें

एक रात में समूचा युग पार करतीं
हाँफती हैं वे
लाल तारे से लेती हैं थोड़ी-सी ऊर्जा 
फिर एक युग की यात्रा के लिए
तैयार हो  रही हैं औरतें

अपने दुखों  की मोटी नकाब को
तीखी निगाहों से भेदती
वे हैं कुलांचे मारने की फिराक में
ओह, सूर्य किरनों को  पकड़ रही हैं औरतें




औरतें 2

औरतों ने अपने तन का
सारा नमक और रक्त
इकट्ठा किया अपनी आँखों में

और हर दुख को  दिया
उसमें हिस्सा

हज़ारों सालों में बनाया एक मृत सागर
आँसुओं ने कतरा-कतरा जुड़कर
कुछ नहीं डूबा जिसमें
औरत के सपनों और उम्मीदों
के सिवाय
*** 


खूबसूरत घरों में

खूबसूरत घर
बन जाते हैं खूबसूरत औरतों की कब्रगाह

खूबसूरत घरों में
उड़ेल दी जाती हैं खुशबुएँ
हज़ारों-हज़ार मृत इच्छाओं की बेचैन
गंध पर

करीने से सजे सामानों में
दफ़न हो जाती हैं तितलियाँ

सब कुछ चमकता है
खूबसूरत घरों में
औरतों की आँखों के अलाव से
***

लेखक
- लेखक

लेखक, लेखक तुम किसके साथ हो ?

जनता मेरे लिए लड़ती है , मैं आकाओं के साथ हूँ.

लेखक , लेखक तुम किसके पक्ष में लिखते हो ?
जनता मुझे पढ़ती है, मैं अपने आकाओं के पक्ष में लिखता हूँ.

लेखक , लेखक तुम किसके लिए जीते हो
जनता मुझे बड़ा बनाती है, मैं तो सिर्फ अपने लिए जीता हूँ..

लेखक, लेखक तुम जनता के ही खिलाफ क्यों हो
क्योंकि मैं फले- फूले दलों के साथ हूँ...

लेखक,लेखक तुम लेखक नही, दलाल हो !!!
**** 
अनुनाद इन कविताओं के लिए संध्या नवोदिता का आभारी है।  

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