पता नहीं मेरी लिखत-पढ़त की सीमा है या फिर दुनिया के ग्लोबल विलेज बनने में ही कसर छूट गई है कि चन्द्रेश्वर पांडेय जैसे पुराने साहित्यकर्मी से मेरा परिचय फेसबुक पर हुआ - गो उसे साहित्य संसार में हो जाना चाहिए था। फेसबुक पर उनकी लम्बे स्टेटस मुझे उनकी समझ और प्रतिबद्धता के प्रति आश्वस्त करते रहे। मैंने उनसे अनुनाद को रचनात्मक सहयोग देने के लिए अनुरोध किया और यह कविताएं मिलीं। सीधे-सादे ढंग से एक उतने ही सीधे-सादे संवाद में ले जाती ये कविताएं नई दुनिया के संकटों से आगाह भी करती हैं। अनुनाद पर आपका स्वागत है चन्द्रेश्वर जी और सहयोग के लिए आभार भी।
***
अफ़वाहें
कैसे फैलती
हैं अफवाहें
क्यों
फैलती हैं अफवाहें
किन -किन
स्थितियों में फैलती हैं वे
किन -किन
स्थानों पर फैलती हैं वे
कुछ तो बे
-सिर पैर की अफवाहें पलछिन के लिए जन्म लेती हैं
और देखते
ही देखते सुरसा की तरह कई निर्दोष ज़िन्दगियों को निगल जाती हैं
कुछ
अफवाहें लम्बे समय तक बनी रहती हैं
वे समय के
घोड़े की पीठ पर सवारी करती हैं
अफवाहें
बेचेहरा होती हैं किसी सुनामी से कम नहीं होतीं
उनके गुज़र
जाने के बाद इंसान के बदले चीज़ें बिखरी मिलती हैं
इसकी चपेट
में अनपढ़ और पढ़ाकू सब आ जाते हैं
बच्चे और
महिलायें और बूढ़े और अधेड़ और जवान
सब जान
गँवाते हैं अगर मैदान में या सड़क पर हैं
अगर घर में
हैं तो प्रस्तर को दूध पिलाते हैं
और नए मिथक
गढ़ते हैं
चपेट में
आनेवाले
अफवाहों का
जनक कोई बेहद खुराफाती दिमाग़ होता है
कोई कायर
और कमीना होता है
वह हिटलर
के प्रचार मंत्री गोयबल्स का निपुण शिष्य भी हो सकता है
वह आग लगने
,पुल टूटने , बिजली गिरने ,गणेश
जी के दूध पीने
लव जिहाद
की ख़बरें उड़ाने से लेकर
लोकतंत्र
को अपनी तरह से हाँकने का काम करता है
वह चोर को
सिपाही
और सिपाही
को चोर में बदल देने की कला में पारंगत होता है
अफवाहों के
लाखों मुँह होते हैं
मगर दिखते
नहीं
अफवाहें
उड़ाने वाले सदियों से वर्चस्व बनाये हैं अपना
अफवाहों के
फूले गुब्बारे में सिर्फ़ झूठ भरा होता है
हवा की जगह
अफवाहों से बड़ी -बड़ी सेनाएँ हार जाती हैं
सरकारें
बदल जाती हैं
शासक शासन
गँवा बैठते हैं
पर ये भी
है सच कि सच का सामना होते ही
वे तेज़ी से
गलने और पिचकने लगती हैं
उनकी साँस
की डोर टूट जाती है !
***
उनके कंधे
पर ही आ आ के बैठे कबूतर
वे जो हैं
रक्तपिपासु भोगी -कामी क्रूर अत्याचारी
उनके कंधे
पर ही आ आ के बैंठे कबूतर रंग -बिरंगे
दूर नीले आसमान
से।
वे ही मना
रहे जयंतियाँ शहीदों की
जिनका रोम
-रोम डूबा है पाखंड में
ठण्ड में
बाँटते कम्बल फुटपाथ पर वे ही
जो मारे
बैठे हैं हक़ ग़रीबों का।
जो इस वक़्त
का बड़ा लबार
वो ही बता
रहा गीता सार
एक नारा तो
गढ़ सके नहीं अब तक हिंदी में
अपने को
बहादुर लाल कहते हैं देश का , भारत को 'इण्डिया
'बोलते हैं ,
निशाने पर
तीर के जो है पक्षी उसी का पर तोलते हैं !
मेरा मन
काट रहा चक्कर भूमंडलीकरण के चाक पर ,
अभी साहब
निकले हैं'
मॉर्निग वॉक 'पर !
***
शब्द अब
सफ़र नहीं करते दूर तक
आज कई
मानीखेज शब्द रख दिए गए हैं गिरवी
उनकी
व्यापकता हो गई है गुम अर्थ की
दिलो-दिमाग़
को रोशन करते आये थे कई शब्द
अब सिकुड़े
-सकुचाये पड़े रहते हैं
वे दूर तक
सफ़र नहीं करते
हमारे साथ एक
शब्द है --'हिंसा '
दूसरा शब्द
है --'अहिंसा '
तीसरा शब्द
है --'सत्य '
सदियों से
ये शब्द मानवता की राह में जगमगाते मिले हैं
इन्हें की
जा रही कोशिश अगवा करने की
एक पूरी
क़ौम न तो हिंसक होती है न ही अहिंसक
एक व्यक्ति
हर वक्त नहीं भासता सत्य ही
चंद लोग जो
भटके हुए हैं वे ही कैसे बन जाते हैं क़ौम के नुमाइंदे
कैसा वक़्त
आन पड़ा है भाई
कि हम
शरमाते हैं भाई को भाई कहते
यार को
कहते यार
शब्दों में
ताप कब लौटेगा
शब्दों में
नमी कब लौटेगी
कब बहाल
होगी गरिमा शब्दों की
हम कब बाहर
आयेंगे निज के खोल से
या पड़े
रहेंगे लिए मोटी खाल
'बिलगोह 'की तरह
किसी
पुराने पेड़ के तने के
कोटर या' बिल' में !
***
सिर्फ़ एक विलोम
भर नहीं
प्रेम
-घृणा
मान -अपमान
जोड़ -घटाव
गुणा -भाग
मित्र
-शत्रु
हँसी
-रुलाई
अहिंसा
-हिंसा
युद्ध
-शांति
सृजन
-संहार
सफ़ेद -काला
प्रकाश
-अंधकार
और -----
आग -पानी
कि पानी
-आग में रिश्ता
क्या सिर्फ़
एक विलोम भर है !
***
अनफिट और
पुराना
मुझे तनिक
भी पसंद नहीं खेल छुपम -छुपाई का
अपने
रिश्तों के बीच
मैं किसी
एक वक़्त में ही कैसे हो सकता हूँ किसी का दोस्त
और दुश्मन
भी
आज जबकि
लोग निभाते हैं साथ -साथ
दुश्मनी और
दोस्ती
मेरे जैसा
आदमी मान लिया जाता है
'अनफिट'
और पुराना कोई
मारते हुए दाँव दोस्त मेरा धोबियापाट
एक तरफ से देखते
हुए मुझे
बेफ़िक्र या
अलमस्त बतकही में पूछता है मेरा कुशल -क्षेम भी
सहलाते हुए
मेरी हथेली दाहिने हाथ की
तो रह जाता
हूँ सहसा हक्का -बक्का
क्या मैं
भी साध पाऊँगा कभी वो हुनर
कि लिए दिल
में कटार मुस्कान बिखेरता रहूँ चेहरे पर
क्या पहचान
है ये ही जटिल होने की सभ्यता के
जब भी छला
गया किसी रिश्ते में
या बनाया
गया बेवकूफ़
एक दर्द
उठा दिल में हौले से
और पलभर
में बना गया बदरंग मेरे चेहरे को
मैं ठगे
जाने और बेवकूफ़ बनाये जाने पर
याद न कर
पाया कबीर या फिर मुक्तिबोध को
समकालीन जो
ठहरा !
***
चीज़ें
महफूज़ रहती आयीं हैं
पुराने घर
को याद कर
अक्सर हम हो
जाते हैं भावुक
उसकी याद
हमें रोमांचित भी कर देती है
ज़रूरी नहीं
कि अभाव न रहा हो उसमें
न रहीं हों
तकलीफ़ें
वो एकदम
स्वर्ग तो नहीं ही रहा होगा
फिर भी
होना उसकी याद का मायने रखता है
जो पुराना
स्वेटर
या मफलर
या कनटोप
या कोट
या कम्बल
या मोजे
हो चुके
हों तार -तार
फटकर जा
चुके हों दूर हमारे जीवन से
उनकी यादें
भी गर्माहट भरी
दे जातीं
हैं हमें लड़ने की कूवत
ठण्ड से चीज़ें
महफूज़ रहती आयीं हैं सबसे ज्यादा यादों में ही
पुराने घर
या चीज़ों
की यादोँ का मतलब वापसी नहीं होती
उनकी उस
तरह वर्त्तमान में फिर भी ----
यादें
अनमोल तोहफा हैं
कुदरत की एक
बेहतर मनुष्य बनाये रखने में वे करती आयीं हैं मदद
मनुष्य को सृष्टि
के आरम्भ से ही!
***
चंद्रेश्वर 30 मार्च 1960 को बिहार के बक्सर जनपद के एक गाँव आशा
पड़री में जन्म। पहला कविता संग्रह 'अब भी' सन् 2010 में प्रकाशित।एक पुस्तक 'भारत में जन नाट्य आन्दोलन' 1994 में प्रकाशित।
'इप्टा आन्दोलन : कुछ साक्षात्कार' नाम से एक
मोनोग्राफ 'कथ्यरूप' की ओर से 1998
में प्रकाशित। वर्तमान में बलरामपुर, उत्तर
प्रदेश में एम.एल.के. पी.जी. कॉलेज में हिंदी के एसोसिएट प्रोफेसर।
पता- 631/58 ज्ञान विहार कॉलोनी, कमता, चिनहट,
लखनऊ,उत्तर प्रदेश पिन कोड - 226028 मोबाइल नम्बर- 09236183787