Friday, November 28, 2014

देवेन्द्र आर्य की कविता - चांद एक शिल्‍प है



देवेन्द्र आर्य हिंदी ग़ज़ल का सुपरिचित नाम हैं लेकिन अनुनाद को उनकी एक कविता हासिल हुई है। इस कविता में आते हुए नाम ही इसके अभिप्रायों के विस्तार रचते हैं। कविता जब बोल रही हो, उसके साथ और उसके बीच कुछ बोलने की ज़रूरत नहीं रह जाती - यहां किसी और बोलना ख़लल की तरह होता है। 

कविता के लिए देवेन्द्र जी का आभार और अनुनाद पर उनका स्वागत।
 
चांद एक शिल्‍प है  

रूमान भरा उजाला है चांद
न चावल बीना जा सकता है न सरियाये जा सकते हैं शब्द 
इस नीम  उजाले में 
सिर्फ देखी जा सकती है पगडंडी 
पढ़ा जा सकता है प्यार का अहसास .  
जब इत्मिनान  की खीर बनी हो घर में 
अमृत बरसता है चांद से 
वर्ना थल्ला बांधे घाव पर 
अरहर की पुलटी है चांद

मुक्तिबोध के फट्ठीदार  घर में 
सुरेन्‍द्र वर्मा का चांद खौफनाक चित्र बनाता रहा 
सफेद चरक के दाग सा आत्म के अंधेरे में  
चांदनी  खुले में नहाये जा सकने की सुविधा थी शान्ता के लिये 
वर्ना जौहरी गाली के उसी  एक कमरे में 
खाना सोना नहाना सब 
फ़ारिग तलब देशी औरतों के लिये 
खिड़की जाने का सम्यक समय है मजाज का चांद

रात की पाली वाली ड्यूटी में 
ट्रेन की खिड़की के साथ साथ भागता चांद
नीरवता का अलाप भरता चुप्पी गुनगुनाता 
अकेलेपन की थकन और थकन के अकेलेपन को सहलाता 
अच्छा लगता चांद.

नदी में चांद की परछाइयां अच्छी लगीं हमको
जो चुभती थीं वही तन्हाइयां अच्छी लगीं हमको .

बीमार की लम्बी सूनी रातों का हमदर्द चांद
फ़िराक़ की इक्का-दुक्का खुली तमोलियों की दूकान
चूल्हे बुझे हों तो चांद के सहारे बिना तेल-बाती रहा जा सकता है 
गर्मी का ए.सी  जाड़े का ब्लोवर 
चांद निहारते कट जाता आँखों का अंधेरा  
चांद है तो बची है सलोनेपन की चाहत 

चांद कला है चांदनी शिल्प्
जिसे फ़ैज़ ने साधा था धूप -शिल्‍प के साथ 
जिनसे कबीर ने बुनी थी जिंदगी की चादर .
*** 
     
देवेन्द्र आर्य 

A-127, आवास विकास कॉलोनी,
शाहपुर, गोरखपुर।- 273006
मो-09794840990,07408774544
मेल-devendrakumar.arya1@gmail.com



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