कविश्रेष्ठ कुमार विश्वास ने हिंदी की उन्नति में अपना जीवन
बलिदान कर दिया है। उनकी कविता की वजह से आज हिंदी बच सकी है। वे हिंदी माता की
सच्ची संतान हैं। कुमार विश्वास लोकप्रिय कवि हैं और हिंदी की मुख्यधारा कवि लोकप्रिय कवि से इतना घबड़ाते क्यों ? (यह सब कुमार विश्वास ने नहीं कहा है, ये तो उनके पाखी साक्षात्कार पर चल रही चर्चा के मध्य
पढ़त में आए कुछ आप्तवाक्य हैं।)
बात हिंदी पर आ गई है। क्या करूं कि रह-रहकर रघुवीर सहाय और कविसाथी पंकज चतुर्वेदी याद आ
रहे हैं। यह तुरत याद ही इस प्रसंग पर मेरी कुल प्रतिक्रिया है - ये कविताएं जितना कहती हैं, उतना उम्र भर कहते रहकर भी नहीं कहा जा सकता। एक प्रसंग यह भी कि ब्लाग आज भी मेरे लिए सोशल साइट से अलग एक गम्भीर माध्यम है, इसलिए यह प्रतिक्रिया भी यहीं।
***
रघुवीर सहाय
हमारी हिंदी
हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीबी है
बहुत बोलने वाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
गहने गढ़ाते जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ
वह मुटाती जाए
पसीने से गन्धाती जाए घर का माल मैके पहुँचाती जाए
पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को लेकर लड़े
घर से तो ख़ैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है
एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किये जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आँगन कई कमरे कुठरिया एक के अंदर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिए कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फ़र्श पर ढंनगते गिलास
खूंटियों पर कुचैली चादरें जो कुएँ पर ले जाकर फींची जाएँगी
घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अंदर की कोठरी में पाँच सेर सोना भी
और संतान भी जिसका जिगर बढ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और ज़मीन भी जिस पर हिंदी भवन बनेगा
कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे ।
(1957)
पंकज चतुर्वेदी
सरकारी हिंदी
डिल्लू बापू पंडित थे
बिना वैसी पढ़ाई के
जीवन में एक ही श्लोक
उन्होंने जाना
वह भी आधा
उसका भी वे
अशुद्ध उच्चारण करते थे
यानी ‘त्वमेव माता चपिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश चसखा त्वमेव’
इसके बाद वे कहते
कि आगे तो आप जानते ही हैं
गोया जो सब जानते हों
उसे जानने और जनाने में
कौन-सी अक़्लमंदी है ?
इसलिए इसी अल्प-पाठ के सहारे
उन्होंने सारे अनुष्ठान कराये
एक दिन किसी ने उनसे कहा:
बापू, संस्कृत में भूख को
क्षुधा कहते हैं
डिल्लू बापू पंडित थे
तो वैद्य भी उन्हें होना ही था
नाड़ी देखने के लिए वे
रोगी की पूरी कलाई को
अपने हाथ में कसकर थामते
आँखें बन्द कर
मुँह ऊपर को उठाये रहते
फिर थोड़ा रुककर
रोग के लक्षण जानने के सिलसिले में
जो पहला प्रश्न वे करते
वह भाषा में
संस्कृत के प्रयोग का
एक विरल उदाहरण है
यानी ‘पुत्तू ! क्षुधा की भूख
लगती है क्या ?’
बाद में यही
सरकारी हिन्दी हो गयी
***
हिंदी
डिप्टी साहब आए
सबकी हाजिरी की जांच की
केवल रजनीकांत नहीं थे
कोई बता सकता है -
क्यों नहीं आए रजनीकांत ?
रजनी के जिगरी दोस्त हैं भूरा -
रजिस्टर के मुताबिक अनंतराम -
वही बता सकते हैं , साहब !
भूरा कुछ सहमते - से बोले :
रजनीकांत दिक़ हैं
डिप्टी साहब ने कहा :
क्या कहते हो ?
साहब , उई उछरौ - बूड़ौ हैं
इसका क्या मतलब है ?
भूरा ने स्पष्ट किया :
उनका जिव नागा है
डिप्टी साहब कुछ नहीं समझ पाये
भूरा ने फ़िर कोशिश की :
रजनी का चोला
कहे में नहीं है
इस पर साहब झुंझला गए :
यह कौन - सी भाषा है ?
एक बुजुर्ग मुलाजिम ने कहा :
हिंदी है हुज़ूर
इससे निहुरकर मिलना चाहिए !
***
हिंदी भाषा को ले कर ये कवितायें बहुत खूब हैं .. आज भी भाषा की समस्या जैसे की तैसी है... आखिरी वाली कविता में तो हास्य व्यंग से भरी हुई है|
ReplyDelete