Wednesday, November 12, 2014

वीरेन डंगवाल की कविताएं






परिकल्पित कथालोकांतर काव्य-नाटिका
नौरात, शिवदास और सिरी भोग वगैरह 

(दिवंगत अग्रजों शैलेश मटियानी और गिरीश तिवाड़ी गिर्दा' को
किंचित क्षमा-याचना के साथ याद करते हुए, सादर)

बहुत धुआं है मांऽ
आंखें हुई हैं गुड़हल का फूऽऽल
हे मांऽऽ गुड़हल का लाल-लाल फूऽऽल!
दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़
धक्क-धक्क-धक्क
घिंच-निगिन-घिंच-निगिन-घिंच-निगिन
रिगिड़-बिगिड़
...
कौन होगा ऐसा जिजमान
पहले ही नवरात्र को
जो लगा रहा सिरीभोग!
‘‘किस जोग हो महाराजा जिजमान
छवा दी आज ही चांदी की चादर सोने का बूटा
लगा दिया जो सिरी भोग शैलपुत्री को’’
‘‘अरे पंडिज्ज्यू पहला नवरात्र
बालक का आज पहला जनमबार हुआ।
मां की किरपा आपके आशीर्वाद से
पिछले ही बरस नौरात को सिरा गए थे हम लोग।
हल्द्वानी रेलबजार रशीद के बाड़े से
लाया हूं आज ही
तीन हजार का ये पट्ठा
दो सीडी भी हैं माता की भेंटें
हल्द्वानी में ही खरीदीं बस अड्डे से
भेंट स्वरूप स्वीकार हों
बजाई जाएं लाउडस्पीकर पर
नौरात भर’’
...
लाल-गुलाबी साडि़यों में चली आ रहीं नौब्याहताएं
नई माताएं आ रहीं
कोहनी पर टांगे अपने लड्डू गोपाल
सासुएं चली आ रहीं झुलातीं अपनी नथें
विधवा बामनियां सफेद सूती धोती में तिरस्कृत
नाक तक सजीला तीखा पिठ्यां
ठकुराइनें साहुनियां
बामण-शिल्पकार मां-बेटियां
गाती हुई चली आ रहीं
धार पर चढ़ान पर उतार पर
हे मां तेरे सुरीले अटर-पटर गीत :

अगर मैं जल चढ़ाती हूं
तो वो मछली का जूठा है
इसीलिए मन नहि करता है
तेरे मंदिर में आने का।

हे मां कैसे सुरीले अटर-पटर तेरे गीत।
आंखें लाल धुएं से
गुड़हल का फूल
घर से बाहर निकलने की छुट्टी की खुशी से।

दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़
दन्-दन्-दन्
निगिड़-नगण-निगिड़-नगण-निगिड़-नगण
किन्-किन्-किन्
...
दमामे पर बैठा है शिवदास
कान से कान तक तिरछी काली टोपी लगाए
ढोल पर पीट रहा नौ साल का पोता
दांय-दांय-दिक्-दिक्-दिक् उत्साह से।
खूब पिठैं अक्षत लगे हैं रे दोनों के माथे पर झकनाझोर
पास ही में दर्मों के धरा
चमाचम गंडासा।
अरे शिवदास आज तो खूब
सिरी-सिरी और अंतडि़यों का भोटुआ पूरे घर को।
कहा, पहले ही नौरात के दिन!
दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़
वा-वा-वा
तीन हजार का बकरा तो
ढाई सौ तो हो ही जाएगी बख्शीश
भाई, दुंग-दुगुड़।
...
हैरान है तीन हजार का पट्ठा
मांऽ मांऽऽ हे मांऽऽऽ
कभी खुश्क हो जाती हैं हिरन जैसी आंखें
कभी झरने लगती हैं :
सुबह से कान खा गया
ये काली टोपी वाला नीच बूढ़ा
डुंग-दुगुड़-डुंग-डुंग-डुंग
ऊपर से इतना धुआं मांऽऽ
बीच-बीच में कैसे लालच से ताकता है मुझे
कभी उस धारदार लोहे के बांठे को।
मांऽ मांऽ मांऽ एक बार छूट पाता
इन कमीनों के चंगुल से
तो जा भागता सीधे सर-सर उतर कर
अपनी हल्द्वानी के रेलबजार में
रशीद मियां के बाड़े में
हां जी वही, मशहूर शम्मा होटल वाले...
...
क्षेपक-1

कथा के भीतर एक और कथा लखूदास दर्जी की
जो गांव के लोगों के कपड़े सिलता था सुई-धागे से
शादी-ब्याह में ढोल दमौं बजाता था
और नौरातों में इसी मंदिर में काटता था
बलि के बकरे और कटड़े।
बाद में उसकी दासोचित विनम्रता-सज्जनता देख
उसे राजा के रनिवास में सेवक बना दिया गया।
...

नौ लाख का हारऽ
राणी का मैं सेवक ठैरा पर उसको मुझसे प्यारऽ!
धुकुड़-पुकुड़-जुंग-जुंग
खुसुर-पुसुर-खुसुर-पुसुर
पंग्-पंग्-फटर-फटर

राजा नै बुलायो मुझे अपने कोठार में
गलती नहीं तेरी मगर राणी तेरे प्यार में
बोल रे दास,
मैं क्या करूं, गलती नहीं तेरी कोई।
तू दूर-दूर रहता है पर
वह तुझे नौलखा हार देती है जबरन
तुझे अपने तालाब में नहाने को कहती है
तुझसे ब्रह्म कमल मंगाती है
चढ़ाती है तुझे पके काफलों से लदे छरहरे पेड़ पर
कहती है झकझोर-झकझोर-झकझोर।
पक्-पक्-पक्-खुसुर-पुसुर
खुसुर-पुसुर-धांय-धांय
मुझे सब पता है रे दास
जी तो नहीं करता लेकिन
कैसे तुझे जिंदा छोडू दूं रेऽ, तू ही बोल!
राज की राजा की राजघराने की
इज्जत का है सवाल
इसलिए मारूंगा मैं तुझे अपने हाथ से
मगर इस सोने की तलवार से
जीवन भर भेजूंगा तेरे घर हर माह
बीस पसेरी गेहूं धान तेल दाल
तू चिंता मत करना मरने के बाद भी
हाय धुकुड़, दै धुकुड़, हाय धुकुड़, दै-दै-दै

मेरा मन अपनी सच्चाई
जवानी और राजा की झूठी इज्जत पर हाय-हाय
...
अरे ओ बाघनाथ जी जागनाथ जी
नंदादेवी अल्मोड़ा की गंगोलीहाट की कालिंका
कितना पुकारा मैंने तुम्हें क्रंदन करते हुए पर फिजूल!
उधर पीठ ओट में
राजा पैनी कर रहा अपनी सोने की तलवार
सोचा मैंने अब तो बचना क्या है
सो दन्न एक लात धरी राजा कर पट्ऽऽ
छप्पड़ से खींच धरा
और एक लठ्ऽऽ
उसके बाद उतर-पुतर-दुकुड़-पुकुड़
दन्-दन्-दन्
उतर-उतर-भाग-भाग-दन्-दन्-दन्
दनन्-दनन्।
आगे-आगे भागे हिरन, भाग लखूदास भाग
पीछे खरगोश भागे, भाग लखूदास भाग
ऊपर-ऊपर उड़े तोता लखूदास उड़-उड़-उड़
झाड़ी में चकोर रोता, उड़-उड़-उड़-उड़-उड़-उड़
आंखों में आंसू भर रोएं बन प्राणी
बच जा बच जा कैसे भी रोएं बन प्राणी
भाबर की घास-घाम तराई के जंगल-वन
दुगुन-तिगुन-दुगुन-तिगुन-दुगुन-तिगुन-दुगुन-तिगुन

उधर हल्ला मच गया था पूरी रियासत में
अरे दास ने मारा राज्जा को रे!’
दन्-दन्-दन्-दुगुन-तिगुन
घोड़े दौड़े खच्चर दौड़े दौड़े हरकारे
पर न पार पाय सके लौटे हरकारे
लखूदास पहुंच गया देस।

अरे राज्जों बजीरों तुम्हारा नास हो
हे गोलज्ज्यू महाराज गणनाथ जी
भूम्या देवता तैंतीस करोड़ देवताओं
तुम्हारा लाख-लाख धन्यवाद
कभी तो जग बदलेगा महाराज बदलेगी ऋतु
कभी तो भौंरे उड़ेंगे जुन्याली रातों में
छिनेगी राजा की सोने की तलवार
कृपा करना दाहिने रहना
तुम्हारी किरपा बिना सूरज न उगे
नदियां न भरें
फल-फसल न पकें
हवन-बलि-दान-पुण्य न हो दयालू
दया रखना
किरपा करना
यों इसी शिवदास का दादा लखूदास
भागता हुआ पहुंच गया देस!
...
क्षेपक-2

दुंग-दुगुड़-दुंग-दुगुड़
दुंग-दुगुड़-टप-टप-टप
छितिर-पितिर-धम-धड़ाम
टप-टप-टप-टपर-टपर

आज उसी मंदिर में नौरात पर
बकरा काटने का इंतजार करता
शिवदास सोचता है एक नया गीत
बल्कि गाता है, गाता है, गाता है...

सुनो हो मांओ, बौणियो, सासुओ, बौराणियो...
सुनो बामणियो, ठकुराइनो, साहुणियो, शिल्पकारिनो...
तुम भी सुनो रे, पढ़-लिखकर
घाम में मक्खी मारते बेरोजगारो
और तो और कटने के लिए मंदिर लाए जाते
बकरो-कटड़ो तुम भी सुनो:
वे रानियां भी गुलाम थीं
जो सोने की थाली में खाती थीं
गुलाम थीं वे भी लखूदास शिवदास की तरह
इसलिए सुन लो सब यह नया गाना :
राज्जों, बजीरों का शास्त्रों-पुराणों का नाश हो
जिन्होंने हमें गुलाम बनाया।
इन तैंतीस करोड़ देवताओं का नाश हो
जो अपनी आत्मा जमाए बैठे हैं
हिमालय की बर्फीली चोटियों में
और हमारे मनों में।
अरे सुनो डूमो, धुनारो, लुहारो, दर्जियो, कारीगरो, मजूरो
कितना सताया तुम्हें-हमें
इन पोथियों-पोथियारों, ताकतवालों ने
इनका नाश हो
चलो मिलकर करते हैं इन पर घटाटोप।
देखो तो चबा रहे ये हमारे पहाड़ों को...
गुड़ की भेली की तरह
खा रहे सब हमारे जंगल
हमारी भरी-पूरी नदियों को पी जा रहे रेऽऽ
पर इनकी भूख-प्यास मिटती नहीं
असली भूत-प्रेत-मसाण-राक्षस तो यही हुए
इनका नाश हो।
इनका नाश करने को चलो जुटते हैं
सभी एक साथ
करने से सब होगा भाई
करने से सब होगा, बोला
करने से सब होगा :
अरे सखी, अरे मित्र!
‘‘आएगा वह दिन जरूर आएगा दुनिया में
काहे होते हो निराश
मुंडी घुटनों से उठाओ
मत रहो फिजूल उदास
आएगा, वह दिन जरूर आएगा दुनिया में
चाहे हम न ला सकें
चाहे तुम न ला सको
मगर कोई न कोई तो लाएगा
उस दिन को दुनिया में...’’*

जैंता एक दिन त आलो दिन वो दुनी में**
...
_______________________________
*गिर्दा के एक प्रसिद्ध गीत का खड़ी बोली में
कवि द्वारा किया गया भावानुवाद  
**गिर्दा की एक काव्य-पंक्ति 

****

तिमिर दारण मिहिर

आंख बोझिल बहुत गहरी थकावट से चूर
और मन, उत्कट अंधेरा
विकलता से बुलाता हूं मैं तुझे :
ओ तिमिर दारण मिहिर
अब तो जरा दरसो!
...
बकरी के झीने चमड़े से ज्यों मढ़ी हुई
इस दुर्बल ढांचे पर यह काया
काठ बने हाड़-जोड़
बंधे हुए कच्ची सुतली से जैसे
दर्द पोर-पोर
वाणी अवरुद्ध
करुणा से ज्यादा जुगुप्सा उपजाती है
खुद अपने ऊपर काया अपनी।
फिर भी यह जीवित रहने की चाहना
इच्छा प्रेम की
लिप्सा क्या लिप्सा है घृणायोग्य लिप्सा?

अपनी ही मुख गुहा में उतरता हूं रोज
अधसूखे रक्त और बालू से चिपचिपाती
उस सुर्ख धड़कती हुई भूलभुलैया में
अपने खटारा स्कूटर पर
कई राहें उतरती हैं इधर-उधर 
भोजन और सांस की
या कानों की तरफ जातीं

कहीं मरे-पड़े हैं रूखड़े-सूखे नालों पर
बंदूक लिए नौजवान
कहीं एक नंगी औरत
मुझे आता देखा अपना नुचा-खुचा जिस्म चुराती है
उधर दारोगा जी टोहते हैं
अपने डंडे से पेड़ पर लटकी लाशें
फिर सिलवा देते हैं उन्हें
साफ-सुथरे पार्सल में।
दहकती हुई लाल-लाल
दर्द की शिराएं हैं
अधटूटे दांत चीखते हैं
मैं बार-बार खुद को मुश्किल से खींचकर
स्कूटर समेत अपने ही मुख से बाहर लाता हूं
इतनी कठिन और रपटन भरी यह डगर है

एक कौर चावल खाना भी
बेहद श्रमसाध्य और दुष्कर
जैसे रेत का फंका निगलना हो
फिर भी जीते चले जाने का यह उपक्रम
क्या यह लिप्सा है घृणास्पद चिपचिपी
लिप्सा तो नहीं है यह?

मित्रों का संग साथ चाहना
नई योजनाएं
शिशुओं से अंट-शंट बात
करना हिमालय की बहुविध छवियों को याद
और नरेंद्र मोदी की कलाई पर बंधी घडि़यों को
सोचना विनायक सेन कोबाड गांधी
और इरोम शर्मिला सरीखों के बारे में।
समाचार पुस्तकें कविता संगीत आदि
इनमें लिप्तता लिप्सा नहीं है?
...
एक हाथ की उंगलियों से
तानपूरे की अनवरत टंकार
दूसरे से पखावज की हल्की थापें
बजा रहा है महाकाल
सृष्टि का विलक्षण संगीत
विविध नैसर्गिक-अप्राकृतिक
ध्वनियों-प्रतिध्वनियों
कोलाहल-हाहाकार की पृष्ठभूमि में
उसी सतत गुंजरण के बीच रची है मनुष्य ने
यह अनिर्वचनीय दुनिया
ब्रह्मांड के इस नगण्य ग्रह पर
पर्वतों-पठारों-नदियों-जंगलों-रेगिस्तानों
समुद्र और आकाश में विचरते पशु-पक्षियों
विशाल और सूक्ष्मकाय सरीसृपों
और अब तक नामहीन बने कीटों और
बहुविध प्राणियों के साथ

हे महाजीवन, हे महाजीवन
मेरी यह लालसा
वास्तव में अभ्यर्थना है तेरी
अपनी इस चाहना से मैं तेरा अभिषेक करता हूं।
यह जो सर्वव्यापी हत्यारा कुचक्र
चलता दिखाई देता है भुवन मंडल में
मुनाफे के लिए
मनुष्य की आत्मा को रौंद डालने वाला
रचा जाता है यह जो घमासान
ब्लू फिल्मों वालमार्टों हथियारों धर्मों
और विचारों के माध्यम से
उकसाने वाला युद्धों बलात्कारों और व्यभिचार के लिए
अहर्निश चलते इस महासंग्राम में
हे महाजीवन चल सकूं कम से कम
एक कदम तेरे साथ
प्रेम के लिए
शांति के लिए
उन शिशुओं के लिए जिन्होंने चलना सीखा ही है अभी
और बहुराष्ट्रीय पूंजी के कुत्ते
देखो, उन्हें चींथने के लिए अभी से घात लगाए हैं

उसी आदमखोर जबड़े को थोड़ा भी टूटता हुआ
देखने के लालच से भरे हुए हैं
मेरे ये युद्धाहत देह और प्राण!
इस विश्वव्यापी हत्यारे कुचक्र की तीव्र गति को
रोक डालें महाकाल फिर
नई संघर्षशील मनुष्यता के सहयोग से
यही कामना है
यही है लिप्सा मेरी
हे महाजीवन, तिमिर दारण!!
_____________________

(शीषर्क : निराला की एक कविता-पंक्ति, शांति निकेतन में मंजुरानी सिंह के घर
श्री अजय के गाए उस गीत को साभार याद करते हुए)

****

सरल-कठिन

इस अंधेरे  में तेज रोशनियों ने बचाया मुझे
या अक्टूबर की ओस से आभासित
चांद की स्मृति ने
या तुम्हारे प्यार ने
मैं नहीं बताऊंगा।
इस बीमारी में
अब तक दवाओं और डॉक्टरों ने बचाए रखा मुझे
या किसी उम्मीद ने
या तुम्हारे प्यार ने
मैं नहीं बताऊंगा।
जीवन बहुत पेचीदा है
बहुत कठिन हो चुकी है यह दुनिया
मगर वे बातें सरल हैं
जिनसे आप इस कठिनाई को समझ सकते हैं।
मुश्किल यह है कि फिजूल करार दे दिया जाता है
आसान बातों को।
उन पर सवाल खड़े कर दिए जाते हैं।
यह भी एक तरीका है शत्रुता  का।
पता नहीं क्यों यह सभ्यता
सरलता की दुश्मन है।
अलबत्ता यह ध्यान रहे कि
सरलता भी आडंबर न बन जाए
जैसा होता आया है अक्सर
****

गोली बाबू और दादू

गोली बाबू बड़े मजे से गाएं बाएं-शाएं
दादू का ये हाल कि बिस्तर से भी उठ न पाएं
आठ किलो के गोली नंग-धड़ंगू मौज-मदीना
बहा रहे हैं भाग-भाग कर अपना खूब पसीना
दादू पैंतालीस किलो दम फूल जाए पल भर में
कहीं गिर पड़े चोट न खा जाएं कमर में सर में।
पाखी दीदी दिखें खुशी से बस पागल हो जाएं
दादी जी के बाल खोद दें मम्मा का सिर खाएं

गर्मी में नंगू फिरने का शौक हुआ गोली को
खेंच-खेंच नन्हें अंगों को दुनिया को नापा करते
पूरीधर ती को तैरा देते अपनी सू-सू में
भांपा करते जगती को छोटी-छोटी आंखों से।

इसी जोड़बंदी में साथी रोशन है यह दुनिया
और इसी में प्रवहमान है इसका ठाठ निराला
शामिल करके खुद को मैंने जैसे-तैसे इसके
कठिन दिनों का काफी हिस्सा देखो तय कर डाला
*** 
वीरेन डंगवाल की 'पाखी' अक्टूबर-2014 अंक में प्रकाशित कविताएं। 

2 comments:

  1. अद्भुत कविताएँ हैं ।अंतस को आलोक से भरती हुईं ।कयी बार पढ़े जाने लायक ।अनुनाद का आभार इन कविताओं की प्रस्तुति के लिए ।

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  2. अनुनाद की अत्यन्त आभारी हूँ कि इन अद्भुत कविताओं को पढ़ने का अवसर मिला

    ReplyDelete

यहां तक आए हैं तो कृपया इस पृष्ठ पर अपनी राय से अवश्‍य अवगत करायें !

जो जी को लगती हो कहें, बस भाषा के न्‍यूनतम आदर्श का ख़याल रखें। अनुनाद की बेहतरी के लिए सुझाव भी दें और कुछ ग़लत लग रहा हो तो टिप्‍पणी के स्‍थान को शिकायत-पेटिका के रूप में इस्‍तेमाल करने से कभी न हिचकें। हमने टिप्‍पणी के लिए सभी विकल्‍प खुले रखे हैं, कोई एकाउंट न होने की स्थिति में अनाम में नीचे अपना नाम और स्‍थान अवश्‍य अंकित कर दें।

आपकी प्रतिक्रियाएं हमेशा ही अनुनाद को प्रेरित करती हैं, हम उनके लिए आभारी रहेगे।

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