Sunday, November 30, 2014

शैलजा पाठक की पांच कविताएं



शैलजा पाठक अब युवा कविता में एक सुपरिचित नाम हैं। बतकही का अंदाज़ और उसमें भरपूर नास्टेल्जिया के साथ आता, कभी-कभी अतिरेकी भी लगता भावसंसार  - इसे ही अभी शैलजा का अपना मुहावरा और डिक्शन मान लिया जाए और देखा जाए कि इसी के सहारे किस सहजता से उनकी कविताएं हमें हमारे मर्मों में ले जाकर बेध देती हैं। कोई कवि ऐसा भी होता है - अपनी राह वो ख़ुद खोजता है और उस खोज में भटकना भी एक शिल्प है उसकी कविता का। जाहिर है इसमें अतिकथन होगा और मेरे लिए इस नए संसार और उसकी चुनौतियों के बीच अतिकथन भी एक शिल्प है। इन कविताओं में अचानक एक जिरह शुरू होती है और वह वैचारिकी सामने आने लगती है, जिसे शैलजा ने अपने हुनर से छुपाया था और चाहा था कि वह इसी तरह पाठकों पर खुले। शैलजा पहले अनुनाद पर छप चुकी हैं। इन कविताओं के लिए भी उनका आभार। 

 
अब जो आयें हैं नैहर 

चल सखी चूड़ियाँ बाँट लें
मिला ले तेरी हरी में मेरी लाल
बीच में लगा कर देख ये बैगनी सफ़ेद
कुछ नई में पुरानी मिला कर पहनते हैं
अब जो आये हैं नैहर चल खूब खनकते हैं
चल खाते हैं बासी रोटी
दाल में मिलाते हैं मिर्चे का अचार
सिल बट्टे पर धनियाँ की चटनी पिसते हैं
बाजरे की रोटी में गुड मीसते हैं
लगाते हैं अम्मा को मेहदी
बाबु का भारी वाला जैकट मुस्कराते से फिचते हैं
कर देते हैं साफ़ भाई का कमरा
चढ़ आते हैं ऊँची अटारी
उलटी पैर की भूतनी से डर कर चिपट जाते हैं
अब जो आये हैं नैहर
चल खेत में पानी सा उतर जाते हैं
भरते हैं भौजी के सिन्होरा में पीला सिंदूर
रात की बात कर साथ खिलखिलाते हैं
भतीजी के लिए बना देते हैं कपडे की गुडिया
उसको नथिया और हसली पहनाते हैं
उसकी आँख में भरते हैं
काला सा काजल
कान में झुमका लटकाते हैं
अब जो आये हैं नैहर
अम्मा की गुडिया बन जाते हैं
चल सखी रात बाँट लें
मन की बात बाँट लें
आँख में सूख रही सदियों से नदी
होठो को सिल लेते हैं
कल जाना है ससुराल
आ गले मिल लेते हैं
अम्मा को नही बताएँगे
भाई से छुपा लेजायेंगे
भौजी जान भी नही पाएगी
खूटे से बंधी गाय सब समझ जाएगी
दरवाजे से निकलते हमसे उलझ जाएँगी
चाटेगी हथेली के छाले
हमारी रीढ़ में एक रात काँप जायेगी
हमारी छाती में सूखी कहानी हरी हो जाएगी
चिरई चोंच का दाना छोड़ जायेगी
चल चुप चाप रो लें
मांग भर सिंदूर हाथ भर चूड़ी बाल में गजरा सजायेंगे
मन की गाँठ साथ लिए जायेंगे
हम बड़का घर की व्याहता है अब
नैहर को अपने चुप से ठग जायेंगे 
पर गाय से नजर नही मिलायेंगे
चल ना चूड़ियों में मिलाते हैं कुछ नई कुछ पुरानी
आटे में खूब सारा पानी ..खिलखिलाते हैं
अब जो आये हैं नैहर चल खनकते हैं .............फिर ..चुपके से ...टूट जाते हैं ...
*** 
लड़कियां बोलती नही 

लडकियाँ बोलती नही 
चुप रह जाती हैं 
मुहल्ले के चबूतरे पर करती हैं बतकुचन
आँख मटका कर न जाने क्या क्या किस्से सुनाती है
उम्र में बड़ी औरतों की बातें कसकती सी समझ जाती है
नई दुल्हन की कलाई पर उतर आये स्याही को सहलाती है
समझती सी सब समझ जाती है
ये तुम्हारी दुनियां को मन ही मन तोलती है 
लडकियाँ बोलती नही है
चुप रह जाती हैं

पहाड़े से जियादा रटती है
जिन्दगी की गिनती
मीठे से नमकीन नमकीन से मीठे डिब्बे भरती खाली हो जाती है
उभरती छातियों पर झुक जाती है
फूल काढते हुए काँटा सी अपनी ही उँगलियों में चुभ जाती है
बूंद भर खून को बिना उफ़ होठ में दबाती है
मन के रहस्य से बेचैन है इनकी चादरें
ये सुबह सारे शिकन सीधी कर जाती है 
लड़कियां बोलती नही
चुप रह जाती हैं

ये टूटी चेन को धागे से बांधती है
दाग पर रगडती है निम्बू
दर्द को कमर पर ढोती
बार बार गुसलखाने में मुह का तनाव धो कर आती हैं
बाज़ार की भीड़ से घबरा कर सिमट जाती हैं
भाई के साथ नही निकलना चाहती बाहर
माँ बाप तक नही पहुचने देती कोई खबर
गली में जवान लडको की फब्तियों से कितनी बेजार
घर में कनस्तर में रखे आटे सी सफ़ेद हो जाती हैं 
लडकियाँ नही बोलती
चुप रह जाती हैं

ये जब बोलती हैं तो गाड़ दी जाती हैं जमीन में
बस्ते को स्टोर रूम में रख दिया जाता है
रिश्तेदारों से रिश्ते की बातें होती हैं शुरू
घर के काम में बनाई जाती हैं पारंगत
छत पर चढती है अँधेरे के साथ
चाँद देखती हैं तो निचे से खीच लाती हैं अपनों की आवाज
आवाज उठाती हैं तो तमाशबीनों की भीड़ जमा होती है आस पास
डराई धमकाई जाती है
पिता के काम माँ की शालीनता पर उठते है सवाल
भाई से नही मिलाती आँख
ये बोलती हैं तो बदनाम होती है 
बस्ते को स्टोर रुम में नही रखवाना इन्हें
ना आनन् फानन में करवाने हैं पीले हाथ
छत आसमान नदियों के रास्ते ये बढ़ना चाहती हैं
ये बदद्बुदर सोच से घिरी लडकियाँ
गन्दी नजर से लिथड़ी लडकियाँ
चुप चाप अच्छी लडकियाँ बन जाती हैं
मुस्कराती है 
लड़कियां बोलती नहीं
चुप रह जाती हैं......
*** 
समझौता 

वो किनारों पर रेत लिखती थी
पथ्थरों के सीने पर पछीट आती लहरें
इतनी सी सीपी में बंद कर रख आती
इन्द्रधनुष
षितिज के माथे चिपका आती रात उतारी बिंदी
पानी पानी उचारती बंजर को ओढा आती हरी चादर
खिडकियों में कैद रखती मौसमों को
एक दिन नींद से हार गई
चूल्हे से किया समझौता
बिस्तर पर लिखी गई मिटाई गई
दीवारों पर रंग सी लगाई गई
पैरों के नीचे धरती लेकर चली लडकी
औरत बनी और खनक कर टूट गई
नदियाँ भाग रही है उसे खोजती सी
वो लहरों सी पछिटी जा रही है
समय के पत्थर पर
सात टुकड़ों में बंद इन्द्रधनुष
सीपी में कराह रहा
खिड़की की आँखे मौसम निहार रही
चूल्हे के सामने लगातार पसीज रही धरती
इनकें पैरों में खामोश पड़ी है।
*** 
एक थी मैना 

रेलों के लिए बचाई जा रही पटरियां
यात्रियों के उतरने को बनाये गये प्लेटफोर्म
हवाओं को काट कर उडाये गये होंगे हवाई जहाज
स्याही की खेती कवियों की बेचैन रातो का किस्सा होगी
मुंडेर पर बचे धान से पहचान जाती है गौरय्या हमारी फितरत
रेशमी डोरियों की नोंक पर बिंधी मछली की चीख होगी
संवेदना को बचाने की जुगाड़ में समय ने सरका दिए खाली कागज
जेब में बचा अकेला सिक्का भूल जाता है खनकना की खनकने की खातिर भिड़ना पड़ता है
जाल से छान लिए गये कबूतरों ने आसमान चुन लिया
बार बार बिखरी कविता को संभाला सहेज ठीक ठाक किया हिज्जे मात्राओं को असा कसा
मैंने अभी अभी लिखा तुम्हारा नाम
कबका लिखा जाना था ना इसे
मैं देर से समझती हूँ
की पलटती मोड़ पर छूट गई तुम्हारी नजरों से एक मौन कुछ बोलता सा रहा
मैंने बड़ी देर से दुरुस्त किये घरौदे
ओह तो तुम बरसे थे ..भींगी थी
तुमने तपाया था धूप सा ..लाल थी आँखे
प्यासी रेत बिखरती रही
किसे किसके लिए बनाया गया की खोज ने
मुझे तुमसे दूर कर दिया
दरम्यान सुना बड़ी पहाड़ियां खड़ी कर दी गई
उफनती नदियों को छोड़ दिया गया
बंद हो गई स्याही की खेती
हौले से निकल जाती हूँ उन रेल पटरियों पर
प्लेटफोर्म सदियों से एक मुसाफिर की खातिर बिछा है
पहाड़ी गीत के मीठे बोल सा सपना
एक थी मैना, एक था पिंजरा और एक राजा भी था ....
*** 
ऐसा प्यार ,वैसा प्यार 

जब हम प्यार करते है
हम अपने तरीके दुनियां के मायने गढ़ने लगते हैं
हम इसकी उसकी बात नही सुनते
हम उस अनुभव में गले तक डूबना चाहते है
हमारे लिए उसकी खरीदी डायरी पर उसके हाथो लिखा अपना ही नाम नये अर्थों में दिखाई देता है
मन की बेवकूफियां समझदारों को नही समझाते हम प्यार में है
मेरी नजर में तुम्हारी दुनियां ,तुम्हारी धडकन में मेरा होना
और ये भी की सोचो तो मुझे ,याद करो मेरी बात
समय को परे धकेल मेरे पास आ जाओ
देखो! बस मुझे सुनो मुझे सुनाओ
इनकी उनकी बातें कर शूल मत चुभाओ
सुनो बस मेरी बात पर मुस्कराओ
आँख भर बेचैनी में काट दो रात
करते रहो जरा अह्की बहकी बात
चीटियाँ लाइन से चढ़ रही ऊँची दिवार
सुखा पत्ता डूबता उतरता हो रहा नदी के पार
दिन ने हाथ बढ़ा साफ़ कर दिए चाँद के जाले
नांव नदी के हवाले
बिजली के तार पर चहक रही मैना
लाल फूल पर रंग ओढ़ी तितलियाँ
ओह ये पुरुआ पछुआ बयार
जलते दीये में बुझी हुई रात
खत्म तेल में पतंगे की देह
बसंत को आजीवन जेल
मन पतझड़ का पेड़
जिद्द फिर भी बंजर का बीज
चलो रोप आयें
उम्मीद की तीलियाँ सुलगाएं
और फिर दुहरायें
कोरे पन्ने पर लिखो मेरा नाम
चमकती जोड़ी भर आँख भी बना दो
झूठा ही सही बहला दो
.........वही.. सुंदर है आँख ।मीठी है बात।। लम्बे बालों पर फिसलती परियों की कहानी हो तुम ...
तुम वही न सुदर्शन राजकुमार ..जो लेजाता है लडकी को सात समन्दर पार ...
राजकुमार जादू जानता है लडकी को बना देता है परिंदा
अब प्यार पिंजरे में जिन्दा
बिजली के तार पर बैठी मैना चहक रही बार बार
ऐसा प्यार वैसा प्यार....
***  
इस पोस्ट में लगायी गईं अमृता शेरगिल की पेंटिग्ज़ गूगल से साभार

Friday, November 28, 2014

देवेन्द्र आर्य की कविता - चांद एक शिल्‍प है



देवेन्द्र आर्य हिंदी ग़ज़ल का सुपरिचित नाम हैं लेकिन अनुनाद को उनकी एक कविता हासिल हुई है। इस कविता में आते हुए नाम ही इसके अभिप्रायों के विस्तार रचते हैं। कविता जब बोल रही हो, उसके साथ और उसके बीच कुछ बोलने की ज़रूरत नहीं रह जाती - यहां किसी और बोलना ख़लल की तरह होता है। 

कविता के लिए देवेन्द्र जी का आभार और अनुनाद पर उनका स्वागत।
 
चांद एक शिल्‍प है  

रूमान भरा उजाला है चांद
न चावल बीना जा सकता है न सरियाये जा सकते हैं शब्द 
इस नीम  उजाले में 
सिर्फ देखी जा सकती है पगडंडी 
पढ़ा जा सकता है प्यार का अहसास .  
जब इत्मिनान  की खीर बनी हो घर में 
अमृत बरसता है चांद से 
वर्ना थल्ला बांधे घाव पर 
अरहर की पुलटी है चांद

मुक्तिबोध के फट्ठीदार  घर में 
सुरेन्‍द्र वर्मा का चांद खौफनाक चित्र बनाता रहा 
सफेद चरक के दाग सा आत्म के अंधेरे में  
चांदनी  खुले में नहाये जा सकने की सुविधा थी शान्ता के लिये 
वर्ना जौहरी गाली के उसी  एक कमरे में 
खाना सोना नहाना सब 
फ़ारिग तलब देशी औरतों के लिये 
खिड़की जाने का सम्यक समय है मजाज का चांद

रात की पाली वाली ड्यूटी में 
ट्रेन की खिड़की के साथ साथ भागता चांद
नीरवता का अलाप भरता चुप्पी गुनगुनाता 
अकेलेपन की थकन और थकन के अकेलेपन को सहलाता 
अच्छा लगता चांद.

नदी में चांद की परछाइयां अच्छी लगीं हमको
जो चुभती थीं वही तन्हाइयां अच्छी लगीं हमको .

बीमार की लम्बी सूनी रातों का हमदर्द चांद
फ़िराक़ की इक्का-दुक्का खुली तमोलियों की दूकान
चूल्हे बुझे हों तो चांद के सहारे बिना तेल-बाती रहा जा सकता है 
गर्मी का ए.सी  जाड़े का ब्लोवर 
चांद निहारते कट जाता आँखों का अंधेरा  
चांद है तो बची है सलोनेपन की चाहत 

चांद कला है चांदनी शिल्प्
जिसे फ़ैज़ ने साधा था धूप -शिल्‍प के साथ 
जिनसे कबीर ने बुनी थी जिंदगी की चादर .
*** 
     
देवेन्द्र आर्य 

A-127, आवास विकास कॉलोनी,
शाहपुर, गोरखपुर।- 273006
मो-09794840990,07408774544
मेल-devendrakumar.arya1@gmail.com



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