चालीस का होने के साथ अब बस उन्हें ही
युवा कहने का मन करता है, जो वय में मुझसे छोटे हैं। अविनाश मिश्र हिंदी की अत्यन्त
प्रतिभावान युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं। अविनाश की साहित्यिक रपटें ख्यात-विख्यात
से लेकर कुख्यात तक रही हैं। उन्होंने कुछ आलोचना लिखी है पर अभी तक किसी लम्बे
एकाग्र निबन्ध पर ख़ुद को नहीं साधा है। लेकिन वे चर्चा में रहते हैं। चर्चाओं की
चकाचौंध के बीच कहीं उनके व्यक्तित्व का चर्चित किंवा विवादित सिनेमा बहुत गूढ़, सधे हुए समानान्तर क्लासिकी कला सिनेमा
में बदल जाता है, जब हम उनकी कविताओं के इलाक़े
में क़दम रखते हैं। यह कवि ऐसा नहीं लगता कि अभी आया है, वह मानो वर्षों की गूंज लिए बोलता है, उसकी सांस जैसे दशकों की साधी हुई सांस है।
उसके बोलने का शिल्प इतना साफ़ और वेध्य है कि उसे युवतर कवियों की श्रेणी में रखना
मुश्किल हो जाता है।
हिंदी की युवा कविता के ऐसे ही कुछ दृश्यों-प्रसंगों
तक अपने पाठकों को लाने और इन पर एक गम्भीर बातचीत शुरू करने के उद्देश्य के साथ
हम अनुनाद पर यह स्तम्भ शुरू कर रहे हैं।हमने अविनाश से उनकी दस प्रतिनिधि कविताओं
के लिए अनुरोध किया था। उन्होंने अपनी कविताएं उपलब्ध कराईं इसके लिए अनुनाद उनका
आभारी है। इस छोटी-सी किंतु बेहद आत्मीय जगह पर तुम्हारा स्वागत है अविनाश।
अविनाश मिश्र की दस
कविताएं
आत्मगत
मैं जो चाहता था
अब उससे बाहर आना चाहता हूं
मैं जो रंग चुका हूं
निकृष्ट है वह सब कुछ
और उज्जवल है वह जो अप्रकाशित है
देखती हुई स्त्री की आंखों की तरह उज्ज्वल
लेकिन उन आंखों से भी
अब मैं मिलना नहीं चाहता
करुणा के कठिन तल्प पर
या वासना के स्तब्ध केंद्र में
इतने कम अंतरालों के रहे हैं मेरे प्रेम
मैं जानता हूं यहां उनका अनुवाद संभव नहीं
मैं असंभव में बसना चाहता हूं
लेकिन क्या करूं विद्रोह अब मेरी प्राथमिकताओं में नहीं रहा
मैं निरर्थकता में जंचता हूं
यहां वे पटरियां देखी जा सकती हैं
जिन पर से गुजरकर सारे प्रेम संवेगों से होकर
अकेलेपन तक पहुंचते हैं
मैं अपने बारे में और क्या कहूं
मैं अपने बारे में सबसे कम जानता हूं
कुछ इस कदर स्वयं में पर्याप्त होता जाता हूं
कि मध्य अपना आकार खो रहा है
और अब जब सब कुछ तय होने ही वाला है
अनचाहे गंतव्यों की तरह
मैं उन शुभकामनाओं पर हंस भी नहीं सकता
जिनके लिए चलना तक वर्जित था...
***
काव्य-गोष्ठी
जो सबसे ज्यादा असुंदर थी
उसने अपने आपको सबसे ज्यादा सजा रखा था
जो उससे कम असुंदर थी
उसने अपने आपको उससे भी ज्यादा सजा रखा था
जो कम सुंदर थी
उसने अपने आपको कम सजा रखा था
और जो वास्तव में सुंदर थी
वह वहां आ नहीं पाई थी
***
गणमान्य तुम्हारी...
वह बीस वर्षों से दीप
प्रज्ज्वलन की दुनिया में है
और इस दरमियान वह करीब बीस हजार बार दीप प्रज्ज्वलित कर चुका है
इस एकरसता में एक सरसता अनुभव करता हुआ
वह सुरक्षा कारणों से अब तक टमाटरों, अंडों, जूतों, पत्थरों, थप्पड़ों
और गोलियों से तो दूर है लेकिन गालियों से नहीं
एक सघन हाशिए से लगातार सुनाई दे रही गालियों के बरअक्स
वह है कि दीप पर दीप जलाता जा रहा है
इस ‘उत्सवरतक्षतमदमस्त’ वक्त में
इतनी संस्कृतियां हैं इतनी समितियां हैं इतनी बदतमीजियां हैं
कि उसे बुलाती ही रहती हैं अवसरानवसर दीप प्रज्ज्वलन के लिए
और वह भी है कि सब आग्रहों को आश्वस्त करता हुआ
प्रगट होता ही रहता है
एक प्रदीर्घ और अक्षत तम में ज्योतिर्मय बन उतरता हुआ
लेकिन तम है कि कम नहीं होता
और शालें हैं कि वे इतनी इकट्ठा हो जाती हैं
कि अगर करोलबाग का एक व्यवसायी टच में न हो
तब वह गोल्फ लिंक वाली कोठी देखते-देखते गोडाउन में बदल जाए
गाहे-बगाहे उसे बेहद जोर से लगता है
कि वे शालें ही लौट-लौटकर आ रही हैं
जो पहले भी कई बार उसके कंधों पर डाली जा चुकी हैं
क्योंकि ठिठुरन से हुई मौतें हैं कि थम ही नहीं रहीं इस दुनिया में
इतनी इतनी सारी शालों के बावजूद
वे एक उम्र के असंख्य पांच मिनट
वे इतनी गणेश और सरस्वती वंदनाएं
वे इतने सत्कार
वे इतने दो शब्द
वे इतनी बार माइक से गायब होती हुईं आवाजें
वे इतने चेहरे
वे इतनी तालियां और गालियां... गालियां... गालियां...
और इस दरमियान वह करीब बीस हजार बार दीप प्रज्ज्वलित कर चुका है
इस एकरसता में एक सरसता अनुभव करता हुआ
वह सुरक्षा कारणों से अब तक टमाटरों, अंडों, जूतों, पत्थरों, थप्पड़ों
और गोलियों से तो दूर है लेकिन गालियों से नहीं
एक सघन हाशिए से लगातार सुनाई दे रही गालियों के बरअक्स
वह है कि दीप पर दीप जलाता जा रहा है
इस ‘उत्सवरतक्षतमदमस्त’ वक्त में
इतनी संस्कृतियां हैं इतनी समितियां हैं इतनी बदतमीजियां हैं
कि उसे बुलाती ही रहती हैं अवसरानवसर दीप प्रज्ज्वलन के लिए
और वह भी है कि सब आग्रहों को आश्वस्त करता हुआ
प्रगट होता ही रहता है
एक प्रदीर्घ और अक्षत तम में ज्योतिर्मय बन उतरता हुआ
लेकिन तम है कि कम नहीं होता
और शालें हैं कि वे इतनी इकट्ठा हो जाती हैं
कि अगर करोलबाग का एक व्यवसायी टच में न हो
तब वह गोल्फ लिंक वाली कोठी देखते-देखते गोडाउन में बदल जाए
गाहे-बगाहे उसे बेहद जोर से लगता है
कि वे शालें ही लौट-लौटकर आ रही हैं
जो पहले भी कई बार उसके कंधों पर डाली जा चुकी हैं
क्योंकि ठिठुरन से हुई मौतें हैं कि थम ही नहीं रहीं इस दुनिया में
इतनी इतनी सारी शालों के बावजूद
वे एक उम्र के असंख्य पांच मिनट
वे इतनी गणेश और सरस्वती वंदनाएं
वे इतने सत्कार
वे इतने दो शब्द
वे इतनी बार माइक से गायब होती हुईं आवाजें
वे इतने चेहरे
वे इतनी तालियां और गालियां... गालियां... गालियां...
इसे शर्म कहें या सरमाया
ये सब कुछ भी उसे हासिल है
एक वातानुकूलित और मधुमेहपीड़ित जीवन में...
एक वातानुकूलित और मधुमेहपीड़ित जीवन में...
***
कविताबाज़
...जैसाकि
वह चाहता था अपने एक कविता-संग्रह के प्रकाशन के बाद कि उसे पढ़ा और समझा जाए जबकि पढ़ने और समझने लायक साढ़े चार
लाख से ऊपर किताबें थीं नगर के बीचोंबीच स्थित उस लाइब्रेरी में जहां वह हर रोज
तीन बसें बदलकर पहुंचता था यह गौरतलब है कि कभी भी उसे बस में सीट नहीं मिली थी वह
ग्यारह सालों से खड़ा हुआ था खुद को कभी पर्वत कभी पेड़ कभी लैंप पोस्ट समझता हुआ वह उस बनावट
से बहुत दूर था आग्रह को जो आवश्यक समझती है वह ग्यारह सालों से रोज तीन बसें बदलकर खड़े-खड़े नगर के
बीचोंबीच स्थित उस लाइब्रेरी में जहां साढ़े चार लाख से ऊपर किताबें हैं केवल यह
जानने के लिए आ रहा है कि उसका कविता-संग्रह अब तक किसी ने इश्यू कराया या नहीं लाइब्रेरियन कहता है कि
वह मर
गया लेकिन वह अब भी आ रहा है पूर्ववत...
***
प्रूफ़रीडर्स
वे ऐनक
लगाकर सोते हैं
गलतियों
के स्वप्नवाही, सर्वव्यापी और अमित विस्तार में...
वे
साहित्यकारों की तरह लगते हैं
महाकाव्यों
की गलतियां जांचते हुए
इस
संसार की असमाप्त दैनिकता के असंख्य पाटों के बीच
वे सतत
एक त्रासदी में हैं
वे सब
पुस्तकें वे पढ़ चुके हैं जो मैं पढूंगा
वे सब
जगहें वे सुधारकर रख देंगे एक दिन
जो
मैंने बिगाड़कर रख दी हैं
वे एक
साथ मेरे पूर्वज एक साथ मेरे वंशज हैं...
***
बाहर बारिश
बहुत बेगै़रत होता जा रहा हूं
खुलकर रोना चाहता हूं
लेकिन वे जगहें नहीं हैं जहां खुलकर रो सकूं
अंधेरे खत्म हो रहे हैं!
नई-नई रोशनियां आ रही हैं
रोने की जगहों को अतिक्रमित करती हुईं
जबकि नगर बहुत दूर तक फैलता जा रहा है
कोई भी उसे पूरी तरह जानने के दावे नहीं कर सकता
वह बहुत संकरी गलियों से अचानक
बहुत विराट बाजारों की तरफ खुल जाता है
काले चश्मों के पीछे आंखें नजरें बचाकर रोती हैं
लेकिन ये कोशिशें भी दूर तक कामयाब नहीं
रोज शाम मेरे भीतर से
एक रुलाई बाहर आना चाहती है
रोज शाम मैं बहुत लोगों के बीच होता हूं
मैं रो नहीं पा रहा हूं
मेरे अदृश्य आंसू मेरे स्वर को बहुत मद्धम
और आंखों को बहुत कम सजल करते हैं
मैं खुलकर रोना चाहता हूं
मैं रो सकूंगा
शायद बाहर बारिश हो रही है...
***
अच्छी ख़बर
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें कोई हताहत नहीं होता
आग पर काबू पा लिया गया होता है
और सुरक्षा व बचावकर्मी मौके पर मौजूद होते हैं
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें तानाशाह हारते हैं
और जन साधारणता से ऊपर उठकर
असंभवता को स्पर्श करते हैं
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें मानसून ठीक जगहों पर
ठीक वक्त पर पहुंचता है
और फसलें बेहतर होती हैं
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
जिनमें स्थितियों में सुधार की बात होती है
जनजीवन सामान्य हो चुका होता है
और बच्चे स्कूलों को लौट रहे होते हैं
वे खबरें बहुत अच्छी होती हैं
इतनी अच्छी कि शायद खबर नहीं होतीं
इसलिए उन्हें विस्तार से बताया नहीं जाता
लेकिन फिर भी वे फैल जाती हैं...
***
सेवानिवृत्ति
मैं आज ब्रह्ममुहूर्त से ही पी रहा
हूं
चार दिन बाद होली है और आज मेरी
रिटायरमेंट सेरेमनी
आज दौ सौ रुपए देकर दो ढोल वाले बुलाए जाएंगे
जो जहां कहा जाएगा वहां बजाते रहेंगे
आगे की पंक्ति में स्टाफ की सारी
महिलाएं बैठी होंगी
चटक रंग पहने हुए, चटक रंग वाली ऊन के स्वेटर बुनते हुए
कुछ कम उम्र की महिलाएं सेलफोन के
माध्यम से
कान में इयरफोन लगाकर एफएम सुनती
रहेंगी
बाकी के कर्मचारी यहां-वहां बैठे होंगे, टहलते होंगे
इस दौरान ढोल और सेलफोन बराबर बजते
रहेंगे
मैं एक गाना गाऊंगा ‘चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश...’
कुछ देर तक सचिव जी का इंतजार होगा...
वे नहीं आ पाएंगे मेरे कामयाब बेटों
की तरह
हालांकि मेरी बहुएं आएंगी
और कुछ कहने के लिए कहे जाने पर कुछ
नहीं कहेंगी
मेरी पत्नी और आगे की लेन में बैठी
स्टाफ की सारी महिलाओं की तरह...
स्त्रियों के पास कहने के लिए वैसे भी
बहुत कम होता है
और बड़बड़ाने के लिए बहुत ज्यादा
लेकिन मेरी पांच वर्ष की पोती जरूर
अपनी बेहद धीमी आवाज में
‘ऐ दिल ये बता दे तू किस ओर चला...’ गाएगी
स्टाफ का एक तथाकथित कवि भी
संदर्भ से हटकर एक गैरजरूरी चीज
सुनाएगा
और बार-बार गालियों के साथ हूट होगा
इसके बाद एक चैक, एक शाल, एक स्मृतिचिन्ह, कुछ तालियां, कृत्रिम धन्यवाद
और मुझसे ‘दो शब्द’ कहने का औपचारिक निवेदन...
लेकिन मेरे पास कहने को इतना कुछ है
कि मैं अगर दो शब्द भी कहूंगा
तब भी वे पैंतीस वर्ष लंबे हो जाएंगे
लेकिन मैं कहूंगा दो शब्दों को बहुत पीछे छोड़ते हुए
एक पैंतीस वर्ष लंबा वाक्य...
मैं सबसे पहले और सबसे अंत में
वहां उपस्थितों और अनुपस्थितों सबसे
क्षमा मागूंगा
क्योंकि बेशुमार गलतियां की हैं मैंने
यहां रहते हुए
इसलिए मुझे माफ कर दीजिए
और मेरे दीर्घायु होने की कामना कीजिए...
मैं शाकाहार की वकालत करूंगा यह कहते
हुए कि मटन मेरी कमजोरी है
मैं बताऊंगा कि बढ़ता हुआ मोटापा मेरे
लिए कभी कोई समस्या नहीं रहा
हंसने के लिए मुझे कभी लॉफ्टर क्लबों
की जरूरत नहीं पड़ी
सुबह की ताजी हवा जो काम पर जाते समय
लग गई सो लग गई
मैंने कभी बहुत जल्दी उठकर व्यायाम
करते हुए
उसे पार्कों में पकड़ने की कोशिश नहीं
की
मैंने ‘योगा’ को नहीं भोगा
और अगरबत्तियों और टूटे हुए फूलों में
भी
मेरी कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही
साहित्य को मैं दूर से सलाम करता हूं
संगीत, रंगमंच और सिनेमा से भी मैं ऊब चुका हूं
और अखबारों को उनकी सुर्खियों से
ज्यादा कभी नहीं पढ़ पाया
मैं खुद को उन सभी उद्धरणों से बचा ले
गया जो मेरे नहीं थे...
मैं आज के बाद क्या करूंगा यह मैं खुद
भी नहीं जानता
हालांकि मेरी धर्मपत्नी मेरे साथ चार
धामों, ज्योतिर्लिंगों, तिरुपति,
शिरडी, वैष्णो देवी, अमरनाथ और कैलाश मानसरोवर तक जाना चाहती है
लेकिन कमबख्त ये छूटती नहीं मुंह से
लगी हुई
और कौन जाए अब दिल्ली की गलियां छोड़कर...
ऐसे प्रदीर्घ वाक्य के बाद सारे स्टाफ की तरफ से मुझे
पंद्रह लीटर का एक मयूर जग प्रदान
किया जाएगा
इस बीच ढोल के दो सौ रुपए वसूल होते
रहेंगे
और आगे की पंक्ति में बैठी हुई औरतें
सेलफोन पर पतियों से झगड़ती रहेंगी
‘बैगन के भर्ते या आलुओं को चिप्स में
इस्तेमाल किया जाए या परौठों में’
इस गंभीर बात को लेकर...
और फिर ‘डानस’ होगा
मैं देर तक नचाया जाऊंगा
रंग और गुलाल की रस्में निभाई जाएंगी
गुझियों, जलेबियों, समोसों और ठंडाई का जलपान होगा
और इस तरह जाना कुछ आसान होगा...
और इससे ज्यादा क्या होगा आज मेरी
रिटायरमेंट सेरेमनी में
यही सब सोचकर आज ब्रह्ममुहूर्त से ही
पी रहा हूं...
***
वर्षांत
एक बरसात बहुत कुछ ध्वस्त कर देती है
मैं खंडहरों की तरफ चलता चला जाता हूं
और वहां देर तक भीगता रहता हूं
एक समय पहले तक
बारिशें मुझे समझ में नहीं आती थीं
मैं समझता था कि गर्मियों के बाद
वे बस यूं ही चली आती हैं
और जब मैं भीग रहा होता हूं
वे सब जगह इस तरह ही बरस रही होती हैं
लेकिन ऐसा कुछ नहीं है
बाद में मुझे ज्ञात हुआ—
एक समय में सब एक तरह से नहीं भीगते
और कुछ और समय गुजरने पर
मैंने पाया कि बस मैं ही भीगता रहता हूं
जबकि मेरे आस-पास का सब कुछ
मेरे भीगने से बेखबर रहता है
और यह सब कुछ जब मुझे स्पर्श करता है
तब इस सब कुछ को कहीं भी कुछ भी भीगा हुआ नहीं लगता है
मेरे अनुमानों से अलग यह एक प्रचलित यथार्थ है
यहां एक घर है जो मैं छोड़ चुका हूं
एक स्त्री है जो मुझे छोड़ चुकी है
रस्सियां हैं और उन पर फैले हुए गीले कपड़े हैं
जो धीरे-धीरे सूख रहे हैं
स्त्री काम से लौटकर आ चुकी है
और उन्हें रस्सियों पर से उतार रही है
ओस में नर्म होने से पहले
चढ़ती हुई सर्द रातें हैं
सूर्यास्त से सूर्योदय तक
वर्षा कहीं नहीं है
बस मैं ही भीगता रहता हूं...
***
...और जो मैं खो चुका हूं
उन कविताओं के बारे में क्या कहूं
वे ऐसे ही नहीं अभिहित हुई थीं
जैसे यह— एक आत्मप्रलाप में विन्यस्त होती हुई
एक प्रकाश्य-प्रक्रिया के समय
वे एक सायास हनन का शिकार हुईं
और गुजर गईं अनंत में
मेरे भीतर बह रहा रक्त जानता है—
वे अनंत से नहीं आई थीं
उनका प्रतिरूप केवल स्मृति में सुरक्षित था
इस हनन से पूर्व
वे लगभग याद थीं मुझे
अब उनकी पंक्तियों का क्रम मैं भूलने लगा हूं...
अब मात्र शीर्षक याद हैं उनके...
अब उनके अस्तित्व के विषय में मेरे विचार
ईश्वर के अस्तित्व के विषय में
मेरे विचारों से मिलते-जुलते हैं
कहीं कोई विरोध नहीं
इस सहमत समय में
उन्हें खोकर ही उनसे बचा जा सकता था
लेकिन इस बदलाव ने मेरी मासूमियत मुझसे छीन ली है
इस स्वीकार को अस्वीकार करने की
मैं भरसक कोशिश करता हूं
लेकिन कर नहीं पाता
बस इतना ही सच हूं
मैं स्थगित पंक्तियों का कवि
तुम्हें खोकर
यूं होकर...
***
[ यहां प्रस्तुत कविताएं प्रथमत: ‘तद्भव’,
‘अकार’, ‘हंस’, ‘समावर्तन’, ‘सदानीरा’ और ‘शुक्रवार’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित
हुईं। इन पत्रिकाओं के संपादकों का कवि शुक्रगुजार
है। ]
उम्दा कविताएँ . शुक्रिया अनुनाद इन कविताओं के लिए .
ReplyDeleteजिन कवियों ने इधर हमारा ध्यान आकर्षित किया है उसमे अविनाश महत्वपूर्ण कवि है.उनका काव्य-कौशल और भाषा हमे भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है.तेजी से और हड़बड़ी मे लिखनेवाले कतिपय कवि संक्रमण के जल्दी शिकार हो जाते है । अविनाश ने अपना संतुलन बनाये रखा है..बाहर बारिश..अच्छी खबर.बर्षांत..और जो मै खो चुका हूं..उम्दा कविताये है.उन्हें और आपको.इतने बेहतर आयोजन के लिये शुभकामनायें..
ReplyDeleteकविताये बहुत कुछ कटी है बहुत कुछ हमारे लिए छोड़ देती है एसी ही कवितायों के लिए अनुनाद का आभार
ReplyDeleteअच्छी कविताए। उम्मीद बंधाती है कवि के प्रति।
ReplyDeleteफोटो फ्रेम करवा कर रखने लायक कवितायेँ
ReplyDeleteअविनाश दस कविताओं से बाहर समझने की चीज़ हैं..फिलहाल डॉट्स में समझने की कोशिश कर रहा हूं जो पंक्तियों के बाद बार बार आता है :)
ReplyDeleteसुदीर्घ अंतराल के बाद पढते हुए लगा मैंने आज कुछ नई कविताएं पढी हैं। कविताओं की घटाटोप पैदावार में कितने सारे खर पतवारों को लांघते हुए इस कवि का काम दिए हुए क्षितिजों और प्रतिमानों
ReplyDeleteसे न चले, यह कामना करता हूँ।
बहुत ही ताजगी लिए मासूमियत भरी कवितायें।
ReplyDeleteबाहर बारिश हो रही है ...अच्छी खबर और काव्य गोष्ठी बहुत अच्छी लगीं. अविनाश को पढना हमेशा एक नयेपन से गुजरने जैसा होता है..बाहर मन मंद हवा चले और कोई सोचे चलो अब सांस लेते हैं..
ReplyDeleteआपकी कविताएँ अनिश्चित आवेगों और अद्भुत विंबों से भरपूर है ,परिचित स्थितियाँ हैं ,जिससे उस कविता को खोज कर पढ़ने की इच्छा होती है ! यह साथ सुखद रहा ।
ReplyDelete