अनुनाद

अनुनाद

जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएं

कवि-मित्र जितेन्‍द्र श्रीवास्‍तव का साथ लेखन के शुरूआती दौर का साथ है। हम दोनों ने एक-दूसरे के रचनात्‍मक संघर्ष देखे और आजीविका के भी। हम इनमें हमेशा साथ थे और इतना कुछ पा लेने के बाद आज भी साथ हैं। जितेन्‍द्र की कविता-यात्रा,   विचार, कविकर्म और जीवन से बनता समकोणीय त्रिभुज है – सभी भुजाएं बराबर। रचना में जिसे संतुलन कहते हैं, वह जितेन्‍द्र के यहां देखा जा सकता है। मैंने उनसे कविताओं के लिए अनुरोध किया था, उन्‍होंने पूरा किया। शुक्रिया प्‍यारे दोस्‍त, जीवन और साहित्‍य की यात्राओं पर हम साथ होंगे और मैं तुम्‍हें यों ही सधे क़दम चलते देखूंगा। 




किसी ईश्वर से अधिक विराट


वे तीन सरकारी ड्राइवर थे
जो बातें कर रहे थे विजय माल्या के बारे में
दो लगातार बोले जा रहे थे

पहले ने कहा
अद्भुत आदमी है माल्या
ऊसर में फ़सलें खड़ी कर देता है

दूसरे ने कहा
बहुत शौक़ीन है वह
तरह-तरह के शौक़ हैं उसके
पानी के जहाज पर करता है पार्टियाँ
पानी की तरह बहाता है शराब
धन तो मैल है उसके हाथों की
वह किसी के हाथ न आएगा
सबको कर लेगा मुट्ठी में

दूसरा जब तक बोल रहा था
पहला बेचैन था कुछ कहने के लिए
टूट रहा था उसका धैर्य

जैसे ही चुप हुआ दूसरा
बोल पड़ा वह
हर साल शानदार कैलेण्डर बनवाता है वह
जिसे देखने के लिए सब मरते हैं
जवान तो जवान बूढ़े भी आह भरते हैं

फिर उसने दूसरे के हाथ पर जोर की ताली मारी
हँसा ठठाकर उसके साथ
कि अचानक उसे ध्यान आया तीसरे का

तीसरा जो अब तक चुप था
पहले के कुछ कहने से पहले ही बोल पड़ा
मैं नहीं बुलाया गया हूं माल्या की किसी पार्टी में
मैं आज तक नहीं चढ़ा किसी भी जहाज पर
मैं इतना अमीर नहीं कि पी सकूँ अंग्रेजी शराब मँहगी बीयर
मैं तो सस्ती भी नहीं पीता
मैं क्रिकेट भी नहीं देखता अक्सर
मुझे अश्लील लगता है आई.पी.एल. में धन का ताण्डव नृत्य

वैसे तुम लोग गए थे क्या राजाराम के वहाँ
उसके पिता के निधन के बाद?

सुना है बड़ी मुश्किलों से पाला था उन्होंने
अपनी पत्नी के निधन के बाद राजाराम और उसकी बहन को

मैं आज जाऊँगा उसके घर
वैसे तुम लोग कुछ ज्यादा ही परेषान हो
माल्या के बारे में
क्या माल्या की दिलचस्पी है
किसी ड्राइवर या चपरासी की मुश्किलों को जानने में
उसने तो तनख़्वाह भी नहीं दिया
कई महीने से अपने जहाजी कर्मचारियों को

आज जब मैं दुखी हूं अपने दोस्त के लिए
तो क्या वह मेरे साथ जाएगा राजाराम के घर
पिएगा उसके बर्तन में पानी
दुलराएगा उसका मन?

वैसे यह सिर्फ़ एक सवाल है
मैं इसका उत्तर जानता हूं
जब तुम लोेग नहीं जा रहे
जो रोज उठते-बैठते हैं साथ नौकरी करते हैं
तो वह क्या जाएगा एक दलित के घर
और यदि वह चला भी गया
तो संचार माध्यम उसे इस तरह
प्रकाशित,
प्रसारित और प्रचारित करेंगे
जैसे रव-रव नरक में गया हो कोई त्यागी
किसी का उद्धार करने

हम ग़रीब हैं
वर्ण व्यवस्था के मारे हैं
लेकिन तमाशा नहीं हैं,
यह हमें ही समझाना होगा जमाने को

विजय माल्या की समस्याएँ
एक उद्योगपति की अपनी बनाई समस्याएँ हैं
हम लोग साधारण लोग हैं
बहुतों की निगाहें है हमारी रोटी पर
क्षमा करना
मैं कोई माओवादी नहीं,
एक ड्राइवर हूं
लेकिन मुझे ऐतराज़ है
किसी धन्नासेठ की निजी समस्या को
राष्ट्रीय समस्या में बदलने की कोशिशों पर” 

बोलते-बोलते लाल हो गया था उसका चेहरा
शब्द काँपने लगे थे उसके क्रोध की ज्वाला से

मैं वहीं थोड़ी दूर खड़ा था
मेरा मन झनझना गया था पूरी तरह
यक़ीन नहीं हो रहा था
कोई ड्राइवर सोच सकता है इस तरह

मेरा यक़ीन जो डगमगा गया था सपनों के बारे में
फिर संभल गया थोड़ा-सा उसकी बातें सुनकर

मैंने देखा उसके दोनों साथी खिसक लिए थे धीरे से
उन्हें लगा होगा शायद खिसक गया है उनका साथी अचानक

मैं रोक न सका अपने को
तेज कदमों से पहुँचा उसके पास
किया एक जोरदार सैल्यूट
जैसे कोई जवान करता है झण्डे को

मुझे ऐसा करते देख अकबका गया वह
बिना कुछ कहे ही चला गया दूसरी ओर
शायद उसे फालतू लगी होगी मेरी भावुकता

उस दिन वह एक मामूली-सा ड्राइवर
अपनी आत्मा का पहरूआ
मुझे किसी ईश्वर से अधिक विराट और शक्तिशाली लगा।
*** 

रामदुलारी

रामदुलारी नहीं रहीं
गईं राम के पास
बुझे स्वर में कहा माँ ने

मैं अपलक निहारता रहा माँ को थोड़ी देर
उनका दुःख महसूस कर सकता था मैं

रामदुलारी सहयोगी थीं माँ की
तीस वर्ष से लम्बी अवधि तक
माँ के कई दुःखों की बँटाइदार

माँ के अलावा सब दाई कहते थे रामदुलारी को
काम में नाम डूब गया था उनका
कभी-कभी माँ उनके साहस के किस्से सुनाती थीं

सन् दो हजार दस में तिरासी वर्ष की आयु में
दुनिया से विदा हुईं रामदुलारी ने
कोई तिरसठ वर्ष पहले सन् उन्नीस सौ सैंतालिस में
पियक्कड़ पति की पिटाई का प्रतिरोध करते हुए
जमकर धुला था उसे
गाँव भर में दबे स्वर में
लोग कहने लगे थे उन्हें मर्द मारन
पर हिम्मत नहीं थी किसी में सामने मुँह खोलने की

रामदुलारी ने वर्षों पहले
जो पाठ पढ़ाया था अपने पति को
उसका सुख भोग रही हैं
गाँव की नई पीढ़ी की स्त्रियाँ
उनमें गहरी कृतज्ञता है रामदुलारी के लिए
वे उन्हें मर्द मारननहीं
योद्धा
की तरह याद करती हैं

जतियों में सुख तलाशते गाँव में
हमेशा जाति को लांघा था रामदुलारी ने
कोई भेद नहीं था उनमें बड़े-छोटे का
सबके लिए चुल्लू भर पानी था उनके पास

माँ कहती हैं
व्यर्थ की बातें हैं बड़ी जाति अपार धन
रामदुलारी न किसी बड़ी जाति में पैदा हुई थीं
न धन्ना सेठ के घर
पर उनके आचरण ने सिखाया हमेशा
निष्कलुष रहने का सलीका
बाभनों,
कायथों, ठाकुरों, बनियों, भूमिहारों में
डींगें चाहे जितनी बड़ी हों अपनी श्रेष्ठता की
पर कोई स्त्री-पुरुष नहीं इनमें
जो आस-पास भी ठहर सके रामदुलारी के।
*** 
लोकतंत्र का समकालीन प्रमेय

कल अचानक मिले रूद्रपुर में जगप्रवेश
मेरे बाल सखा
हाफ़पैंटिया यार

मूछों में आ चुकी सफे़दी
खुटियाई दाढ़ी से ताल मिला रही थी
अब उतनी बेफिक्री उतना संवरापन नहीं था
जितना होता था नेहरू माध्यमिक विद्यालय में साथ पढ़ते हुए

धधाकर मिले जगप्रवेश
खूब हँसे हमारे मन
हमने याद किया अपने शिक्षकों और सहपाठियों को
हालचाल लिया एक दूसरे के परिवार का
और खूब प्रसन्न हुए इस बात पर
कि दोनों पिता हैं दो-दो बेटियों के

जगप्रवेश को मालूम था मेरे बारे में
बड़े भाई साहब ने बहुत कुछ बता दिया था उन्हें
वे ख़ुश थे अपने मित्र की खुशी में
मैं भी कुछ-कुछ जानता था उनके बारे में
मसलन यह कि वे कोटेदार हैं
एक राजनीतिक पार्टी के स्थानीय नेता हैं
उनकी पत्नी शिक्षिका हैं
और एक बड़ा-सा घर है शहर में उनके नाम

बात-बात में पता लगा
जगप्रवेश विधायक होना चाहते हैं
उन्होंने खूब धन-बल जुटाया है बीच के दिनों में
टिकट का प्रबंध पक्का है
उन्होंने आँकड़े इकट्ठा कर लिए है जातियों के
उनकी अपनी जाति के वोट हैं ढेर सारे

कल बहुत सारी इधर-उधर की बातें करते हुए
जगप्रवेश ने धीरे से कहा मुस्कुराते हुए
आपको भी मेरा साथ देना होेगा भाई साहब
हम जाति भाई नहीं लेकिन दोस्त हैं पुराने
आपके आने से बल मिलेगा
आपकी जाति का एकमुश्त वोट मिल जाएगा मुझे

और मित्रो इस तरह मैं
अचानक मित्र से एक जाति में बदल गया
मैं अचरज में था
कि स्कूल के दिनों में
गणित में बेहद होशियार जगप्रवेश
अब भाषा और रिश्तों में
नए प्रमेय गढ़ रहा था

मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा
जो किसी दिन आपको भी मिले आपका कोई पुराना मित्र
लोकतंत्र का पहरुवा बनने को उत्सुक विकल
और धीरे से बातों ही बातों में
आपको रूपान्तरित कर दे एक जाति में।
***

साहब लोग रेनकोट ढूंढ रहे हैं

हजारोें टन अनाज सड़ गया
सरकारी गोदामों के बाहर

यह खबर कविता में आकर पुनर्नवा नहीं हो रही
यह हर साल का किस्सा है
हर साल सड़ जाता है हजारों टन अनाज
प्रशासनिक लापरवाहियों से

हर साल मर जाते हैं हजारों लोग
भूख और कुपोषण से
हर साल कुछ लोगों पर कृपा होेती है लक्ष्मी की
बाढ़ हो अकाल हो या हो महामारी

बचपन का एक दृश्य
अक्सर निकल आता है पुतलियों के एलबम से
दो छोटे बच्चे तन्मय होकर खा रहे हैं रोटियाँ
बहन के हाथ पर रखी रोटियों पर
रखी है आलू की भुजिया
वे एक कौर में आलू का एक टुकड़ा लगाते हैं
भुजिया के साथ भुने गए मिर्च के टुकड़े
बड़े चाव से खाते हैं
रोटियाँ खत्म हो जाती हैं
वे देखते हैं एक दूसरे का चेहरा
जहाँ अतृप्ति है
आधे भोजन के बाद की उदासी है
उनके लिए जो भोजन था
मालिकों के लिए व
बासी है

बचपन का यह दृश्य
मुझे बार-बार रोकता है
पर सरकारों को कौन रोकेगा
जिनका स्थायी भाव बनते जा रहे हैं देशी-विदेशी पूंजीपति
कौन रोकेगा
हमारे बीच से निकले उन अफसरों को
जो देखते ही देखते एक दिन किसी और लोक के हो जाते हैं

कौन तोड़ेगा उस कलम की नोक
सोख लेगा उसकी स्याही
जो बड़ी-बड़ी बातों बड़े-बड़े वादों के बीच
जनता के उद्धार की बातें करती है
और छोड़ती जाती है बीच में इतनी जगह
कि आसानी से समा जाएं उसमें सूदखोर

वैसे सरकार को अभी फुर्सत नहीं है
अक्सर सरकार को फुर्सत नहीं होती
लेकिन उसकी मंशा पर शक मत कीजिए
वह रोेकना चाहती है किसानों की आत्महत्याएं
स्त्रियों के प्रति बढ़ती दुर्घटनाएं
वह दलितों-आदिवासियों को उनका हक दिलाना चाहती है
वह बहुत कुछ ऐसा करना चाहती है
कि बदल जाए देश का नक्शा
लेकिन अभी व्यवधान न डालिए
इस समय वह व्यस्त है विदेशी पूंजीपतियों के साथ
स्थायी संबंध विकसित करने के लिए चल रही एक दीर्घ वार्ता में

यकीन जानिए उसे बिल्कुल नहीं पता
कि बाहर हो रही है मूसलाधार बारिश
और जनता भींग रही है

इस क्षण वह विदेशी मेहमानों के साथ
चुस्कियाँ ले रही है साफ्ट ड्रिंक की
चबा रही है अंकल चिप्स
और बाहर जनता भींग रही हैं
साहब लोग रेनकोट ढूँढ रहे हैं
और हजारों -लाखों टन अनाज सड़ रहा है
सरकारी गोदामों के बाहर।
***
सपने अधूरी सवारी के विरूद्ध होते हैं

स्वप्न पालना
हाथी पालना नहीं होता
जो शौक रखते हैं
चमचों,
दलालों और गुलामों का
कहे जाते हैं स्वप्नदर्शी सभाओं में
सपने उनके सिरहाने थूकने भी नहीं जाते

सृष्टि में मनुष्यों से अधिक हैं यातनाएं
यातनाओं से अधिक हैं सपने
सपनों से थोड़े ही कम हैं सपनों के सौदागर

जो छोड़ देते हैं पीछा सपनों का
ऐरे -गैरे दबावों में
फिर लौटते नहीं सपने उन तक

सपनों को कमजोर कन्धे
और बार-बार चुंधियाने वाली आँखें
रास नहीं आतीं

उन्हें पसन्द नहीं वे लोग
जो ललक कर आते हैं उनके पास
फिर छुई-मुई हो जाते हैं

सपने अधूरी सवारी के विरूद्ध होते हैं।
***
घर प्रतीक्षा करेगा

जोे नहीं लौटे
घर उनकी प्रतीक्षा करेेगा

यह सच बार-बार झांकेगा पुतलियों में
जो समा गए धरती में
जिन्हें पी लिया पानी ने
जो विलीन हो गए धूप और हवा में
वे लौटेंगे कैसे कहाँ से
फिर भी घर उनकी प्रतीक्षा करेगा

सृष्टि में किसी के पास नहीं
घर जैसी स्मृति

घर कुछ नहीं भूलता
लोग भूल जाते हैं घर।
***
कैंची

गुम हो गयी कैंची
कुछ पल के लिए
गुम हो गया मन का उजास

मैं दुखी नहीं रह सकता
जीवन भर
लेकिन इस क्षण के दुख को
झिड़क भी नहीं सकता

मैं जानता हूं
कैंची तो मिल जाएगी
पचीस पचास की अधितम सौ डेढ़ सौ की
संभवतः पहले से अधिक धारदार

अभी कम्पनियों ने
बनाना बंद नहीं किया है कैंची

कोई उससे जेब काटे नसें काटे
या काट ले जिगर
इससे झुठलाया नहीं जा सकता कैंची के सही उपयोग को

कैंची बनी थी जीवन संवारने के लिए
अब क्या करे वह
जब कोई बनाने की जगह
बिगाड़ ले या बिगाड़ दे जीवन उससे
काटने लगे उससे आत्मा देश या समाज की

आज सुबह जो खो गई
उसी कैंची से वर्षों पहले
मैंने संवारी थीं अपनी मूंछें पहली बार

रेखों का मूँछों में बदलना
फिर उन्हें संवारना
आसान नहीं है
उन धड़कनों को आज शब्द देना

वह कैंची साक्षी थी
मेरे उन पलोें और उठते दिनों की
फिर मेरे प्रौढ़ होने
मेरी मूंछों के पकने की भी

जो खो गई
जिसे चुरा ले गया यमदूत-सा कोई
बहुत सारे सामानों के साथ
पुतलियों के ऐन नीचे से
वह तथ्य के रूप में महज एक कैंची थी
जिसकी कीमत इन दिनों सौ रूपये होगी
ज्यादा से ज्यादा डेढ़ सौ
लेकिन मैं इतना ही मानकर अपमान नहीं कर सकता
उसके लम्बे साहचर्य का

मैं जानता हूं
उसकी यादें हर पल नहीं रह सकतीं मेरे साथ
इस जीवन में बहुत कम हैं खाली पल
और काम हैं बहुत सारे
लेकिन वह जरूर याद आएगी कभी-कभी
औचक
यूँ ही।
***  

माँ का सुख

आज हल्दी है
कल विवाह होगा छोटे भाई का

छोटा-सा था कब जवान हुआ
पता ही नहीं चला

इस अवधि में हमारा घर खूब फूला-फला
पर इसी अवधि में एक दिन चुपचाप चले गए पिता
हम सबको अनाथ कर
माँ का साथ बीच राह में छोड़कर

जो घर हँसता था हर पल
उदास रहा कई बरस

आज वही घर सजा है
उसमें गीत-गवनई है
रौनक है चेहरों पर
गजब का उत्साह है माँ में
परसों उतारेगी वह बहू
पाँव जमीन पर नहीं हैं उसके
सब ख़ुश है उसके उल्लास में

आज रात जब वह सोएगी थककर
उसके सपने में जरूर आएंगे पिता उसको बधाई देने
उसका सुख निहारने।
*** 

किरकिरा रही है आत्मा धरती की


बरस कर लौट गए बादल क्षितिज की छाँह में
यहाँ पसर गया नमक चहुँओर
तन मन नयन से रिस-रिस कर

अभी-अभी तो चढ़ा था वैशाख
उम्मीदें नाच रही थीं खेत से खलिहान तक

अब चारों ओर नमक ही नमक है
किरकिरा रही है आत्मा धरती की। 
***

शमशेर


       शमशेर
       शमशेर
काल    होड़   कवि
शमशेर
          शमशेर

लौटता है फिर वहीं
          तट पर
देखता भौंचक्क
कोई नहीं अकेला
          अबकी मेला
          वे भी आगे
कभी जिन्होंने ठेला

चारोें ओर हल्ला-गुल्ला
कैसे-कैसे पंडित कैसे-कैसे मुल्ला
कुछ लोग चबा रहे हैं
मजे का रसगुल्ला

अर्थ अभी बाकी है शब्दों में
जूझ रहे हैं सब ऊपर-झापर
डर भारी है डूबने का

आखिर कौन करे साहस
सब नहीं होते शमशेर

    शमशेर
          शमशेर
    शमशेर

          मेला
          मेला
मेला

रेेला
रेला
रेला
केवल रेला
पर था अकेला   है अकेला  कवि अकेला

          कवि
          कवि
          कवि  शमशेर
*** 

जितेन्द्र श्रीवास्तव

जन्म: उ.प्र. के देवरिया
जिले की रुद्रपुर तहसील के एक गाँव सिलहटा में।
शिक्षा: बी.ए. तक की पढ़ाई
गाँव और गोरखपुर में। जे.एन.यू.
, नई दिल्ली से हिन्दी साहित्य में एम.ए., एम.फिल और पी-एच.डी.। एम.ए. और एम.फिल. में प्रथम स्थान।
प्रकाशित कृतियाँ: कविता
– इन दिनों हालचाल
, अनैभ कथा,
असुन्दर सुन्दर, बिल्कुल तुम्हारी तरह, कायान्तरण।
हिन्दी के साथ-साथ भोजपुरी में भी लेखन-प्रकाशन। कुछ कविताएं अंग्रेजी,
मराठी, उर्दू,
उडि़या और पंजाबी में अनूदित। लम्बी कविता सोनचिरई की कई
नाट्य प्रस्तुतियाँ।
आलोचना: भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचंद, शब्दों में समय, आलोचना का
मानुष-मर्म
,
सर्जक का स्वप्न, विचारधारा,
नए विमर्श और समकालीन कविता।
संपादन: प्रेमचंद: स्त्री जीवन की कहानियाँ, प्रेमचंद: दलित जीवन की कहानियाँ, प्रेमचंद: स्त्री और दलित विषयक विचार,
प्रेमचंद: हिन्दू-मुस्लिम एकता संबंधी कहानियाँ और विचार,
प्रेमचंद: किसान जीवन की कहानियाँ, प्रेमचंद: स्वाधीनता आन्दोलन की कहानियाँ,
कहानियाँ रिश्तों की (परिवार)।
भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से
प्रकाशित गोदान
,
रंगभूमि और ध्रुवस्वामिनी की भूमिकाएँ लिखी हैं।
पुस्कार-सम्मान: कविता
के लिए भारत भूषण अग्रवाल सम्मान और आलोचना के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान सहित
हिन्दी अकादमी दिल्ली का
कृति सम्मान’, उ.प्र. हिन्दी
संस्थान का
रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार’, उ. प्र. हिन्दी संस्थान का विजयदेव नारायण साही पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता का युवा पुरस्कार, डाॅ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान और परम्परा ऋतुराज
सम्मान।
जीविका: अध्यापन।
कार्यक्षेत्र पहाड़
, गाँव और अब
महानगर। राजकीय महाविद्यालय बलुवाकोट
, धारचूला (पिथौरागढ़), राजकीय महिला महाविद्यालय, झाँसी और आचार्य नरेन्द्रदेव किसान स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
बभनान, गोण्डा (उ.प्र.) में अध्यापन के पष्चात इन दिनों इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त
विश्वविद्यालय
,
नई दिल्ली के मानविकी विद्यापीठ में अध्यापन (एसोसिएट
प्रोफेसर)।
सम्पर्क:हिन्दी संकाय,
मानविकी विद्यापीठ, ब्लाॅक-एफ, इग्नू,
मैदान गढ़ी, नई दिल्ली-68,                 
मोबाइल नं. –09818913798
***

0 thoughts on “जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएं”

  1. " हम गरीब है
    वर्ण व्यवस्था के मारे है
    लेकिन तमाशा नही है, यह हमे ही समझाना होगा जमाने को "
    ******************
    कविताए रोचकता के साथ अंत तक पढने को बाध्य करती है । जनवाद ने कविता और जमीन दोनो स्थानो पर गरीब दलित वर्ग को छला है और इस छलने और पुरस्कृत होने के मुहिम मे कवि लेखक भी पूंजीपतियो से कम नही है । और इस तरह जनवाद की विलुप्त होती जा रही धारा मे मुझे कवि की साफ़गोई एक नई और बहुत अच्छी बात लगी । मेरी ओर से बहुत बहुत बधाई और अभिनन्दन ।

  2. जितेंद्रजी की कवितायें पढ़ने के बाद हमेशा मुझहे यह लगा है कि कवि भी आत्माके पहरुए होते हैं।

  3. ऐसी कविता कम मिलती हैं जिनमें दमदार विषय हो,छलदार निर्वाह हो,मजेदार विस्तार हो..और राहतदार मैसेज हो.सैल्यूट जितेन्द्र जी.

  4. हमेशा की तरह भाषा में जीवन तलाशती कविताएं। जितेन्द्र जी को बधाई। – प्रदीप मिश्र

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