नीलोत्पल की कविताएं मानुष जीवन के ताप से भरी कविताएं हैं। जीवन के पकने की गंध जैसे फ़सल पकी हो या फल पके हों - परिन्दों को पुकारते - वैसी गंध और पुकार यहां है। संयोग से कवि के संग्रह का नाम भी है 'अनाज पकने का समय'।
कोई सच्ची कविता व्याख्या के कारोबार के लिए नहीं होती, ये कविताएं भी नहीं है - ऐसे कारोबारियों का इस गली से गुज़र नहीं। यही वजह भी है कि आलोचना में इस कवि का पर्याप्त रेखांकन अब तक नहीं हुआ - गो आलोचना भी कारोबार है अब या हिंसा का कोई घृणित हथियार है।
मैं ज़्यादा इन शिकवों में न जाकर आपको उस आत्मीय संसार ले चलना पसन्द करूंगा, जिसे नीलोत्पल जैसे कवि हमारे लिए बना रहे हैं। इन कविताओं के लिए कवि को शुक्रिया।
***
जीवन समर
हर दिन एक फूल खिलता है.
हम विस्मृति की ओर बढ़ते हैं.
लकड़ियाँ अंतिम समय तक साथ रहती है
फिर भी उन्हें दोहराया नहीं जा सकता.
अंधेरा समय की आँख है
हम जितना अधिक जानने की कोशिश करते हैं
हमारी पहचान खोने लगती हैं.
एक दिन एक चरखे की तरह
हर एक की अपनी-अपनी कथाएँ बुनता
जो घट जाएगा उसकी कमी में
इशारे होंगे
मकड़ी के जाले सैद्धांतिक रूप से
गलत हो सकते है
दीवारों पर उनकी स्मृति घरों का
नैतिक पाठ है
कब वे हटा लिए गए
और विस्थापित कर दिए गए
यह जीवन समर है
***
अंतिम पाठ
जीवन का अंतिम पाठ
हम नहीं जानते
हम बाँहें फैलाते हैं,
हम मुद्राएँ बदलते हैं,
हम अस्वीकृत किए गए आवेदनों की
गलतियाँ देखते हैं
अंत में कुछ नहीं होता
अंत में उन रास्तों की धूल है
जहाँ से रेवड़ गुज़रा था
भटकते परिंदों की आवाज़ें विलुप्त हो जाती है
बारिश की स्मृति फिर से आकाश धो-पोछ देती है
सुदूर रास्तों पर लगे संकेतक और सूचक
बिला जाते हैं गाड़ियों के धुएँ और गुबार में
सुबह का पंछी नहीं पढ़ पाता अंतिम शब्द
कोहरा हमारी छाती में जमा हैं
बरसों बाद यात्रा से लौटा पथिक भयभीत है
वह याद करता है अपना अंतिम वाक्य
और गुम हो जाता है
वह फिर से नहीं लौटता
हमारी स्मृति में अटके तमाम शब्द
डूब जाते हैं किनारों पर आकर
किनारा, शब्द का अंतिम पड़ाव है....
***
हम नहीं जानते
हम बाँहें फैलाते हैं,
हम मुद्राएँ बदलते हैं,
हम अस्वीकृत किए गए आवेदनों की
गलतियाँ देखते हैं
अंत में कुछ नहीं होता
अंत में उन रास्तों की धूल है
जहाँ से रेवड़ गुज़रा था
भटकते परिंदों की आवाज़ें विलुप्त हो जाती है
बारिश की स्मृति फिर से आकाश धो-पोछ देती है
सुदूर रास्तों पर लगे संकेतक और सूचक
बिला जाते हैं गाड़ियों के धुएँ और गुबार में
सुबह का पंछी नहीं पढ़ पाता अंतिम शब्द
कोहरा हमारी छाती में जमा हैं
बरसों बाद यात्रा से लौटा पथिक भयभीत है
वह याद करता है अपना अंतिम वाक्य
और गुम हो जाता है
वह फिर से नहीं लौटता
हमारी स्मृति में अटके तमाम शब्द
डूब जाते हैं किनारों पर आकर
किनारा, शब्द का अंतिम पड़ाव है....
***
जीवन पेड़ों से ढँका हुआ हैं
जीवन पेड़ों से ढँका हुआ हैं
पेड़ पहाड़ों से
पहाड़ों के नज़दीक झीलें हैं
झीलों में कई बादल
जब बादल बरसते है
झीलें अपनी आसन्न मृत्यु से
बाहर निकल आती है
पहाड़ जानते है
वे समय से बाहर है
हमारा उदास प्रेम भी समय से बाहर है
चीज़ों के अन्यत्र हम अपनी उदासी गाते हैं
सब कुछ ढँका हुआ
जीवन पर सबकी नंगी छायाएँ गिरती हैं
हम जिन्हें गाने का शौक हैं
समय को बेअसर कर जाते है
***
जीवन पेड़ों से ढँका हुआ हैं
पेड़ पहाड़ों से
पहाड़ों के नज़दीक झीलें हैं
झीलों में कई बादल
जब बादल बरसते है
झीलें अपनी आसन्न मृत्यु से
बाहर निकल आती है
पहाड़ जानते है
वे समय से बाहर है
हमारा उदास प्रेम भी समय से बाहर है
चीज़ों के अन्यत्र हम अपनी उदासी गाते हैं
सब कुछ ढँका हुआ
जीवन पर सबकी नंगी छायाएँ गिरती हैं
हम जिन्हें गाने का शौक हैं
समय को बेअसर कर जाते है
***
आधुनिकता के लिबास
यह समय आधुनिकता के लिबास में
एक कफ़न तैयार करता है
बिजलियाँ गिरती रहती हैं
लोगों के संदर्भ बदल जाते हैं
वाचाल और मौन का फ़र्क
बिल्लियाँ ही जानती हैं
अधिक विवादास्पद शकों को जन्म देता है
घिरते-घिरते अपराधियों का चेहरा
ढँक दिया जाता हैं
एक नई सुबह अख़बार और आदमी
अपनी दुविधा नहीं जान पाते
सारा जलावन उन्हीं चीज़ों के आसपास जमा होता है
प्रेम अस्थिर छोर से
जीवन की व्याधियाँ गिनता है
जल्दबाज़ी में संगीत अपनी नावों को छोड़
तटों की ओर भागता है
जबकि सारी लये अलय के भीतर जमा है
रोशनियां अंधेरे में उलझती बिला जाती है
लंबी गहन रात पर्दा है स्याह करतूतों का
हम उस चक्र से नहीं निकल सकते
जो हमने बुना है
अंत में हम ख़ुद को ख़ारिज करने के लिए उठते हैं
जो कि अब संभव नहीं
***
इस तरह प्रकृति में दाख़िल होता हूँ
मैं इस तरह प्रकृति में दाख़िल होता हूँ
कहीं की कलम कहीं रोप देता हूँ
बिना जाने बुहार देता हूँ आँगन
धूप, हवा के लिए खिड़कियाँ खोलता हूँ
टेबल पर राखी किताब के पन्ने उड़ने लगते हैं
जैसे अंतहीन बारिश जिसका कोई नाम नहीं
गिरती है हमारी उत्कट ज़िंदगियाँ शब्दों से ढँक जाती हैं
सड़कों पर परछाइयाँ समेत ली जाती हैं
रात अंत है परछाइयों का
रात इतना अकेला कर देती है कि
बिना छाया के आज़ादी नहीं मिलती
हम एक सिरे पर जीवन रखते हैं
दूसरे में मृत्यु
मैं किसी सिरे पर नहीं हूँ
वक़्त चलता है
और छाल की तरह उतार ली जाती हैं इच्छाएँ
हर पेड़ सिखाता है
छिलने और कटने का एक अर्थ
अपने कमतर होने का जायजा लेना भी है
अनिश्चितता से भरा सीटियाँ बजाता हूँ
जानता हूँ कि हवा की सीटियाँ जंगल और ख़ाली जगहों पर
आसानी से फैल जाती है
हर एक चीज़ पर गहरा चुंबन छाया है
मैं अपने होंठ रखता हूँ सारी मृत्युएँ झर जाती हैं
प्रकृति जीवन को अनंतिम की ओर ले जाती है
जानते हुए भी नहीं जानता
क्या लौटाना है मुझे
समेट लेता हूँ सारे रहस्य अपने जाल में
इस तरह प्रवेश करता हूँ
जीवन का रहस्य अभेद्य है
***
लोग रचते हैं अपना स्वतंत्र तनाव
मेरा देश महान
इस तर्ज़ पर कभी नहीं चला
यह लोकप्रिय ग्रंथि थी जो छूटी नहीं
जंगल उन प्रतिकों से भरा है
जो छूटते है, झरते है, जल जाते है
अंततः एक ख़ूबसूरत रचने की प्रक्रिया
दोबारा शुरू
हम एक ख़ाली बागीचे में
बहुत देर तक दीपक नहीं जला सकते
महान शब्द आतंकित करता है
महानता का बोझ बड़ा है
लोगों को उनके सपने और
अंधेरे के साथ जीने दो
किताबें अधिक देर तक नहीं जलाई जा सकती
प्रतिकों का लास्य ठहरता नहीं
कोई न कोई प्रेमी फिर से
पहाड़ों, नदियों की ओर गुम हो जाता है
जिसे हम प्राय भूल जाते हैं
किनारों पर भी कई किनारे होते हैं
एक हाथ एक शृंखला है
जो अनंत दूरी तलक
अपनी जन्मजात इच्छाएँ रचते हैं
कहने को आश्चर्य नहीं
इसे सीमा, भाषा या मिथकों का पैमाना कहना ठीक नहीं
लोग रचते हैं अपना स्वतंत्र तनाव
इसे महानता मत कहो
***
जीवन एक बेधड़क हवा है
बचता वही जो स्वयं को नहीं बचाता
सारे वाहन इस फ़िक्र में दौड़ते हैं
उन्हें कहीं पहुँचना है
सुबह की जल्दी में
अर्थ छूट जाते हैं
आसमान ख़ालीपन का प्रतिरोध करता है
एक छुटा सबक देर तलक
बना रहता है दिमाग में
मृत्यु की कोई उपस्थिति नहीं
वह एक सूचना है
जो अपने को बचाए रखती है
जीवन एक बेधड़क हवा है
राह से गुज़रते वह जितना छिपाती है
समय के दरिया उसे प्रकट करते है
एक मुड़े-तुड़े कागज़ ने किसी को नहीं बचाया
दिन भर की धूल रात का अंधेरा
और लगातार बारिश ने
उसे फिर पेड़ बनने का विचार दिया
घिरने पर मौसम बादल जाता है
कितने ही दुख बिना कहे रह गए
जो कह रहा है
दरअसल अपने बचाने को छिपा रहा है
***
शब्द
यह एक शब्द
असंख्य मुँहों के बीच
अपनी रीढ़ पकाता
यह एक शब्द
मृत्यु और अंधकार में गहराता
ज़मीन की शिराओं, गंधक में घुला
रोशनी के अंतिम सिरे पर
शोक के निरंतर गीत के साथ पुकारता
थोड़ा थका, सुस्त और आर्त्त
थोड़ा भंजक, निराशी और जड़ों का आलाप
हम हर दम एक सस्ते किए जाते
मूल्य का रंगीन आकार
हम इसे लेते हैं
जैसे मेरी घास का अंतिम उत्सर्ग
जैसे सूचनाओं की पट्टी पर
काले धुएँ का फैलाव
बीतता वक़्त, हर चीज़ रूप बदलती
चेतना की थाह अकल्प
घने पेड़ के साये में लिपटी असंख्य इल्लीया
जिनसे छूते ही तितलियाँ निकलेंगी
मैं अनंत दशकों से इससे लिपटा
एक-एक शब्द की प्रतीक्षा में
एक शब्द अनंत की प्रतीक्षा है
लिखना बोले जाने से अलग है
लिखना बोले जाने से अलग है
जैसे-जैसे हवाएँ पहाड़ों को पार करती हैं
दूर जंगलों में शोर छाया रहता है
किसी चीज़ का अंत लिखना
उसकी शुरुआत को याद करना है
समय एक बार में अनंत कहानियाँ रचता है
हम जल्दबाज़ी में पायदान चढ़ते हैं
यह कहना मुश्किल है
हम कहाँ से आरंभ करते हैं कहाँ ख़त्म
गीली आँख का संबंध
ओस के क़तरे से अलग है
जो घास पर विदा गीत लिखती है
निभाए जाने के लिए कुछ नहीं
मिट्टी के ढलुएं चाक पर रखे जाने से पहले
अवसाद छोड़ते है
पानी में बुलबुले उठाती मिट्टी
अंतिम यात्रा से अलग है
तबाही देखे जाने से अलग है
सूचना आख़िर तक नहीं पहुँचती
हम अपना अंतिम समय नहीं चुन सकते
***
बाँस
1.
बाँस की लंबी तिकोनी पत्तियाँ
ख़ाली तने के भीतर की क़ैद आवाज़
दोहराती है
समय का अपरिचित रंग झरता है
हरेपन की उम्मीदें संध्या के अंत में
समुद्र की तरह भरसक बजती है
गोया बाँस समुद्र की सिम्फ़नी है
जीवन का अंतिम साक्षी
एक ख़ूबसूरत बहाने के साथ
प्रस्तुत होता है
हम विदा नही ले पाते
कुछ बहाने छूट जाते हैं
चीज़ों का लंबा इतिहास
एक खोए नागरिक की डायरी में दर्ज़ रहता है
हम नहीं जानते
सदियों से एक लय रस्सियों पर चलती रहती है
कड़े होने के बावजूद झुकाया जा सकता है
प्रतीक्षा का यह प्रहरी मृत्युहीन है
2.
बाँस झुकाव से पहले ख़ास क़िस्म की मुद्रा में
अपना तनाव छोड़ते है
समय रहते पत्तियाँ जानती हैं
एक टहनी छोड़ना
तनने की अनावश्यकता कम करना है
पुरखों का घर, खोए हिरण,
सुबहों का अंतर्लाप,
काँच की ख़ाली बंद बरनियां,
लंबे सीधे बाँस की बरौनीया है
प्रेम की, विरह की एक धुन, एक तर्ज़ है
चुपचाप रात का जंगल अपनी आवाज़ पहचानता है
खोई बिजलियाँ जमा है धरती के नीचे
तुम्हारे भीतर आग की एक लकीर है
समय से पहले खिलता नहीं स्फुर्लिंग
एक आदिम आवाज़ अंत तक पीछा करती है
***
बाँस झुकाव से पहले ख़ास क़िस्म की मुद्रा में
अपना तनाव छोड़ते है
समय रहते पत्तियाँ जानती हैं
एक टहनी छोड़ना
तनने की अनावश्यकता कम करना है
पुरखों का घर, खोए हिरण,
सुबहों का अंतर्लाप,
काँच की ख़ाली बंद बरनियां,
लंबे सीधे बाँस की बरौनीया है
प्रेम की, विरह की एक धुन, एक तर्ज़ है
चुपचाप रात का जंगल अपनी आवाज़ पहचानता है
खोई बिजलियाँ जमा है धरती के नीचे
तुम्हारे भीतर आग की एक लकीर है
समय से पहले खिलता नहीं स्फुर्लिंग
एक आदिम आवाज़ अंत तक पीछा करती है
***
जीवन का कोई आदर्श नहीं
जीवन का कोई आदर्श नहीं
फिर भी ढेरों मछलियाँ जाल में फँस जाती
उन्हें कोई नहीं बाहर निकलता
जो छायाओं के बीच छिप जाते हैं
जीवन की आस बहुत छोटी है
सिग्नलों की मामूली रोशनी में
सारे संकेत मिट जाते हैं
एक घर दुसरे घर से बहुत अलग है
दोनों दिन-रात के अंतरालों में बंटे
अनिश्चित दूरी पर खड़े हैं
एक सुबह कीड़ा पड़ताल करता है
अपने किए की
जंगल की मामूली जगह क़ब्रगाह बन जाती है
सारे रहस्य बेपर्दा रखे हैं जंगल
जलता टायर अधिक कार्बन उत्सर्जित करता है
धुएँ से घिरा पेड़
मारा जाता है अपने आदर्शों के साथ
बहसें चल निकलती है
मुँह का झाग अख़बारों को भरता है
जबकि मृत्यु इतनी अशांत है कि
वह अपना जीवन ख़ुद चुनती है
***
तुम्हारी आँखों की जद से
वह आँख मुझे घेर रही है
मैं उसमें समा जाता हूँ
मैं एक अनंत दृश्य,
अधूरा चाँद,
लंबी परछाई भर
मैं गहरे पानी में प्रतिबिंब की तरह
बदलता हूँ
मैं अपनी छायाएँ एक होती पाता हूँ
मैं निस्वर गुज़रता हूँ
चारों ओर अनंत परिधि
एक छोटे पतंगे की यात्रा
समाप्त होती है
समय बार-बार दोहराता है
देर तक मैं ही रहता हूँ
एक जगह पर बना हुआ
मैं ही सारी फसलों पर दौड़ता हूँ
हिरणों-सी द्रुत गति-सा
ताकि वह अदृशय चमक बनी रहे
जहां हम एक दूसरे की नष्ट पवित्रताओं को
पुनर्जीवित करते हैं
तुम्हारी आँखों की जद से बाहर नहीं
कोई भी समय
***