कुछ दिन पहले सोनी पांडेय की कविताएं अनुनाद पर पढ़ी गई हैं। इधर हमें उनकी एक नई लम्बी कविता मिली है, जिसके कुछ अंश फेसबुक पर मौजूद पाठकों ने शायद पढ़े हों। समकालीन हिंदी कविता की नई-नई निर्मितियों में यह स्वर एक और दिशा खोलता है। स्त्रियों पर कविता रचने के शिल्प बहुत समय तक पुरुषों की प्रतिभा के सहारे रहे लेकिन अब यह शिल्प अपने मौलिक हाथों में हैं। यानी जिनकी कहन है, गढ़न भी उन्हीं की। स्त्री जीवन के प्रसंगों को अब अपना मूल स्वर प्राप्त हो रहा है - पहले हर दौर में चंद ही नाम होते थे पर अब अभिव्यक्ति में हमें बहुत-से नए और अलग नाम लगातार मिल रहे हैं। सोनी पांडेय के कविकर्म को पुन: रेखांकित करते हुए हम उनके रचनात्मक भविष्य के प्रति भरपूर आश्वस्त हैं। हम जब-जब हिंदी के स्वयंभू मठों के बाहर ऐसी सार्थक आवाज़ों का स्वागत अनुनाद पर कर पाते हैं तो पत्रिका के होने का उद्देश्य सफल सिद्ध होता लगता है।
यह कविता प्रश्न पूछने के लिए कहीं-कहीं सपाट होने का पूरा जोखिम लेती है। प्रश्न ज़रूरी हैं - कविता में भी प्रश्न सबसे ज़रूरी हैं, कविता के शिल्प बनते-बदलते रहेंगे, प्रश्नों का होना-पूछा जाना जस का तस रहेगा- पूछने के इसी साहस में कविता निवास करती आई है और करती रहेगी।
ये पंक्तियां, जिन्हें मैं उद्धृत कर रहा हूं, समाज के उस गहरे अंधेरे कोने में प्रकाश के फैलाव का उद्धरण हैं, जिसे कविता के इलाक़े में अब तक बहुत ज़्यादा देखा नहीं गया है - बदनाम औरतों के गर्भ से / जन्म लेने वालीं सन्तानें सभ्य संस्कृति के उजालों की देन होतीं हैं / जिन्हें जन्म लेते ही / असभ्य करार दिया जाता है / ये औरतें जश्न मनातीं हैं बेटियों के जन्म पर / मातम बेटों का / शायद ये जानती हैं / कि बेटियाँ कभी बदनाम होती ही नहीं / बेटे ही बनाते हैं इन्हें बदनाम औरतें।
***
1
माँ ने सख़्त हिदायत देते हुए
कहा था
उस दिन
उस तरफ कभी मत जाना
वो बदनाम औरतों का मुहल्ला है ।
और तभी से तलाशने लगीं आँखें
बदनाम औरतों का सच
कैसी होती हैं ये औरतें ?
क्या ये किसी विशेष प्रक्रिया से रची जाती हैं ?
क्या इनका कुल - गोत्र भिन्न होता है ?
क्या ये प्रसव वेदना के बिना आती हैं या मनुष्य होती ही नहीं ?
ये औरतें मेरी कल्पना का नया आयाम हुआ करतीं थीं उन दिनों
जब मैं बड़ी हो रही थी
समझ रही थी बारीक़ी से
औरत और मर्द के बीच की दूरी को
एक बड़ी लकीर खींची गयी थी
जिसका प्रहरी पुरुष था
छोटी लकीर पाँव तले औरत थी ।
2
माँ ने सख़्त हिदायत देते हुए
कहा था
उस दिन
उस तरफ कभी मत जाना
वो बदनाम औरतों का मुहल्ला है ।
और तभी से तलाशने लगीं आँखें
बदनाम औरतों का सच
कैसी होती हैं ये औरतें ?
क्या ये किसी विशेष प्रक्रिया से रची जाती हैं ?
क्या इनका कुल - गोत्र भिन्न होता है ?
क्या ये प्रसव वेदना के बिना आती हैं या मनुष्य होती ही नहीं ?
ये औरतें मेरी कल्पना का नया आयाम हुआ करतीं थीं उन दिनों
जब मैं बड़ी हो रही थी
समझ रही थी बारीक़ी से
औरत और मर्द के बीच की दूरी को
एक बड़ी लकीर खींची गयी थी
जिसका प्रहरी पुरुष था
छोटी लकीर पाँव तले औरत थी ।
2
बदनाम औरतों को पढ़ते हुए जाना
कि इनका कोई मुहल्ला होता ही नहीं
यह पृथ्वी की परिधि के भितर बिकता हुआ सामान हैं
जो सभ्यता के हाट में सजायी जाती हैं
इनके लिए न पूरब है न पश्चिम
न उत्तर है न दक्खिन
न धरती है न आकाश
ये औरतें जिस बाज़ार में बिकता हुआ सामान हैं
वह घोषित है प्रहरियों द्वारा
" रेड लाईट ऐरिया "
प्रवेश निषेध के साथ ।
किन्तु
ये बाज़ार तब वर्जित हो जाता है
सभी निषेधों से
जब सभ्यता का सूर्य ढल जाता है
ये रात के अन्धेरे में रौनक होता है
सज जाता है रूप का बाजार
और समाज के सभ्य प्रहरी
आँखों पर महानता का चश्मा पहन करते हैं
गुलज़ार इस मुहल्ले को
बदनाम औरतों के गर्भ से
जन्म लेने वालीं सन्तानें सभ्य संस्कृति के उजालों की देन होतीं हैं
जिन्हें जन्म लेते ही
असभ्य करार दिया जाता है ।
ये औरतें जश्न मनातीं हैं बेटियों के जन्म पर
मातम बेटों का
शायद ये जानती हैं
कि बेटियाँ कभी बदनाम होती ही नहीं
बेटे ही बनाते हैं इन्हें बदनाम औरतें ।
3
ये बदनाम औरतें ब्याहता न होते हुए भी ब्याहता हैं
मैं साक्षी हूँ
पंचतत्व, दिक् - दिगन्त साक्षी हैं
देखा था उस दिन मन्दिर में
ढोल - ताशे , गाजे - बाजे
लक - धक , सज - धज के साथ
नाचते गाते आयी थीं
मन्दिर में बदनाम औरतें
बीच में मासूम-सी लगभग सोलहसाला लड़की
पियरी चुनरी में सकुचाई, लजाई-सी चली आ रही थी
गठजोड़ किये पचाससाला मर्द के साथ ।
सिमट गया था सभ्य समाज
खाली हो गया था प्रांगण
अपने पूरे जोश में भैरवी सम नाच रही थी लडकी की माँ
लगा बस तीसरी आँख खुलने ही वाली है ।
पुजारी ने झटपट मन्दिर के मंगलथाल से
थोड़ा सा पीला सिन्दूर माँ के आँचल में डाला था
भरी गयी लड़की की माँग ।
अजीब दृश्य था मेरे लिए
पूछा था माँ से ,
ये क्या हो रहा है ? ब्याह ?
मासूम लड़की अधेड़ से ब्याही जा रही है ?
अम्मा ! ये तो अपराध है
माँ ने हाथ दबाते हुए कहा था
ये शादी नहीं , इनके समाज में
"नथ उतरायी की रस्म है "।
और छोड दिया था अनुत्तरित मेरे बीसियों प्रश्नों को
समझने के लिए समझ के साथ ।
हम लौट रहे थे अपनी सभ्ता की गलियों में
एक किनारे कसाई की दुकान पर
बँधे बकरे को देखकर
माँ बड़बड़ायी थी
" बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी "
और मैं समझ के साथ - साथ
जीती रही मासूम लड़की के जीवन यथार्थ को
तब तक , जब तक समझ न सकी
कि उस दिन , बनने जा रही थी सभ्यता के स्याह बाजार में
मासूम लड़की
बदनाम औरत।
ये बदनाम औरतें ब्याहता न होते हुए भी ब्याहता हैं
मैं साक्षी हूँ
पंचतत्व, दिक् - दिगन्त साक्षी हैं
देखा था उस दिन मन्दिर में
ढोल - ताशे , गाजे - बाजे
लक - धक , सज - धज के साथ
नाचते गाते आयी थीं
मन्दिर में बदनाम औरतें
बीच में मासूम-सी लगभग सोलहसाला लड़की
पियरी चुनरी में सकुचाई, लजाई-सी चली आ रही थी
गठजोड़ किये पचाससाला मर्द के साथ ।
सिमट गया था सभ्य समाज
खाली हो गया था प्रांगण
अपने पूरे जोश में भैरवी सम नाच रही थी लडकी की माँ
लगा बस तीसरी आँख खुलने ही वाली है ।
पुजारी ने झटपट मन्दिर के मंगलथाल से
थोड़ा सा पीला सिन्दूर माँ के आँचल में डाला था
भरी गयी लड़की की माँग ।
अजीब दृश्य था मेरे लिए
पूछा था माँ से ,
ये क्या हो रहा है ? ब्याह ?
मासूम लड़की अधेड़ से ब्याही जा रही है ?
अम्मा ! ये तो अपराध है
माँ ने हाथ दबाते हुए कहा था
ये शादी नहीं , इनके समाज में
"नथ उतरायी की रस्म है "।
और छोड दिया था अनुत्तरित मेरे बीसियों प्रश्नों को
समझने के लिए समझ के साथ ।
हम लौट रहे थे अपनी सभ्ता की गलियों में
एक किनारे कसाई की दुकान पर
बँधे बकरे को देखकर
माँ बड़बड़ायी थी
" बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी "
और मैं समझ के साथ - साथ
जीती रही मासूम लड़की के जीवन यथार्थ को
तब तक , जब तक समझ न सकी
कि उस दिन , बनने जा रही थी सभ्यता के स्याह बाजार में
मासूम लड़की
बदनाम औरत।
एक बडा सवाल गूंजता रहा
तब से लेकर आज तक कानों में
कि, जब बनायी जा रही थी समाज व्यवस्था
क्यों बनाया गया ऐसा बाज़ार ?
क्यों बैठाया गया औरत को उपभोग की वस्तु बना बाजार में ?
औरत देह ही क्यों रही पुरुष को जन कर ?
मथता है प्रश्न बार - बार मुझे
देवो ! तुम्हारे सभ्यता के इतिहास में पढा है मैंने
जब - जब तुम हारे
औरत शक्ति हो गयी
धारण करती रही नौ रुप
और बचाती रही तुम्हें।
फिर क्यों बनाया तुमने बदनाम औरतों का मुहल्ला ?
क्या पुरुष बदनाम नहीं होते ?
फिर क्यों नहीं बनाया बदनाम पुरुषों का मुहल्ला, अपनी सामाजिक व्यवस्था में ?
मैं जानती हूँ , तुम नैतिकता , संस्कार और संस्कृति के नाम पर
जीते रहे हो दोहरी मानसिकता का जीवन .
सदियों से।
देखते आ रहे हो औरत को बाज़ार की दृष्टि से ।
आज तय कर लो
प्रार्थना है . . . .
कि बन्द करना है ऐसे बाज़ार को
जहाँ औरत बिकाऊ सामान है
जोड़ना है इन्हें भी
समाज की मुख्यधारा से
आओ, थाम लें एक - दूसरे का हाथ
बना लें एक वृत्त
इसी वृत्त के घेरे में
नदी , पहाड़ , पशु - पक्षी
औरत - मर्द
सभी चलते आ रहे हैं सदियों से
और बन जाता है ये वृत्त धरती
और धरती को घर बनाती है
औरत
तुम रोपते हो जीवन
बस यही सभ्यता का उत्कर्ष है ।
हाँ, मैं चाहती हूँ
ये वृत्त कायम रहे
इस लिए मिटाना चाहती हूँ
इस वृत्त के घेरे से " बदनाम औरतों का मुहल्ले" का अस्तित्व
क्यों कि औरतें कभी बदनाम होती ही नहीं
बदनाम होती है दृष्टि ।
***
सोनी पाण्डेय
सम्पादक
गाथांतर हिन्दी त्रैमासिक
आजमगढ उत्तर प्रदेश
9415907958
सोनी जी आप की कविता ने उन महिलाओं के दर्द को उकेरा है जिनका दर्द न पुरुष समझते हैं न औरतें .........सूरज की रौशनी भी इन बदनाम इलाकों पर नहीं पड़ती ,चाँद की छाया तले ही जहाँ जिंदगी तिल -तिल कर मरते हुए जी जाती है ,आपके द्वारा उठाये गए प्रश्न झकझोरते हैं, एक टीभ उत्पन्न करते हैं ....... क्या पुरुष कभी बदनाम नहीं होते ,ऐसे विषय पर कलम चलाने के लिए साहस चाहिए और आपने वो कर दिखाया .........वंदना बाजपेयी
ReplyDeleteक्यों कि औरतें कभी बदनाम होती ही नहीं
ReplyDeleteबदनाम होती है दृष्टि ।
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति है सोनी जी ! स्त्री की पीड़ा और पुरुष के दोहरे व्यक्तित्व को खूब कुरेदा है आपने। एक मार्मिक रचना....!
ReplyDeleteबहुत से जरूरी प्रश्नों को रेखांकित करती सोनी पाण्डेय जी की यह कविता अपने समकालीन सन्दर्भों को न केवल जीती है बल्कि सामाजिक व्यवस्था और मानसिकता पर जोरदार प्रहार भी करती है. यह कविता सच्चाइयों पर चढ़े सफ़ेद मुलम्मे को पूरी बेदर्दी से उधेड़कर स्याह चेहरे को उजागर कर रही है. इस सफल कविता के लिए सोनी पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई!
ReplyDeleteएक संवेदनशील रचना द्वारा करारा प्रहार , बहुत सारे सवालो और अंतर्मन को झंझोरती हुई …
ReplyDeleteकितना आसान होता है कह देना ...
उधर मत जाना ,
बदनाम औरतें रहती है , उफ्फ
तहे दिल से बधाई सोनी जी!!
kyonki aurten kabhi badnaam hoti hi nahin,
ReplyDeletebadnaam hoti hai drishti........
"bahut khoob"
Bahut hi sundar rachna hai ...ek vedana ki abhivaykti sampurn rup mein ki gayi hai . Badhai!
ReplyDeleteबहुत उम्दा कविता....
ReplyDeleteसोनी पाण्डेय आज ही फेसबुक पर मेरी मित्र बनी हैं और आज ही उनकी यह कविता पढ़ने को मिली. बहुत ही बेजोड़ कविता है यह. आज से उनका नाम मेरे लिए एक गंभीर और बहुत ही प्रतिभाशाली कवयित्री के रूप में होगा. उन्हें बधाईयाँ व बहुत सारी शुभकामनाएँ! अनुनाद का शुक्रिया एक अच्छी कविता से रूबरू करवाने के लिए.
ReplyDelete---सईद अय्यूब
एक अत्यंत संवेदनशील रचना से रूबरू होना अच्छा लगा | यह एक ऐसा विषय है जिसे सिमेटने में स्त्री स्वयम सिमटती है और उसके बिखरने में बिखरती है बार-बार | बधाई सोनी पाण्डेय को | आभार अनुनाद ..
ReplyDeleteye ourten jashn manatee hai betiyon ke janm par
ReplyDeleteor matam baiton ka
shayad ye jantee hai ki betiya kabhi badnaam hoti hi nahi ...
bete hi banaten hain inhe badnaam ourten ......
(sundar kataksh .....kathith mardon par ...unki mardangee par )
naman aapko ....sundar lekhan ke liye ...kal jyee rachna ke liye ...........mdnsoni.
kitni sarthak rachna...bebak nazaron se dekhi sachchai....
ReplyDeleteहलांकि मैं सोनी पाण्डेय जी की फेसबुक में साया यदा-कदा कविताओं को पढ़ता रहा हूँ और उनके विचारों से अक्सर सहमत भी होता रहा हूँ पर 'अनुनाद' में प्रकाशित इस कविता ने मुझे अवाक कर दिया ... सच, जब हिंदी साहित्य के अखाड़े में कृतिम ढंग से कवि-कवित्री तैयार करने की होड़ मची है तब सोनी जी का इन मठ-अखाड़ों से दूर रहकर इतने क्रांतिकारी विचारों के साथ सृजनरत रहना वाकई हिंदी साहित्य के सुखद भविष्य की उम्मीद जगाता है, इस बेहतरीन कविता को पढ़वाने के लिये 'अनुनाद' को आभार एवं कवित्री को इसी तरह सार्थक सृजन के लिये अशेष शुभकामनाएं...
ReplyDeleteनिस्संदेह एक अच्छी कविता जो एक कठिन विषय को सफलतापूर्वक कागज़ पर उतार लाई ( अपने अंतिम भाग में आत्मघोष करती सी अवश्य लगी पर शिल्प में चुस्त है ये रचना |
ReplyDeleteअत्यंत संवेदनशील कवितायें,बधाई आपको💐
ReplyDelete