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जुलाई को कानपुर में जन्म.कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक
एवं विधि स्नातक. हिन्दी साहित्य एवं अंग्रेजी साहित्य लेखन में रूचि. हाल ही में ‘कथादेश’ के
जनवरी २०१३ के अंक में और ‘समकालीन सरोकार’ अगस्त-अक्टूबर २०१३ में 'जनसंदेश' टाइम्स में कवितायें प्रकाशित. २०१४ में 'उम्मीद'
में एक लम्बी कविता एवं 'यात्रा' में कवितायें प्रकाशित बोधि प्रकाशन द्वारा
प्रकाशित स्त्री विषयक कविताओं के संग्रह स्त्री हो कर सवाल करती है में भी
कविताओं का प्रकाशन. विधिनय प्रकाशन, कानपुर द्वारा प्रकाशित द्विमासिक विधि पत्रिका 'विधिनय'की सहायक संपादिका. कानपुर से प्रकाशित ‘कनपुरियम’ एवं
‘अंजुरि’ पत्रिकाओं में कवितायें
प्रकाशित. जनसंदेश टाइम्स, नव्या ई पत्रिका, खरी न्यूज ई पत्रिका, अनुनाद, पहली
बार ब्लॉग, आपका साथ-साथ फूलों का ब्लॉग, नई-पुरानी हलचल ब्लॉग, कुछ मेरी नज़र से ब्लॉग एवं’फर्गुदिया’ ब्लॉग, शब्दांकन
ब्लॉग पर कवितायें प्रकाशित
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हेमा दीक्षित की कविताएं इधर पत्रिकाओं में पढ़ी और सराही गई हैं, लेकिन उनकी कविताओं के प्रकाशन के प्रसंग अधिक नहीं हैं। जटिल होते संसार में सरलता एक मूल्य तो है पर एकमात्र मूल्य नहीं, इस तथ्य को हेमा की कविताओं में मुखर होते देखा जा सकता है। कुछ सख़्त भाषा, बेधक साफ़गोई, क्षोभ और वाजिब क्रोध के ठोस बिम्ब आदि कितनी ही बातें हेमा की कविता का चेहरा बनाती हैं - चेहरा, जिसके अपने ख़ास नक्श हैं और जो मनुष्यता के प्रकाश में चमकता है। अनुनाद पर हेमा का स्वागत और इन कविताओं के लिए आभ्ाार।
दिन कोई भी हो सकता है
दिन कोई भी और कैसा भी हो,
और हो ही सकता है
उसे तो होना ही है,
अब तक होता ही तो आया है
क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा
उसके कोई भी दिन या एक दिन होने से
हाँ बस किसी भी दिन सुबह पाँच बजे
भोर के तारे के डूबने के ठीक कुछ ही पहले
सूरज की सतरथिया की
लंबी काली परछाई के नीचे से निकल कर
इस पूरी पृथ्वी के किसी भी चौक के
मटमैले आसमां के
किसी भी और कैसे भी पन्ने के कोने पर या बीच में या फिर हाशिए पर या कहीं पर भी
चूँकि उगना महत्वपूर्ण है
तो बस उग ही आयेगी
नारंगी सूरज-सी पैनी और नंगी चुभन वाली औरत ...
जो एक और अकेले होते हुए भी या होने पर भी
बहुवचन में उठाएगी
अपने दोनों हाथ विजय मुद्राओं में
और एक कोशिका के काल से ही
विलाप में तब्दील
धरा पर दोहरी पड़ी उसकी देह
आख़िरकार उठ ही खड़ी होगी
और अपने दोनों हाथों को जोड़ कर
एक लहर मुद्रा में आ जायेगी
लहर जिसे कि कह सकते है समंदर से उठ खड़ा हुआ समंदर का एक छोटा सा गाँव
उस लहर के विलोम मूलाधार पीठ में बसता होगा एक पूरा खारा समंदर ...
तो ठीक ... एक पूरे खारे समंदर की तरह
अपने पूरे समूचेपन से
पटक-पटक कर अपनी ज़ुबान का कपाल
वह देगी मुँह भर-भर कर ऐसी गालियाँ
जो उससे जुड़े सारे संबंधों की जंघा पर ताल ठोक कर बैठी है ...
जिनके जन्मों के गर्भगृह स्त्री के गुणसूत्रों में कभी थे ही नहीं ,
उसके नाम पर, पर उसके लिए वर्जित फल रही शब्दावलियाँ
वह 'स्त्री' बकेगी ... या कह सकते है कि बहुवचन मे खड़ी वह अकेली स्त्री
पढेगी दुनियाँ की सारी माँ-बहन और बेटियों के नाम पर ,
चुन-चुन कर रची
सारी मादर-ज़ात विरुदावलियाँ ,
आखिर यह गढ़ी हुई माँ, बहन , बेटियाँ और धर्म की पत्नियाँ ही तो खा गई है
एक स्त्री का स्त्री भर होना ...
***
आसान नहीं है फिर भी
कहाँ को बहती चली जाती हो ...
पत्थरों से टकरा-टकरा कर
चढ़ती हुई साँसों के शोर के साथ
अपनी और उनकी दोनों की देह को छीलते और छीजते हुए
बहती हुई नदी को देखते हुए कहती हूँ मैं जैसे स्वयं से ...
लौटो उलटे पाँव अपने पंजों के बल ...
और देखो ... एड़ियों को कुछ दूर तक उचकाए ही रखना ...
कि कोई भी नहीं चाहता अपने स्वार्थी हितों के
विपरीत दिशा में तुम्हारा लौटना ...
कि अपने जहन के तरकशों में भरे
सारे ज़हर बुझे तीर और कांटे
छोड़ दिए है
बहेलियों और तुम्हारे अपने पुजारियों ने ...
बचा कर रखना अपने नीर भरे तलुवे ...
अन्यथा यह सोख़ लेंगे
सोख़्ता काग़ज़ या मरुस्थलों की तरह
तुम्हारा जीवट और तुम्हारे प्राण ...
कि अब नहीं रहा वक़्त यूँ ही
प्रवाहों की ढालू दिशा और समत्व में बहते हुए
इनके बीजे हुए कसैले बीजों को
मोने और अँकुवाने का ...
अपने तटों पर इनकी विष बुझी
फसलों को लहलहाने देने का ...
देखो अपनी ध्यानस्थ आँखों को ठीक-ठीक खोल कर देखो -
तुम्हारे जने और सेये पोसे विष-पुत्र
तुम्हारी ही कोख के वर्जित देश में
अपने वीर्य के डांडे खे रहे है ...
अपनी पीठ और छाती पर
विषपुत्रों की नाव ढोते हुए ... तुम थक नहीं गई ...
कि क्यों अब भी यूँही पडी दई मारी सी बहती रहोगी ...
अपनी उतारी जा रही आरती की
लपलपाती शिखाओं के अट्टहासों में
अपना मुँह जोहती ...
व्रतों-वासों में
अभी और कितने कल्पों तक घुलते हुए
अपने ही विसर्जनों में
अपनी ही अष्ट-भुजाओं के
कुंद अस्त्रों की कोर पर
पिता-पुत्रों की मन्नतें और शुभों के
दीपदान सँभालते हुए ...
और कब तक ऐसे ही चलती जाओगी ...
तुम लौट क्यों नहीं आती
यह जानते हुए भी कि अब तुम्हे लौट आना चाहिए ...
... उल्टे पाँव ...
प्रवाह से धुर विपरीत ...
करने को एक अंतिम पलटवार ...
एक भरपूर प्रहार ...
और उभर आएगा
इतिहास के पृष्ठों पर
अब तक अनलिखी रही इबारतों के अस्तित्व का
चौकोर सपाट सीनों वाला
सूखा और भुरभुरा रवेदार नमक ...
****
सफलता तो स्त्रीलिंग है
सुनो रे ...
होना है अमरलता ...
बिना पत्तियों वाली
नग्न डालियों वाली
एक ज़िद्दी और बहिष्कृत अमरलता ...
उस सुबह से ही होने की कोशिश ...
बार-बार होती है असफल ...
मिला नहीं अब तक कोई भी उपाय ...
एक सौ आठ दानों की माला के
एक सौ आठ काष्ठ मनको में
पूरे एक सौ आठ फेरे घूमी है
भर मुठ्ठी असफलताएं ...
एक पुरुष के लिंग की
स्थापना के चक्र में
फँसा और धसा हुआ है
योनियों का स्त्री लिंग ...
मृत्युंजय महादेव की उस गुफा के कोने से
फिसलती हुई एक आस्थावान नास्तिक मकड़ी के
फेंके हुए अकेले पारदर्शी धागे की सामर्थ्य
पराजयों तक तो होनी पूर्वनियत ही थी ..
उस रोज उस
अपने जैसे एक सौ पच्चीस प्रतिकृतियों और ...
एक सौ पच्चीस लिंग वाले मंदिर में, मिले ...
उस देवदारु के वृक्ष से लिपट कर
असँख्य बाँहों के अनगिन फेरों में
उस के सर ...
फुनगी तक चढ़ जाना है ...
वो जो कई सदियों की
झाइयों और रुलाइयों में डूबा हुआ है
फिर भी तना और
जीत में उठे हुए अंगूठों की तरह खड़ा है
वो देवदारू जिसकी देह को
सात अजानबाहु पुरुषों की भुजायें भी
अपने में भर नहीं सकती ...
किसी के सपनें में धर नहीं सकती ...
सुनो रे ... !!! अमरलता रहेगी तो स्त्री ही न ...
***
बहुत खूब!
ReplyDeleteस्त्री को . कोई भी ,शब्द दे सकता है . कविताओं में , बल्कि , कोई भी , दे जाता है /
ReplyDeleteपर कोई भी " स्त्री के शब्द " कविताओं को उस तरह नहीं दे पाता जिस तरह हेमा जी देती हैं /
इन कविताओं के पार्श्व में वो भाव वो ललकार वो चीखें वो रूदन वो गतिकी वो नाद वो सब स्पष्ट सुनाई देता है जो एक स्त्री के प्राण से उठता है / इन कविताओं के शिल्प में वो चमड़ा है जो बार बार उधेड़ा जाता है सिला जाता है और जिसके लिए ना निश्चेतक प्रयुक्त किया जाता है ना ही कोई नरमाई !
बहुत ही बढ़िया हेमा जी खासकर अमर लता बेहद सशक्त रचना लगी !
दिन कोई भी हो सकता है बहुत सुन्दर लगी। आपने अपनी बात बड़ी साफगोई प्रस्तुत किया है।
ReplyDeleteसुन्दर कविताएं ! हेमा दीक्षित जी भाषा में मौजूद पुंसवादी वर्चस्व के प्रति सजग हैं ।
ReplyDeleteये कवितायें अपनी बात कह रही हैं आवाज की अधिकतम तीव्रता तक बेशक!उसमे सुने जाने की शर्त शामिल नहीं है ,इन कविताओं का स्त्री स्वर मुख्यद्वार के पीछे खडी हो सांकल खटका सकेतों में नहीं कहती अपनी बात ,वो आत्मविश्वास से निकालती है अपने पैर दहलीज के बाहर और दर्ज कराती है अपना बात ..भले दरवाजे के भीतर लौटने का विकल्प खो दे हमेशा के लिए ,हेमा स्त्री कविता का सशक्त स्वर हैं ...इन्हें सहेजने के लिए अनुनाद का शुक्रिया
ReplyDeleteशानदार कविताएँ। चालू कविताओं से अलग और अनूठी। विचार और संवेदना की प्रखरता के साथ चेतावनी देती कविताएँ कि जिन्हें चालू मुहावरे की चलताऊ कविताएँ पढने की ही आदत हो वे उलटे पाँव लौट जाएं।
ReplyDeleteहेमा से कहा था मैने कि तुम्हारी कविताए कही आए तो बताना, । कल हेमा का मैसेज आया। चूकि कविताए मैं इतमिनान से पढता हूं। कविता चलते चलते पढने की चीज नही है। उसके असल सूत्र उसमे रमण की मांग करते है।
ReplyDeleteआज सुवह मैने लिंक खोला और पहले टिप्पडी पढी। परिचय जानता था और कविता पर आ गया। पहली कविता पढी और पांच बार पढी। अब जब कि उस पर बात कर रहा हूं ,पर लग रहा है कि अभी कुछ और है उस कविता में जो मुझसे छूट गया है।
कविता के बारे में हम जानते है कि वह एक क्षण है। अलग अलग कवियो के अलग क्षण होते है। जिनके हाथ से क्षण छूट जाता है कविता छूट जाती है। यह हेमा की कविता का क्षण है एक स्त्री का स्त्री भर होने की कसक।
वे इस बात को कहने के लिए रूपक बनाती है और रूपक के कई स्तर रचती है और लगभग पांचवे रूपक के बाद कविता अपने उस क्षण को ले आती है । पहला रूपक दिन, दिन कोई भी, कैसा भी, वे दिन को लोक मान्यताओं मे चकर्घिन्नी की तरह नचाती है।
उसके बाद दूसरा रूपक समय का।
तीसरा रूपक में एक औरत का।
फ़िर उस पीडा का रूपक।
सबके आस पास कुछ कुछ कभी लोक मान्यताओ से, कभी जीवन के अनुभव से उसी तरह नचाती, स्त्री का स्त्री भर होने की कसक को बता देती है।
आपकी सांस लंबी है, समझ साफ़ है, बडी कविताओ को सम्भालने वाले बहुत बचे है। कविता की सांस छोटी होती जा रही है, आप थोडा सिरियस होईए, आप बडी कविताए संभाल सकती है।
पढवाने के लिए शिरीष को बहुत बहुत धन्यवाद।
हेम निरन्तर अच्छा लिख रही हैं। ये कविताएं नए मुहावरे गढ़ती हैं और सम्प्रेषण की नई प्रविधि भी।
ReplyDeleteBahut achchhi aur alag avaaz...Haardik badhai Hema jee ko aur anunaad ka shukriya!
ReplyDeleteशानदार भाषा में प्रभावशाली ढंग से अपनी बात कहती सशक्त धारदार कविताएँ ...
ReplyDelete---सुकन्या
समकालीन स्त्री-स्वर में जहां एक ओर बुदबुदाहट से भरे कुलीन किस्म का आवेग है वहीं दूसरी ओर विस्मय से भरी शोकाकुल अस्थिरताओं का ख़ामोश विलाप भी मौजूद है. हेमा दीक्षित की कविताएँ अवसाद के एकाकी आत्मजगत को विडंबना का वस्तुनिष्ठ भूगोल सौंपती हैं. यह पूर्वाग्रही हिंसा और नाटकीय चरम-पंथ के बरक्स एक नैसर्गिक और जवाबदेह 'क्रोध' की उपस्थिति है...........
ReplyDeleteहेमा दीक्षित जी,
ReplyDeleteयायावर हेमा के बाद कवियत्री हेमा से मिलना चौंकाता नही है आपकी कविताएँ स्त्री मन की यात्राओं की पड़ताल करती है न केवल पड़ताल करती है बल्कि वहां की जटिल मनस्थितियों और पहचान के लिए रोजमर्रा के संघर्षो का ब्यौरा प्रस्तुत करती है। स्त्री विमर्श के सतही सवाल उठाने की बजाए ये कविताएँ स्त्री चेतना का समग्र मूल्यांकन करती प्रतीत होती है।
हेमा जी की कविताओं में दैहिक स्वातन्त्र्य का आलाप नही बल्कि एक उदात्त चेतना की चिंताएं शामिल है इन कविताओं से गुजरते हम स्त्री मन के उदबोधन की मुखर अभिव्यक्तियाँ सुन पाते है। कविताओं का मनोवैज्ञानिक पक्ष बेहद मजबूत है यह चेतन से इर्द गिर्द ऐसा सेतु बुनती है जिसकी सहायता से हम अर्द्ध चेतन और अवचेतन की यात्रा भी कर सकते है।
कविता में शिल्प की थोड़ी जटिलता अवश्य है परन्तु वह भी सम्वेदनाओं की सुंदर बुनावट की वजह से ग्राह्य बन जाती है। ये कविताएँ पुरुषों के विरोध की नही स्त्री के मन के मानचित्र की कविताएँ है जो सहजता से न्याय के औचित्य पर सवाल खड़ा करती है।
यायावर मन और अस्तित्व के प्रश्न के जवाब जब जुगलबंदी करते है तो ऐसी कविताएँ स्वयं अपना आकार और लोच तय कर देती है। सारांश: ये कविताएँ हमें उन रास्तों पर ले जाती है जो खुरदरे भले ही दिखते हो मगर वो उस दुनिया का पता देते है जो हमारे आसपास ही है मगर हम उस देखना नही चाहते। - डॉ. अजीत तोमर
हेमा की कवितायें अपनी बात कहतीहैं आवाज की अधिकतम तीव्रता तक, बेशक!उसमे सुने जाने की शर्त शामिल नहीं है ,इन कविताओं का स्त्री स्वर मुख्यद्वार के पीछे खडी हो सांकल खटका सकेतों में नहीं कहती अपनी बात ,वो आत्मविश्वास से निकालती है अपने पैर दहलीज के बाहर और दर्ज कराती है अपननी बात ..भले दरवाजे के भीतर लौटने का विकल्प खो दे , हमेशा के लिए हेमा स्त्री कविता का सशक्त स्वर हैं ...इन्हें सहेजने के लिए अनुनाद का शुक्रिया .
ReplyDelete- मृदुला शुक्ला
जो एक और अकेले होते हुए भी या होने पर भी
ReplyDeleteबहुवचन में उठाएगी
अपने दोनों हाथ विजय मुद्राओं में
और एक कोशिका के काल से ही
विलाप में तब्दील
धरा पर दोहरी पड़ी उसकी देह
आखिरकार उठ ही खड़ी होगी
और अपने दोनों हाथों को जोड़ कर
एक लहर मुद्रा में आ जायेगी.... बहुत बहुत कुरेदती हुई कवितायेँ तीनों. उस औरत का आख्यान जो सब में है, जिसके मुखर होने से भय है घृणा है इस समाज को!
- भावना मिश्रा
हेमा दीक्षित JI APKA BHI VAHI HALL HAINकिसी मे बुराई तलाश करने वाले
ReplyDeleteइंसान की मिसाल उस "मक्खी"
जैसी है...जो सारे खुबसुरत जिस्म
छोड़कर केवल "जख्मो" पर ही
बैठती है...!!