Thursday, September 25, 2014

बच्चे की ओर से उसके पैर के प्रति - पाब्लो नेरूदा : मूल स्‍पैनिश से अनुवाद - श्रीकान्‍त दुबे


श्रीकान्‍त दुबे सुपरिचित कवि-कथाकार और अनुवादक हैं। अभी मंतव्‍य के प्रवेशांक में उनका मैक्सिको यात्रावृत्‍तान्‍त ख़़ूब पढ़ा और सराहा गया है। श्रीकान्‍त ने अपने मिज़ाज़ की कविताएं और कहानियां लिखी हैं। उनकी कुछ कविताएं अनुनाद पर यहां पढ़ी जा सकती हैं। कहानियों का संग्रह ज्ञानपीठ से आया है। श्रीकान्‍त ने नेरूदा की इस कविता का अनुवाद विशेष रूप से हमें उपलब्‍ध कराया, इसके लिए उनका अनेकश: आभार। 
*** 
बच्चे के कोमल पैर को अभी नहीं पता कि वह पैर है,
और वह एक तितली अथवा एक सेब बन जाना चाहता है।

लेकिन बाद में पत्थर और टुकड़े काॅंच के,
गलियाॅं, सीढि़याॅं
धरती के निष्ठुर रास्ते
सभी एक साथ मिलकर उसे बताए जाते हैं
कि वह उड़ नहीं सकता,
नहीं हो सकता वह
किसी शाख से लटकता कोई गोलाकार फल।
इस प्रकार पैर की इच्छाओं को जीत लिया गया
और वह परास्त सा गिर पड़ा रणभूमि में,
बना लिया गया उसे कैदी
जूते में जीवन गुजारने की
मिल गई सजा़।

उजाले से महरूम, धीरे-धीरे,
उसने अपने तरीकेे से खोलने शुरू किए जहाॅं के रहस्य
अपने दायरे में बंद, दूसरे पैर तक से अनजान
किसी अंधे सा टटोलता दुनिया।

वो स्फटिक के नाखूनों का
मुलायम गुच्छा,
कठोर होता गया,
उसने ले लिया सख्त सींग जैसा अपारदर्शी रूप,
और बचपन की नन्हीं पंखुडि़याॅं
रौंद दी गईं, बेतरतीब,
मानो बिना आॅंख का सरीसृप,
या कीड़े का तिकोना सिर।
वे होते गए और भी कठोर,
अंततः ढक गए
सख्त हो सकने के सीमांत पर
मृत्यु के छोटे ज्वालामुखी की तरह।

लेकिन वह अंधा चलता रहा
साॅंसें रोके, अबाध
घंटे दर घंटे,
कदम दर कदम
कभी किसी पुरुष का होकर
तो कभी बनकर किसी स्त्री का,
उपर,
नीचे,
मैदानों से गुजरते, खानों से गुजरते
रिहाइशों, मंत्रालयों,
दूकानों से गुजरते ,
पीछे,
बाहर, भीतर
आगे,
अपने जूते संग मिल
वह करता रहा श्रम,
प्रेम में या नींद तक में
कभी नग्न होने का समय भी
उसने शायद ही लिया,
चलता रहा वह, चलते रहे लोग
जब तक कि रुक न गया
पूरा का पूरा मनुष्य।

फिर वह गया
कब्र की गहराइयों में, वैसे ही अनभिज्ञ,
जहाॅं की हर चीज सिर्फ अंधेरा थी,
और नहीं पता था उसे
कि स्थगित हो चुका है अब
उसका पैर होना
और यह भी कि उसे दफन किए जाने का मकसद क्या है
क्या यह कि अब वो उड़ सके
अथवा यह कि वो बन सके एक सेब।

(मूल स्पैनिश से अनुवादः श्रीकांत दुबे)

Saturday, September 20, 2014

सोनी पांडेय की लम्‍बी कविता : बदनाम औरतें

कुछ दिन पहले सोनी पांडेय की कविताएं अनुनाद पर पढ़ी गई हैं। इधर हमें उनकी एक नई लम्‍बी कविता मिली है, जिसके कुछ अंश फेसबुक पर मौजूद पाठकों ने शायद पढ़े हों। समकालीन हिंदी कविता की नई-नई निर्मितियों में यह स्‍वर एक और दिशा खोलता है। स्त्रियों पर कविता रचने के शिल्‍प बहुत समय तक पुरुषों की प्रतिभा के सहारे रहे लेकिन अब यह शिल्‍प अपने मौलिक हाथों में हैं। यानी जिनकी कहन है, गढ़न भी उन्‍हीं की। स्‍त्री जीवन के प्रसंगों को अब अपना मूल स्‍वर प्राप्‍त हो रहा है - पहले हर दौर में चंद ही नाम होते थे पर अब अभिव्‍यक्ति में हमें बहुत-से नए और अलग नाम लगातार मिल रहे हैं। सोनी पांडेय के कविकर्म को पुन: रेखांकित करते हुए हम उनके रचनात्‍मक भविष्‍य के प्रति भरपूर आश्‍वस्‍त हैं। हम जब-जब हिंदी के स्‍वयंभू मठों के बाहर ऐसी सार्थक आवाज़ों का स्‍वागत अनुनाद पर कर पाते हैं तो पत्रिका के होने का उद्देश्‍य सफल सिद्ध होता लगता है।

यह कविता प्रश्‍न पूछने के लिए कहीं-कहीं सपाट होने का पूरा जोखिम लेती है। प्रश्‍न ज़रूरी हैं - कविता में भी प्रश्‍न सबसे ज़रूरी हैं, कविता के शिल्‍प बनते-बदलते रहेंगे, प्रश्‍नों का होना-पूछा जाना जस का तस रहेगा- पूछने के इसी साहस में कविता निवास करती आई है और करती रहेगी। 

ये पंक्तियां, जिन्‍हें मैं उद्धृत कर रहा हूं, समाज के उस गहरे अंधेरे कोने में प्रकाश के फैलाव का उद्धरण हैं, जिसे कविता के इलाक़े में अब तक बहुत ज्‍़यादा देखा नहीं गया है - बदनाम औरतों के गर्भ से / जन्म लेने वालीं सन्तानें सभ्य संस्कृति के उजालों की देन होतीं हैं / जिन्हें जन्म लेते ही / असभ्य करार दिया जाता है / ये औरतें जश्न मनातीं हैं बेटियों के जन्म पर / मातम बेटों का / शायद ये जानती हैं / कि बेटियाँ कभी बदनाम होती ही नहीं / बेटे ही बनाते हैं इन्हें बदनाम औरतें।
***

1

माँ ने सख़्त हिदायत देते हुए
कहा था
उस दिन
उस तरफ कभी मत जाना
वो बदनाम औरतों का मुहल्ला है ।

और तभी से तलाशने लगीं आँखें
बदनाम औरतों का सच
कैसी होती हैं ये औरतें ?
क्या ये किसी विशेष प्रक्रिया से रची जाती हैं ?
क्या इनका कुल - गोत्र भिन्न होता है ?
क्या ये प्रसव वेदना के बिना आती हैं या मनुष्य होती ही नहीं ?
ये औरतें मेरी कल्पना का नया आयाम हुआ करतीं थीं उन दिनों
जब मैं बड़ी हो रही थी
समझ रही थी बारीक़ी से
औरत और मर्द के बीच की दूरी को
एक बड़ी लकीर खींची गयी थी
जिसका प्रहरी पुरुष था
छोटी लकीर पाँव तले औरत थी ।

2
 
बदनाम औरतों को पढ़ते हुए जाना
कि इनका कोई मुहल्ला होता ही नहीं
यह पृथ्वी की परिधि के भितर बिकता हुआ सामान हैं
जो सभ्यता के हाट में सजायी जाती हैं
इनके लिए न पूरब है न पश्चिम
न उत्तर है न दक्खिन
न धरती है न आकाश
ये औरतें जिस बाज़ार में बिकता हुआ सामान हैं
वह घोषित है प्रहरियों द्वारा
" रेड लाईट ऐरिया "
प्रवेश निषेध के साथ ।
किन्तु
ये बाज़ार तब वर्जित हो जाता है
सभी निषेधों से
जब सभ्यता का सूर्य ढल जाता है
ये रात के अन्धेरे में रौनक होता है
सज जाता है रूप का बाजार
और समाज के सभ्य प्रहरी
आँखों पर महानता का चश्मा पहन करते हैं
गुलज़ार इस मुहल्ले को
बदनाम औरतों के गर्भ से
जन्म लेने वालीं सन्तानें सभ्य संस्कृति के उजालों की देन होतीं हैं
जिन्हें जन्म लेते ही
असभ्य करार दिया जाता है ।
ये औरतें जश्न मनातीं हैं बेटियों के जन्म पर
मातम बेटों का
शायद ये जानती हैं
कि बेटियाँ कभी बदनाम होती ही नहीं
बेटे ही बनाते हैं इन्हें बदनाम औरतें ।
 
3

ये बदनाम औरतें ब्याहता न होते हुए भी ब्याहता हैं
मैं साक्षी हूँ
पंचतत्व, दिक् - दिगन्त साक्षी हैं
देखा था उस दिन मन्दिर में
ढोल - ताशे , गाजे - बाजे
लक - धक , सज - धज के साथ
नाचते गाते आयी थीं
मन्दिर में बदनाम औरतें
बीच में मासूम-सी लगभग सोलहसाला लड़की
पियरी चुनरी में सकुचाई, लजाई-सी चली आ रही थी
गठजोड़ किये पचाससाला मर्द के साथ ।
सिमट गया था सभ्य समाज
खाली हो गया था प्रांगण
अपने पूरे जोश में भैरवी सम नाच रही थी लडकी की माँ
लगा बस तीसरी आँख खुलने ही वाली है ।
पुजारी ने झटपट मन्दिर के मंगलथाल से
थोड़ा सा पीला सिन्दूर माँ के आँचल में डाला था
भरी गयी लड़की की माँग ।
अजीब दृश्य था मेरे लिए
पूछा था माँ से ,
ये क्या हो रहा है ? ब्याह ?
मासूम लड़की अधेड़ से ब्याही जा रही है ?
अम्मा ! ये तो अपराध है
माँ ने हाथ दबाते हुए कहा था
ये शादी नहीं , इनके समाज में
"नथ उतरायी की रस्म है "।
और छोड दिया था अनुत्तरित मेरे बीसियों प्रश्नों को
समझने के लिए समझ के साथ ।
हम लौट रहे थे अपनी सभ्ता की गलियों में
एक किनारे कसाई की दुकान पर
बँधे बकरे को देखकर
माँ बड़बड़ायी थी
" बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी "
और मैं समझ के साथ - साथ
जीती रही मासूम लड़की के जीवन यथार्थ को
तब तक , जब तक समझ न सकी
कि उस दिन , बनने जा रही थी सभ्यता के स्याह बाजार में
मासूम लड़की
बदनाम औरत।

4 

एक बडा सवाल गूंजता रहा
तब से लेकर आज तक कानों में
कि, जब बनायी जा रही थी समाज व्यवस्था
क्यों बनाया गया ऐसा बाज़ार ?
क्यों बैठाया गया औरत को उपभोग की वस्तु बना बाजार में ?
औरत देह ही क्यों रही पुरुष को जन कर ?
मथता है प्रश्न बार - बार मुझे
देवो ! तुम्हारे सभ्यता के इतिहास में पढा है मैंने
जब - जब तुम हारे
औरत शक्ति हो गयी
धारण करती रही नौ रुप
और बचाती रही तुम्हें।
फिर क्यों बनाया तुमने बदनाम औरतों का मुहल्ला ?
क्या पुरुष बदनाम नहीं होते ?
फिर क्यों नहीं बनाया बदनाम पुरुषों का मुहल्ला, अपनी सामाजिक व्यवस्था में ?
मैं जानती हूँ , तुम नैतिकता , संस्कार और संस्कृति के नाम पर
जीते रहे हो दोहरी मानसिकता का जीवन .
सदियों से।
देखते आ रहे हो औरत को बाज़ार की दृष्टि से 
आज तय कर लो
प्रार्थना है . . . .
कि बन्द करना है ऐसे बाज़ार को
जहाँ औरत बिकाऊ सामान है
जोड़ना है इन्हें भी
समाज की मुख्यधारा से
आओ, थाम लें एक - दूसरे का हाथ
बना लें एक वृत्त
इसी वृत्त के घेरे में
नदी , पहाड़ , पशु - पक्षी
औरत - मर्द
सभी चलते आ रहे हैं सदियों से
और बन जाता है ये वृत्त धरती
और धरती को घर बनाती है
औरत
तुम रोपते हो जीवन
बस यही सभ्यता का उत्कर्ष है ।
हाँ, मैं चाहती हूँ
ये वृत्त कायम रहे
इस लिए मिटाना चाहती हूँ
इस वृत्त के घेरे से " बदनाम औरतों का मुहल्ले" का अस्तित्व
क्यों कि औरतें कभी बदनाम होती ही नहीं
बदनाम होती है दृष्टि ।

***
सोनी पाण्डेय
सम्पादक
गाथांतर हिन्दी त्रैमासिक
आजमगढ उत्तर प्रदेश
9415907958


Thursday, September 18, 2014

अँधेरे से बाहर उम्मीद और रौशनी की कविताएं : राहुल देव के कविता संग्रह पर विनोद कुमार


‘उधेड़बुन’ हर सजीव प्राणी के अन्दर कभी न कभी अवश्य होती है | छोटे लोगों के पास अपनी छोटी उधेड़बुनें हैं तो बड़े बड़े लोग बड़ी बड़ी उधेड़बुनों में लगे हैं | इस क्रम में युवा कवि राहुल देव का आया पहला कविता संग्रह ‘उधेड़बुन’ शैशव से लेकर युवाकाल तक की तमाम चिंताओं का चित्र देती है | इस कविता संग्रह को हाथ में लेते ही सर्वप्रथम शीर्षक पर ही मेरी निगाह ठहर गयी, शीर्षक अपने अर्थों में व्यापक है क्योंकि आज के इस कठिन समय को देखते हुए मनुष्य की दुश्चिंताओं के अन्दर चलने वाली यह एक अनवरत प्रक्रिया है | ठीक इसी प्रकार किशोरावस्था में रची गयी ये कवितायेँ जबकि कवि स्वयं को किसी निश्चित बिंदु पर ठहरा हुआ नहीं पाता तब उसकी कविता अपने आंतरिक और बाह्य संसार से जूझकर अपनी एक अलग राह स्वयं निर्मित करती है | राहुल अपने प्रारंभ से ही चीज़ों को ‘उधेड़ते’ और ‘बुनते’ रहे हैं और ऐसा मैं निश्चित रूप से इसलिए भी कह पा रहा हूँ क्योंकि मैं इस कवि के जन्म से लेकर अब तक के निजी जीवन का साक्षी रहा हूँ |
 
इस संग्रह की पहली कविता व्यष्टि को समष्टि में तिरोहित करती दिखाई देती है | तो संग्रह की दूसरी ही कविता एक लम्बी कविता है | ‘छद्मावरण’ शीर्षक से इस लम्बी कविता में जीवनानुभूति का विडंबनात्मक, व्यंग्यात्मक चित्र है | पूरी कविता से गुजरने के बाद लगता है कि कवि में चरित्र चित्रण और चरित्र के अंतर्द्वंध की गहरी पहचान है | यह कविता यथार्थ का कटु व सजीव अभिव्यक्तिकरण है | एक लम्बी छन्दमुक्त कविता में निरंतर एक व्यक्ति के अंतःकरण और बाह्य जीवन का द्वंद्व चित्रित करना कवि की एकाग्रता और सघन अध्ययन का परिणाम है | इस कविता को पढ़ते हुए अपनी कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं -

पैरों में पादुका पहन कौन जान सका- 
धूल गर्म होती है कौन पहचान सका
क्षुधा तृप्त होने पर भूख एक संभ्रम है
असफल व्यक्तियों की पीर कौन जान सका? 

इस एक कविता में दूसरा जन्म भी ले आना केन्द्रीय चरित्र का चरित्र चित्रण की शक्ति और वर्णनात्मक क्षमता से युक्त है राहुल की कलम | थोड़ा ध्यान से पढ़ने पर मुझे तीन जन्मों की कथा मिलती है एक कवि चरित्र की | एक कविता में तीन जन्मों का लेखा-जोखा कम शब्दों में सिद्ध करता है कि कविता में सूक्ति शक्ति का सफल प्रयोग हुआ है | कविता के अंत में किया गया व्यंग्य तीखा है तथा धर्माधीशों को चुभेगा जब कवि लिखता है कि  
प्रसाद रुपी मिष्ठान्न
तुम्हें सिर्फ़ सुंघाया गया
तुम कुछ नहीं कर सकते थे
लार घोटने के सिवा |

अगली कविता ‘सपने की बात’ को भी एक लम्बी कविता की श्रेणी में रखा जा सकता है | इस कविता में कवि अपने व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं का समाधान सपनों में पाता है | सपनों की यह दुनिया बड़ी रूमानी है और यथार्थ से संपृक्त भी | इस कविता में वह सपनों के माध्यम से रोमांस, विवाह और देहान्तरण जैसे विषयों को एक साथ पिरो ले जाता है | ‘पतझड़ के बाद’ शीर्षक कविता इस संग्रह की एक दार्शनिक कविता है | विद्वानों का मत है कि हर दार्शनिक कवि नहीं होता लेकिन हर सच्चा कवि दार्शनिक होता है | उम्र के जिस दौर में यह कवितायेँ रची गयी है अपने भरपूर अनगढ़पन को लिए हुए कहीं कहीं हमें सहसा चकित भी करती हैं | मुझे तो लगता है कि शायद कवि को खुद भी भान नहीं रहा हो कि कई जगहों पर वह कितनी बड़ी बात कर गया है | कविताओं में भाव और विचारों का अद्भुत संतुलन है |

जहाँ ‘ओह कामना वह्नि’ कविता को पढ़ते हुए दिनकर की पंक्तियाँ याद आती हैं -

कामना वह्नि की शिखा
मुक्त मैं अनवरुद्ध
मैं अप्रतिहत, मैं दुर्निवार! 

वहीँ ‘मौन व्यथा’ शीर्षक कविता में “अरे यायावर !/ तू महान है/ तेरी व्यथा, तेरी ख़ुशी/ रूप में सब कुछ की तरह/ समाई सारतत्व गीता की तरह...” लिखकर कवि ने नवीन उपमान का प्रयोग किया है | ‘चिंतन’ शीर्षक कविता में राहुल एक दार्शनिक की तरह संसार और अंतर्जगत को देखते हैं | बचपन, किशोरावस्था और युवाकाल की भूमि तक आते आते ऐसी गद्यात्मक कविताओं की रचना संकेत करती है कि राहुल को भविष्य में अच्छा गद्यकार बनने की पूरी सम्भावना है | संग्रह में आगे की तमाम कविताओं को पढ़ते हुए यह भी लगा कि राहुल के अन्दर के आलोचक को समझने के लिए बुद्धि प्रधान अध्ययन आवश्यक है पाठक के लिए क्योंकि कहीं कहीं पर राहुल का वैचारिक गुम्फन बहुत जटिल है, उन्हें समझने में ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम’ सहायता नहीं करता है | राहुल इस बौद्धिक युग के बौद्धिक कवि हैं जिसने अपने जीवनानुभवों और अपने प्रतिसंसार को अपनी इन कविताओं में उतारा हैं |

आज की काव्यभाषा में कहें तो एक आध्यात्मिक अभिव्यक्ति है ‘विश्वनर से’ शीर्षक कविता तो ‘कर्म’ शीर्षक कविता में कर्म की सहज अभिव्यक्ति की गयी है कर्मकार के चरित्र से जो किसी भी देश की वास्तविक शक्ति होता है | ‘नवजीवन’ में कवि एक नूतन संसार की कल्पना में रत है | यहाँ पन्त की पंक्तियाँ याद आती हैं, “अये विश्व के स्वर्ण स्वप्न- संसृति के प्रथम प्रभात !” ‘अंतर्द्वंध’ कविता में सच्ची मनुष्यता की तलाश दिखलाई पड़ती है | ‘प्रतीक’ अपने आप में एक प्रतीकात्मक शब्दचित्र है तो एक नारी मन का, उसके जीवन की विडम्बनाओं का शाब्दिक चित्र है ‘सेज’ | ‘ओस की वह बूँद’ व्यष्टि से समष्टि’ के बीच रिश्ते को व्यक्त करती है और लघुता की निजता में पारावार की विराटता के दर्शन देती है | ‘परख’ कविता कहती है कि चीज़ों को ज्यादा परखते परखते मनुष्य अपना उद्देश्य भूल बैठा है | बशीर बद्र कहते हैं, “परखना मत परखने से कोई अपना नहीं रहता/ किसी भी आईने में आपका चेहरा नहीं रहता |” ‘पाप’ कविता पर अमर उपन्यासकार भगवती बाबू की लाइन जोड़ता हूँ, “न हम पाप करते हैं न पुण्य करते हैं | हम वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है |” ‘रहस्य’ को हर लेखक, कवि, विचारक जानना चाहता है, राहुल भी उनमें एक हैं लेकिन जन्म से पहले और मृत्यु के बाद सिर्फ अनबूझा रहस्य ही है और वह अभेद्य है | ‘पथिक भ्रमित न होना’ कविता कवि की अपनी कठोर यात्रा से दूसरों को भी कठोरताओं से न घबराने का सन्देश है क्योंकि कहीं न कहीं तो ठौर मिलेगा ही, आशियाना छोटा सा बनेगा ही | कविता में आशावाद है | विलियम वर्ड्सवर्थ कहता है- “चाइल्ड इज द फ़ादर ऑफ़ मैन” किसी बच्चे को एकलव्य न होना पड़े राहुल इस कविता ‘बच्चे और दुनिया’ में प्रस्तुत करते हैं | ‘सिर्फ कविता के लिए’ शीर्षक कविता सिद्ध करती है कि कवि के लिए तो अब उसकी कविता, उसका जीवन बन चुकी है | ‘सौन्दर्य’ कविता को कीट्स की लाइनों से जोड़ता हूँ, “ए थिंग ऑफ़ ब्यूटी, जॉय फॉरएवर” तो ‘बकरी बनाम शेर’ विडंबनात्मक व्यंग्य है इस युग का | ‘आधा सच’ शीर्षक कविता आज के चलते हुए मुहावरों के प्रयोग के लिए एक अच्छा उदाहरण है | गली-कूंचों और सड़कों पर बहते-फैले वाक्यांशों को अपनी रचना में सुगठित ढंग से प्रयोग कर ले जाना मैं कवि की कलम की सफलता मानता हूँ | ‘भ्रष्टाचारम उवाच’ में एक ईमानदार आत्मा, बेईमानी, जालसाजी जैसे हवाले और घोटाले स्पष्ट रूप से दिखाई दिए हैं - 

मैं बदनीयती की रोटी संग मिलने वाला
फ्री का अचार हूँ
पॉवर और पैसा मेरे हथियार हैं
मैं अमीरों की लाठी
और गरीबों पर पड़ने वाली मार हूँ ! 

उपरोक्त पंक्तियों में भ्रष्टाचार पर बिलकुल नूतन उपमान हैं | ‘अक्स में ‘मैं’ और मेरा शहर’ इस किताब की एक महत्त्वपूर्ण कविता है | कवि के तेवर इस कविता में देखते ही बनते हैं | राहुल लय, सुर, ताल के बंधनों से आज़ाद हैं लेकिन जिंदगी को देखने के लिए उनके पास बाह्य चक्षुओं के साथ अन्तः चक्षुओं की शक्ति काफी प्रबल है | इस कविता को पढ़ते हुए नीरज याद हो आए, “कदम-कदम पर मंदिर मस्जिद/ डगर-डगर पर गुरूद्वारे/ भगवानों की बस्ती में हैं ज़ुल्म बहुत इंसानों पर |” राहुल का कवि मानववादी है | कवि की अन्तः और बाह्य यात्राओं का सघन गुम्फन देखने को मिलता है इस रचना में | ‘कविता और कविता’ में ठूंठ से कोंपलों का फूट पड़ना नया उपमान है इसी तरह जंगल में झाड़ियों का उग आना भी नूतन उपमान है | ‘हारा हुआ आदमी’ कविता अपने सशक्त कथ्य के कारण अपने अर्थ में बहुत दूर तक ध्वनित होने वाली कविता है | इस कविता ने मुझे वैचारिक स्तर पर बड़ा आंदोलित किया | इस संकलन की आख़िरी कुछ कविताओं में वह कविता में प्रतिरोध भी रचते हैं | राहुल की कविताओं को पढ़ने के साथ साथ मैंने उन्हें कई गोष्ठियों में सुना भी है | उनकी शैली बड़ी मौलिक और प्रभावी है | राहुल सच को स्पष्ट शब्दों में बगैर किसी दुराव-छुपाव के सच कहने की हिम्मत रखते हैं | उनकी साफगोई मुझे अच्छी लगती है | वह अपनी कविताओं में कई बार ऐसे विषय भी उठा लेते हैं जिनके बारे में आज कोई समकालीन कवि लिख ही नहीं रहा | ‘अनिश्चित जीवन : एक दशा दर्शन’ में जीवन और मृत्यु जैसे जटिल विषय को कविता में समझने और खोलने का ऐसा ही एक प्रयास है | अंग्रेजी का निबंधकार स्टील कहता है औसत तीस वर्ष की उम्र के पहले मृत्यु के बारे में कोई सोचना नही चाहता | संस्कृत साहित्य के गर्भित सूक्ति वाक्यों के साथ इस संसार के दो छोर नापने की कोशिश करने वाले इस युवा कवि को समकालीन कविता में कमतर करके नहीं आंकना चाहिए |

विज्ञान की भाषा में मन कहाँ है लेकिन फिर भी अमूर्त मन है सबके पास | ‘मेरे मन’ शीर्षक कविता में कवि का वही मन एक साथी की तलाश में है | ‘प्रेम पथ का पथिक’ कविता को मैं अपनी कविता की कुछ पंक्तियों से जोड़ता हूँ “जब-जब पूनम के चंदा ने/ हृदय उदधि में ज्वार उठाया/ ऊँची उठी तरंगें/ तुम तक तो मैं पहुँच न पाया !” संग्रह में ‘अंतिम इच्छा’ शीर्षक कविता कवि के अपने समय से आगे बढ़कर लिखी गयी कविता है | इस कविता को पढ़कर अंग्रेजी कवि राबर्ट ब्राउनिंग की कविता ‘लास्ट राइड टुगेदर’ कविता याद आती है | यह उदात्त भावनाओं की एक मार्मिक रचना है | एक शराबी की खराबी संवेदनापूर्वक चित्रित की गयी है ‘नशा’ शीर्षक कविता में, बिम्बधर्मिता कमाल की है | ‘अपराधी’ कविता में किसी व्यक्ति के आतंकवादी बनने का मनोविज्ञान है और गाँधी की पंक्ति ‘पाप से घृणा करो पापी से नहीं’, से रास्ता भी सुझाता है कवि | ‘सज्जनों के लिए’ कविता युगबोध को दर्शाती है और कहती है कि सज्जन लोग यदि प्रैक्टिकल न हुए तो आज की दुनिया उन्हें निगल जायेगी | ‘कौन तुम’ कविता में स्थूल और सूक्ष्म, आत्म एवं परमात्म सत्ता का स्वरुप देखा जा सकता है | ‘मेरे सृजक तू बता’ शीर्षक अपनी कविता में कवि कहता है, मन से सुनने वालों की कमी है | सुनने वाले तो मिल भी जाएँ लेकिन भावन करने वाले लोग बहुत कम हो गये | कविता छोटी है लेकिन मारक है | फ़िराक साहब की दो लाइनें अनायास याद आती हैं, “न समझने की बातें हैं- न समझाने की बातें हैं/ जिंदगी नींद है उचटी हुई दीवाने की |”

‘ये दुनिया : ये जिंदगानी’ नए उपमानों की दृष्टि से अच्छी कविता कही जायेगी | वर्ण्य विषय के साथ जैसे सायकिल के ट्यूब का पन्क्चर, गैस के सिलिंडर का ख़त्म होना, कमरतोड़ महंगाई और जनसँख्या बराबर पीठ पर लदा नटखट बच्चा | इन नवीन उपमानों को उदृत करने का कारण यह है क्योंकि यह लिखने वाले के नूतन उपमान हैं | नूतन उपमानों को लाने का कार्य अज्ञेय ने किया अतः कवि प्रगतिशील होने के साथ साथ प्रयोगधर्मी भी है | ‘एक टुकड़ा आकाश’ कविता में खण्डों में बंटा हुआ जीवन लगभग हर पहलू को स्पर्श करता है | जितना कुछ कवि की दृष्टि में आ गया है वह इस कविता के टुकड़े में समाया है | ‘राजस्थान की एक लड़की’ में कवि राहुल की सूक्ष्मता से देखने वाली आँखें और संवेदनशील विशाल हृदयता के दर्शन होते हैं | डाल से बिछुड़ी हुई टहनी, झुण्ड से बिछुड़ा हिरन जैसी बातें भी याद आ जाती हैं इसको पढ़कर | अंत में उसे लोगों की संकुचित मानसिकता पर कटाक्ष करते हुए उसे भारत की बेटी कहकर कवि कविता में अपने निर्वाह तत्व का लक्ष्य एक सीमा तक पूरा कर लेता है | ‘शहर की सड़कें’ शहरों में दिन-प्रतिदिन होने वाले हादसों के प्रति सड़कों पर गुज़रते राहगीरों की असंवेदनशीलता का चित्र है लेकिन इसके लिए भारत की बढ़ती जनसँख्या, कानूनी पेचीदगी भी तो ज़िम्मेदार है | कविता पाठक को अपने अंत के साथ विचलित कर देती है जब पता लगता है कि सड़क की हर एक घटना अगले दिन के अखबार की ख़बर से ज्यादा कुछ नहीं |

‘महाप्रलय’ शीर्षक संग्रह की एक महत्त्वपूर्ण कविता पढ़कर मुझे एस.टी. कोलरिज की ‘राइम ऑफ़ द एशियेंट मारिनर्स’ याद आ गई | मैं जानता हूँ कि राहुल विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं अतः अंग्रेजी की यह कविता उन्होंने नहीं पढ़ी होगी फिर भी उस कविता जैसा कुछ तत्व मुझे इसमें दिखा | मैं यह इसलिए भी लिख रहा हूँ क्योंकि दुनिया भर के कवि दिलों में ऐसी बातें आती हैं | हाँ मानता हूँ कामायनी का जल-प्लावन कवि की चिन्तना में जरूर समाया होगा | समकालीन कविता समय में ऐसी श्रेष्ठ कवितायें भी रची जा रही हैं देखकर हिंदी कविता के सुखद भविष्य की आश्वस्ति होती है | कविताओं में कहीं कहीं आई सपाटबयानी राहुल की अपनी निजी है | ‘अनहद नाद’ जैसी कविता में कवि की जनपक्षधरता का सहज आभास मिलता है | इस कविता के माध्यम से कवि प्रस्तुत करता है चित्र उस व्यक्ति का जो समाज के सबसे निचले पायदान पर पहुँच कर भिखारी हो गया है, यह सामाजिक सरोकार की कविता है|

‘गाँव से शहर तक’ में कवि प्रेमचंद के गाँव खोज रहा है | ग्रामीण मानसिकता में भी शहरों का बढ़ता हुआ जंगल का मीठा जहर घुस गया है जोकि आज का कड़वा सच है | अपने कालखंड के भौगोलिक परिवर्तन पर भी कवि की नज़र है | कवि जैसा होता है, कवि राहुल स्वयं कवि है इसलिए ठीक नपे-तुले वाक्यांशों में इसे सिद्ध करते चले गये हैं और ‘कवि ऐसा होता है’ एक सार्थक कविता बन जाती है | कहा जाता है प्रेमी, पागल और कवि एक जैसे होते हैं, अगर वे नकली नहीं होते तो पथान्वेषी होते हैं | टेनिसन कहता है, “चेंज इज द लॉ ऑफ़ यूनिवर्स” कवि राहुल फूलों को यह शाश्वत परिवर्तन बताना चाहते हैं अपनी ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता में | दलदल बहुत प्रकार का होता है और राहुल की ‘दलदल’ शीर्षक कविता जीवन के बहुआयामी दलदल का चित्र प्रस्तुत करती है | यह कविता अपने अर्थों में एक बड़े कैनवास की ओर संकेत करती है | उनकी कुछेक कविताओं में शब्दस्फीति थोड़ी ज्यादा है, शिल्प भी कहीं कहीं टूटता है और कहीं-कहीं पर संस्कृत तथा अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी मिलता है | चूँकि यह संग्रह कवि की काव्ययात्रा के प्रारंभ की घोषणा करता हुआ आया है अतः काव्यशास्त्रीय या आलोचकीय दृष्टि से इस पक्षपर बहुत ज्यादा विवेचन किया जाना उचित नहीं प्रतीत होता | संग्रह की अंतिम कविता ‘एक आस्तिक की स्वीकारोक्ति’ में कवि अंग्रेजी के दो हस्ताक्षरों के समीप पहुँच जाता है, वे हैं टैनीसन और टॉमस हार्डी क्योंकि ये दोनों प्रकृति को वर्ड्सवर्थ की तरह नहीं देखते हैं | “सारा तंत्र ही भ्रष्ट है/ समय का फेर है/ यह उबाल कैसे न आता/ जब नदी का पानी/ खतरे की रेखा से ऊपर बह रहा हो !” कविता की उपरोक्त पंक्तियाँ हर विवेकशील को सोचने पर विवश कर देती हैं | प्रकृति का शत्रुवत व्यवहार, सृष्टि के प्रति, विधि-विधान और नियतिवाद से गुज़रता हुआ कवि ऐन्द्रिक संसार अंगों के कार्य व्यापार को खोलता जाता है | कवि आस्तिकता की परम्परागत बेड़ियों को अपने तर्कों से तोड़कर आस्था का अपना एक नया मानदंड निर्मित करना चाहता है | कविता में स्त्री-पुरुष के संबंधों पर अपनी सोच के अनुसार कवि का मौलिक विश्लेषण भी सामने आता है |

समग्रतः कहा जाए तो राहुल अपनी सीधी, सरल भाषा में दोनों, भावों और विचार के स्तर पर बहुत गहरे तक प्रभावित करते हैं | 112 पृष्ठ के इस संग्रह का मूल्य बहुत ही कम मात्र 20 रुपये है | इलाहाबाद के अंजुमन प्रकाशन ने काफी कम समय में साहित्य सुलभ संस्करण जैसी साहित्यिक पुस्तकों का प्रकाशन कर के प्रकाशन जगत में अपनी एक सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है | हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए शुरू की गयी यह एक अच्छी शुरुआत है | अच्छे साहित्य को चाहने वालों को इस युवा कवि की कविताओं का आस्वादन और स्वागत अवश्य करना चाहिए |

-    विनोद कुमार
उपाध्यक्ष ‘निराला साहित्य परिषद्’
महमूदाबाद (अवध) सीतापुर (उ.प्र.) 261203

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