Friday, August 15, 2014

विवेक मिश्र की पाँच कविताएं/ कथाकार कवि



फेसबुक सूचना के अनुसार आज हमारे मित्र कथाकार विवेक मिश्र का जन्‍मदिन है। 15 अगस्‍त को जन्‍म लेना एक आज़ाद तबीयत की ओर इशारा करता है। इस अवसर इस सिद्धहस्‍त कथाकार की कुछ कविताएं अनुनाद पर लगा पाना मेरे लिए एक सुख है। विेवेक पहली बार अनुनाद पर हैं - उनका स्‍वागत, इन कविताओं के लिए आभार और साथ में जन्‍मदिन की ढेर सारी मुबारकबाद।

इस पोस्‍ट को शामिल करते हुए अनुनाद पर 'कथाकार कवि' नाम का एक नया स्‍तम्‍भ शुरू हो रहा है, आप सभी पाठकों का प्‍यार, सहयोग और प्रेरणा हमारे साथ है।
*** 
हाँ में हाँ

वह उसकी बेतुकी बातों से
तुक भिड़ा रहा था
वह बार-बार हाँमें
सिर हिला रहा था
तभी उसका मैं
निकल कर
टेबिल पर फैल गया
जिससे भाप उठने लगी
जो एक दीवार बन गई

अब दोनों एक दूसरे को
सुन नहीं सकते थे
फिर भी दोनों सिर हिला रहे थे
और बड़े-बड़े फ़ैसले लेते जा रहे थे।
***

उलझन

बिजली के खम्बे में
उलझी हुई पतंग
फड़फड़ाती है
छूटने को
फिर से उड़ने को
आसमान में

पर जितना फड़फड़ाती है
उतना ही होती है तार-तार
और ………
धीरे-धीरे कम होती जाती हैं
संभावनायें
एक बार फिर
उड़ सकने की
आसमान में

फिर फड़फड़ाते-फड़फड़ाते
अलग हो जाते हैं
ठड्डा-कमानी और कन्ने
छोड़ देता है काग़ज़
पतंग की लकड़ियों पे
अपनी पकड़
और झूल जाती है पतंग

फिर भी बिजली के खम्बे से
उलझी पतंग
फड़फड़ाती रहती है
सदियों तक
एक बार फिर
उड़ने की चाह में।
***
 
मिसाइल

गुरुत्वाकर्षण हीन सतह पर
आकाश छितराया हुआ है
नीचे उगे हैं विशाल
गगनचुम्बी कुकुरमुत्ते

डायनासोरों से भी बड़ी चींटियाँ
जा रहीं हैं एक कतार में
परिंदों की तरह बड़े-बड़े डग भरती

उनके पैरों में लगी है
मानवीय सभ्यताओं की राख
पैरों में उलझ-उलझ जाते हैं
स्टैच्यु ऑफ़ लिबर्टी, ऐफ़िल टावर
और हावड़ा ब्रिज, चारमीनार, ताजमहल

महासागर सूखकर तालाब हो गया है
दूर तक उड़ रही है
काली हो चुकी
समुद्र की रेत
और एक चट्टान में
सदियों से
फँसी है एक मिसाइल
जो कभी भी फट सकती है।
*** 
 
रस, धैर्य और कविता

इतनी कड़वी बातों के
बाद भी
रहे रस, जस का तस
है न बड़ा असमंजस

नाप ले अनन्त गहराइयाँ
और बची रहें अथाह

जैसे सुबह होने तक
रातभर कोई गिने तारे
और भूल जाए गिनती

फिर सुबह हँसकर
बिलगाए सूरज की किरणें
और ऐसा करते हुए शाम तक
धैर्य न चुके

फिर तनिक रुक कर,सुस्ता कर
लिखे एक कविता
जिसमें उतर आए धीरज सारा
जो हो धरती सा
और उसे रख दे
सबसे बड़ी हड़बड़ी के हाथ पर
जस का तस
जिससे कविता से बाहर रही आए
थोड़ी सी कविता
और दुनियादारी से बाहर थोड़ी सी दुनिया
***
 
इच्छा

बड़े से अहाते में
छोटी-सी साईकिल से
तेज़-तेज़ चक्कर लगाता
सात साल का बच्चा
नहीं जानता
कि वह दुनिया के किस हिस्से में है

वह यह भी नहीं जानता
कि उसके सिर पर
जो नीला मैदान उल्टा लटका है
उसमें कब से चल रहा है
ये सुबह से शाम तक
चमकने वाला
बड़ा सोने का गोला

और वह यह भी नहीं जानता
कि कहाँ से आते हैं
इस नीले मैदान में
ग़ुस्से से घरघराते
मशीनी परिंदे
और गिरा जाते हैं
ग़र्म आग के गोले
उसके घर के पास

पर वह इतना जानता है
कि उसके आस-पास
बहुत कुछ मिट जाने के बाद भी
बस केवल उसी के पास बचे हैँ
दोनों पाँव
एक साईकिल
……और उसे तेज़-तेज़ चलाने की
तेज़ तेज़ चलाने की……………… इच्छा
*** 
सम्‍पर्क : विवेक मिश्र, 123-सी, पॉकेट-सी, मयूर विहार फेस-2, दिल्ली-91 मो-09810853128  vivek_space@yahoo.com
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'कथाकार कवि' नामक इस स्‍तम्‍भ में आगे आप पढ़ेंगे विमलचन्‍द्र पांडेय की कुछ महत्‍वपूर्ण कविताएं।  

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