Saturday, August 30, 2014

प्रांजल और वेगवान कविताएं : विमलेश त्रिपाठी के नए कविता संग्रह पर ब्रज श्रीवास्तव


‘ इधर की कविता का असली चेहरा तो वो है जिसका सौन्दर्य शास्त्र थोड़ा अलग है,अगर इस कविता ने बिना रस,छंद, अलंकर, यति,गति,आदि के अपनी पहचान ना केवल बनाई है बल्कि एक ज़ुरूरत की मानिंद मान ली गई है तो ये यूँ ही नहीं है,कविता में कविता होने के लिये ज़रूरी है भेदक वाक्य का होना. ना की उसकी रग रग में कला का होना.अगर कला हो तो इतनी सी हो,कि उसे तलाशने में ही पाठ्क का कलाबोध जाग जाये,एक कविता को मीठी होने की,रसवंती होने की क्या ज़रूरत है भला ,जब वह स्वयम समाज का आइना होने के संकल्प के संग मोर्चे पर बैठी हो.निसंदेह यह संचरित होती है संवेदना से या  फिर अनुभूति से.ये विचार मेरे मानस में तब आए,जब में अपने अनुज् सम  युवा कवि विमलेश त्रिपाठी का कविता संग्रह ‘एक देश और मरे हुए लोग ‘पढ़ रहा था.

विमलेश दरअसल विपुल लेखन के लिये तत्पर कवि हैं.उनकी प्रतिभा में यह शामिल है कि वह जगह जगह पर कविता के बिंदु देख लेते हैं और उन बिन्दुओं को इस तरह से फैला देते हैं की उन्हें जोड़ने पर एक मुकम्मिल भाव चित्र बनता है.ज़ाहिर है यह जागती संवेदना के बिना मुमकिन नहीं,बिना काव्य विवेक के संभव नहीं.बिना अपनी अर्जित भाषा के भी संभव नहीं .पुस्तक के फ्लेप पर डॉ.नामवर सिंह ने उनके बारे में कहा भी है.’.यह कवि अपने भाषिक सरोकार के जरिये अच्छी कवितायेँ लिखने में सफल हुआ है ‘|अगर कवि से ही जाना जाये की उसके लिये कविता लिखने का क्या मतलब है तो वह बताते हैं –

महज लिखनी नहीं होती हैं कवितायेँ
शब्दों की महीन लीक पर तय करनी होती है एक पूरी उम्र
ज़मीं में धसकर कुछ नम  कतरे लाने होते हैं .

कविता संग्रह की कविता को यदि हम जीवन के वैविध्य के आलोक में गुनेंगे तो पाएंगे इनके सरोकार मुक्तिबोध की प्रयोगशील,और प्रगतिशील कविता से मेल खाते दिखाई देते हैं जो एक काव्य परंपरा के विस्तार का आशाजनक पड़ाव है.

एक देश जहाँ मुर्दे लोग सबसे अधिक ताकतवर
जिन्दा लोगों को भेजा जा रहा जेल
चढ़ाया जा राहा सूली पर ,,

मुक्तिबोध को याद करते हुए ही उनकी एक कविता है जिसमे एक अदभुत कवितांश है ..

‘चलो कह रहा हूँ की मेरा नाम विमलेश त्रिपाठी
वल्ड काशीनाथ त्रिपाठी है
और मेरे होने
और ना होने से कोई फर्क नहीं पढना तुम्हे .
   हम जिस वातावरण में जीवन जी रहे हैं वहां सब सुभीता ही सुभीता नहीं है .

पूरे जतन और मेहनत करने के बावजूद मंजिल नहीं मिलती.साधन नहीं मिलते,तो ये ना माना जाये कि ये भाग्य या नियति का खेल है .कम से कम कवि तो इस विचार का हिमायती नहीं होता.वह गुस्सा प्रकट करता  है ,खीजता है क्षुब्ध होता है.यह आवाज़ वस्तुतः कई बेवाशों की आवाज़ होती है.

कुछ भी ना कर पाने की बेवशी के समय में
में तंग आकर लिख रहा हूँ  कवितायेँ
जैसे की बक रहा हूँ  गलियां

ऐसी अनेक वक्रोक्तियों के जरिये विमलेश की कविता अपना मारक असर छोड़ने में कामयाब होती हैं .नागार्जुन ने कभी इस शैली का प्रयोग अपनी कविता में किया और वे नारों की तरह साहित्य जगत में स्वीकार की गयीं .जब कवि जन के हितरक्षक की तरह सामने आता है तो वह कविता के माध्यम से राजनीति की मदद करने की ज़रूरी pahal करता है ,,एक कवि को अंततः अपनी पक्षधर ता  स्पष्ट करना ही होती है ..वार्तोल्ट ब्रेख्त के शब्दों में कहें तो बुरी ख़बर के प्रति सजग रहना ही होता है,दरअसल यह कविता ही राजनीतिक कविता होती है जिसमे प्रतिरोध का स्वर साफ और तेज हुआ करता हैं.विमलेश ऐसा कर रहे हैं..

विमलेश के अंतःकरण की पड़ताल करना एक मुश्किल कार्य है उस से भी अधिक मुश्किल उनकी कविता की रेंज को ठीक ठीक बयां करना क्यूँकि वह चारों  और सोचते हैं.एक ही कविता के अन्तः शिल्प में बहुआयाम दिखाई देते हैं.उनकी कविता में गद्य अवश्य है लेकिन गद्यात्मकता नहीं.उनकी रचना अक्सर  एक आकर्षक  शिल्पमें ढली सन्देश प्रकीर्ण करती हुई कविता होती है. स्वानुभूति को तात्कालिक रूप से दर्ज की गई इस रचना की ताकत ही यही है की वहां नितांत ताजगी होती है.यहाँ पश्चातवर्ती छैनी का कोई काम नजर नहीं आता.विचार् प्रधान कविता ऐसी ही होती है.

भरोसा रखना इस देश के करोड़ों लोगों पर
जो सब कुछ सहकर भी रहते हैं जिंदा
सहेजते हैं एक एक शब्द
और जीते रहते हैं सदियों छोटे छोटे तर्कों के सहारे.

मनुष्य को सबसे अधिक प्रीति, अपने दुखों और सुखों से होती है .अपने दुखों के लिये वह एक हमदर्द की तलाश में रहा करता है.अपनी खुशियों के वक्त उछलता उसका मन चाहता है की कोई निश्छल मिले जो उसकी ख़ुशी में शामिल हो जाये.कोई मिले जो उसके संघर्ष के वक्त उसके कंधे पर अपनेपन का हाथ रखे रहे.यह सब मिलना एक दुर्लभ संयोग ही होता है .परन्तु. एक चीज़ ऐसी है जो मनुष्य के लिये ऐसी शक्ल में उपस्थित होती है वह है कविता..|इसीलिए तो कविता की प्रासंगिकता कभी कम नहीं होती,कवि संयोगवश अनेक स्थितियों को अपनी कविता में कहता है जो सबको अपनी सी प्रतीत होती है.

उन्होंने हर बार मेरी छाती पर छुरियां चलाई
हर एक जगह बेरहमी से क़त्ल किया.
और हर बार  मेरा सच उनकी झूठ को पराजित करता रहा.

विरोधाभासी शब्दों के साथ  कविता का गठन भी विमलेश की एक दीगर खासियत है.- में उस से सच बोलता /और उसके पास पहुँचते ना पहुँचते वह झूठ में बादल जाता ..../

कविता संग्रह् की अधिकांश कवितायेँ आसां और संप्रेषित होने वाली हैं दिखने में आसान ये कवितायेँ अर्थ निर्मिती के लिहाज से आसान नहीं है.इनमे मनुष्य जीवन की जटिलताओं की बयानगी है.इनमे विद्रूप का चित्रण है इनमे सोजन्य का सन्देश है ,कोमल अनुभूतियाँ हैं,और एक बड़ा सोच है जिसकी उम्मीद एक कवि से ही की जाती है .

इस संग्रह की एक लम्बी कविता ‘पागल आदमी की चिट्ठी’ ध्यातव्य है,इसमें कवि की संवेदना का और कवित विवेक का उच्च स्तर देखते ही बनता है.

पागल आदमी की चिट्ठी में
संविधान नहीं लिखा होता.
इस देश के सबसे बूढ़े आदमी का नाम लिखा होता है.
जिसे किसी सरफिरे ने तीन गोलियां दागीं थीं
और जिसे लोग इस देश का राष्ट्र पिता कहते थे.

संग्रह की कविताओं को पांच  हिस्सों ,इस तरह में,बिना नाम की नदियाँ ,दुख-सुख का संगीत,कविता नहीं ,और ,एक देश और मरे हुए लोग. जैसे उपशीर्षकों में वर्गीकरण पाठक के लिये एक सुविधा ही है.इनमे कवि का अन्तरंग और बहिरंग अलग अलग और एक साथ भी पढ़ा जा सकता है.देखी जा सकतीं है कल्पना शीलता ,भाषा के साथ प्रिय सा खिलंदड पन और, उन अनुभूतियों की साझेदारी जो एक आम आदमी के जीवन से अक्सर गुजरती है.

कवितायेँ क्या हैं ...
यदि उस दिन के लिये नहीं हैं
उस झुटपुटे अँधेरे के लिये नहीं हैं
और उस टूटे कोने के लिये नहीं हैं.

पाब्लो नेरुदा की ये पंक्तियाँ कविता होने की कुछ शर्तें निरुपित करती हुई बहुत सी कविताओं की कसोटी भी तय करतीं हैं ..उनमे विमलेश की कवितायेँ भी खरी उतरतीं हैं.क्यूंकि अधिकतर कवितायेँ उस दिन का ही ज़िक्र करतीं हैं,उस अँधेरे के लिये और टूटे कोने के लिये हैं.जो मानवता के लिये बाधा कारक हैं.

पिछले कुछ दशकों में कविता में जो बदलाव आए,उनके लिये आधुनिक परिश्तिथियाँ,बाजारवाद,उपनिवेशवाद,आतंकवाद ,आदि जवाबदार रहे.यही वजह रही की कविता की बनावट और बुनाबट में भी परिवर्तन आया और उसकी पहुँच सौद्देश्य बनी.हलाकि ये बहस भी बनी रही कि,कविता ने छंद से मुक्ति पाकर बहुत कुछ खोया भी है.लेकिन ये बेमानी रही आई. क्योंकि आरम्भ से अब तक कविता बंधन मुक्त   होने की राह पर ही चलती रही है..और आज हमारे पास निराला,मुक्तिबोध,त्रिलोचन,नागार्जुन,कुंवरनारायण ,राजेश जोशी,अरुणकमल,मंगलेश डबराल,कुमार अम्बुज,पवन करन,सहित अन्य समकालीन कवियों की कविता की समृद्ध विरासत है.जिस तरह से युवतम कवियों की दीरघा  में विमलेश की कविता रेखांकित हो रही है,तो एक आश्वस्ति है कि वह इस विराट में अपना ठिकाना बनायेंगे और वो ठिकाना  लंबे समय तक अपने अनूठे सृजन के वास्ते आलोकित  रहेगा.  पर ये भी कहना होगा किइस संग्रह की कविताओं में अगर  विमलेश बाजवक्त उद्विग्नता प्रकट करते हुए,अपने सुख दुःख की अन्तरंग बात करते हुए,गहन चिंता करते हुए कवि लगते हैं.तो कभी कभी सपाट तौर पर भी अपनी बात कहते हुए किसी सौन्दर्य को उसमे जड़ने की कवायद नहीं करते. फिर भी प्रांजल और वेगवान कविता के लिये मुमकिन है विमलेश को कालांतर तक याद रखा जाये.

में जिंदा रहूँगा
असंख्य वर्षों तक
अपने हाथों में स्याही से भरी कलम थामे

संग्रह में  कुछ कवितायेँ और हैं जिन्हें हर एक पढ़कर रोमांचित होगा..’आजी की खोई हुई तस्वीर मिलने पर.,’तुम्हे ईद मुबारक..’’बहनें,’’घर.’’हम बचे रहेंगे.

इस वक्त युवा कविता ने अपनी एक आकाश गंगा की स्थापना अपने मौलिक लेखन के दम पर कर ली है,कहा जा सकता है की विमलेश की कविता उसका ख़ास हिस्सा है.|उनकी आगामी कविताओं के लिये इंतजार किया जाना चाहिए.
***
ब्रज श्रीवास्तव
233,हरिपुरा,विदिशा म.प्र
पिन ;४६४००१
मोब/9425034312

Wednesday, August 27, 2014

तीसरी बेटी का हलफ़नामा व अन्‍य दो कविताएं - सोनी पांडेय



सोनी पांडेय उन कवियों में हैं, जिनसे मैं फेसबुक पर मिला। वहां उनके बारे में बस इतना जाना कि वे गृहिणी हैं, शिक्षण कार्य करती हैं और गाथान्‍तर नाम से एक पत्रिका सम्‍पादित व प्रकाशित कर रही हैं। दरअसल जिसे 'इतना' कहा उसमें एक आम भारतीय स्‍त्री के जीवन का आख्‍यान है। गृहिणी को गृहस्‍थी और आजकल आम हो चुके शिक्षकीय रोज़गार से बाहर निष्क्रिय या उदासीन मान लिए जाने का गुनाह समाज में आम है - जिसमें भीतर कहीं उसे 'निष्क्रिय या उदासीन' कर देने का गूढ़ार्थ भी उपस्थित है। हमारा समाज जीवन शैली के बदलावों के बावजूद अपनी दाग़दार आत्‍मा में आज भी कमोबेश वही पुराना समाज है - समाज की आत्‍मा से इन दाग़ों को मिटाने के अकादमिक विमर्शवादी प्रयास ख़ूब चलते हैं लेकिन इनके विरुद्ध भीतरी उजास पैदा करने वाली शक्तियों की शिनाख्‍़त उतनी ही कम होती है या कभी जानते-बूझते छोड़ भी दी जाती है। हमारा लेखकीय समाज इसी वृहद् समाज के भीतर अपनी तमाम आधुनिकता के बावजूद उसी का अनुकरण करने वाला एक सीमित दायरे वाला समुदाय भर साबित हुआ है। सोनी पांडेय की कविताएं मुझे मिलीं तो मुझे उस भीतरी शक्ति का अहसास हुआ, जिसका मैंने उल्‍लेख किया। समाज के भीतर एक दायरे में रहने के वचन निभाते हुए भी उसका रचनात्‍मक अतिक्रमण कर जाने का दृश्‍य निश्चित रूप से एक सुखद और आश्‍वस्‍त करने वाला दृश्‍य है। यहां अपने जीवन की तरह ही संघर्ष करती सादा कविताएं लिखी जा रही हैं, एक स्‍वप्‍न का प्रकाशन पत्रिका के रूप में हो रहा है - रोज़मर्रा के काम में लगी एक स्‍त्री बहुत सादगी से अपने आसपास के पार‍म्‍परिक जीवन को खंगालती हुई उसे चुपचाप बदल दे रही है। यह निजी लगती कार्रवाई किसी सामाजिक आन्‍दोलन से कम अहमियत नहीं रखती। मैं इन कविताओं के लिए आभार व्‍यक्‍त करते हुए अनुनाद पर सोनी पांडेय का स्‍वागत करता हूं।   
*** 
बेटी का हलफ़नामा
 
1.
 
मैं जानती हूँ
वो रात अमावस थी
अम्मा के लिए ,
आपके लिए प्रलय की थी
जब में आषाण में
श्याम रंग में रंगी
बादलों की ओट से
गिरी आपके आँगन में ।

माँ धंसी थी
दस हाथ नीचे धरती में
बेटी को जन कर
बरसे थे धार धार
उमड़ घुमड़ आषाण में
सावन के मेघ
अम्मा की आँखों से
कहा था सबने
एक तो तीसरी बेटी
वो भी अंधकार-सी
और मान लिया आपने
उस दिन से ही
मुझे घर का अंधियारा
मनाते रहे रात दिन
तीसरी बेटी का शोक।
***

2.
 
माँ ने विदा करते समय
मेरे आँचल के छोर पर
तीन गाँठ बाँधे थे
कहा था
पहला तुम्हारे पिता का सम्मान है
दूसरा भाई का मान है
तीसरा बेटी मेरी लाज
जिसे बचाना
बना लेना छाती को वज्र
मार देना इच्छाओं को
सह लेना अनगिनत
अनिच्छाओं को
खोलना मत ये गाँठ
रहते जीवन तक
और बडी जतन से
मैं आज भी रखती हूँ
माँ की तीन गाँठों को
माँ की थाती को
***
3.
 
माँ मुझे याद है
जब तुमने रातों-रात
सिली थी सफेद झालरों वाली
फ्रॉक
ताकि स्कूल में मैं बन सकूँ नन्हीं परी सिन्ड्रेला
मेरे घने बालों में बाँधते हुऐ सफे़द रिबन तुम्हारे आँखों से
बरसा था दो बूँद अमृत
गिरा था मेरे ओंठों पर
और तब मैंने जाना था
उसका स्वाद नमकीन होता है
मुझे याद है आज भी जब मेरा रंग आडे़ आता था
तुम करती थीं यत्न गढ़ने का सिन्ड्रेला की कहानी
और बडे जतन से पहनाती थीं
सफे़द झालरों वाली फ्राक
तुम दिलाती रही तब तक मुझे
यक़ीन की तुम्हारी सांवली परी
सिन्ड्रेला है
जब तक मुझे एहसास न हुआ
कि रंग ढक देता है गुणों को
और आँखों की बरसात का
स्वाद कसैला भी होता हैँ
***
अन्‍य दो कविताएं

1.
 
मेरे घर के सामने की सड़क
जाती है ,
मन्दिर .मस्जिद, गुरुद्वारे और
गिरजाघर तक
जहाँ से मुझे केवल एक आवाज सुनायी देती है
सुनो !
गीता . कुरान , बाईबिल और
गुरुग्रन्थ से एक ही धुन निकलती है
जिसका भाव अर्थ केवल मनुष्यता है
जिसका एक लक्ष्‍य केवल मनुष्यता है।
ये सडक़ मिलती है
अस्पताल , कब्रगाहों और मशानों से
ये सड़क रौंदी जाती है सफे़द पोशों के जूते की धमक से
ये सड़क जहाँ भागती है ज़िन्दगी
जहाँ जागती है
ज़िन्दगी
अब खो रही है अपना वजूद
मूक वेदनाओं का इतिहास समेटे
मर रही है
जो जोडती थी शहर दर शहर
मनुष्य को मनुष्यता से ।
***
 
2. 
 
तुम जब - जब
मुझमें खजुराहो का शिल्प
तलाशोगे
मैं पाषाण प्रतिमा की तरह निर्विकार ही नजर आऊँगी
और तुम शिल्पकार की तरह
सदियों से अपने पौरुष के दंभ की छेनी हथौडी लिए
उकेरते रहोगे
अर्थहीन मौन
जिसमें केवल कला पक्ष होगा
भाव पक्ष समाधिस्थ
***

Sunday, August 24, 2014

अरुण देव की कविताएँ



समकालीन अच्‍छे दिनों की निरर्थकता के बरअक्‍स नए दिनों की स्‍थापना देते ये कवि साथी अरुण देव हैं। उनकी कविताएं बताती हैं कि अपने नज़दीक को ठीक से न देख पाने वाली दूरदृष्टि में भी दोष होता है। कविता-दर-कविता, हर कविता में आपको एक थॉट प्रोसेस मिलेगी, जिसका आज की हड़बड़ी में सिरे से अभाव है – कुछ ही कवि हैं, जो चमकदार शिल्‍प अथवा चमम्‍कृत कर सकने वाली सूक्ति के लोभ से उदासीन रहकर एक समूची विचार-प्रक्रिया का निबाह अपनी कविताओं में करते हैं, अरुण उन प्रिय कवियों में एक हैं। मैं प्रस्‍तुति-टिप्‍पणी के नाम पर यहां इन पांच कविताओं की व्‍याख्‍या कर देने का गुनाह नहीं करूंगा, ख़ुद मेरा यक़ीन है कि कविताएं व्‍याख्‍या नहीं मांगतीं – व्‍याख्‍याओं से संसार के महानतम काव्‍य को बरबाद करने देने के उदाहरण हमारे सामने हैं। कविताएं साथ मांगती हैं – संवाद मांगती है, और यही वे पाठकों को देती भी हैं। अरुण देव ने अपनी ऐसी ही आत्‍मीय कविताएं अनुनाद को उपलब्‍ध कराईं, इसके लिए मैं उन्‍हें शुक्रिया कहता हूं।
  *** 

१. घड़ी के हाथ पर समय का भार है



घड़ी के हाथ पर समय का भार है

कभी कभी इतना भारी हो जाता है समय

कि घड़ी सुस्त चलना चाहती है



चाहती तो है दुर्दिन में तेज़ चलकर उस पार निकल जाए
जहाँ बेहतर दिन न सही

कम से कम काट लेने लायक रातें तो हों



अच्छे दिन किसे कहते हैं और बुरे में कितना बुरा है
घड़ी सोचती तो है
 
हर सुबह वह उठाती है कि यह लो
  नया दिन
और



अब हुई रात
समय में जैसे ठहरा हुआ एक दूसरा ही समय



घड़ी साज़ की आँखों में इतिहास पढना चाहिए
तटस्थ


उसकी आँख  में दबे लेंस से कुछ भी नही बचा  रहता
घड़ी को समय के साथ रखता है

कि बताता हुआ काली रात के बाद भी एक सुबह होती है


घड़ी के डायल पर समय का पानी
और समय का ही अपना रेत बनाते हैं एक अनवरत नदी

समय की नदी में
बहुत कुछ बह जाता है
रेत की तरह उसके किनारे पर समय के कण बिखरे रहते हैं

घड़ी समय को बदलती तो नही
पर समय के हिसाब चलती भी नहीं
और यह

ऐसे समय में

और यह  ऐसे वैसे  समयों में


कितनी राहत की बात है.
***



२.दृष्टि दोष



मेरी आँखों का लेंस धुधंला पड़ गया है

उस पर एक ही चीज  बार बार देखने की ऊब है.


उस पर जब गिरती है

झूठ के चमकीले पैरहन में लिपटी हुई तेज़ रौशनी

 
वह कहना चाहती है प्लीज
मुझे माफ करे

अश्लीलता और कृतघ्नता के मटमैले प्रकाश में

वह अपने को झुका लेती है 




चीखों को सुन उसका फैलना

दरअसल उसे ठीक से समझ लेने की ही उसकी एक कोशिश है
जब सूखने लगती है
आंसुओं से भर लेती है 

सूखे तालाब में छटपटाती मछली 
को जैसे मिल जाए जल




उसे देखना था हरी घास, चिड़िया, बच्चे  और ढेर सारी खुदमुख्तार औरतें 

पर जले हुए जंगल
पक्षियों के नुचे हुए पंख
कुपोषण के शिकार बिलबिलाते बच्चे
और पेड़ों से लटकी औरतों की लाशें  दिखती हैं



तब उसकी आँखों का बचा हुआ प्रकाश भी  कालिमा में बदल जाता है
क्या देखे
और यही सब कितनी बार देखे
और कब तक देखे

और यह देखते रहना भी
तो तोड़ता है अंदर से
तभी तो लेंस में समय का कचरा इकठ्ठा होता जाता है

नजदीक को ठीक से अब तक न देख पाने की विवशता में 
धीरे
-धीरे क्षीण पड़ने लगती है उसकी  दूर देखने की दृष्टि.
***



३.कामनाएं
 
सुबह ने सूरज से माँगा है आज का दिन

तुम्हारे लिए

आज की रात नही होगी



तुम्हारी भौहों पर घनी धूप है

तुम्हारे सीने पर आ बैठी हैं कुछ रंग- बिरंगी तितलियां



तुम्हारे होठों से

हंसी की धार बहती रहे अनवरत

मुस्कान का लाल रंग न कुम्भलाए कभी

नहाते वक्त भी न टूट कर गिरे तुम्हारे बाल



रेंगनी पर सूखते तुम्हारे शर्ट की जेब में

सूरज ने रख दिया है सुखों का पर्स



लहलहाते गेहूं से भरे खेतों के अनाज की ताकत

तुम्हारी धमनियों में अंकुरित होती रहे



तुम्हारे घर के सहन में हंसी के फूल खिले हैं

अपनी हंसी का जल इसमें डाल देना



घर

तुम्हारे साथ ही तो घर है

जिसमें कोई रोज़ शाम तुम्हारे लौटने का इंतजार करता है. 
(श्री मनोज भटनागर के लिए)
***

 

४.हमारे बीच




ओ ! समय



हम दोनों के होठों के बीच समय की एक महीन पपड़ी है

जब उघड़ती है खून छलक जाता है



होठों ने लिखें हैं अनगिन प्रेम पत्र तुम्हारी पीठ पर

मैंने किसी पेड़ की छाल पर कभी नहीं लिखा तुम्हारा नाम

उसकी त्वचा होगी लहूलुहान



मैं इंतजार करूंगा अपनी ज़बान के असर का कि

खुद टहनी का हरा पत्ता बन जाओ तुम

और फिर उसमें खिलने का इंतजार करूँ मैं

तुम्हारे बीच से, तुमसे ही, तुम्हारा



जब उठता हूँ अपनी जड़ों पर तुम्हारे हंसी के बिखरे फूलों को पाता हूँ



लम्बे सफर से लौट कर आयी हो

आओ सवार दूँ तुम्हारे केश

दबा दूँ तुम्हारे पाँव

तुम्हारे होठों को अपने होठों से छू लूँ

कही छलक न जाए खून



इस पर थोड़ी वैसलीन लगा लो

और गुनगुने पानी में रख लो अपने पैर

उतर जाएगी थकान

तब तक तुम्हारे लिए मोबाईल पर लगाता हूँ आबिदा का कोई गाना



इस तरह समय को थोड़ा खुरच देंगे हम

थोड़ा मुलायम

कि दो होंट आपस में बातें कर सकें.

***




५.अप्प दीपो भव


यह प्रकाश

तुम्हें बचाए रखेगा



अँधेरे से .

***


   
पता :   5, हिमालयन कालोनी (नहर कालोनी)

        नजीबाबाद, बिजनौर (उ.प्र), 246763

            मोब.- 09412656938 / ई.पता- devarun72@gmail.com     

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